Tuesday 18 June 2013

नेता जी – गिरिजेश




नेता जी कितने चाईं हैं, बातें बड़ी-बड़ी करते हैं; 
जनता की सेवा करने को मुँह से ही जीते-मरते हैं। 

दुबली-पतली सड़क बनी थी, जिसमें गड्ढे बड़े-बड़े थे;
आते-जाते गाड़ी में भी हिचकोले लगते तगड़े थे।

नेता जी ने प्लान बनाया, विश्व-बैंक से कर्जा लाया; 
बिना किसी के सिखलाये ही पहली किश्त दलाली खाया।

सड़कें गड्ढा-मुक्त कराया, विज्ञापन दे कर दिखलाया;
फ़ाइल पास कराने ख़ातिर दस परसेन्ट कमीशन खाया।

मगर हुई बरसात अभागी, सड़कों ने सुन्दरता त्यागी;
बरसाती मेढक का साथी, एक-एक गड्ढा फिर उग आया।

सड़क किनारे की मिट्टी भी नेता जी ने खुदवा डाली;
और सड़क की दोनो पटरी पर भी दलदल बनवा डाली।

कीचड़-काँदो, धक्का-मुक्की, गड्ढे भरे हुए पानी से;
रामभरोसे चले जा रहे, सबसे लड़ते आसानी से।

तभी बगल से नेता जी की टाटा-सूमो गाड़ी आयी;
दुबली-पतली सड़क टक्करों की खातिर अनुकूल बुझाई। 

भाग न पाये रामभरोसे, उनकी अब तो शामत आयी;
उनके इकलौते कुर्ते ने बेमौसम होली खेलवायी।

टाटा-सूमो का चक्का भी गड्ढे में घुस कर गुर्राया;
मगर नहीं वह पूरी ताकत लगा-लगा कर भी बढ़ पाया।

तड़ से उसकी मजबूती की असली कथा सामने आयी;
नीचे वाली बड़ी कमानी टुकड़े चार हुई, चर्रायी।

रामभरोसे गुर्राते थे, नेता जी भी खिसियाते थे;
रामभरोसे तो नेता जी को ही दोषी ठहराते थे।

मित्र, आज़मगढ़ में ऐसे तो सभी की सभी सड़कों की दुर्गति है. ग्रामीण क्षेत्रों में तो और बुरा हाल है. मगर नगर में इस मामले में एक सबसे बदनाम मोड़ है. उसका नाम है बिलरिया की चुंगी. उसके आगे एक किमी. तक लछिरामपुर तक आज़मगढ़ के सबसे बड़े-बड़े डाक्टरों की मंडी है. और इस सड़क का आलम अक्षरशः वही रहता है, जो मैंने बयान किया है. बिलरिया की चुंगी के मोड़ के पूरबी कोने पर वह मनहूस गड्ढा भी दशकों से वैसे ही बार-बार दुर्घटना होने पर भी बरकरार बना हुआ है. इस सड़क पर मैंने खुद दो दशकों तक हर बरसात में अपनी साइकिल से आते-जाते बेतहाशा दुर्गति झेली है.

अगर सभी डॉक्टर ही चाह लेते, तो आपस में चन्दा करके भी इस सड़क को सुधार सकते थे. मगर मजबूरी में बीमार पड़ने पर और इनके फन्दे में फँस जाने पर तरह-तरह से आज़मगढ़ के ग़रीब इन्सानों की ज़ेब काट कर केवल अपनी कोठी, कार और सम्पत्ति बढ़ाते रहने तक ही इन सभी का सामाजिक सरोकार है.

इस खड़बड़हे रास्ते से अगर स्वस्थ आदमी भी गुज़र जाये, तो निश्चित तौर पर उसका कोई न कोई जोड़ करक जायेगा. और बीमार का क्या हाल होता है - इसकी कल्पना बड़ी ही आसानी से की जा सकती है. मगर केवल बार-बार निवेदन और धरना-प्रदर्शन करने से इस लूट-तन्त्र में किसी भी लुटेरे के कान पर तब तक जूँ नहीं रेंगेगी, जब तक कस कर कान उमेठने के लिये ज़िद्दी आज़मगढ़िये बज़िद नहीं हो जाते.

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