Sunday 31 May 2015

____कथा धनतन्त्र द्वारा अन्नदाता किसानों के नरमेध की ___ - Vinay Sultan


यह जीवन-संग्राम की रिपोर्ट है और खून के आँसुओं से लिखी गयी है.
मैं इसे वर्ड में सेव कर रहा हूँ और यंग आज़मगढ़ ब्लॉग में सुरक्षित कर रहा हूँ.
ताकि उन सब युवा साथियों को भी पढ़वा सकूं, जिनको नेट उपलब्ध नहीं है.
कृपया आप भी इस रिपोर्ट की सभी किश्तों को सेव करें.
अपने मित्रों तक पहुँचाने में मदद करें.

सुसाइड नोट : दिल के दौरों और सरकारी दौरों के बीच….
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इस बीच praxis के रिपोर्टर विनय सुल्तान ने तीन राज्यों की यात्रा कर किसान आत्महत्याओं की असल वजहों की संजीदा पड़ताल करने की कोशिश की है.

डायरी की शक्ल में पिरोई गईं ये रिपोर्ट ‘सुसाइड नोट’ नाम से सीरिज में पाठकों के सामने रखी जा रहीं हैं. ये राजस्थान के हाड़ौती अंचल से सीरिज पहली कड़ी है…

  – संपादक 

Suside Note
उत्तर भारत में विज्ञान विषय से 12वीं कक्षा में पढ़ाई कर रहे हर छात्र और उसके माता-पिता एक शहर के नाम से जरुर परिचित होते हैं. वो शहर है कोटा! कोटा में हर साल लाखों छात्र प्री-मेडिकल और आईआईटी प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी के लिए आते हैं.
और यहीं चम्बल के किनारे मौजूद कोटा थर्मल पावर प्लांट पूरे सूबे की ऊर्जा की भूख भी शांत करता है.
हाड़ौती की सांस्कृतिक राजधानी कोटा, राजस्थान के सबसे अधिक उपजाऊ क्षेत्रों में एक है. और यहाँ की सांस्कृतिक दखल भी देशी विदेशी पर्यटकों को अपने पास बुलाती रही है. यहाँ दशहरे का मेला विदेशी पर्यटकों के भी आकर्षण का केंद्र रहा है.
लेकिन कोटा इस बार एक दूसरी वजह से सुर्ख़ियों में था. 15 तारीख को हुई ओलावृष्टि के बाद से 15 दिन में 30 से ज्यादा किसान, आत्महत्या या फिर दिल के दौरे के कारण मारे गए थे.
दिल्ली में 30 मार्च को कोटा में 19 किसानों की आत्महत्या की ख़बर पढ़ने के बाद मैंने कोटा जाने फैसला किया. जिससे वहां जा कर किसानों के हालात और उनके फ़स्ट हैण्ड एक्सपीरियंस को दर्ज किया जा सके.
रबी की फसल सिंचित क्षेत्र के किसानों के लिए ‘पिता का कंधा’ होता है. खरीफ़ की फसल खराब होने पर भी किसान की हिम्मत पस्त नहीं होती. उसे पता होता है कि चंद महीनों बाद ही उसके खेत में गेंहूं की सुनहरी बालियां होंगी जो सारा कर्जा पाट देंगी.
इस बार पश्चिमी विक्षोभ ने पिता के इस कंधे को तोड़ डाला. एक के बाद एक किसान दिल का दौरा पड़ने से दम तोड़ने लगे. जिनके दिल मजबूत थे उन्होंने ज़हर खा लिया या पेड़ से लटक गए. तो क्या कहानी इतनी सपाट है?
कोई भी त्रासदी दरअसल सिलसिलेवार तरीके से की गई अनदेखियों का नतीजा होती है. आगे की घटनाएं जो आप पढ़ने जा रहे हैं वो कोई कहानी नहीं बल्कि इस बात का बानगी भर है कि कैसे इस देश के खेत ‘हीरा-मोती’ उगलने के बजाए फांसी के फंदे और ज़हर की बोतले उगल रहे है..

मुनाफा जो जानलेवा साबित हुआ….

बूंदी जिले की तहसील केशवराय पाटन का गाँव लाडपुरा.
प्रेमशंकर मीणा प्रताप मीणा का सबसे छोटा बेटा था. उम्र महज 19 साल. आठवीं तक पढाई करने के बाद प्रेमशंकर घर पर खेती-किसानी देखने लगा था.
पिता के 15 बीघा खेत घर खर्च चलाने लायक पैसा नहीं दे रहे थे. लिहाज़ा तीनों भाइयों ने मिलकर 45 बीघा खेत मुनाफे पर 10 हजार रुपये की दर से लिए. 70 हजार रुपये सहकारी और 3 लाख रुपये किसान क्रेडिट कार्ड का कर्ज भी पिता के ऊपर था .
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प्रेमशंकर मीणा के परिजन जिन्हें मुनाफे से ऐसा घाटा नसीब हुआ जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती

भूमि सुधार कानूनों के लागू होने का कोई इतिहास यहां नहीं रहा है. ऐसे में बड़े भूस्वामियों की तादाद यहां काफी अच्छी है.
ये भूस्वामी अपनी ज़मीन छोटे काश्तकारों को लीज पर देते हैं. इसे यहां मुनाफा या जवारा कहा जाता है.
यह व्यवस्था शोषण के मामले में उत्तर भारत की बटाईदारी व्यवस्था का अगला चरण है. इसमें भूस्वामी काश्तकार को निश्चित दर पर साल भर के लिए अपनी जमीन किराए पर देता है.
यहां सात से दस हज़ार प्रति बीघा मुनाफा वसूला जाता है. यह भुगतान साल की शुरुआत में करना होता है. इस तरह खेती में होने वाले जोखिम से भूस्वामी अपने आप को साफ़ बचा लेता है.
प्रेमशंकर 21 तारीख की सुबह खेतो में मोटर के जरिये पानी निकालने गया. ओलावृष्टि के कारण जमा पानी ने 80 फीसदी गेहूं का नुकसान कर दिया था. इसके बाद जो हुआ वो पुलिस रिकॉर्ड में कुछ इस तरह से दर्ज है-

“मृतक प्रेमशंकर पुत्र प्रताप मीणा उम्र 19 साल, निवासी लाडपुरा की लाश की शिनाख्त ओमप्रकाश के जरिये की गयी. लाश प्रताप मीणा के खेत में लसोड़े के पेड़ से कपड़े की रस्सी के ज़रिये लटकी हुई थी. टहनी की ज़मीन से ऊंचाई 10 फीट थी. लाश की रस्सी सहित लम्बाई 6.7 फीट पाई गई. लाश के पैर जमीन से २ फीट ऊपर थे. शरीर पर सफ़ेद रंग का शर्ट और स्लेटी पायजामा है. मुंह बड़ा है, आँखे बड़ी है, जीभ निकली हुई है. गले के चरों ओर रस्सी का गोल निशान है. शरीर पर चोट का कोई निशान नहीं है.”

प्रेम ने फांसी क्यों लगा ली ? प्रताप मीणा बताते हैं

“…उसके 2 बड़े भाई अपने परिवार के साथ अलग रहते हैं. माँ के स्वर्गवास के बाद उसने पढाई छोड़ कर घर का काम संभालना शुरू कर दिया था. सब मिलाकर पिता पर लगभग 8 लाख का कर्ज हो चुका था. ये लगातार तीसरा साल था जब फसल ख़राब हुई थी. मुनाफे का पैसा भी उधार पड़ा था. उसने मेरी मदद के लिए पढाई छोड़ दी. ओले बरसने के अगले दिन ही रात को जाग कर रोने लगा. मैंने समझाया भगवान पर भरोसा रख सब ठीक हो जाएगा. उस दिन सुबह खेत से मोटर में पानी निकालने गया था. पर खराबा देख कर सदमे में आ गया…”

मैं प्रेमशंकर के पिता के सामने बैठ कर सोच रहा था कि क्या आत्महत्या सचमुच कायराना कदम हैं ? मेरे जीवन में ऐसे २-3 मौके आये हैं जब मैंने अवसाद में आकर आत्महत्या करने के बारे में सोचा. इसमें छत से छलांग लगाने जैसे फौरी योजनाएं शामिल थीं.
लेकिन अंततः मेरी हिम्मत ज़वाब दे जाती थी. आत्महत्या के लिए सचमुच जीवन से सख्त, बहुत सख्त घृणा कि जरुरत होती हैं. मैं नहीं कहता कि आपका ऐसा कोई तजुर्बा करें.
इसी बीच एक मूढ़े हुए सिर वाले पांच साल के बच्चे ने मेरी तरफ पानी का गिलास बढा दिया. जब मैंने उससे पूछा कि क्या करना चाहते हो बड़े हो कर? उसका जवाब था कि नौकरी करूँगा शहर में.
CSDS का हालिया सर्वे बताता हैं कि 62 फीसदी लोग गाँव से शहर जाना चाहते हैं, बशर्ते रोजगार का कोई ज़रिया मिल जाये.
बहरहाल मुझे आखिरी में ये जानकारी मिली कि प्रेमशंकर के पिता ने 50 हजार का कर्ज ले कर उसके अंतिम संस्कार कि सभी सनातनी परम्पराओं का निर्वाह किया. उनका कहना था कि अगर वो ऐसा नहीं करते तो समाज क्या कहता?

“मैंने अपनी सत्तर साल की उम्र में लोगों को यूं मरते हुए नहीं देखा….”

बूंदी जिले का चितावा गाँव. मैं जैसे ही महावीर मीणा के घर में पंहुचा, उनके घर की महिलाओं ने विलाप करना शुरू कर दिया. मैंने महावीर की पत्नी को बात करने के लिए बुलाया.
वो मेरे सामने अपनी सास के साथ आ बैठी. लेकिन मेरे किसी भी सवाल का कोई ज़वाब नहीं दिया. न ही वो सामने पड़ी कुर्सी पर बैठने को राजी हुई.
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मेरे लाख कहने के बावजूद वो कुर्सी पर नहीं बैठीं
उनकी माँ रुकमनी बाई बताती हैं कि महावीर के पिता के देहांत के बाद परिवार की सारी ज़िम्मेदारी महावीर के ऊपर ही थी.
कुछ कर्ज पिता सिर पर छोड़ के गए थे. पिता का क्रिया-कर्म, छोटे भाई की शादी ने उसे और बढ़ा दिया था.
50000 सहकारी बैंक , २ लाख किसान क्रेडिट कार्ड और 4 लाख महाजन का कर्ज था. सहकारी ब्याज की मान्य दर 24 फीसदी सालाना है जोकि मजबूरी के आधार पर 120 फीसदी सालाना तक पहुंच सकती है.
17 मार्च शाम 4 बजे 27 साल के महावीर अपने खेतो में मोटर के ज़रिये पानी बाहर निकालने के पाल बना रहा था. अचानक गश खा कर गिर गया.
घरवाले पहुचे तो सीने में तेज दर्द की शिकायत की. खेत से घर लाया गया. घर से अस्पताल के बीच में महावीर ने दम तोड़ दिया.
सरकार ने महावीर की मौत को “प्राकृतिक” माना.
मैंने जब उनकी माँ से इस बारे में पूछा तो उनका कहना था कि “..चारों तरफ किसान सदमे से मर रहे हैं. मैंने अपनी 70 साल की जिंदगी में लोगों को खेतों में इस तरह मरते नहीं देखा.”
महवीर के छोटे भाई विष्णु प्रसाद मीणा ने मुझे बताया कि पिछले तीन साल से उनकी फसल खराब हो रही है. इससे कर्ज का बोझ बढ़ता गया. हर रोज साहूकार सूद के लिए तकाजा करते. हर साल मूल पर सूद और ज़िल्लत बढ़ती जा रही थी. आखिर पैसे देते भी तो कहाँ से ? पिछली बार भी 80 फीसदी नुक्सान हो गया था. घर चलाना मुश्किल हो रहा था.
यह कहानी सिर्फ महावीर की नहीं है. हरित क्रांति के दौर में पूरे हाड़ौती में नहर सिंचाई परियोजना की शुरुआत हुई. इसके बाद किसानों को धीरे-धीरे नकदी फसलों की तरफ धकेला गया. रासायनिक खाद का जम कर प्रयोग किया गया.
इस पूरी प्रक्रिया में पारंपरिक फसलों और फसल चक्र की बुरी तरह से अनदेखी की गई. फास्फोरस जैसे कई हानिकारक रासायनिक तत्व मृदा में संतृप्तता के स्तर पर पहुंच गए.
नतीजा यह हुआ कि यहां बड़े पैमाने पर बोई जाने वाली सोयाबीन के बीज मिट्टी में मिट्टी बन कर रह गए. यहां लगातार तीन साल से खरीफ़ की फसल में किसानों को नुकसान झेलना पड़ा है.
ऊपर ‘नकदी फसलों की धकेलने’ का जिक्र हुआ है. इस पूरी प्रक्रिया को समझाना जरुरी है.
वर्ष 2012 में ग्वार की फसल जोकि 1500 से 2000 के बीच में बेचीं जाती थी उसके भाव चढ़ते-चढ़ते नाटकीय रूप से 40,000 रूपए पर पहुंच गए. हालांकि मुझे एक भी किसान ऐसा नहीं मिला जिसने 6000 हजार से अधिक में ग्वार बेचा हो.
साफ़ तौर पर ये सारा खेल कलाबाजारियों का था.
इसका असर ये हुआ कि अगले साल से पूरे पश्चिमी राजस्थान में इस फसल का रकबा तीन गुना बढ़ गया. बीज के दाम दोगुने हो गए. अभी हरियाणा में कपास में मामले में यही देखा जा रहा हैं.
जिस साल बीटी बीज बाज़ार में आए उस साल कपास को 8 हजार के भाव मिले. अगले साल बीज को लेकर खूब मारामारी हुई. आधे से ज्यादा नकली बीज बेच दिए गए . भाव 8 हजार से गिर कर चार हजार पर आ गए.
आपने बचपन में भूगोल की किताबों में पढ़ा होगा कि किसी फसल को किस किस्म की मिट्टी और वातावरण चाहिए. अगर दिमाग में वो कूड़ा अब भी मौजूद है तो उसे साफ़ कर डालिए. दरअसल किस क्षेत्र में क्या फसल बोई जानी हैं ये भौगौलिक परिस्थियों की बजाए स्थानीय मंडिया तय कर रही हैं.
इस दौरान महावीर की बीवी लगातार रोती रही. अंत में उनके मुंह से एक पंक्ति फूटी “अगर अब सरकार ने मदद नहीं की तो हम कही के नहीं रहेंगें. मेरे तीन बच्चे हैं मैं उनका पेट कहाँ से भरूँगी. ”
रुकमनी बाई ने मुझसे कहा कि मैं जा कर ‘सरकार’ से उनकी सिफारिश करूँ. उनके लहजे से लग रहा था कि उस 72 वर्षीय वृद्धा की नज़र में सरकार जरुर कोई आदमी हैं. पास ही महावीर का सबसे छोटा भाई ‘राजा वन वीक सीरिज’ के जरिये आने वाले परीक्षा की तैयारी में जुटा हुआ था.

सरकारी मुआवजे से क्या हम चिड़िया का घोंसला बनाएंगे?

चितावा से निकलकर बूंदी के कापरेन तहसील के गाँव ठिमली पंहुचा जहाँ 29 मार्च को वित्तमंत्री अरुण जेटली ने दौरा किया था. यह एक हवाई दौरा था.
मुझे वो अस्थाई हैलीपेड देखने का सौभाग्य भी मिला जिसके ऊपर उनका हैलीकोप्टर उतरा था. इसमें राज्य सरकार के मंत्री भी शामिल थे. दौरे के बाद वो गाँव वालों से मिले.
वित्तमंत्री ने पत्रकारों को बताया कि उन्होंने आज तक ऐसी तबाही नहीं देखी.
उन्होंने गाँव वालों को आश्वासन दिया कि वो मुख्यमंत्री से ज्यादा से ज्यादा मुआवजा देने कि सिफारिश करेंगे.
मैंने ठिमली जाते वक़्त खेत में गेहूं की बालियों को लेटे हुए देखा. ठीमली जाकर जब वित्तमंत्री जी के हवाई दौरे की बात सुनी तो समझ में नहीं आया कि मंत्री जी ने इतनी ऊंचाई से 12-18 इंच लम्बी बालियों का हाल कैसे जान लिया होगा?
दूसरा जब मुआवजे की राशि केन्द्रीय वित्त मंत्रालय के जरिए ही आवंटित की जानी है तो मुख्यमंत्री को सिफारिश करने की बात से माननीय मंत्री का अभिप्राय क्या था?
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ओलों की शिकार छत

ठीमली गाँव मुख्य सड़क से कुछ इस तरह से कटा हुआ है कि अपने आप में ही जमीनी टापू बन गया.
लोग बताते है कि डिलीवरी केस में लोगों को महिला को खाट पर लेटा कर ले जाना पड़ता हैं.
2 साल में यहा 3 महिलाओं की मौत डिलीवरी के दौरान हॉस्पिटल ना पहुंच पाने की वजह से हो गयी है.
पूरे गाँव में सिर्फ एक घर गुर्जर समुदाय का है बाकी सभी परिवार अनुसूचित जाति-जनजाति के हैं. लिहाजा एक भी घर पक्का घर नहीं हैं.
घरों की छत देखने पर लगता हैं कि जैसे इसे क्रेशर से चकनाचूर कर दिया हो. सीमेंट के शेड चलनी की शक्ल ले चुके थे. गाँव वाले बताते हैं कि यहाँ संतरे से दोगुने आकर के ओले गिरे थे.
70 साल कि एक वृद्धा बताती  है” हम खाट के ऊपर बिस्तर डाल के उसके नीचे छिप गए थे तब जा कर जान बची. हम दो दिन तक डरते रहे कि कहीं फिर से ओले न गिर जाए हम कहाँ जाएँगे”.
मैं टूटे घरों के फोटोग्राफ ले ही रहा था कि अचानक घूँघट में एक महिला ने मुझ पर चिल्लाना शुरू कर दिया था. वो हाडौती में लगातार बडबड़ाती रही. जो मैं समझ पाया उसके अनुसार मुझे उस गाँव से निकल जाना चाहिए.
हमने बहुत सारे नेताओ को देख लिया. जब मेने उनसे कहा कि मैं नेता नहीं पत्रकार हूँ तो उनका कहना था कि तुम जो फोटो निकाल कर ले जाते हो उससे तुम्हे तो पैसे मिलेंगे.
हमारे घर टूट गए हमें कुछ क्यों नहीं मिला. अभी वित्तमंत्री के दौरे को 10 दिन भी नहीं बीते थे.  इसी बीच मैंने सामने खड़े नीम के पेड़ को देख जिस पर एक भी पत्ता नहीं था हालांकि पतझड़ का आना अभी बाकी है.
अब तक क्षेत्र में केन्द्रीय वित्तमंत्री, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, मुख्यमंत्री, राज्य कृषि मंत्री,कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट, एमपी, विधायक, कलेक्टर, तहसीलदार सहित 250 से अधिक दौरे हो चुके हैं. लेकिन नतीजा सिफर है.
घर आ कर मैंने मकान सम्बंधित मुआवजे की जानकारी को खंगाला. राज्य सरकार द्वारा प्राकृतिक आपदा में मकान क्षति पर दिए जाने वाले मुआवजे का विवरण इस तरह हैं :-

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मुझे नहीं पता कि सरकार ठीमली गाँव के मकानों को क्षति की किस श्रेणी में रखेंगी ? पर इतना जरुर दावे के साथ कह सकता हूँ कि अगर मुआवजा मिला तो वह 10 वर्ग फीट केल्हू की छत बनाने में भी नाकाफी होगा.
इस दौरान मुझे स्थानीय किसान और इस क्षेत्र में मेरे गाइड बलदेव सिंह का मुआवजे पर दिया बयान याद आ गया. वो कहते है-

“..किसी भी किस्म का मकान बनाने के लिए आज कम से कम एक लाख रूपया तो चाहिए ही चाहिए. ऐसे में सरकार जितना मुआवजा दे रही उससे हम क्या करेंगे? चिड़िया का घौसला बनाएंगे?…”

सेना से रिटायर्ड हुए इस लेफ्टिनेंट ने जब अपनी बात खत्म की तो उनकी दोनों दाढ़ों के उभार से उस बात को साफ़ पढ़ा जा सकता था जो बयान के दौरान छूट गई थी.
ठीमली, बोयाखेड़ा, बालापुरा , हीरापुरा, कापरेन, जोशिया का खेडा, हिन्गौडिया, देवली , डिकौली , खेलड़ी सहित बीस गाँव के लोगो को अपने घोंसले खुद ही जोड़ने होंगे. कृषि मंत्री ने संसद में चल रही बहस के दौरान बताया हैं कि ” ओलावृष्टि ‘प्राकृतिक आपदा’ की श्रेणी में नहीं आती.” ऐसे में प्राकृतिक आपदा से हुई मकान क्षति के दायरे से ये बीस गाँव बाहर निकल जाएँगे…

अगली किस्तों में जारी…
http://patrakarpraxis.com/?p=2382

2-3 और 14-15 मार्च को हुई बेमौसमी बारिश और ओलावृष्टि के बाद देश-भर से किसानों की आत्महत्या की खबरें आने लगी. praxis के साथी पत्रकार विनय सुल्तान ने तीन राज्यों की यात्रा कर खेती-किसानी के जमीनी हालात पर डायरी की शक्ल में एक लंबी रिपोर्ट लिखी हैं. ‘सुसाइड नोट’ नाम से इसे हम किस्तों में पाठकों के सामने रख रहे हैं. इसकी दूसरी किस्त राजस्थान के हाड़ौती अंचल से पेश है. पहली कड़ी आप यहां पढ़ सकते हैं..

-संपादक

Suside Note
कोटा में ये मेरा चौथा दिन है. मुझे आज एक मोटरसाइकिल उधार मिल गई है. कोटा से 60 किलोमीटर का सफ़र तय करके दीगोद तहसील के गांव  रामनगर पहुंचना है.
पहले सुल्तानपुर तक 40 किलोमीटर फिर उसके बाद नहर का रास्ता पकड़ कर 20 किलोमीटर का सफ़र तय करना है. . यहां दो किसानों की आत्महत्या की खबर है.
कोटा से सुल्तानपुर के रास्ते के दौरान मैं चाय पीने के लिए रुक गया. राष्ट्रीय अखबार के स्थानीय संस्करण में एक 37  वर्षीय किसान दिल का दौरा पड़ने से मौत की खबर है.
बूंदी जिले के केशव रायपाटन थाना क्षेत्र के ठीकरिया कला के रहने वाले किसान ओमप्रकाश मीणा की सदमे से मौत हो गई. उन्होंने 10 बीघा खेत से निकले डेढ़ क्विंटल गेंहू को देख कर खलिहान में दम तोड़ दिया. औसतन एक बीघे में 7 से 8 क्विंटल गेंहू पैदा होता है.
हां यह सच है. लोग इसी तरह मर रहे हैं. खेतों में गश खा कर गिर रहे हैं.

खेत माने सिर्फ किसान नहीं होता है…

चाय के साथ परोसी गई इस खबर से दिमाग हिला हुआ था. अभी सुल्तानपुर 10 किलोमीटर दूर था.
माचिस लेने की गरज से एक पैदल राहगीर के पास रुका. यहां मेरी मुठभेड़ मध्यप्रदेश से आए मौसमी मजदूर के परिवार से हुई.
ये लोग हर साल यहाँ गेहूं की कटाई के लिए आते हैं. तीन पीढियां एक साथ मजदूरी करती है ताकि साल के बचे हुए महीने में पेट भरा जा सके.
कटाई के लिए इस्तेमाल होने वाली मशीनें पहले से ही पेट पर डाका डाले हुए थीं. इस साल की प्राकृतिक आपदा के बाद इन परिवारों के सामने भी आजीविका का संकट गहरा गया है.
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ले कुदालें चल पड़ें हैं लोग मेरे गांव के…
रतलाम से आए 22 साल के गोवर्धन से जब मैंने मालवा में फसलों का हाल पूछा तो उन्होंने बताया, ”वहां तो सब चौपट हो चुका है. हम यहां आए थे कि गेंहू काट कर पेट भरने लायक कुछ कमा लेंगे. लेकिन यहां भी वही हाल है. दो दिन से मजदूरी के लिए भटक रहे हैं. कोई कटाई करवाने के लिए राजी नहीं है.”
कुछ दूर आगे रेबारियों डेरा था. गुजरात से चल कर ये लोग यहां तक पहुंचे थे.
लगभग 500 गायों और 25 सदस्यों का यह चलता-फिरता कबीला इस मौसम में हर साल यहां से गुजरता है.
कटे हुए खेतों में बचे हुए तुड़े से गायों का पेट पलता है और गायों से परिवार का.
स्थानिय दूध विक्रेता इनके डेरों के पास ही सुबह ही जमा हो जाते हैं सस्ती दरों पर दूध खरीदने के लिए. दूध खरीदने के लिए.
पंद्रह दिन बाद थार के रेगिस्तान से चले ऊंट, भेड़ और बकरियों के जत्थे भी यहां पहुंचने वाले होंगे. इस बार इन सबके लिए चारे का संकट बढ़ जाएगा.
कच्छ से आए रामजी भाई कहते हैं,
‘हर साल महीने-दो महीने डेरा यहीं जमता था. इस बार यहां से जल्दी आगे बढ़ना होगा. 500 गायों का पेट भरना मुश्किल हो रहा है.’
माने प्राकृतिक आपदा से सिर्फ किसानों की कमर तोड़ी हो ऐसा नहीं है. पशु संगणना 2012 के मुताबिक देश में 122 मिलियन मादा गायें और 92.5 मिलियन मादा भैंसे हैं.
अक्सर खेती चौपट हो जाने पर ये मवेशी गांवों में जीवनयापन का सबसे सुरक्षित जरिया मुहैय्या करवाते हैं. समझी सी बात है कि ये पशुधन खेतों से पैदा होने वाले चारे पर ही जिंदा है.
देश के अर्थशास्त्री कहते हैं कि कृषि का सकल घरेलु उत्पादन में योगदान महज 14 फीसदी है जिस पर देश की 67 फीसदी जनता पल रही है.
मुझे पता नहीं कि वो कौनसा जादुई तरीका है जिससे कृषि का योगदान 14 फीसदी पर समेट दिया जाता है.

ये सब भगवान का किया-धरा है, आखिर हमने उसका क्या बिगाड़ा है?

अनजान होने की वजह से मैं रामनगर से 5 किलोमीटर आगे रामपुरिया पहुंच जाता हूँ. यहां रास्ता पूछने के लिए रुका.
एक बैलगाड़ी पर पूरा परिवार सवार हो कर गांव छोड़ कर जा रहा था. बैलगाड़ी पर से मेरे कैमरे को कौतुहल से देखते 2 और 4 साल के दो बच्चे चुगली खा रहे थे कि इन लोगों का जल्द ही वापस लौट आने का कोई इरादा नहीं हैं.
पूछने पर पता लगा कि इस परिवार की छह बीघे पर बोई हुई धनिए की फसल पूरी तरह बर्बाद हो चुकी है.
अब यह परिवार पास ही एक भट्टे पर मजदूरी करने के लिए जा रहे हैं. बैलगाड़ी के जरिए सामन ढोया जाना था. औरतें भट्टे पर काम करेंगी.
परिवार का 21 वर्षीय बेटा चार दिन पहले ही दिहाड़ी मजदूरी के लिए कोटा जा चुका है.
गांव में खाने के कुछ नहीं बचा तो मजूरी के अलावा चारा क्या है?

गांव में खाने के कुछ नहीं बचा तो मजूरी के अलावा चारा क्या है?
गांव के नुक्कड़ पर खड़े गोबरी लाल कहते हैं,’आप देख रहे हैं ना सब गांव छोड़-छोड़ कर भाग रहे हैं. फसल पूरी तरफ से बर्बाद हो गई है. मजदूरी से ही पेट भराई हो पाएगी.’ गोबरीलाल बोल ही रहे थे कि हैंडपंप पर अपनी भैंस को नहलाने आए पुरुषोत्तम ने दार्शनिक अंदाज में कहा, ‘ये तो कुदरत है. भगवान जैसा चाहेगा वैसा होगा. वो चींटी को कण और हाथी को मण देता है.’
गोबरीलाल के चहरे पर अजीब सी कड़वाहट फ़ैल गई. उन्होंने गुस्से में भर कर कहा, ‘ सब उस भगवान् का किया-धरा है. हमने आखिर उसका क्या बिगाड़ा है जो हर साल भूखे मरने की नौबत आ जाती है?’
यहां से मुझे बताया गया कि रामनगर के लिए जहां से सड़क मुड़ती है वहां एक बुढ़िया ने चाय की दुकान लगा रखी हैं. मैने दूर से चाय की दुकान देख ली.
जिस बुढ़िया का जिक्र गोबरीलाल कर रहे थे वो वस्तुतः कंकाल पर चढ़े हुए लिजलिजे चमड़े के ढांचे से अधिक कुछ नहीं कही जा सकती. केशरिया रंग के कपड़े पहने यह बुढ़िया सड़क किनारे बने लोकदेवता रामदेव जी की थान की पुजारिन थी.
शायद देवता की कमाई काफी कम थी इसलिए मजबूरन इसे चाय की दूकान लगानी पड़ी हो.
मैंने कन्फर्म करने के लिए एक बार फिर से उससे रामनगर का रास्ता पूछा. उसने अंदर की तरफ जाती सड़क की ओर इशारा करते हुए मेरे गले में लटक रहे कैमरे को गौर से देखा.
इसके बाद वो मुझसे उसकी फोटो उतारने की जिद करने लगी.
कपड़े से बने दो घोड़ों और अपनी ओढ़नी को आपनी तरफ खींचने के बाद वो बूढ़ी पुजारिन सज-धज कर तैयार थी अपनी फोटो उतरवाने के लिए.

हां यह सच है. उसने खेत में सपने बोए थे…..

आखिरकार मैं विनोद मीणा के घर पर था. मैं जब विनोद के घर पहुंचा तो अंकी बहन ने मुझसे कहा कि घर पर बात करने वाला कोई नहीं था. हालांकि विनोद की बहन और माँ घर पर ही थीं.
पितृसत्ता इसी तरह से काम करती है. वो आपकी अभिव्यक्ति को भी बंधक बना लेती है.
विनोद का 14 साल का भाई सोनू इतना वयस्क नहीं था कि पूरे मामले को ठीक से रख सके. लिहाजा पड़ोस से रिटायर्ड पुलिस सब इंस्पेक्टर राधाकृष्ण मीणा को मुझसे बात करने के लिए बुलाया गया.
इस दौरान मैंने विनोद की माँ से बात करने की कोशिश की. बहुत कोशिश करने के बाद भी बात नहीं सुन सका. शायद उनके शब्द उनके घूंघट से टकरा कर वापस लौट जाते होंगे.
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विनोद मीणा की माँ के शब्द उनके घूंघट से टकरा कर लौट जाते..
विनोद की कहानी इस सभी मामलों में सबसे अधिक त्रासदीपूर्ण है. विनोद के पिता गोबरीलाल काफी समय पहले दिमागी रूम से विक्षिप्त हो चुके थे.
इसके चलते उसकी माँ उसके दो भाई-बहनों को बचपन में अपने पीहर ले कर चली गई थी. बहन फुलंता जब 18 साल की हुई तो उसकी शादी के सिलसिले में विनोद दो साल पहले गांव लौट आया था.
अभी साल भर पहले ही एक लाख रूपए का कर्ज ले कर बहन की शादी की थी.
कर्ज उतारने के उसने 6 बीघा जमीन 10 हजार रूपए सालाना की दर से मुनाफे पर ली. इसके अलावा चार बीघा उसके पास अपनी काश्त थी. कहने को उसने मटर और गेंहू बोया था पर उसके साथ कुछ सपने भी थे जो मटर की फलियों और गेंहू की बालियों के भीतर पक रहे थे. अभी दो महीने पहले ही उसकी सगाई हुई थी. छोटा भाई सोनू 8वीं में आ चुका था. अब उसकी पढ़ाई गांव में संभव नहीं थी. बहन की शादी शादी का कर्ज. पिछली साल खराब हुए सोयाबीन में लगा घटा सब पाट देना था. और इस बार उसे दसवीं का इम्तिहान भी देना था. हालांकि वो दो बार पहले पास नहीं हो पाया था लेकिन उसने उम्मीद नहीं छोड़ी थी.
18 तारीख की सुबह विनोद दोपहर में खाना खाने के बाद घर से निकल गया. उसके बाद जो हुआ वो पुलिस रिपोर्ट में कुछ इस तरह से दर्ज है –
‘ कल 18.3.2015 को 11-12 बजे विनोद पुत्र गोबरी लाल निवासी रामनगर ओले से नष्ट हुई फसल देखने गया था. इसके बाद घर ना लौटने पर हमने उसकी तलाश शुरू की.लेकिन कोई पता नहीं चला. गांव के दस-बीस आदमियों ने अगल-अलग जगहों पर तलाश की तो विनोद की लाश खेत में बने गड्ढे में बम्बूलों के पेड़ के पास मिली. लाश के पास शराब के दो चप्पे और जहर जैसी गंध वाला तरल पदार्थ मिला. प्रार्थना पत्र पेश कर निवेदन हैं कि नियमानुसार कार्रवाही करें.’
पडौसी राधेकृष्ण मीणा बताते हैं कि विनोद ने कभी शराब नहीं पी. इस पर विनोद की माँ बादाम बाई ने कहा कि बाप की जो हालत है आपको पता ही है. विनोद को हमेशा घर की चिंता रहती थी. सारा काम वही देखता था. 19 साल की उम्र में मेरे बेटे ने अपनी बहन की शादी की साड़ी जिम्मेदारी उठाई थी. अगर शराब पीता तो यह सब कर पाता? आप मेरा भरोसा करो उसने उस दिन से पहले कभी शराब नहीं पी. अलबत्ता उसकी उसके मामा से लड़ाई हो थी होली पर जब वो शराब पी कर हमारे घर आ गए थे. पूरी बातचीत के दौरान विनोद का छोटा भाई सोनू अपनी साइकिल के टूटे हुए पैडल को सही करने की कवायद में लगा रहा. वो बीच-बीच में मुझे असहज करने वाली नज़रों से घूर लेता.
मौका-मुआयना करने आई पुलिस की टीम ने पोस्टमार्टम के लिए विनोद की लाश को अपनी जीप में जाने से साफ़ मना कर दिया. राधेकृष्ण मीणा बताते हैं कि गांव के लोगों ने चंदा करके लाश को पोस्टमार्टम हाउस और वहां से घर लाने की व्यवस्था की.
पुलिस का यह रवैय्या हैरान करने वाला नहीं हैं. मैने जब स्थानीय पुलिस अधिकारी से इस केस के बारे में जानकारी मांगी तो उन्होंने दो किस्म की कांस्परेसी थ्योरी पेश की. पहली, उसके 19 तारीख से परीक्षा होनी थी. इसके चलते उसने जहर खा लिया. दूसरी, उसकी शादी होने वाली थी, अपनी होने वाली बीवी से कुछ झगड़ा हो गया था, या उस लड़की का किसी दूसरे लडके के साथ चक्कर रहा होगा. इसके चलते उसने जहर खा लिया. दूसरी थ्योरी बताते हुए उनकी एक आंख अजीब दब गई थी. मैं उनसे पूछा कि क्या आपको कोई सबूत मिला है जिसके आधार पर यह साबित किया जा सके. उनका कहना था तफ्तीश जारी है. इधर राज्य सरकार ने केंद्र को भेजी रिपोर्ट में कहा है कि सूबे में किसी भी किसान ने कृषि कारणों की वजह से आत्महत्या नहीं की है.

 वो खेत की रखवाली कर रहा था पर, खेत उसकी रखवाली ना कर सके…

विनोद के घर से निकल कर मैं हीरा लाल बैरागी के घर पहुंचा. रामनगर में यह बैरागियों का एक मात्र घर है. इनका परम्परागत काम गांव के मंदिर की सेवा करना. अजीवाका चालाने के लिए यह परिवार गांव में हर सुबह भीख मांगता है. इसके अलावा मंदिर के खाते में पड़ने वाली 10 बीघा जमीन से प्राप्त होने वाली उपज से 12 सदस्यों वाला यह परिवार अपना भरण-पोषण करता है.
35 साल मरने की को उम्र नहीं होती..

35 साल मरने की कोई उम्र नहीं होती..
बैरागी जैसी बिरादरियां जनजातियों के हिन्दुकरण की प्रक्रिया के दौरान बचे हुए अवशेष के रूप में आज भी विद्यमान हैं. ये बिरादरी किसी जमाने में मीणा और अन्य जनजातियों में पुरोहित का काम करती रही होंगी. लेकिन हिन्दु वर्णव्यवस्था में यह जगह पहले से ही ब्राह्मणों के लिए आरक्षित थी. इस लिए इन्हें पुरोहित के स्थान से धकेल कर मंदिर की सेवा का जिमा सौंप दिया गया. ये लोग लोक देवताओं के भजन गाते हैं. भीख में आटा मांग कर अपना जीवनयापन करते हैं. 34 साल का हीरालाल लोक देवताओं के भजन गाने के लिए आस-पास के गांवों में मशहूर था.
21 मार्च की रात को हीरालाल गांव के ही जागरण में गया था. वहां उसको भजन गाना था लेकिन भजन गाने की इच्छा ना होने की बाट कह कर वो वहां से अपने खेत पर लौट आया. आज रात खेत की रखवाली करने की बारी उसी की थी. सुबह चार बजे जब खेत पड़ौसी ने हीरालाल को चाय पीने के लिए जगाया तबी तक वह जड़ हो चुका था. इसकी सूचना हीरालाल के भाई वरुण को दी गई. यहां से हीरालाल को सुल्तानपुर ईलाज के लिए ले जाया गया. यहां उसे मृत घोषित कर दिया गया.
हीरालाल के बचपन के दोस्त रहे शिवप्रकाश का कहना है , ‘फसल खराब होने के बाद से हीरालाल ने लगभग बाट करना छोड़ ही दिया था. हमेशा चिंता में रहता. मरने के दो दिन पहले ही हमारी मंदिर में मुलाकात हुई थी. कह रहा था कि छोटे भाई की शादी इसी साल करनी है. पहले से दो लाख का कर्ज है. ब्याज भी नहीं चुका पा रहा हूँ.’ उन्होंने आगे कहा, ‘ मैंने उसे हिम्मत बंधाई. खेत पर भी जाने से मना किया था. पर वो नहीं माना. गया तो ऐसा गया कि लौट कर नहीं आया.’
मैंने उनसे कहा कि हीरालाल की मौत तो दिल का दौरा पड़ने से हुई है. सरकार इसे स्वाभाविक मौत मान रही है. वो जवाब देते इससे पहले हीरालाल के छोटे भाई वरुण ने जवाब देना शुरू कर दिया. वरुण ने मुझसे कहा, ‘आप तो पढ़े-लिखे हैं साहब. ये कोई उमर है क्या मरने की? आपको तो यह बात समझ में आती होगी.’ मैं वरुण को कहना चाह रहा था कि अक्सर पढ़े-लिखे लोग ही चीजें समझ नहीं पाते या फिर वो समझाना नहीं चाहते.
भारत में सिर्फ रामानुज ही गणित की एक मात्र जानी-पहचानी प्रतिभा है. लेकिन तहसील से लेकर मंत्रालय तक ऐसी कई गणितीय प्रतिभाएं थोक के भाव उपलब्ध हैं. जो नुक्सान 27 मार्च को 22500 का आंका गया था वो 4 अप्रैल को 8500 करोड़ पर पहुंच जाता है. आपदा से मरने वाले किसानों की संख्या 32 से शून्य पर पहुंच जाती है. तो ये करिश्मा इन्ही गणितीय प्रतिभाओं के दम पर हो रहा है.

मुआवजे के नाम पर को-ऑपरेटिव बैंक अक्सर नॉन-कोऑपरेटिव  हो जाते हैं…..

रामनगर से निकल कर मैं बूढादीत पहुंचा. यहां स्थानीय सहकारी समितियों के चैयरमेन की बैठक होनी थी. बूढादीत में 11वीं शताब्दी का बना हुआ सूर्य मंदिर है. स्थापत्य के लिहाज से देखने लायक. इस बैठक में मेरी बात 20 स्थानीय सहकारी समिति के प्रमुखों से हुई. उनका कहना था कि अगर सरकार का रवैय्या सहकारी समितियों के प्रति अनदेखी का ना हो तो किसानों को मुआवजे के किसी का मुंह देखने की जरुरत ना पड़े.
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मंडावरा सहकारी समिति के अध्यक्ष जगदीश स्वामी बताते हैं कि किसान क्रेडिट कार्ड पर मिलने वाला लोन के लिए किसानों से दस हजार रूपए फाइल चार्ज के लिए वसूल लिया जाता है. इसके अलावा निजी कंपनियों द्वरा फसल का बीमा किया जाता. यह बीमा ऋण देने की अनिवार्य शर्तों में शामिल है. बैंक का अनुबंध निजी बीमा कम्पनियों के साथ होता है. किसान को दिए जाने वाले ऋण से बीमा प्रीमियम पहले से कट लिया जाता है. लेकिन किसान को पता तक नहीं होता कि उसकी फसल का कोई बीमा हुआ भी है या नहीं.
ऐसे ही रणवीर सिंह बताते हैं कि निजी कंपनी क्लेम देने के लिए गिरदावरी रिपोर्ट को सही नहीं मानती है. उन्होंने अपने वेदर स्टेशन जगह-जगह बनाए हुए हैं. ये वेदर स्टेशन एकदम फर्जी हैं और आधी बार बंद होते हैं. ऐसे में इसके द्वारा किया गया आंकलन अक्सर गलत होता है. सहकारी बैंकों के द्वारा दिए गए ऋण में भी भ्रष्टाचार की बात  सब लोग स्वीकार करते हैं. रणवीर सिंह बताते हैं कि सहकारी बैंको जो मुआवजा वितरण के लिए आवंटित होता है, उसमें से आधा बिना बंटे वापस चला जाता है.
सरकार के द्वारा तय किए मापदंडों के अनुसार असिंचित भूमि के लिए 1088रु.,सिंचित भूमि के लिए 2160रु., और डीजल पम्प द्वारा सिंचित भूमि के लिए 3000 रूपए अधिकतम मुआवजा प्रति बीघा दिया जा सकता है. अधिकतम का मतलब है जब आपकी फसल सौ फीसदी ख़राब हुई हो. इस मुआवजे के हकदार आप तभी बनते हैं जब पूरी तहसील में पचास फीसदी नुकसान हुआ हो. यह भी दो हैक्टेयर तक की फसल पर लागू है. जब प्रीमियम के लिए खेत को इकाई मान कर पैसा वसूला जाता है तो बीमा के भुकतान के लिए तहसील को इकाई मानने के पीछे का तर्क समझ से परे है.
आंकड़े रणवीर सिंह और जगदीश स्वामी की बातों की तस्दीक करते हैं. राजस्थान में 29 में से 17 सहकारी बैंक बंद होने की कगार पर हैं. क्योंकि इनके पास रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित 7 फीसदी का कैश रिजर्व भी नहीं बचा है. शेष 12 भी इसी रास्ते पर तेजी से बढ़ रहे हैं. इसी तरह निजी कम्पनियों द्वारा किए गए फसल बीमा का हाल यहाँ है कि पिछले तीन साल में निजी कंपनियों ने क्लेम के नाम पर 600 करोड़ के लगभग का प्रीमियम किसानों से वसूला है जबकि महज 50 करोड़ के क्लेम की भरपाई की है. जबकि पिछले तीन से लगातार किसान फसल बर्बादी की मार झेल रहे हैं.
यहीं मुझे स्थानीय अखबार के अंशकालीन पत्रकार रामजी मिल गए.वो इस मीटिंग को कवर करने आए थे. रामजी को अपने क्षेत्र के सभी मृतक किसानों के नाम और पते मुख-जबानी याद थे. उन्होंने मुझे बताया असल में मरने वाले लोगों की संख्या काफी ज्यादा है. उनके ब्लाक में चार केस ऐसे केस हैं जिनमें किसान दिल का दौरा पड़ने के कारण मरें हैं, लेकिन जानकारी के अभाव में परिजनों ने ना तो पोस्टमार्टम करवाया और ना ही पुलिस रिपोर्ट की.उन्होंने बताया कि यहां लोगों का रवैय्या यह है कि पुलिस रिपोर्ट से कुछ होना जाना है नहीं. फिर रिपोर्ट करवाने का क्या फायदा?

फिर से भीड़ का हिस्सा बनना ……

कोटा में मेरी आखिरी शाम ने मुझे थोड़ा नोस्टालजिक होने का मौका फहम किया. मैंने ऑटो वाले से एलन ले चलने के लिए कहा. उसका जवाब था कि कौनसी बिल्डिंग ले चलूं? यहां एलन की 12 बिल्डिंग हैं. यानी महज सात में 10 नई बिल्डिंग तैयार हो चुकी थीं. वेबसाइट खोल कर देखा तो पता लगा कि कोटा के अलावा 12 और सेंटर खुल चुके हैं. यह सोच कर सिहरन पैदा होती है कि यह व्यवसाय किस तेजी से विकास कर रहा है.
2007 में मैं भी उन हजारों छात्रों की भीड़ का हिस्सा था जिनके अभिभावक चाहते थे कि उनका बेटा/बेटी डॉक्टर या इंजिनियर बने. अब यह भीड़ लाखों में हो चुकी है. जिस समय मैं एलन पहुंचा यहां दरगाह बाजार जैसा माहौल था. महवीर नगर 1 और 2 के बीच पड़ने वाले नाले पर एक पुलिया बन चुका था जिसे शायद माइनस कहा जाता है. ये सत्र शुरू होने का समय था. ये पूरा दृश्य अजीब सी कोफ़्त पैदा कर रहा था. आखिर इस देश को हो क्या गया है? क्यों डॉक्टर/इंजिनियर बनने का दबाव हर पीढ़ी पर बढ़ता ही जा रहा है? हमारे समय एलन की फीस 30 हजार हुआ करती थी जोकि अब 1 लाख से ज्यादा हो चुकी है. साल-दर-साल शिक्षा उन लोगों की जद से बहुत दूर होती जा रही है जिनको इनकी सबसे ज्यादा जरुरत है.
इसी बीच मैं सोच रहा था कि क्या मैं हमारे देश के दस डॉक्टर के नाम बता सकता हूँ जिन्होंने चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में कुछ विशेष उपलब्धि हासिल की हो. क्या ऐसे दश डॉक्टर हैं जिन्होंने ईलाज को सस्ता बनाने की दिशा में कोई ख़ास य्ग्दान दिया हो जिससे भारत सहित तीसरी दुनिया की गरीब जनता के लिए ईलाज जैसी बुनियादी जरुरत को पूरा किया जा सके?
मैं धीरे-धीरे आगे बढ़ता जा रहा था. एक बार फिर उसी भीड़ का हिस्सा बन कर. मैं उन दुकानों पर नजर दौड़ा रहा था जिनसे मैं नियमित रूप सामान लिया करता था. वो मेरा चेहरा शायद ही पहचाने. इस बीच डॉक्टर बनने आए इन लाखों छात्रों को इस बात का रत्ती भर इल्म नहीं होगा कि इस शहर के बाहर बसने वाले गांव-के गांव ‘किसान आत्महत्या नाम के कैंसर का शिकार हो चुके हैं. यह पहली बार है कि कोटा के किसानों ने आत्महत्या की है लेकिन यह आखिर बार नहीं होगा.
रात 11 बजे मुझे कोटा भोपाल पेसेंजर पकड़नी है. कोटा की यात्रा खत्म करके बुंदेलखंड की ओर कूच करना है. बुंदेलखंड में किसान आत्महत्या का पुराना इतिहास है. इस साल की त्रासदी ने संख्या में भारी इजाफा किया है. जिस दर से बुंदेलखंड में किसान मर रहे हैं वो पिछले कई साल के रिकॉर्ड तोड़ देगा. या फिर इन किसानों का नाम ही रिकॉर्ड से गायब कर दिया जाएगा ? फिलहाल सफ़र जारी है……

सुसाइड नोट: ‘बस मरना ही हमारे हिस्से है..’
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http://patrakarpraxis.com/?p=2410
“युद्ध का वर्णन सरल होता है. कुछ लोग युद्ध करते हैं. शेष उनका साथ देते हैं. कितना ही घमासान हो, महाकाव्य उसे शब्दों में बांध लेते हैं. पर आज तो हर व्यक्ति छोटा सा रणक्षेत्र बना अपनी प्राणरक्षा के युद्ध में लगा है. जान हथेली पर है, पीठ दीवार से टिकी हुई है, शस्त्र इतना विश्वसनीय नहीं और जिंदा रहना बहुत जरुरी है. आप कितने युद्धों का वर्णन एक साथ करेंगे? चप्पा-चप्पा मामले हैं और कोई बचाव जोखिम से खाली नहीं है. बूचड़खाना बन गया है देश……”

- शरद जोशी

(बातें बयान से बाहर हैं )

Suside Note
हमारे जेहन में हर शब्द के साथ एक या अधिक छवियां जुड़ी होती हैं. मसलन बुंदेलखंड नाम सुनते ही लक्ष्मी बाई, फूलन देवी, ददुआ, मोड़ा-मोड़ी, चंद्रपाल-दीपनारायण, ललितपुर का एक दोस्त जैसी छवियाँ उपरी माले के आटाले से निकल कर सामने आ जाती हैं. एक दोस्त की शादी के सिलसिले में हुए 24 घंटे से कम के प्रवास को अगर छोड़ दिया जाए तो यह बुंदेलखंड से मेरा पहला साबका था.
उत्तर प्रदेश के सात और मध्यप्रदेश के छह जिले मिल कर जिस भौगौलिक क्षेत्र को मुक्कमल करते हैं उसका नाम है बुन्देलखंड. बेतवा,केन और चम्बल जैसी नदियाँ, विंध्य पर्वतमाला और गंगा-जमुना के मैदान के बीच का अध सूखा-अध गीला क्षेत्र. यहां 1.75 करोड़ हैक्टेयर कृषि योग्य भूमि है जिसमें से 40 फीसदी सिंचित है. इस पर 2.33 करोड़ किसानों की आजीविका निर्भर है.
2-3 और 14-15 मार्च को पश्चिमी विक्षोभ की वजह से हुई बेमौसमी बारिश और ओलावृष्टि ने भारतीय कृषि के चमकदार आंकड़ों की सतह के नीचे उबल रहे शोषण और जिल्लत के लावा को विस्फोटक मोड़ पर ला कर छोड़ दिया. अचानक पूरे देश से किसानों के दिल के दौरे पड़ने और आत्महत्या की वजह से मौत होने की खबरों का तांता सा लग गया.
विदर्भ,मराठवाड़ा,तेलंगाना,आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश,कर्णाटक के अलावा, राजस्था, हरियाणा,बृज,गंगा के मैदानों से भी किसानों की आत्महत्या की खबरें आनी शुरू हो गईं.
एक दोस्त की शादी के दौरान लातिलपुर में 24 घंटे से कम के प्रवास को छोड़ दें तो यह मेरी बुंदेलखंड की पहली यात्रा थी.  6 अप्रैल तक सूबे में मरने वाले किसानों की संख्या 100 के पार पहुंच चुकी थी. इसमें से 62 किसान बुन्देलखंड से थे.
अब ये आंकड़ा 250 के पार पहुंच चुका है जिसमें से अकेले बुंदेलखंड में 158 किसान मारे जा चुके हैं.

भारतीय रेल के नागरिक…..


कोटा से मुझे बीना होते हुए झांसी का सफ़र तय करना था. वहां से अगले चरण में जालौन जाना था जहां किसान आत्महत्या के सबसे अधिक केस थे. कोटा से बीना की यात्रा के दौरान मेरे सामने एक दिलचस्प वाकया पेश आया.
जनरल डब्बे में आपके पास नींद लेने के बहुत विकल्प नहीं होते हैं, अगर आप किस्मत से ऊपर की सीट कब्जाने में कामयाब नहीं हो पाए हों. क्योंकि भोपाल-कोटा पेशेंजर कोटा से ही बन कर चलती है इसलिए खिड़की की सीट पर कब्ज़ा जमाने के कामयाब रहा था.
रात को लगभग एक बजा होगा. ट्रेन गुना स्टेशन पर रुकी. नींद आ नहीं रही थी, ऊपर से सामान की चिंता अलग से थी. मैने चाय पीने की गरज से नीचे उतरने की सोची. गेट के पास पहुंचा तो देखा एक आदमी शौचालय और गेट के बीच बनी गैलरी में लम्बा पसरा हुआ है. किसी भी तरह से उसे लांघ कर गेट तक पहुंचना संभव नहीं था.
खिचड़ी बाल,बढ़ी दाढ़ी,मैले-कुचैले कपड़े उम्र 55 से कम तो क्या रही होगी. चाय पीने की तलब थी सो काफी सोचने के बाद उसे उठाया. डर ये था कि कहीं ट्रेन रवाना ना हो जाए. वैसे गुना बड़ा स्टेशन था ट्रेन का 5 मिनट से ज्यादा रुकना लाजमी था. मैंने उसे हिलाया वो इस झटके के साथ उठा मानों ऊपर से कोई बम गिर गया हो.
मुझे किसी को नींद से उठाना हमेशा से एक किस्म की अश्लील हरकत लगती है. क्योंकि मुझे खुद का नींद से उठाया जाना कभी बर्दाश्त नहीं हुआ. इसी अपराधबोध में मैंने गैलरी में लेटे पड़े उस आदमी से चाय के लिए पूछ लिया. उसने ‘हाँ’ के अंदाज में सिर हिलाया. मैंने एक चाय उसे भी ला कर दी. इसके बाद उसने पूछा, ‘कुछ खाने को है?’ मैं पास ही खड़े ठेले तक गया और उसे एक पैकेट पार्ले-जी ला कर दे दिया.
उसके बिस्किट थमाने के साथ ही ट्रेन ने हॉर्न दे दिया. वो झटके से नीचे उतर गया. उसने चाय और बिस्किट पकडे हुए हाथों से एक किस्म के नमस्कार की मुद्रा बनाई. उसकी आंखे धन्यवाद ज्ञापित कर रहीं थी. इस बीच ट्रेन ने हलका सा झटका खाया और धीमी गति में चल पड़ी. वो ट्रेन की गति की विपरीत दिशा में जाने लगा. थोड़ी दूर जा कर उसने मुड़ कर देखा. मैं अब भी गेट पर खड़ा उसे देख रहा था. उसने बिस्किट के पैकेट वाले हाथ को उठाया और हवा में लहरा दिया. ट्रेन की अब गति पकड़ती जा रही थी. मैं उसे तब तक देखता रहा जब तक वो प्लेटफार्म के अंतिम छोर के अंधेरे में गुम नहीं हो गया.
मैंने बंद कमरें में भूपेन हजारिका का गाया हुआ ‘हाँ आवारा हूँ…” सैंकड़ों बार सुना है. आवारगी मेरे खयाल में दुनिया का सबसे खूबसूरत काम है. गाने की शुरुवात से पहले बांग्ला से हिंदी के तर्जुमाकार गुलजार कहते हैं, ‘आवारा कहीं का, या आवारा कहीं का नहीं.’ मैंने इस वाक्य को हजारों बार दोहराया है. इस घटना के बाद मुझे पहली बार महसूस हुआ कि बिना मंजील के भटकते रहा कई स्थितियों में खूबसूरत काम नहीं होता है.
भारतीय रेल उन लाखों लोगों का अघोषित देश है जो लगातार सालों से भटक रहे हैं. प्लेटफार्म पर सो रहे हैं. हर रात इनका सफ़र एक पैकेट बिस्किट, यात्रियों के बचे हुए खाने या पेंट्रीकार्ट के कर्मचारियों की उदारता पर खत्म होता है. ये भारतीय रेल के नागरिक हैं. शेष भारत में इनकी नागरिकता निलंबित कर दी गई है. जब इनकी लाश प्लेटफार्म के किसी कोने, ट्रेन की बोगी या पटरियों पर मिलती है,तो रेलवे पुलिस गुमनाम शख्स के तौर इसे अपने रिकॉर्ड में दर्ज कर लेती है.

या इलाही ये मांजरा क्या है ?

कोटा से बीना, झांसी होते हुए मैं शाम 5 बजे उरई पहुंचा. बुंदेलखंड के जालौन जिले में सबसे ज्यदा किसानों के मारे जाने की खबर थी. कहने को उरई महज एक तहसील है लेकिन जालौन जिले का मुख्यालय यहीं पर हैं . जिले का प्रशासन यहीं से संचालित होता है. बस स्टॉप से बाहर निकलते ही मैं किताबघर पर रुक गया. स्थानीय अखबारों में हो रहा कवरेज काफी हद तक मददगार साबित होता आया है. तीन राष्ट्रीय अखबारों के स्थानीय संस्करणों ने एक दिन में 9 किसानों के आत्महत्या करने की खबर को पहले पन्ने पर छापा था. हमीरपुर, बांदा, उरई, महोबा में 3 किसानों के आत्महत्या करने की खबर थी, वहीँ 6 किसान सदमे का शिकार हुए थे.
अखबार के अंदर के पन्ने में सूबे की फतेहपुर सीट से सांसद और खाद्य प्रसंस्करण राज्य मंत्री निरंजन ज्योति का बयान छपा था. यह बयान आपकी वैज्ञानिक चेतना को सम्पूर्णता में ध्वस्त करता है. मथुरा में बांकेबिहारी के दर्शन करने के बाद साध्वी जी को दिव्य ज्ञान की प्राति हुई. उन्होंने बाहर आ कर पत्रकारों को प्रवचन दिया-

‘ जिस प्रकार देश में कन्या भ्रूणहत्या, गौहत्या और बलात्कार जैसे घृणित अपराध हो रहे हैं, उसके चलते ये आपदा आ रही हैं.’

फरवरी से अप्रैल के बीच हर साल देश में पश्चिमी विक्षोभ आते हैं. भूमध्य सागर और कैस्पियन सागर से नमी ले कर चलने वाली तेज हवाएं सर्दी के मौसम में पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में बारिश और ओलावृष्टि का सबब बनती हैं. हर साल इनकी तादाद एक महीने में दो या तीन रहती है. इस बार हमारे खेतों ने दस दिन में बीस विक्षोभों का सामना किया है. इतनी बड़ी तादाद में आए पश्चिमी विक्षोभों ने मौसम और पर्यावरण के जानकारों की चिंता को बढ़ा दिया है. आखिर जलवायु परिवर्तन के लिहाज से इस मसले को गंभीरता से लिया जाना जरुरी है. लेकिन साध्वी जी की अपनी व्याख्या है और आप इसे चुनौती नहीं दे सकते.
बहरहाल कहानी यहीं खत्म नहीं होती. होटल में पहुंच कर टीवी खोला तो सूबे के मुख्य सचिव अलोक रंजन की प्रेस वार्ता दिखाई जा रही थी. मुख्य सचिव महोदय का कहना था कि अब तक सूबे में 35 लोगों के मारे जाने की खबर है. उन्होंने साफ-साफ़ कहा कि अब तक किसी भी किसान के फसल खराबे की वजह से मारे जाने की जानकारी नहीं है और इस मामले में जिलाधिकारी को जांच के आदेश दे दिए गए हैं. दिल्ली लौटने के बाद जब मैंने सन्दर्भ के लिए रंजन के बयान को गूगल किया तो ज़ी न्यूज और एनडीटीवी की वेबसाईट पर लिखा था कि राज्य में 35 किसानों के मारे जाने की बाट स्वीकारी गई है. मुख्यधारा का मीडिया के पास सलेक्टिव बहरेपन की शक्ति मौजूद है. जिनका जिक्र रंजन साहब कर रहे थे वो लोग वर्षा जनित हादसों का शिकार हुए थे.
7 अप्रैल को मेरठ सहित उत्तर प्रदेश के तीन क्षेत्रों का दौरा करने के बाद केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने कहा कि सभी जगह किसान फसलों के चौपट होने से दु:खी हैं. गेंहू की फसल तो पूरी तरह बर्बाद हो चुकी है, लेकिन मैं किसानों से कहता हूं कि इससे निराश होने की जरुरत नही है. केन्द्र की सरकार किसानों की जितनी मदद कर सकती है, उतनी मदद आपकी करेगी. आप निराश मत हों. निश्चित रुप से किसानों को राहत मिलेग.
दिल्ली लौटने के बाद झांसी से पत्रकार साथी ने गृहमंत्री राजनाथ सिंह के दौरे का लिंक शेयर किया. मई दिवस के दिन राजनाथ सिंह जी बांदा में किसानों के हालात का जायजा ले रहे थे. उन्होंने किसानों से साफ़ कह दिया कि कर्ज माफ़ करना हमारे बस की बात नहीं है. उन्होंने दो टूक कहा कि हम किसानों की आंखों में धूल नहीं झोंकना चाहते हैं, इसलिए साफ-साफ कह रहे हैं कि कर्ज माफ नहीं कर पाएंगे. इसकी वजह यह कि आज यदि उत्तर प्रदेश के किसानों का कर्ज माफ करेंगे तो कल बिहार-पंजाब में भी कर्ज माफ करना पड़ेगा, फिर पूरे देश में.
हम कर्ज माफ़ नहीं कर सकते...

हम कर्ज माफ़ नहीं कर सकते…
वित्त राज्य मंत्री जयंत सिंहा ने राज्य सभा में बताया कि 4.85 लाख करोड़ का कर उद्योग जगत पर बकाया है. वित्त राज्य मंत्री ने राज्य सभा दिए एक सवाल के लिखित जवाब में कहा, ’28 फरवरी तक प्रत्यक्ष कर के अंतर्गत कॉर्पोरेट टैक्स के मद में कुल 3.20 लाख करोड़ रुपये का बताया है. 31 मार्च तक अप्रत्यक्ष कर के मद में लगभग 1.65 लाख करोड़ रुपये का बकाया था, जिसमें केंद्रीय उत्पाद शुल्क, सीमा शुल्क और शुल्क शामिल है.
वर्ष 2014-15 में 62,398.6 करोड़ का कर उद्योग जगत से वसूला नहीं जा सका. यह पिछले साल के मुकबले 8 फीसदी ज्यादा है. पिछले साल यह आंकड़ा 57,793 करोड़ था. देश में 77 ऐसी कम्पनियाँ हैं जो 100 करोड़ से ज्यादा के टैक्स की देनदार हैं.
आप निरंजन ज्योति से जयंत सिंहा तक के सभी बयानों को पढ़ कर किस नतीजे पर पहुंचे? दरअसल किसी नतीजे पर पहुंचना संभव ही नहीं है. सबसे पहले साध्वी जी कहती हैं अगर इस देश में बलात्कार और गौहत्या खत्म हो जाए तो कोई प्राकृतिक आपदा नहीं आएगी. मतलब किसानों को मुआवजे के आन्दोलन करने की बजाए अब गौहत्या रोकने के लिए आन्दोलन शुरू कर देने चाहिए क्योंकि पूरे फसाद की जड़ यही है.
केन्द्रीय भूतल परिवहन मंत्री कहता है कि किसानों को चिंता करने की जरुरत नहीं है, मोदी सरकार उनके साथ हैं. महीने भर बाद गृहमंत्री आ कर बताता है कि हम आपकी आंख में धूल नहीं झोंकना चाहते दरअसल हमारे पास कर्जमाफ़ी के लिए पैसा नहीं है. जब गृहमंत्री यह बात कह रहा है होता है उसके दो दिन पहले वित्तराज्य मंत्री कहता है कि हमें 4.85 लाख करोड़ का टैक्स वसूलना है. इस बीच सूबे का मुख्य सचिव पहले ही बता चुका है कि नुक्सान 1100 करोड़ का हुआ है. और एक भी किसान नहीं मारा है.
तो आखिर ये लोग चाहते क्या हैं? प्रधानसेवक जी अपने चुनावी भाषणों में कहते थे कि हम भूमिपुत्रों को मरने नहीं देंगे. यह वास्तव में बयान का आधा हिस्सा हिस्सा था. आधा हिस्सा जो कहा नहीं गया वो कुछ इस तरह से है, ‘हम बस यह सुनिश्चित करेंगे कि किसान के पास मरने के अलावा कोई विकल्प ना बचे.’
किससे जा कर कहें? कोई सुनने वाला है नहीं …..
उरई में मुझे स्थानीय पत्रकार ने जिलाधिकारी जांच की वो रिपोर्ट ला कर दी जिसका जिक्र मुख्य सचिव घंटे भर पहले टीवी पर कर रहे थे. रिपोर्ट के मजमून में लिखा हुआ था कि जिलाधिकारी के नेतृत्व में बनी कमिटी ने हर मृत्यु प्रकरण की स्थलीय जांच करने के बाद बाद गंभीरता से विचार कर नतीजे हासिल किए हैं. मैंने इसी रिपोर्ट को क्रॉस चेक करने का फैसला किया.
जालौन जिले की उरई तहसील का गांव करमेर . भगवानदीन(सरकारी रिकॉर्ड में भगवानदास) आधे बीघे के काश्तकार हैं. वो साल भर पहले तक दो बीघे के मालिक हुआ करते थे. पोती की शादी के खातिर लिए गए कर्ज को पाटने के लिए उन्हें अपनी डेढ़ बीघा जमीन 1.25 लाख में बेच दी थी. सीमान्त किसान किस प्रक्रिया से भूमिहीन बनता है इसको समझाना मुश्किल नहीं है उन्होंने 6 बीघा जमीन 5500 सौ रूपए प्रतिबीघा की दर से लीज पर ली थी. स्थानीय भाषा में इसे बलकट कहा जाता है.
सिर्फ मरना हमारे पल्ले है...

सिर्फ मरना हमारे पल्ले है…
बुंदेलखंड में 1.76 करोड़ हैक्टेयर भूमि पर 2.33 करोड़ किसानों का परिवार पल रहा है. इसमें से 1.85 करोड़ किसान सीमान्त की श्रेणी में आते हैं जिनके पास एक हैक्टेयर भूमि की मिल्कियत भी नहीं है. इन सीमान्त किसानों के लिए जिन्दगी गुजारने के लिए बलकट पर खेती करना एक किस्म की मजबूरी बन चुका है.
15 तारीख को हुई ओलावृष्टि के बाद खेत देखने गए भगवानदीन ने सदमें की वजह से दम तोड़ दिया. उनके भाई घटना को याद करते हुए कहते हैं-

‘सुबह के सात-आठ बजे का वक्त रहा होगा. चार दिन पहले ही बारिश हुई थी. सब चौपट हो गया था. भाई खेत में गए तो बर्बादी उनसे बर्दाश्त नहीं हुई. वहीँ बैठ गए. सीने में जोर से दर्द होने की शिकायत की. खेत से लोगों ने हमें आकर खबर दी. मैं पहुंचा और उन्हें घर लेजाने लगा तो कहने लगे एक कदम भी चल नहीं पाएंगे. इसके बाद दो लोग घर से दौड़ कर खाट ले कर आए. उस पर लिटा कर घर ले कर आए. बस यहीं उन्होंने प्राण त्याग दिए.
वो कह ही रहे थे कि पास ही बैठी अधेड़ महिला ने भगवानदीन के घर के बाहर लगे नीम की तरफ इशारा कर के बताने लगीं , ‘इसी नीम के पास ला कर लेटा दिया था इन लोगो ने. मैं भैंस का सानी-पानी कर रही थी. बड़ी जोर-जोर से चिल्ला रहे थे बहुत दरद हो रहा है. हमने कहा कि अस्पताल ले जाओ पर अस्पताल कहाँ पहुंचाते दस मिनट में मिट्टी हो गए.’

भगवानदीन के भाई ने बताया कि उनका भतीजा मजदूरी के लिए उरई गया हुआ था. इसलिए पोस्टमार्टम नहीं हो सका. जब मैं भगवानदीन के घर पर बैठ कर उनकी मौत के प्रकरण को दर्ज कर रहा हूँ उस समय भगवानदीं का बेटा उरई में दिहाड़ी मजदूरी कर रहा है.
सरकारी रिपोर्ट कहती है कि भगवानदीन सांस की बिमारी की वजह से मौत का शिकार हुए. उन्होंने पूरे कुनबे की जमीन को उनके खाते में लिख दिया है. हालांकि फिर भी यह आंकड़ा 1 हैक्टेयर के पार नहीं जा पाया. आर्थिक स्थिति के कॉलम में ‘ठीक है’ बैठा दिया गया है. भगवानदीन बुन्देलखंड के 1.85 करोड़ सीमान्त किसानों में से एक है. ये परिवार उस लक्ष्मण रेखा के नीचे है जिसे अर्थशास्त्री बीपीएल कहते हैं. अब कोई भी ठीक दिमाग का आदमी इस परिवार की आर्थिक स्थिति को ठीक कैसे करार दे सकता है?
मैं चलने को होता हूँ कि भगवानदीन के भाई मेरे साथ उठ खड़े होते हैं. उनके हाथ जुड़ जाते हैं. वो कहते है, ‘क्या बताएं साहब बस मरना ही हमारे पल्ले है. इतना कष्ट हम लोग भोग रहे हैं पर किसे जा कर कह दें? कई सुनने वाला है नहीं.’
मोटरसाइकिल की पिछली सीट से मैं एक बार भगवानदीन के घर की तरफ नजर घुमाता हूँ. दरवाजे के किनारे टंगा आँखों का एक जोड़ा गली के अंत तक मेरा पीछा करता है. शायद ये भगवानदीन की छोटी पोती होगी जिसकी शादी इस साल होने वाली थी…..

सामाजिक न्याय का मोतियाबिंद….

दोपहर के 1 बज रहे हैं. उरई तहसील का गांव बम्हौरी कला. इस क्षेत्र में घूमने के दौरान मेरी दो नामों से बार-बार मुठभेड़ होती रही है. बम्हौरी और चमारी. बम्हौरी मतलब सवर्णों का गांव और चमारी मतलब दलित बस्तियां. मैं जैसे ही बम्हौरी के अंदर जाने वाली सड़क पर मुड़ता हूँ मुझे फर्क नजर आ जाता है. दो तल्ले का इंटर कॉलेज. पानी सप्लाई की टंकी. टूटी सकड़ जिससे मैं रास्ते भर परेशान रहा यहां मुड़ते ही राष्ट्रीय राजमार्ग का रूप ले लेती है. पक्के मकान. साफ़ पोखर. गांव वालों से बात करने पर पता चलता है कि मुख्यमंत्री ने साल भर पहले इस गांव का दौरा किया था.
मैं गांव के बीच बने मंदिर के बाहर रुकता हूँ. मुझे गोटीराम के घर का पता पूछना है. गांव का एक आदमी हमारी मोटरसाइकिल पर लद जाता है. हम एक संकरी सी गली के बाहर रुकते हैं. वो आदमी मुझे कहता है इस गली में गोटीराम का घर है. मेरे गोटीराम के घर तक छोड़ने के आग्रह को वो ख़ारिज कर देता है. ‘आप चले जाइए मैं इधर नहीं जाता.’ साथ में गए स्थानीय पत्रकार ने बताया कि यह ठाकुरों का गांव है. यहां के ठाकुरों का काफी ‘रौला’ है आसपास के क्षेत्र में.
फरवरी के महीने में जालौन राष्ट्रीय सुर्ख़ियों में था. यहां एक दलित ने ठाकुरों के बराबर बैठ कर खाना खाने का दुस्साहस किया था. इसके चलते ठाकुरों की नाक कट गई. बदले में ठाकुरों ने अमर सिंह दोहरे नाम के दलित की नाक काट ली. पुलिस ने इस मामले को नाक पर लगी चोट करार दिया था. इसके कुछ दिनों बाद ही एक दलित को मल-मूत्र खिलाने की खबर ने फिर से सामाजिक न्याय के नारे पर खड़ी प्रदेश सरकार को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया था.
घर में सभी खाट तो टूटी हुई हैं...

घर में सभी खाट तो टूटी हुई हैं…
जब में उस संकरी गली को पार करके गोटीराम के घर पर पहुंचा तो वहां चार बच्चियों और एक 70 वर्षीय विकलांग वृद्ध के अलावा कोई नहीं था. बड़ा बेटा बलवान अपनी छोटी बहन और बीवी के साथ दूसरों के खेत में गेंहू काटने गया हुआ था . गोटीराम की पत्नी अपने छोटे बेटे के साथ मुआवजे के चक्कर में तहसील गई हुई थीं.
मेरे पहुंचने पर पड़ोस की महिला ने पास ही खड़ी आठ साल की लड़की को अंदर से बैठने के लिए खाट लाने के लिए कहा. बच्ची अंदर से जो खाट लाइ उसकी भौतिक स्थिति यह नहीं थी कि वो मेरा वजन संभाल सके. महिला ने बच्ची को ‘अच्छी खाट’ लाने के लिए कहा. बच्ची का जवाब था, ‘सभी खाट तो टूटी हुई हैं.’ इस पर मैंने महिला को कहा कि वो अपने घर से कोई कुर्सी दे दें. महिला का जवाब था हम लोग इनके छुए को हाथ नहीं लगाते. हमारी बिरादरी अलग है. पूछने पर पता चला कि पड़ोसी महिला कुम्हार बिरादरी की थीं. जबकि गोटीराम चमार.
गोटीराम के घर के दरवाजे पर खड़ा मैं सोच रहा था कि सामाजिक न्याय की जिस राजनीति की कसमें खाई जा उसका मुहाना कहाँ जा कर खुलता है? सवर्ण और अवर्ण के भीतर के तकरार को छोड़ दीजिए यहां पिछड़ा भी दलितों को दोयम दर्जे का नागरिक समझाता है. इतना ही नहीं चमार मेहतर को खुद से नीचा समझाता और कुम्हार चमार से खुद को ऊँचा समझता है. ब्राह्मण और ठाकुरों के बीच उच्चता के लिए इसी किस्म का झगड़ा है. ब्रहामणों में अपनी उप-जातियों के बीच इसी किस्म की तकरार मौजूद है. हमारे बुद्धिजीवी जो सामाजिक न्याय के झंडाबदार है इस कोंट्राडिक्शन से वाकिफ नहीं हैं क्या? दरअसल वोटों के लिहाज से पिछड़ा और दलित मिला कर जो समीकरण तैयार होता है उससे सत्ता की चाबी बनती है. सत्ता अक्सर असल सवालों को किनारे लगा देती है. सलेक्टिव अँधापन अच्छा शब्द है….

और उसकी लाश दो घंटे तक लटकती रही……

पचास साल के गोटीराम एक भूमिहीन किसान हैं. वो हर साल बलकट पर भूमि ले कर जोतते हैं. इसके अलावा परिवार खेत में मजदूरी करता है. दो लड़कों और चार लड़कियों के पिता गोटीराम ने इस साल दस बीघा जमीन 5500 रूपए प्रति बीघा की दर से लीज पर ली थी. साल भर पहले अपनी सबसे बड़ी बेटी की उन्होंने शादी की थी. इसके लिए उन्होंने स्थानीय महाजन से 60 हजार रूपए 10 प्रतिशत प्रति माह की दर से उधार लिए थे. अब यह रकम 1.5 लाख रूपए के लगभग पहुंच चुकी है.
गोटीराम ने 8 मार्च को अपने घर के बाहरी कमरे में फांसी लग कर आत्महत्या कर ली. जिसे मैं गोटीराम का घर कह रहा हूँ वो एक कमरे, दालान और खुली रसोई का मिट्टी और खपरेल से बना हुआ ढांचा है. दलान में तीन टूटी खाट हैं. एक तेल की चिमनी और दूध का डब्बा लटका हुआ है. डब्बे में बकरी का दूध होगा क्योंकि बाहर एक बकरी का छोटा बच्चा बंधा हुआ है. गोटीराम की 10 और 8 साल की दो बेटियां अपनी 1 और 3 साल की विकलांग भतीजी का ध्यान रखने के लिए घर पर छोड़ दी गई हैं.
उसकी लाश दो घंटे तक लटकती रही ताकि लोगों की जात बची रहे....

उसकी लाश दो घंटे तक लटकती रही ताकि लोगों की जात बची रहे….

गोटीराम के पुत्र बलवान पूरी घटना को इस तरह से बयान करते हैं-

आठ मार्च की बात है. मेरी मां और मैं उरई गए हुए थे. मजदूरी के लिए. पिता जी दोपहर को खेत से लौटे. इसके बाहर के कमरे में खुद को बंद कर लिया. मैं घर पर था नहीं. शाम को घर वालों ने चाय के लिए दरवाजा बजाया. अंदर से कोई जवाब नहीं आया. तब जा कर दरवाजा तोड़ा गया. अंदर बाबा की लाश गमछे से लटक रही थी. मैं सात बजे तक उरई से लौटा. रास्ते में ही हमें समाचार मिल गया था. घर पहुंचा तो बाबा की लाश वैसे ही लटकी हुई थी. ‘

पिता की लाश के दो घंटे लटकते रहने का कारण जानने की कोशिश की तो बलवान थोड़ा असहज हो गए. पहले कहा कि घर में सिर्फ औरते थीं सो उनकी हिम्मत नहीं पड़ी लाश उतारने की. जब मैंने कहा कि गांव में से कोई उतार देता तो बलवान का जवाब था, ‘कोई हमारी बिरादरी की लाश को क्यों छुएगा?’

बलवान की छोटी 8 साल की छोटी बहन सुमन बीच में कहती है, ‘ जब से बाबा मरे हैं तब से उस कमरे में नहीं जाती. भीतर जाने से डर लगता है.’
बलवान आगे बताते हैं कि उनके पिता की मृत्यु शाम को 5 बजे के लगभग हुई थी. पुलिस उनके घर दूसरे दिन सुबह 9 बजे पहुंच पाई. बम्हौरी से नजदीकी पुलिस स्टेशन की दूरी 6 किलोमीटर है. इस दूरी को तय करने में पुलिस को 15 घंटे का समय मिल गया.
सरकारी जांच दल ने अपनी रिपोर्ट में बलकट भूमि के कॉलम में ‘नहीं’ शब्द को सभी 27 जांचों में कॉपी-पेस्ट कर दिया है. जबकि मैं बलवान के साथ उनके उस खेत पर जा कर आया जिसे उसने बलकट के रूप में लिया था.
जमींदारी उन्मूलन कानून की धारा 229 बी के अनुसार जमीन को खेती के लिए लीज पर देना और लेना कानूनी जुर्म है. अगर कोई किसान निश्चित समय अवधी तक किसी भूमि को जोतता आया हो तो वो उसकी मिल्कियत हो जाएगी. यह कानून बटाईदारी प्रथा को समाप्त करने के लिए बनाया गया था. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. बुंदेलखंड में 40 फीसदी से ज्यादा किसान बलकट पर भूमि लेते हैं. इन पेचीदगियों के चलते जांच दल ने इस कॉलम में ‘नहीं’ चस्पा कर दिया. अब सवाल यह है कि इस कॉलम से जांच रिपोर्ट की शोभा और अविश्वसनीयता को बढ़ाए जाने की मजबूरी क्या थी? बहरहाल सरकारी जांच दल ने बड़ी गंभीरता से जांच करने के बाद पाया कि गोटीराम ने पारिवारिक कलह की वजह से जान दी.
बातचीत खत्म और चाय आने के बीच के समय में बलवान अपने कुत्ते को सहलाने में व्यस्त था. मैं अपने सामान बैग में तह कर रहा था. इतने में बलवान मेरी तरफ मुड़ा. ‘ये हमारा कुत्ता है साहब. यह रात भर बाबा की लाश के पास बैठा रहा. सात दिन तक खाना नहीं खाया. ये जानवर है साहब. आप सोचिए हमारा क्या हाल रहा होगा?’
मैं उरई लौट रहा हूँ. शाम हो चुकी है. बिल्कुल बगल से एक स्कार्पियो सनसनसनाती हुई गुजर गई. गाडी पर कोई नंबर प्लेट नहीं है. हालांकि पिछले सीसे पर नेता जी का फोटो मय साईकिल चस्पा हुआ है. मैंने कान में इयरफोन लगा रहे थे. हिरावल गोरख को गा रहा था-

‘हाथी से आई, घोड़ा से आई
अंग्रेज बाजा बजाई…
समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई
समाजवाज उनके धीरे-धीरे आई ‘
पिछली दो किश्तें – 

सुसाइड नोट : दिल के दौरों और सरकारी दौरों के बीच….


सुसाइड नोट: हाँ यह सच है, लोग गश खा कर गिर रहे हैं….
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