क्रांतिकारियों में भगोड़े और भगोड़ों में क्रांतिकारी! – जनज्‍वर गिरोह

क्रांतिकारियों में निठल्‍ले  और निठल्‍लों में क्रांतिकारी!  – जन-ज्‍वर गिरोह!
पिछले कुछ दिनों से जब से पुराने ज़माने के थकेहारे रिटायर्ड “क्रांतिकारी” गिरिजेश तिवारी जैसे लोग मनज्‍वार(कुण्ठित मन का ज्‍वार!) के कर्ताधर्ता के भगोड़े करकमलों से रोज़ रात को सोने से पहले अपनी बौद्ध‍िक “इन्द्रियों” पर कुत्‍साप्रचार के ‘जापानी तेल’ की जमकर मालिश करवाने के बाद अफ़वाहबाजी की वियाग्रा भकोस रहे हैं, तबसे उन्‍हें नींद बहुत ही अच्छी आ रही है! बुढापे में ये रोग बहुत सताता है कृश्‍नचंदर के गधों को क्‍योंकि उन्‍हें जवानी में समय पर एक अदद गधी नहीं मिलती! भगवान कृश्‍नचंदर के सभी गधों को एक गधी टाईम पर जरुर दे!! वरना सच्‍चे क्रांतिकारियों की तो शामत ही समझिये!! भगोड़ों के कुत्‍साप्रचार का जर्जर रथ अब कलियुग में थकेहारे बुढऊ हांफते-खांसते-खखारते हुये हांक रहे हैं, इसलिये रथ है कि ठीक से दौड़ ही नहीं पा रहा है। प्रचण्‍ड युद्ध हो रहा है सर्वहारावर्गीय और गैरसर्वहारा-मध्‍यवर्गीय प्रवृत्तियों में। बोल्‍शेविक और मेंशेविक-ट्राट्स्‍कीपंथी प्रवृत्तियां टकरा रही हैं आपस में और हम कामना करते हैं कि इक्‍कीसवी शताब्‍दी के शुरुआत में इस टक्‍क्‍र का भी इस देश के लिये कुछ वैसा ही महत्‍व हो जो कि पिछली शताब्‍दी के शुरुआती दशक में रुस के लिये साबित हुआ।
पहली बात, भगोड़ों में क्रांतिकारी और क्रांतिकारियों में भगोड़े के रुप में जनज्‍वर(जन को जब ज्‍वर हो जाये!) और उनके समर्थकों की जनचेतना के खिलाफ़ आलोचना है कि उन्‍हें किताबों का व्‍यापार नहीं करना चाहिये (हकीकत यह है कि प्रकाशन का काम जनचेतना का गौण काम है, मुख्य ताक़त उनकी मज़दूर वर्ग में ही लगी हुयी है)। पर ऐसा तो लेनिन ने खुद करने की सलाह दी और तमाम कम्‍युनिस्‍ट पार्टियों ने ऐसा किया भी कि बुर्जआ जनवाद के सीमित स्‍पेस का इसतेमाल करके क्रांतिकारी साहित्‍य जनता तक पहुंचाया। जनचेतना भी यही कर रहा है और इस मामलें में तो एक किस्‍म का ट्रेण्‍डसैटर रहा है। जनचेतना ने किताबें छापनीं शुरु की और उसकी देखा देखी कई अन्‍य संगठनों ने भी प्रकाशन के काम को शुरु कर दिया पर तौहमत सिर्फ जनचेतना पर लगाई जाती है, अन्‍य संगठनों के प्रकाशनगृहों पर नहीं। पीपीएच आदि पर तो कई बार बाबा रामदेव की किताबों से ज्‍योतिष आदि तक की किताबें मिल जाती हैं। ऐसा सिर्फ़ पुराना हिसाब-किताब चुकता करने के लिये किया जाता है ना कि किसी सिद्धान्‍त की फिक्र में। भगोड़े ऐसे में हिरावल बन जाते हैं और आंगन की मुर्गियों की तरह फुदकने वाले मध्‍यवर्गीय जीवनशैली जीने वाले वाले निष्‍क्रिय परिवर्तनकामी उनके सामा‍जिक आधार बन जाते हैं और फिर शुरु होता है ‘तू मेरी सूंघ और मैं तेरी सूघूं’ का गंदा खेल! अगर यह संभव है जनचेतना किताब बेचते बेचते व्‍यापारी बन जाये तो यह भी उतना ही संभव है कि कोई “क्रांतिकारी” ‘व्‍यक्त्वि विकास’ की परियोजना चलाते हुये अपने समर्थकों से पैसे और चंदा वसूलते हुये चंदाखोर व्‍यापारी में (ख्रुश्‍चेव की तरह) “शांतिपूर्ण संक्रमण” कर जाये! वैसे विश्‍व इतिहास में “शांति” की सबसे ज्‍यादा सलाह उन्‍ही पाखण्डियों ने दी है जो स्‍वयं सबसे ज्‍यादा हिंसक थे!
दूसरी बात, कोई क्रांतिकारी संगठन किताब बेचता है तो इसका ये मतलब नहीं है कि वो अनिर्वात: व्‍यापारी बन जायेगा। कोई क्रांतिकारी संगठन मज़दूर वर्ग के हिरावल यानी एक क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण की बात करेगा तो इसके मतलब ये नहीं कि वो संगठन अनिर्वात: हिरावलवाद (vanguardism) करने लगेगा। कोई क्रांतिकारी संगठन जनसंगठन बनाने की बात करेगा तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह अनिर्वात: मासिज्‍म जैसे भटकाव का शिकार हो जायेगा। कोई संगठन क्रांति की ज़रुरत के हिसाब से बौद्धिक काम करेगा तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह संगठन अनिवार्यत: बौद्धिकवाद (intellectualism) करने लगेगा। कोई क्रांतिकारी संगठन यदि विचारधारा की ठीक से समझ बना कर, बुनियादी वर्गों में काम करते हुये, पहले दिन से सांस्‍कृतिक क्रांति चलाते हुये समय-समय पर संगठन में उठने वाले संसोधनवादी और अतिवामपंथी रुझानों-प्रवृत्त्यिों को सुलझाते हुये, अपनी नीतियां, अपने काडर और नेतृत्‍व के वर्गीय कम्‍पोशीज़न का सर्वहाराकरण करते हुये, अपने देशकाल की परिस्थितियों को ठीक से समझकर एक सही कार्यक्रम को लागू करे तो उक्‍त प्रकार के भटकावों से वह क्रांतिकारी संगठन एक हद तक बच सकता है।
तीसरी बात, हमारे देश के कई कौमरेड परिवारवाद की गलत निम्‍नपेटी बुर्जुआ आदर्शवादी सोच रखते हैं और ये चीज़ भी उन्‍हें अचेतन कुतसाप्रचारों की तरफ़दारी करने की ओर धकेलती है। भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन की एक कमी यह भी रही है कि भारतीय कम्‍युनिस्‍ट कई बार अपने परिवारों को क्रांति की आंच से बचाते हुये क्रांति करते रहे (अलबत्तता इसके अपवाद भी मौजूद हैं)। कई संगठनों में नौजवान पुरुष कौमरेड आ गये, ईमानदारी और बहादुरी से काम भी किया और कुर्बानी भी दी पर कई जगह यह भी देखा गया कि वे अपनी पत्‍नी से ‘स्‍त्रीधर्म’ निभवाते रहे, उसे बीएड-टीचर-स्‍कूल वगैरह में फिट करके खुद क्रांति करते रहें, अपने बच्‍चों को डाक्‍टर-इंजीनियर बनाते रहे और दूसरे के बच्‍चों को भग‍तसिंह बनने के लिये कहते रहे। इसलिये यह ज़़रुरी है कि हम अपने परिवार, बीवी, बच्‍चों, भांजे, भतीजियो, आदि को कम्‍युनिस्‍ट बनाये (जाहिर है कि दबाव देकर या धमकाकर या जबरदस्‍ती नहीं)। जनचेतना जिस क्रांतिकारी धारा का प्रतिनिधित्‍व करती है उसमें इस बात पर ज़़ोर दिया जाता है कि परिवार के सदस्‍यों को संगठन में लाया जाये, उनका वर्ग रुपान्‍तरण करते हुये उन्‍हें कम्‍युनिस्‍ट बनाया जाये, और उनकी प्रतिबद्धता और काबलियत को परखते हुये व साथ ही उनकी क्षमताओं को बढ़ाते हुये उन्‍हें जिम्‍मेदारी दी जाये। और परिवार के लोगों के संगठन में आने के साथ ही दूसरी लड़ाई शुरु हो जाती है कि अपने समय के ज्‍वलंत प्रश्‍नों के उत्‍तर तय करते समय कौमरेड परिवारवाद ना करने लगें यानि की सही-गलत का फैसला रिश्‍ते-नाते से ना होकर तर्क और विज्ञान से हो। क्रांतिकारी पार्टी बनाने की वैज्ञानिक प्रक्रिया में कई बार कई साथी अलग-अलग कारणों से घर लौट जाते हैं। इनमें कई भले अच्‍छे साथी होते हैं जो पैरिफिरी पर रहकर संगठन की यथासंभव मदद करते रहते हैं। उनसे किसी को कोई समस्‍या नहीं होती है पर आज जैसे समय में जब पूरी दुनिया में क्रांति की लहर पर प्रंतिक्रांति की लहर हावी है तब बीच-बीच में पूरी तरह से पूंजीवादी हो चुके समाज में से कुछ पैसिव रैडिकल, निठल्‍ले, पक्‍के कैरियरवादी भी उठकर संगठन में नेता बनने के लिये चले आते हैं जिसमें उनकी वर्गीय पृष्‍ठभूमी, उनके निजी जीवन के इतिहास आदि की भी एक भूमिका होती है। जनज्‍वर और उनके समर्थक का एक हिस्सा ऐसे ही लोगों से मिलकर बना है। इसमें कोई नयी बात नहीं है। पहले भी ट्राटस्‍की से लेकर देंगजियोपिंग जैसे कीड़े क्रांतिकारी संगठन में पैदा होते रहे हैं। जनचेतना नियम से ऐसे कीड़ों को उठाकर बाहर फेंक देता है क्‍योंकि सतत् सांस्‍कृतिक क्रांति अगर संगठन में पहले दिन से ना चलायी जाये तो पूरे संगठन का ही मध्‍यवर्गीकरण (bourgeoisfication ) हो जाता है जिसकी चर्चा लेनिन ने काऊत्‍सकी जैसे गद्दारों का विश्‍लेषण करते हुये की जिसमें वे संसोधनवाद के पैदा हाने के सामाजिक आधार की चर्चा करते हैं। इसलिये जनचेतना ठीक करता है। अगर आपको संगठन में रहकर क्रांति नहीं करनी, स्‍वंय कवि-नेता-पत्रकार-सम्‍पादक-बुद्धि‍जीवि आदि बनना है तो शौक से बनिये पर तब आप संगठन के बाहर चले जाईये। आपको कोई नहीं रोकेगा। इसलिये मात्र संगठन में एक ही परिवार के कुछ लोगों के किन्‍हीं पदों पर रहते हुये क्रांतिकारी काम करना मात्र ही परिवारवाद नहीं होता है। पर हां, क्रांतिकारी संगठन से भागकर, स्‍वंय कवि-नेता-दैनिक भास्‍कर का पत्रकार-सम्‍पादक-बुद्धि‍जीवि बनकर, अपने बीवी-बच्‍चों को क्रांति की आगताप से बचाकर आराम से रखकर, डाक्‍टर-इंजीनियर बनाना ज़रुरी परिवारवाद है और जनचेतना की धारा ऐसा नहीं करती। इसलिये इन भगोड़ों और उनके समर्थकें को जनचेतना को ऊलजुलूल बकने से पहले अपने गिरेबां में झांक कर देखना चाहिये। लेनिन के नेतृत्‍व वाली पार्टी में कई कम्‍युनिस्‍टों के  अन्‍य परिवारवाले भी काम करते थे, खुद लेनिन की पत्‍नी पार्टी में थी!! अगर इस बात को नहीं समझें तब को लेनिन से बड़ा परिवारवाद करने वाला और गांधी से बड़ा कम्‍युनिस्‍ट कौन होगा? ?! ऐसे लोगों के लिये गांधी तो लेनिन से भी बड़ा कम्‍युनिस्‍ट होगा जिसने अपने जीवन में परिवारवाद कभी नहीं किया और अपने बच्‍चों को भी अपने नाम का इसतेमाल कभी नहीं करने दिया। ये परिवारवाद की निम्‍न पेटीबुर्जुआ सोच है और ऐसे समाज जहां छोटे मालिकों की बहुतायत होती है वहां जनमानस में परिवारवाद, ईमानदारी आदि (मसलन गांधी “ईमानदार” था, जेपी-लोहिया “ईमानदार” थे, केजरीवाल “ईमानदार” है, अन्‍ना “ईमानदार” है!) के प्रति ऐसा भावुक कूपमण्‍डूी रवैया बहुत देखने को मिलता है जिसका सर्वहारावर्गीय वैज्ञानिक पहुंच-पद्धति से कुछ लेनादेना नहीं है।
चौथी बात, लेनिन ने किताब लिखी जिसका शीर्षक दिया “गद्दार काऊत्‍सकी” और पूरी किताब में लेनिन ने काऊत्‍सकी की तीखी आलोचना की और उसे सीधे सीधे गद्दार साबित किया पर पूरी किताब में लेनिन ने काऊत्‍सकी पर ऐसे हमले कहीं नहीं किये कि “वहां परिवारवाद है”, “काऊत्‍सकी ने बर्लिन में मकान कब्‍जा लिया”, “अपने परिवार के लोगों को नेतृत्‍वकारी पद दे दिये”, “अपने लड़के को गिटार दिला दिया”, “कार्यकर्ता की पढ़ाई छुड़वा दी” (मानो पढ़ाई ना छुड़ावते हो सुसरा साक्षात कार्ल मार्क्‍स या एंगेल्‍स ही बन जाता!)। विरोधी पर हमला करने के मामले में लेनिनवादी पहुंच पद्धति अपनायी जानी चाहिये वरना आप कभी सही और गलत में अंतर कर ही नहीं पायेंगे। जाहिर सी बात है कि चार शुभचिंतक जनचेतना के भी हैं, और चार शुभचिंतक जनज्‍वर के भी और जनचेतना के काम को पसंद करने वाले जनचेतना का साथ देंगे और जनज्‍वर के काम (?!) को पसंद करने वाले जनज्‍वर का साथ देंगे तो फिर फैसला होगा कैसे?! ठीक यहीं लेनिनवादी पहुंच पद्धति का नीरक्षीर विवेक काम आता है जो विरोधी के निजी जीवन को नहीं उसकी राजनीति को निशाना बनाता है। लेनिन ने मार्तोव से लेकर प्‍लेखानोव से लेकर काऊत्‍सकी पर वैचारिक आक्रमण करा पर जनज्‍वर के यौनरस भोगी भगोड़ों और निठल्‍ले बुद्धीजिवियों की तरह उनके निजी जीवन पर आरोप कभी नहीं लगाये। ऐसा करना वैचारिक रुप से कंगले और भिखारीयों का काम होता है, कम्‍युनिस्‍ट ऐसा नहीं करते। जाहिर सी बात है कि जब काऊत्‍सकी ने वर्गहित से गद्दारी की तो उसके नेतृत्‍व में जर्मन कम्‍यनिस्‍ट पार्टी में परिवारवाद आदि की तमाम बुराईयां फैली होंगी और अनिवार्यत: एक संसोधनवादी पार्टी में यह सब होता है पर इसके बावजूद हम लेनिन को कहीं भी विरोधी के निजी जीवन पर हमला करते नहीं देखते। इसी पद्धति को अपने को कम्‍युनिस्‍ट कहने वाले लोगों को जनचेतना के साथियों पर लागू करना चाहिये। हां गोरक्षा दल और ‘फलाने’ रक्षा दल के सहयोग से आजमगढ़ में ‘व्‍यक्तित्‍व विकास’ की अधकचरा योजना का मनका फिराते हुये फ़कीरों की तरह “अच्छी कुण्ठा रहित इकाई, साँचे ढले समाज से” के फटे ढोल को मगन होकर बजाते हुये टाईमपास कर रहे लोगों की अलग बात है। वैसे आप इन पंक्तियों को ज़रा गौर से पढ़े तो आपको पता चल जायेगा कि हम गिरिजेश तिवारी जैसों को पैसिव रैडिकल, गैरपार्टीवादी, बकवासी मध्‍यवर्गीय निठल्‍ला बुद्धजीवि यूं ही नहीं कह रहे। जनचेतना के साथी स्‍वयं संसोधनवाद व संसदीय वामपंथियों की तीखी आलोचना करते रहे हैं लेकिन जिस किसी ने भी उनके नेतृत्‍व में निकलने वाली तमाम क्रांतिकारी अखबार और पत्र-पत्रिकाएं वगैरह पढे हैं वे इस बात को जानते हैं कि उनमें कहीं भी संसदीय वामपंथियों व वैचारिक विरोधियों के निजी जीवन को मुख्‍य मुद्दा नहीं बनाया जाता और आलोचना मुख्‍यत: उनकी नीतियों की ही होती है। इसलिये तीखी आलोचना बिलकुल होनी चाहिये पर जनचेतना की राजनीतिक लाईन की, ना कि उनके संगठन के अंदर के मसले की। किसको क्‍या पद मिला है, कौन किसका रिश्‍तेदार, मित्र आदि है इससे आप को क्‍या मतलब? जिसको जो भी पद मिला है वो किस किस्‍म की राजनीति को लागू करता है और किस वर्ग का हित साधता है यह महत्‍वपूर्ण होता है। हो तो ऐसा भी सकता है कि किसी संगठन में एक ही परिवार के कई सदस्‍य ना काम करते हों पर वह संगठन पूरी तरह बुर्जुआ हितों को साधने का काम करता हो। इसलिये हम फिर दोहराते हैं कि एक क्रांतिकारी संगठन में एक ही परिवार के कई सदस्‍यों का काम करना ही परिवारवाद नहीं है। प्रश्‍न यह है कि वे लोग किस वर्ग की राजनीति को लागू करते हैं।
पांचवी बात और अहम बात- जो लोग क्रांतिकारीयों में लौंडेबाज और लौंडेबाजों में ममऊगों के रुप में जाने जाते हैं(!) उनका कहना है कि जनचेतना व्‍यापारी में क्रांतिकारी और क्रांतिकारियों में व्‍यापारी है और वहां “परिवारवाद” है। ऐसा “साबित” करने के लिये इन मसखरों ने वही पुराना बासी तरीका अपना रखा है कि “जनचेतना से निकाले गये पुराने साथी ने बताया कि वहां उन पर बहुत अत्‍याचार, शोषण हो रहा था”! अरे भय्या तो छोड़ कर चले जाते और नया क्रांतिकारी संगठन बनाकर जनचेतना को व्‍यवहार में गलत साबित कर डालते। हकीकत तो यह है कि इन लोगों को संगठन छोड़े हुये कम से कम 10 साल से तो ऊपर हो ही चुके हैं (यदि मोटै तौर पर एक औसत लें तो)। तब से लेकर आज तक ये एक मज़दूर अखबार निकालते हुये, क्रातिकारी पत्र पत्रिकाएं छापते हुये एक नयी क्रांतिकारी पार्टी ही खड़ी कर लेते!! किसने रोका था इनको?! जनचेतना के साथियो ने खुद अतीत में बहुत पहले ठीक यही करके दिखाया था कि जब उनके लिये पुराने संगठन में हावी गलत राजीनितिक पहुंच-पद्धति की वजह से उसमें बने रहना असंभव हो गया तो उन्‍होने पुराना संगठन छोड़कर नया संगठन बनाया ना कि इन भगोडों की तरह कवि बनकर प्रकाशन का धंधा शुरु करके-प्‍लेबाय और मैकिस्‍म जैसी चीजें बेचकर-अखबार के पत्रकार-संपादक बनकर पूरी तरह निठल्‍ले, गैरराजनीतिक अकर्मण्‍य बकवासी बुद्धिजीवि बन गये और ना ही उन्‍होनें अपने पूर्व संगठन के नेतृत्‍व या अन्‍य साथियों के खिलाफ़ जनज्‍वर की तरह कुत्‍साप्रचार का अभियान चलाया!!  ये भगोड़े भी ऐसा कर सकते थे पर किया नहीं। क्‍या करते रहे अब तक ये निठल्‍ले?! इन लोगों में वैसे भी आपस में कोई वैचारिक एकता नहीं है बस जनचेतना के खिलाफ़ कुत्‍साप्रचार करने के लिये ये सारे गंदे नाले एक जगह आकर इकठ्ठा हो जाते हैं। कायदे से ये तो जनचेतना समूह है जो इनकी आलोचना करने के लिये इनके नजी जीवन को निशाना बनाये क्‍योंकि इन लोगों की कोई राजनीतिक पार्टी या कोई राजनीतिक काम है ही नहीं जिसकी आलोचना की जा सके!! ये सभी अपने नेहनीड़ों के मध्‍यवर्गीय गृहस्‍थ स्‍वामी हैं! इंकलाब के नाम पर बस निठल्‍ली बौद्धिक गोष्‍ठीयां करते हुये इस शहर से उस शहर तक बंदरकुद्दी मारते रहते हैं। पर हां, इन निठल्‍ले गोष्‍ठीबाज़ों की निश्चित राजनीति है – निष्क्रिय परिवर्तनकामी, गैरपार्टीवादी और विसर्जनवादी निठल्‍ले अकमर्ण्‍य बकवासी बुद्धिजीवि जो मुख्‍यत: इण्‍टरनेट और गोष्ठियों में तर्ज़नी उठा-उठाकर घनगर्जन करते रहते हैं!! पूंजीवाद का कोई क्रांतिकारी विकल्‍प इन्‍हें नहीं देना है और जो दे रहे हैं उनकी टांग पीछे खींचने में लगे रहना है। ये लोग अपना इंकलाब बस फेसबुक पर ही करते हैं रोज कुत्‍साप्रचार करके। भगोड़ों का टिड्डीदल जनचेतना पर “परिवारवाद” और किताबों के व्‍यापार का आरोप लगता है पर खुद ये और इनके समर्थक मसलन अशोक पाण्‍डेय जैसे लोग आज कवि के रुप में प्रतिष्ठित हैं, खुद का प्रकाशन का धंधा करने की योजना शुरु कर चुके हैं, और सुना बताया कोई महिला संगठन भी बनाया है (कागज में) जिसमें खुद के परिवार की कोई परिचित काम करती हैं और उधर गिरिजेश तिवारी जनचेतना के साथियों द्वारा उठाये गये सवालों का तर्कपूर्ण जवाब देने के बजाये अपनी “सादगी”, अपनी “दीनता”, अपने “तजु़र्बें”, अपने “भालेपन” आदि का प्रत्‍यक्ष-अप्रत्‍यक्ष हवाला देते अपने पक्ष में सहानुभूति बटोरते हुये ऐंठ कर बताते हैं कि उन्‍होनें अपने जीवन में किसी व्‍यापारी (उनका इशारा जनचेतना की ओर है!!) का पट्टा नहीं पहना पर जनज्‍वर का दिया कुत्‍साप्रचार का पट्टा वे स्‍वयं अपने गले में चट से डाल लेते हैं! और अपने इसी पैसिव रेडिकलिज्‍म को छुपाने के लिये उन्‍हें फेसबुक प्रोफाईल पर एक अदद शेर के फोटो की ज़रुरत होती है!! शेर ज़ोर से दहाड़ता है :- म्‍याऊं sss!! संक्षेप में कहें तो भारत की क्रांतिकारी परम्‍परा के जमानती और वारिस कौन?! भांति भांति के भगोड़े, बतोड़े, शुकदेव मुनि के बाप पैसिव रैडिकल, गैरपार्टीवादी और विसर्जनवादी अकमर्ण्‍य बुद्धिजीवि, खुद के प्रकाशनगृह का धंधा चला रहे निठल्‍ले कवि, प्‍लेबाय और मैक्सिम बेचने वाले!! शर्म की बात है!!
वैधानिक चेतावनी – इस लेख में बार-बार निठल्‍ले बुद्धजीवि, अकर्मण्‍य बुद्धिजीवि, बतोड़े, पैसिव रैडिकल आदि शब्‍द कई जगह आयें हैं जो कि एक खास कुत्‍साप्रचारक के टिड्डी दल व उनके समर्थकों के लिये है। आम पाठक इन्‍हें अपने उपर ना लेंवें और ना ही यह समझें कि हम सभी बुद्धिजीवियों के लिये ऐसा कह रहे हैं। ऐसा कतई नहीं है। यह आलेख जनचेतना के कुछ समर्थकों द्वारा लिखा गया है। लेख लिखते समय शालीनता का दायरा थोड़ा पार हो गया पर अब क्‍या करें विषय है ही ऐसा!
ये लेख वैचारिक मतिभ्रम और संशय में पड़े उन बुद्धिजीवियों के लिये लिखा गया है ताकि वे सही-गलत के सही पैमाने को समझ कर अपना पक्ष तय कर सकें। केवल सर्वहारा के पक्ष में प्रतिबद्धता से ही काम नहीं चलता, चिंतन करने की पहुंच-पद्धति भी सही होनी चाहिये। आलोचना करने की पहुंच-पद्धति का सवाल यदि बहुत महत्‍वपूर्ण ना होता तो मार्क्‍स-ऐंगेल्‍स जर्मन आईडियौजी के आखिरी हिस्‍से में एक अलग परिशिष्‍ठ में केवल पहुंच-पद्धति के सवाल पर ही विस्‍तृत चर्चा कभी नही करते। 
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