Tuesday 30 April 2013

एक गद्यगीत : “कामरेड!” – गिरिजेश



सलाम कामरेड! लाल सलाम!!

वजन तीन किलो, उम्र तीन दिन, कद महज़ एक फुट| मगर फिर भी एक अदद अस्तित्व| तुम्हारे वजूद का सुबूत है चितकबरी चद्दर पर चटक सुर्ख गमछे से छाती तक ढकी कोमल गोरी लाल देह, मिचमिचाती आँखें, छोटे-से मुँह पर चमकते पतले लाल ओठ, बँधी मुट्ठी, नींद में भी उठती-गिरती बित्ते भर की भुजाएँ और दाहिनी कलाई पर बँधी सफेद चीथड़े की पट्टी और तुम्हारा नाम? 
“कामरेड!”


हाँ, तो आओ कामरेड, आओ| स्वागत है तुम्हारा हमारी दुनिया में| आज से यह दुनिया हमारी ही नहीं, तुम्हारी भी है| नहीं, नहीं, माफ़ करना चूक हुई| अब तो यह दुनिया हमसे भी अधिक तुम्हारी है|

अपनी उग्रता के चरम उत्कर्ष पर चढ़ा मध्य जून का तपता सूरज मदोन्मत्त होकर चुनौती भरी ललकार के साथ तुम्हारा स्वागत करने को आतुर है| मौसम से तुम्हारी पहली मुलाकात ही जानलेवा गरमी के साथ भीषण मुकाबला बन चुकी है| होड़ लगी है जगत और जीवन में, ताप और स्नेह में, क्रूर और कोमल में| प्रकृति और पेशियों के बीच की रस्साकशी में अस्तित्व का प्रश्न विजय के साथ सदा से सन्नद्ध रहा है| काँटों-सी चुभती, चुनचुनाती अम्हौरियाँ, ललाट के कोमल पटल पर चमकती पसीने की बूँदें, सतत गतिमान मासूम हृदय की अविरल धड़कन और साँसों के लयबद्ध संगीत की ताल पर थपकी देती स्नेहिल ममता प्रकृति के विरुद्ध अस्तित्व के युद्ध में तुम्हारी कदम-दर-कदम विजय के हर पल की साक्षी हैं|

मगर मौसम है कि अपनी हठधर्मिता में हार मानता ही नहीं और लड़ाई जारी है| जून की खड़ी दोपहरी, चौतरफ़ा चिनगारियाँ बिखेरती प्रचण्ड धूप, हर-हर करती हवा, हिलती-डुलती मृग-मरीचिका, हड्डियों तक को हिला देने वाली गरम लूह, दोनों गालों पर तड़ातड़ थप्पड़ मारते अन्धड़ के झोंकों पर झोंके, अभी-अभी गड्ढामुक्त की गयी सड़क पर पिघलता अलकतरा, सूरज की किरणों की चकाचौंध से चुँधियाई आँखों में बार-बार भर जाने वाली रास्ते से उड़ती धूल, बेचैन तितलियों की तरह उछलते-कूदते, लहराते-झूमते, उठते-गिरते, उड़ते-पड़ते, रंग-बिरंगे प्लास्टिक के खाली लिफ़ाफ़े, सूखे पत्तों और रद्दी कागज़ों की चिन्दियों के साथ बवण्डर पर सवार होकर बार-बार तुम्हारा दरवाज़ा खटखटाते रहते हैं|

और दरवाज़े पर है युग-परिवर्तन की खातिर संकल्पबद्ध परिजन का मौन परिचय देता जागृति-मंच का प्रतीक चिह्न| अपने सुगढ़, सुशिक्षित, सुशील, विनम्र, परिवर्तनकामी, रचनाधार्मिणी, लेखनी की धनी माँ के वात्सल्य की सुखद शीतल छाया तले से निरख-परख निहार रहे हो अपनी अचानक खुल जाने वाली नन्हीं आँखों से तुम विगत को, जगत को, आगत को, अनागत को| निराला हैं तुम्हारे पिता| सतत सक्रिय, लोगों को सिखाने की लगन में लीन, समता की सहज सम्वेदना के मर्मस्पर्शी स्वर की संस्कृति को स्थापित कर व्यवस्था की विसंगति को मटियामेट कर डालने को उद्यत| निरन्तर मुँह चिढ़ाती विकृति के विरुद्ध विक्षोभ की कशिश में हर दिन नये प्रयोगों को आकार दे रहे हैं, हर घड़ी नयी शैली में आशा को उकेर रहे हैं, उत्कट उद्वेग से उफनते उत्साही किशोरों को टोलियों में जोड़ रहे हैं| कड़ी-दर-कड़ी नाथते रचना-प्रक्रिया की श्रृंखला-अभिक्रिया को गति देते चल रहे हैं| आने वाले जन-युद्ध के सेनानियों का व्यक्तित्व ढालना ही उनके जीवन का चरम उद्देश्य है|

निश्चय ही सौभाग्यशाली हो तुम! तब जब कि तुम बड़े हो जाओगे, तो निश्चय ही गर्व होगा तुम्हें ऐसे माँ-बाप की सन्तान होने पर| ठीक वैसे ही जैसे मुझे गर्व है इनके साथ अपने सक्रिय होने पर क्योंकि गर्व तो एक शाश्वत उदात्त भाव है, जो सत्य और न्याय के योद्धाओं के प्रति मानवता के मन में सदा से छलकता रहा है| काश कि ऐसे ही माँ-बाप हम सब को भी मिले होते, तो फिर तो न जाने कब का साकार हो चुका होता हमारे वीर पुरखों का सपना| मगर अफ़सोस की बात है कि अगणित बलिदानों के बाद भी क्रान्ति की करुण कथा अभी भी अधूरी  है| क्योंकि ऐसा नहीं हो सका| सीमाएँ थीं, सो ऐसा हो भी नहीं सकता था| सीमाएँ थीं अज्ञान की, अशिक्षा की, अभाव की, गरीबी की, क्षुद्रता की, सम्पत्ति के स्वामित्व की, लोभ की, दम्भ की, संस्कारों में रचे-बसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी आँखों पर पट्टी कसते चले आ रहे अन्धविश्वासों की, परम्परागत रूढ़ियों की| छोटी-छोटी ज़िन्दगियाँ, छोटे-छोटे सपने – बस, हम सब की कमोबेश एक-सी ही कहानी रही है| मुट्ठी भर ही तो हुए, जिन्हें तुम्हारी तरह की पृष्ठभूमि मिली|

और इसीलिये तो तुम्हें देख कर मुझे भी उम्मीद का बल मिला है| भले ही मेरे बेवकूफ़ दोस्त छीनते रहते हैं मेरी रातों की नींद और फिरंगी की तरह मुझको नचाता रहता है मेरा तनाव और दर्द मेरी रग-रग को नोचता रहता है और नाकामी मुझको बार-बार पटक देती है और मायूसी हज़ार हाथों से मेरा गला घोंटती है और भूख मेरी आँतों में ऐंठती रहती है और अकेलापन मेरी साँसों को सोखता जा रहा है और दम्भ मुझे अपमानित करता रहता है और लोभ मुझे घृणा और गुस्से की आँच में भूनता है और क्षुद्र स्वार्थों के कुटिल घात लगाये बैठी मक्कार दुनियादारी मौका पाते ही मेरे साथ धूर्त गणित कर जाती है और निरन्तर पीटती रहती है मुझको विषमता की विडम्बना और बार-बार मेरी पीठ में छुरा मारता रहता है गद्दार ब्रूटस और डँस लिया करता है आस्तीन के अन्दर ही अन्दर तुम्हारे हिस्से का समूचा दूध लील जाने वाला ज़हरीला साँप बार-बार|
     
अभी भी गली के अबोध बच्चों को बहलाने वाले डमरू की डिम-डिम ताल पर दक्षता के दम्भ से छाती कूटता, चवन्नी-अठन्नी, रुपया-दो रुपया के सपने में डूबा चाटुकार तीन फुटा सँपेरा अपनी बौनी औकात को भूल कर गाल फुलाये प्रदर्शनप्रियता की बेडौल बीन को हिला-हिला कर नाग नाथ की विकराल वीभत्सता का नितान्त नंगा प्रचार आत्म-मुग्ध होकर कर रहा है| अभी भी थिरक रहा है कुण्डली से हाथ भर ऊपर हथेली-सा चौड़ा चित्तीदार फन, अभी भी नाच रही हैं गोल-गोल क्रूर आँखों के भीतर निष्ठुर पुतलियाँ, अभी भी लपलपा रही है दो-मुँही ज़ुबान, अभी भी चमकते हैं खूँख्वार नुकीले विषदन्त, अभी भी मौज़ूद है उसके काले कुचक्री सर के अन्दर मारक ज़हर की थैली और अभी भी जारी है नाग नाथ के चौपट-राज की अन्धेर-गर्दी हमारी-तुम्हारी नगरी में| मगर सब कुछ हथिया लेने की साज़िश के ताने-बाने बुनता बौना कितना गाफ़िल है अपने उद्देश्य की अकड़ में| भूल चुका है इतिहास युग-पुरुष कृष्ण की कालिया-मर्दन की कला और जन्मेजय के नाग-यग्य में भूने गये साँपों की परिणति का| कभी न कभी कोई अदना-सा किशोर देखते ही देखते डेढ़हत्था उठा कर इसका फन कुचल तो देगा ही| कैसे छोड़ देगा इसको जन-मन में भय का सतत संचार करते रहने के लिये?

अभी भी रंगीन टी.वी. के चमकदार स्क्रीन पर सायास दिखाया जाता है इन्द्रलोक का वैभव और देशी-विदेशी परियों-अप्सराओं के मादक सौन्दर्य का जगमगाता सतरंगा सपना| अभी भी मनभावन लोकलुभावन विज्ञापनों के मन्त्र कानों में हर रोज़ फूँक कर कर रहे हैं कुण्ठित कंगाल ‘दरिद्र-नारायण’ को और दे रहे हैं दीक्षा रात-दिन लगातार भ्रष्टाचार, व्यभिचार, अविचार की, कर रहे हैं सम्मोहित जन की सामूहिकता व न्यायप्रियता को और संचेतना को सुला रहे हैं पोंगापन्थी लन्तरानियों की लोरियाँ सुना-सुना कर, हर घर, हर मुहल्ले, हर शहर में हर घड़ी झुण्ड के झुण्ड हाज़िर काली ताकतों के जादूगर अभी भी बहला रहे हैं, फुसला रहे हैं जन के बल को मन्दिर से बम तक के खिलौने दिखा-दिखा कर| अभी भी जारी है जातिवादी चुनाव का नाटक| अभी भी हमारे आस-पास अक्सर उभर आते हैं अक्स असली हथियारों से लैस वर्दीधारी कठपुतलों के और दमकने लगती हैं हुकूमत के नशे में अन्धे हुक्मरानों की सचल प्रेत-छायाएँ|

पूँजीवादी जनतन्त्रों की आज़ादी के पीछे छिपा बैठा बहुराष्ट्रीय वित्तीय साम्राज्यवाद का सूत्रधार विश्वपूँजी का स्वामी कुबेर अभी भी खेल रहा है शेयर बाज़ार की बिसात पर आर्थिक मन्दी के नीम अँधेरे में भी डालर, रूबल, येन, पौण्ड, रुपया, रुपैया के छोटे-बड़े मोहरों से लाभ और लूट की शोषक शतरंज| रोज़ बड़े मोहरे छोटों को शह देते हैं और छोटे मोहरे बारी-बारी से खाते जा रहे हैं मात| तड़पती फ्लैश-लाइटों के आलोक में गलबहियाँ डाले कुर्सियाँ साथ-साथ देती हैं बयान माइक्रोफोन के लम्बे डण्डों के सामने कि देश तुम नहीं हो, हम नहीं हैं, वे हैं, केवल वे| और हमारा उन्नत विद्रोही स्वाभिमानी सिर काटने की कोशिश में धनतन्त्र की हिफाज़त की मंशा से राम का नाम नीलाम कर कुर्सी हथियाने वाले लक्ष्मी के तिकड़मी वाहन गोलबन्द कर रहे हैं प्रान्त-दर-प्रान्त की पुलिस ही नहीं, सेना को भी| और निशाने पर हैं जन-युद्ध के अपराजेय छापामार योद्धा| नक्सलवाद का शिकार करने की मंशा से बुन रहा है मकड़जाल अन्धराष्ट्रवाद का धृतराष्ट्र|

सुनो कामरेड, ध्यान दो! ऐसी दुनिया में आये हो तुम, जहाँ मेहनतकश जुलाहों के पसीने की खुशबू से तर, इन्कलाबी गीतों की गूँजती स्वर-लहरी से भाव-विभोर मऊ की गलियों में दिन के उजाले को धुआँ फैला कर ढकने की ज़ुर्रत करने वाले संशोधनवादी बहुरुपिये खोखली खपच्चियों से लटकते गुलाबी झण्डे के चीथड़े झुलाते बीमार शाम के धुँधलके में अपनी गलीज़ मानसिकता से फ़चाफ़च पान की पीक उगल कर उड़ाते हैं मज़ाक मेरा, तुम्हारा, हमारा, हम सब का| मीठे-मीठे समझाते हैं अपने लगुओं-भगुओं-पिछलग्गुओं को, ‘‘इनसे बचो, ये नक्सली हैं, इनसे सजग रहो, ये खतरनाक हैं, इनसे दूर रहो, ये इन्कलाबी हैं, इनके साथ मत जाओ, ये आतंकवादी हैं, इनका बहिष्कार करो, ये हिंसक हैं’’| मगर कामरेड, वे कभी नहीं बताते कि वे खुद क्या हैं! जातिवादी! सुधारवादी! यथास्थितिवादी! जड़तावादी! अस्तित्ववादी! सुविधावादी! या फिर नितान्त व्यक्तिवादी और अवसरवादी! एक हाथ के इन मुर्दा गद्दारों ने बार-बार बिरादरी से घात किया है और दुश्मन से हाथ मिला कर अपनी कुटिल-कृपा से क्षत-विक्षत किया है हरे-भरे जंगल की समूची जिजीविषा को| तुम्हें सचेत रहना होगा इन फन्दों से भी|


तो कामरेड, यह सब कुछ अच्छा तो नहीं है| मगर यही सच है आज की तुम्हारी-हमारी दुनिया का और मुझे उम्मीद है कि जब तुम बड़े हो जाओगे, तो इस दुनिया को बदलने की जंग में अपने भी शौर्य का प्रदर्शन करोगे और अपने माँ-बाप से भी बड़े कीर्तिमान स्थापित कर दिखाओगे| केवल तभी सार्थक हो सकेगा तुम्हारा यह गौरवशाली नाम, तुम्हारा अस्तित्व, तुम्हारा जीवन| सजग रहना, भागना मत! वरना उपहास का पात्र बनना पड़ेगा तुमको, मुझको, हम सब को|


अब बस, इतना ही|
क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ 
तुम्हारा एक बूढ़ा कामरेड

Sunday 28 April 2013

कहानी मज़दूर-दिवस की - गिरिजेश


 
इन्कलाब-ज़िन्दाबाद! दुनिया के मजदूरो
, एक हो! साम्राज्यवाद-मुर्दाबाद!



मई-दिवस मेहनतकश का त्यौहार है। पहली मई को सारी दुनिया के मज़दूर अपने-अपने मालिकों की इच्छा के विरुद्ध हड़ताल करते हैं, जुलूस निकालते हैं तथा सभाओं का आयोजन करते हैं। वे अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं, अपनी उपलब्धियों और असफलताओं का लेखा-जोखा लेते हैं, अपनी एकता की ताकत तथा जुझारू तेवर की धार को बनाये रखने का संकल्प लेते हैं।

मई-दिवस की गौरवशाली गाथा का जन्म सर्वहारा वर्ग द्वारा पूँजी की दासता के विरुद्ध रक्तरंजित संघर्ष की शानदार परम्परा में हुआ है। पूँजीवादी व्यवस्था न्यूनतम मज़दूरी और अधिकतम मुनाफ़ा के तर्क के सहारे ज़िन्दा है। हर मालिक अपने मज़दूर को अधिक से अधिक खटाने के चक्कर में रहता है। उसका वश चले, तो काम करने वाले हाथों को एक मिनट भी आराम का मौका न दे। मगर यह नामुमकिन है। आराम के पल नहीं मिलेंगे, तो अगली खटनी भी नहीं हो पायेगी।

एक ज़माना था, जब मज़दूरों से बीस घण्टे तक काम लिया जाता था। 1806 में अमेरिका में फिलाडेल्फिया के हड़ताली मोचियों के मुकदमे से यह तथ्य सामने आया। 1734 में न्यूयार्क के बेकरी मज़दूरों की हड़ताल पर वर्किङमेन्स ऐडवोकेटनामक अख़बार ने लिखा- ‘‘बेकरी के हुनरमन्द कारीगर मिस्र के गुलामों से भी बदतर ज़िन्दगी गुज़ारते हैं। उनको रोज़ाना 18-20 घण्टे काम करना पड़ता है। हमारे देश में 1918 की लेबर कमीशन की रिपोर्ट ने कहा - सूती मिलों और जूट मिलों में 16-18 घण्टे काम लिया जाता है’। 1915 में बम्बई के मिल-मजदूरों ने 12 घण्टे का कार्य-दिवस मानने के लिए मालिकों को मज़बूर किया। 1920 में 10 घण्टे का काम का दिन माँगा और 1922 में बने श्रम-कानून में 11 घण्टे का कार्य-दिवस और पूरे सप्ताह में 60 घण्टे का श्रम-काल रखा गया।

सबसे पहले आस्ट्रेलिया के निर्माण उद्योग के मजदूरों ने नारा दिया - ‘‘आठ घण्टे काम, आठ घण्टे आराम, आठ घण्टे मनोरंजन’’। उन्होंने 1856 में इस माँग को मनवा लिया। भारत में 1862 में हावड़ा के रेलवे मज़दूरों ने आठ घण्टे के कार्य-दिवस की माँग करते हुए हड़ताल की थी। इसमें 1100 मज़दूरों ने भाग लिया था। यह भारतीय औद्योगिक मज़दूर वर्ग की प्रथम हड़ताल थी। दुनिया की सबसे पहली ट्रेडयूनियन अमेरिका के फिलाडेल्फिया के मेकैनिक मज़दूरों की थी। इसी यूनियन ने 1827 में राज मज़दूरों की हड़ताल का नेतृत्व किया। उनकी माँग ‘10 घण्टे का कार्य-दिवसथी। 1873 में अमेरिकी सरकार को 10 घण्टे के कार्य-दिवस का कानून बनाना पड़ा।

अमेरिकी गृहयुद्ध (1861-62) के बाद मज़दूर आन्दोलन और भी संगठित होता गया। 1866 में बाल्टीमोर में 60 यूनियनों ने सम्मेलन करके एक राष्ट्रीय मंच के रूप में नेशनल लेबर यूनियनकी स्थापना की। सम्मेलन ने प्रस्ताव पास किया - ‘‘पूँजीपतियों की दासता से देश को मुक्त करने के लिए आज की पहली और सबसे बड़ी ज़रूरत है कि अमेरिका के हर राज्य में आठ घण्टे का कार्य-दिवस बनाने के लिए कानून बनाया जाये।’’ दो वर्ष पूर्व 1864 में मार्क्स और एंगेल्स के नेतृत्व में प्रथम इण्टरनेशनल (अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर संघ) का गठन हो चुका था। 1866 में इण्टरनेशनल के जेनेवा अधिवेशन ने प्रस्ताव पारित किया - ‘‘काम के दिन को सीमित किया जाना पहली शर्त हैजिसके बिना सुधार और मुक्ति के सभी प्रयत्न अवश्य ही निष्फल साबित होंगे। कांग्रेस (अधिवेशन) का प्रस्ताव है कि काम की कानूनी सीमा आठ घण्टे होनी चाहिए। कांग्रेस इसे सारी दुनिया के मज़दूरों की माँग समझती है।’’

1868 में अमेरिका ने कानून पास किया - ‘‘जनहित के कामों में मज़दूरों से दिन में आठ घण्टे ही काम लिया जाये।’’ 1867 में प्रकाशित पूँजी के प्रथम खण्ड में मार्क्स ने लिखा - ‘‘जब तक अमेरिकी प्रजातन्त्र के किसी भी हिस्से में गुलामी का धब्बा बरकरार रहा, तब तक किसी भी तरह का स्वतन्त्र मज़दूर आन्दोलन पनप नहीं सका। जहाँ काली चमड़ी वाले मज़दूरों को नफ़रत की निगाह से देखा जाता है, वहाँ गोरा मज़दूर भी अपने को आज़ाद नहीं पा सकता। लेकिन दास-प्रथा की समाप्ति के साथ ही एक नये ओजस्वी जीवन के अंकुर फूटे। गृह-युद्ध का पहला नतीजा यह हुआ कि काम के घण्टे आठ करोका आन्दोलन अटलाण्टिक से पैसिफ़िक तक और न्यू इंग्लैण्ड से कैलीफोर्निया तक फैल गया।

अमेरिका में 1873 और 1884 में पूँजीवादी व्यवस्था आर्थिक मन्दी का शिकार हो गयी। मन्दी में लोगों की खरीदने की ताकत कमज़ोर हो जाती है और बाज़ार में बिना बिका तैयार माल पटा रहता है। इसलिए पूँजीपति वर्ग या तो तैयार माल को बर्बाद कर डालता है, या मज़दूरों की छँटनी करके और काम का बोझ बढ़ाकर लागत घटाता है, ताकि मुनाफे को घटाये बिना कीमत कम हो सके। ऐसे में खानों के मालिकों के इशारे पर 1875 में अमेरिकी सरकार ने पेन्सिलवेनिया के ऐन्थ्रासाइट क्षेत्र में दस जुझारू खदान मज़दूरों को फाँसी दे दी।1877 में इसके जवाब में मज़दूरों ने देशव्यापी हड़ताल की। सरकार ने सैनिक-दस्ते भेजे और दमन किया। मज़दूरों को प्रतिरोध-संघर्ष का अनुभव हासिल हुआ। आन्दोलन बढ़ चला। 1881से 1884 तक अमेरिका में प्रतिवर्ष 500 हड़तालों में 1,50,000 मज़दूरों ने भाग लिया। 1885 में 700 हड़तालें हुईं और 2,50,000 मज़दूरों ने भाग लिया। 1886 में 1572 हड़तालों में 11,562 उद्योगों के 6,00,000 मज़दूरों ने शानदार शिकरत की।

1884 में फ़ेडरेशन ऑफ अमेरिकन लेबर के सम्मेलन में प्रस्ताव पास हुआ कि पहली मई 1886 से 8 घण्टे का कार्य-दिवस कानूनी तौर पर वैध कार्य-दिवस होगा। 1885 में इस प्रस्ताव को सम्मेलन ने फिर दोहराया और उस दिन हड़ताल का फैसला लिया। पहली मई के आन्दोलन का सबसे जबरदस्त गढ़ शिकागो था। वहाँ आन्दोलन की कमेटी में फ़ेडरेशन ऑफ़ अमेरिकन लेबर के साथ सेन्ट्रल लेबर यूनियन, नाइट्स ऑफ़ लेबर तथा सोशलिस्ट लेबर पार्टी शामिल हुए। पहली मई की हड़ताल की तैयारी के लिए उससे पहले पड़ने वाले रविवार को 25,000 मज़दूरों ने जुलूस निकाला।

अन्त में 1886 का ऐतिहासिक पहली मई का दिन आ गया। यह शनिवार था। पूरे अमेरिका में मज़दूरों ने काम के घण्टे आठ करोके आन्दोलन को अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया। 3,50,000 मजदूरों ने हड़ताल की और जुलूस निकाले। अकेले शिकागो में ही 80,000 मज़दूरों ने हड़ताल की और जुलूस में सड़क पर उतर पडे़। सारा शहर ठप्प पड़ गया। सभी मशीनें रुक गयीं। मज़दूरों ने अपने औज़ार रख दिये। जुलूस के आगे दो मज़दूर चल रहे थे। एक के हाथ में कुल्हाड़ी थी और दूसरे के कन्धे पर गैंती थी। सभी ने अपने कारखाने के कपड़े पहने थे। आरा मशीन पर काम करने वाले लकड़हारे, ढुलाई करने वाले कुली, पैकिङ करने वाले, बढ़ई, दरजी, बेकरी-मज़दूर, कारख़ानों के मज़दूर, नाई, राजगीर और यहाँ तक कि सेल्समैन और क्लर्क भी एकजुट होकर सड़कों पर निकल आये। जुलूस शान्तिपूर्ण रहा। कोई हिंसा नहीं हुई। फिर भी आतंकित अख़बारों ने लिखा - ‘‘सभी हड़तालों से श्रम का नुकसान हुआ।’’ पूरा शहर दो भागों में बँट चुका था। परस्पर विरोधी दो सेनाएँ आमने-सामने थीं। एक तरफ़ मज़दूर थे, दूसरी तरफ़ पूँजीपति। अख़बारों ने इसे सामाजिक युद्धकी संज्ञा दी। पूँजी के मालिक थर्रा गये। मज़दूरों के दुश्मन कसमसा रहे थे।

तीन मई को सोमवार था। मैककार्मिक हारवेस्टिङ वर्क्स के कारख़ाने के फाटक पर 6000 मज़दूर शान्तिपूर्वक सभा कर रहे थे। पुलिस ने बिना किसी कारण इस सभा पर बर्बर हमला किया। गोली चली। 6 मज़दूर मारे गये और बहुत-से घायल हुए। इस तरह मई दिवस के शान्तिपूर्ण हड़ताल और जुलूस को पूँजीपति वर्ग ने मज़दूरों के ख़ून में डुबा दिया। पूँजीपति वर्ग ने अपना बदला ले लिया था। अब मज़दूरों में आक्रोश की लहर फैल गयी। उन्होंने प्रतिवाद करने की ठानी। अगले दिन 4 मई को शिकागो के हे-मार्केट (भूसा-बाज़ार) में विशाल सभा का आयोजन किया गया। जन-सभा शान्तिपूर्वक चल रही थी। तभी पुलिस आयी। कप्तान ने कहा - फ़ौरन तितर-बितर हो जाओ। वक्ता मंच से उतरने लगे। भीड़ सड़क के दूसरी ओर जाने लगी। तभी एक बम किराये के गुण्डों द्वारा फेंका गया। एक पुलिसकर्मी और चार मज़दूर मारे गये। कई घायल हुए। इसके तुरन्त बाद पुलिस वालों ने बन्दूकें तान लीं। उन्होंने पागलों की तरह गोलियाँ बरसाना शुरू कर दिया। पिछले दिन की घटना हल्की पड़ गयी। बच्चे, औरतें, मर्द - सबको एक तरफ़ से भून दिया गया। भीड़ तितर-बितर हो गयी थी। लोग चीखते-चिल्लाते, गिरते-पड़ते चारों ओर भाग रहे थे। हाहाकार मचा हुआ था। गोलियों से घायल मज़दूर सड़क पर गिरते जा रहे थे। ख़ून बह रहा था। लेकिन पुलिस गोलियाँ बरसाती रही। फिर भी मज़दूरों का लाल झण्डा ख़ून से लथपथ मज़दूरों के सिर पर पूरी शान से लहराता रहा।

इसके बाद शुरू हुआ न्याय का नाटक। कानून ने अपना वर्गीय चरित्र दिखाया। दमन का चक्र चला। धड़ाधड़़ गिरफ़्तारी हुई। शिकागो के आठ सामाजिक-क्रान्तिकारी गिरफ़्तार कर लिये गये। उनके नाम थे - आगस्ट स्पाइस, अल्बर्ट पार्सन्स, सैमुएल फिल्डेन, जार्ज एंगेल, एडोल्फ़ फ़िशर, माइकेल स्क्वाएब, ऑस्कर नीबे और लुई लिंग। इनमें से 6 बम-विस्फोट के समय घटनास्थल पर थे ही नहीं। मनगढ़न्त आरोपों के साथ अब झूठा मुकदमा चल पड़ा। मुकदमे के दौरान अपने बयान में ऑस्कर नीबे ने बताया कि मज़दूर किन हालातों में दिन गुज़ारते हैं। सुबह चार बजे काम पर निकलते हैं, तो रात में आठ बजे घर लौटते हैं। दिन की रोशनी में उन्होंने अपने परिवार व बच्चों को कभी नहीं देखा। ऐसे मज़दूरों को उन्होंने संगठित करना चाहा। अगर यह अपराध है, तो वे अपराधी हैं। पार्सन्स ने एक कविता से शुरू किया - ‘‘भय व अभाव की गुलामी तोड़ो, रोटी आज़ादी है, आज़ादी रोटी है।’’ उन्होंने बताया कि किस तरह पुलिस और गुण्डों ने मिलकर निरीह व निरपराध मज़दूरों का कत्ल किया, अमेरिकी मज़दूर किस तरह धनी वर्ग के शोषण के शिकन्जे में जकड़े हैं, किस तरह न्यूयार्क के एक इज़ारेदार पूँजीपति के हाथ से हे-मार्केट की सभा को तोड़ने के लिए बम आया। उन्होंने पूरी साज़िश का पर्दाफ़ाश किया। स्पाइस ने कहा - ‘‘अभाव और कष्ट के बीच मज़दूर जो ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं, हमारा संग्राम उन्हें मुक्ति की रोशनी दिखाने की उम्मीद करता है। आप क्या सोचते हैं कि हमें फाँसी पर लटका कर उस आन्दोलन का दमन कर सकेंगे?’’

अदालत ने 9 अक्टूबर,1886 को फैसला सुनाया । चार क्रान्तिकारियों को सज़ा-ए-मौत दी। उनके नाम थे - आगस्ट स्पाइस, अल्बर्ट पार्सन्स, एडोल्फ़ फ़िशर, जार्ज एंगेल। ऑस्कर नीबे को पन्द्रह, लिंग को दस तथा स्क्वाएब को आठ वर्षों की कैद हुई। सुप्रीम कोर्ट में अपील की गयी। मगर उसने इस मुकदमे को उलट कर देखने से इन्कार कर दिया। अगले वर्ष 11 नवम्बर को चारों वीर मज़दूर नेताओं को फाँसी पर लटका कर उनकी हत्या कर दी गयी। लुई लिंग का शव फाँसी से एक दिन पहले जेल की कोठरी में पड़ा मिला। फन्दा कसने के ठीक पहले अपने जीवन के अन्तिम क्षण में स्पाइस गरज उठे - ‘‘तुम मेरी आवाज़ घोंट सकते हो, लेकिन मेरी ख़ामोशी आवाज़ से भी ज़्यादा भंयकर होगी।’’

मौत से सब कुछ ख़त्म नहीं हो जाता। बलिदान संघर्ष के नये आयाम उजागर करते हैं। 1886 के मई मास की शिकागो शहर की इस रक्तरंजित घटना ने न केवल अमेरिकी अपितु समूची दुनिया के मज़दूरों के संकल्प को बल दिया। एक नयी परम्परा का जन्म हुआ। पहली मई का दिन ऐतिहासिक बन गया। 1890 तक इसे अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर-दिवस का गौरवशाली रूप दिया जा चुका था। 1848 के कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मार्क्स और एंगेल्स ने पहली बार नारा दिया था - ‘‘दुनिया के मजदूरो, एक हो।’’ तब से जारी पूँजी के विरुद्ध श्रम के युद्ध में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों ने इतिहास के अलग-अलग मोड़ों पर अलग-अलग देशों में मज़दूर वर्ग का नेतृत्व किया और लाल झण्डे को साक्षी बना कर सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की समाजवादी समाज-व्यवस्था की बुनियाद रखने के लिये कदम बढ़ाया। 1917 की रूसी क्रान्ति, 1949 की चीनी क्रान्ति तथा द्वितीय विश्व-युद्ध के समापन से एक तिहाई धरती पर लाल झण्डे का राज कायम हो गया। लेनिन, स्टालिन, माओ, हो ची मिन्ह, फिदेल कास्त्रो, चे ग्वेरा और अपने देश में शहीद-ए-आज़म भगत सिंह ने क्रान्ति का नेतृत्व किया, इतिहास को गति दी और उसके रथ-चक्र को आगे बढा़या।

मगर इतिहास ने फिर करवट बदली। दुनिया भर के पूँजीपतियों की साज़िश और क्रान्तिकारी कतारों के बीच घुसपैठ कर चुके गद्दारों ने तस्वीर का रुख़ पलट दिया। आज मज़दूर राज के किले ढह चुके हैं। रूस खण्ड-खण्ड हो चुका है। चीन में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना पूरी हो चुकी है। भारत में कम्युनिस्ट पार्टियाँ संसद की परिक्रमा कर रही हैं। शोषक वर्ग की सत्ता को मटियामेट करने की बातें करने वाले बिक गये हैं। क्रान्ति का रास्ता छोड़ धनतन्त्र में सरकार चलाने में लगे हैं। नेतृत्व की गद्दारी से मर्माहत मज़दूर वर्ग आज शोषण का अपमान झेल कर भी दिग्भ्रमित है। हिन्दूवादी भारतीय मज़दूर संघ सबसे बड़ी ट्रेड-यूनियन बन चुका है। आज चौतरफ़ा अन्धेरा घना है। देशी-विदेशी पूँजी का निर्मम प्रहार झेल रहे मजदूरों का कोई राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय नेता नहीं है। फिर भी उम्मीद की किरण बाकी है। बादल सूरज को ढक नहीं सकते। समूची मानवता की मुक्ति साम्राज्यवादी विश्व-व्यवस्था को नेस्तनाबूद करके ही सम्भव है। क्रान्ति ही एकमात्र विकल्प है। और इतिहास का अन्त नहीं होता। आज उनका है। कल हमारा होगा।
    “ऐ ख़ाक-नशीनो, उठ बैठो, वह वक्त करीब आ पहुँचा है।
 जब तख़्त गिराये जायेंगे, जब ताज़ उछाले जायेंगे...”।।

विशेष अनुरोध:- मेरा यह व्याख्यान इस श्रृंखला का तेरहवाँ व्याख्यान है. यह प्रयास युवा-शक्ति की सेवा में विनम्रतापूर्वक समर्पित है.
कृपया इस प्रयास की सार्थकता के बारे में अपनी टिप्पड़ी द्वारा मेरी सहायता करें. इसका लिंक यह है -
http://youtu.be/QgsnaJMskX4                                       

Friday 19 April 2013

क्या है व्यक्तित्व विकास परियोजना - गिरिजेश

प्रिय मित्र, यह व्याख्यान आजमगढ़ में एक वर्ष से निःशुल्क चलायी जा रही 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' का परिचय देने के उद्देश्य से दिया गया है. 

इस श्रृंखला का यह बारहवाँ व्याख्यान है. यह प्रयास युवा-शक्ति की सेवा में विनम्रतापूर्वक समर्पित है. 

कृपया इस प्रयास की सार्थकता के बारे में अपनी टिप्पड़ी द्वारा मेरी सहायता करें.
 - गिरिजेश
 http://youtu.be/eBcOsFgKeBA

Monday 15 April 2013

"कहाँ है आज का राहुल?" - गिरिजेश

प्रिय मित्र, आज़मगढ़ के प्रतिनिधि व्यक्तित्व राहुल सांकृत्यायन विश्व-विख्यात क्रान्तिकारी थे. उनकी 120वीं जयन्ती पर उनके गाँव कनैला के महापण्डित राहुल सांकृत्यायन बालिका उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में ''कहाँ है आज का राहुल?" विषय पर आयोजित विचार-गोष्ठी के अध्यक्षीय सम्बोधन के तौर पर मेरा यह व्याख्यान इस श्रृंखला का ग्यारहवाँ व्याख्यान है. 
कृपया युवा-शक्ति की सेवा में विनम्रतापूर्वक समर्पित इस प्रयास की सार्थकता के बारे में अपनी टिप्पड़ी द्वारा मेरी सहायता करें. - गिरिजेश

साम्प्रदायिक किसे कहते हैं? - गिरिजेश


प्रश्न :- साम्प्रदायिक किसे कहते हैं?

उत्तर :- जो भी व्यक्ति या संगठन अपने धर्म और सम्प्रदाय के विचारों को दूसरे धर्म और सम्प्रदाय के विचारों से बेहतर मानता है और दूसरे धर्म और सम्प्रदाय के विचारों को अपने से बदतर मानता है, वह साम्प्रदायिक कहलाता है. वह नारी-जाति को ज़बरदस्ती गुलाम बनाये रखने का दुराग्रह करता है. वह तार्किक चिन्तन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विरोध करता है. वह श्रेष्ठताबोध के भ्रम से ग्रस्त हो कर अपनी इस छुद्रतावादी अहंकारी सोच के चलते अपने विचारों को दूसरों पर ज़बरदस्ती थोपने के लिये दूसरे सम्प्रदाय का उपहास, अपमान और उत्पीडन करता है.

वह गरीबी, महँगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार आदि समाज की सारी समस्याओं के लिये केवल अपने विरोधी सम्प्रदाय को ही एकमात्र ज़िम्मेदार बताता है. इस तरह सभी सामाजिक समस्याओं के असली कारण - शोषक वर्गों द्वारा आम आदमी के वर्गीय शोषण को छिपाने के लिये वह धूर्तता के साथ धुएँ की दीवार खड़ी करने की साज़िश करता है. इस कुत्सा-प्रचार के चलते एक दूसरे के खिलाफ़ नफ़रत के गुस्से से लोगों को अन्धा बनाने वाली धार्मिक आस्थाओं के बीच मतभेद की यह तनातनी जब हद से बढ़ जाती है, तो साम्प्रदायिकतावादी संगठन साम्प्रदायिक दंगे कर के समाज में अपने आतंक के ज़रिये खौफ़ का माहौल पैदा करता है और फिर इन दंगों में बेगुनाह मासूम लोगों का वध करके प्रसन्न होता है. 

इस उत्तर के अनुसार हिन्दू धर्म के नाम पर दूसरे धर्मों का विरोध करने वाले तथाकथित हिन्दुत्ववादी गिरोह ही हमारे समाज की बहुसंख्यक आबादी के धर्म का प्रतिनिधि होने के चलते के सबसे बडे साम्प्रदायिक गिरोह है. कोई भी धर्म अगर दूसरे धर्मों के अनुयायियों के साथ सहनशीलता पूर्वक रह सके, तो उसे साम्प्रदायिक नहीं कहेंगे. मगर अगर दूसरे धर्म पर कीचड़ उछालता है, तो उसे साम्प्रदायिक ही कहेंगे. हिन्दू धर्म में वैष्णव और शैव सम्प्रदायों के बीच के ख़ूनी झगडों ने जब असहनीय स्थिति में वैष्णवों को फँसा दिया, तो उनको सन्यासियों से बचने के लिये अपने बीच से नागा साधुओं की जमात को खड़ा करना पड़ा. जब बौद्धों और सनातनियों के बीच का संघर्ष चरम पर पहुँचा, तो बौद्ध विहारों को ध्वस्त करने में ब्राह्मणवादियों ने कोई असर नहीं छोड़ी. इसी तरह आर्य समाज और ब्राह्मसमाज के समाज-सुधारकों को परम्परावादियों का विरोध झेलना पड़ा था. 

ऐसे में हिन्दू धर्म को साम्प्रदायिक विद्वेष से मुक्त कहना इतिहास को नज़र-अंदाज़ करना होगा. जितना छुआछूत, भेदभाव और नफ़रत हिन्दू धर्म में सवर्णों ने विधर्मियों और दलितों के साथ दुर्व्यवहार करने मे दिखाई है, उतना शायद और किसी ने नहीं. कठमुल्लापन और संकीर्णता का चरम रहा है हिन्दू धर्म में. जाति-बहिष्कृत करने में भी सबसे आगे हिन्दू धर्म के ठेकेदार ही रहे हैं. और धार्मिक केन्द्रों में बैठे सुविधाभोगी महन्त अकूत वैभव संचित करने के लिये हर तरह से ताल-तिकडम करने में किसी से भी आगे रहे हैं. समग्रता में दूसरे सभी धर्मों की तरह ही हिन्दू धर्म भी मूलतः साम्प्रदायिक ही है.

समाज में साम्प्रदायिकता का ज़हर फैला कर शासक पूँजीपति वर्ग जनता के बीच के मनोमालिन्य की दरार को और चौड़ा करता है, जनता के बीच के सौजन्य और सौहार्द्र के माहौल को बिगाड़ डालता है और फिर शोषण की चक्की को और तेज़ घुमाता चला जाता है. ऐसे में फ़ासिज़्म का दौर आता है. जब शासक वर्ग द्वारा सभी जनतांत्रिक मूल्यों को कुचल कर केवल नंगी गुण्डई के सहारे ज़ोर-ज़बरदस्ती की हुकूमत कायम की जाती है. फ़ासिज़्म के दौर में राजनीतिक दलों के, धार्मिक संगठनों के और पेशेवर गुण्डों, अपराधियों, माफिया और पुलिस और फ़ौज के दम पर शोषण, उत्पीडन, दमन और अन्याय का विरोध करने का साहस करने वाले हर स्वर को बेरहमी से कुचल दिया जाता है. 

अदालतों में न्याय के नाम पर केवल अन्याय होने लगता है. राजनीति में पक्ष और विपक्ष के बीच कोई सैद्धांतिक फ़र्क नहीं रह जाता है और सत्ता द्वारा लगातार एक के बाद एक जनविरोधी क़ानून बना कर देशी और विदेशी लुटेरों को लाभ पहुँचाने के लिये देश की सारी सम्पदा की बेशर्मी से लूट-पाट की जाती है. फ़ासिज़्म अक्सर अल्पसंख्यक सम्प्रदाय के प्रति बहुसंख्यक सम्प्रदाय की नफरत को अपना औजार बनाता है. केवल वैज्ञानिक दृष्टिकोण और क्रान्तिकारी विचारों से नयी पीढ़ी को लैस करके ही साम्प्रदायिकता के ज़हर से समाज को बचाया जा सकता है.

Monday 1 April 2013

व्यक्तित्व-विकास के छः चरण - राहुल सांकृत्यायन का सन्दर्भ

प्रिय मित्र, यह व्याख्यान महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के गाँव कनैला में दिया गया था. राहुल आजमगढ़ के महान क्रान्तिकारी थे. उन्होंने जो क्रान्तिकारी साहित्य दिया, उसे पढ़ कर कई पीढ़ियों ने क्रान्ति का विज्ञान सीखा है. 
इस व्याख्यान में हिन्दुत्व और क्रान्तिकारी विचारधारा के बीच की बहस में व्यक्तित्व विकास के विभिन्न चरणों का विश्लेषण है. 
इसकी मदद से आप वक्तृता-कला की बोधगम्य और प्रवाहमान शैली में भाव-भंगिमा, हस्त-संचालन, आवाज़ का उतार-चढ़ाव और प्रभावी प्रस्तुति का तरीका भी सीख सकते हैं. 
'व्यक्तित्व विकास परियोजना' के अन्तर्गत आजमगढ़ में चलाये जा रहे प्रशिक्षण में इसका उपयोग करके हम सकारात्मक परिणाम पा रहे है. 
मेरा यह व्याख्यान इस श्रृंखला का नौवाँ व्याख्यान है. 
कृपया युवा-शक्ति की सेवा में विनम्रतापूर्वक समर्पित इस प्रयास की सार्थकता के बारे में अपनी टिप्पड़ी द्वारा मेरी सहायता करें.
- गिरिजेश