Tuesday 30 April 2013

एक गद्यगीत : “कामरेड!” – गिरिजेश



सलाम कामरेड! लाल सलाम!!

वजन तीन किलो, उम्र तीन दिन, कद महज़ एक फुट| मगर फिर भी एक अदद अस्तित्व| तुम्हारे वजूद का सुबूत है चितकबरी चद्दर पर चटक सुर्ख गमछे से छाती तक ढकी कोमल गोरी लाल देह, मिचमिचाती आँखें, छोटे-से मुँह पर चमकते पतले लाल ओठ, बँधी मुट्ठी, नींद में भी उठती-गिरती बित्ते भर की भुजाएँ और दाहिनी कलाई पर बँधी सफेद चीथड़े की पट्टी और तुम्हारा नाम? 
“कामरेड!”


हाँ, तो आओ कामरेड, आओ| स्वागत है तुम्हारा हमारी दुनिया में| आज से यह दुनिया हमारी ही नहीं, तुम्हारी भी है| नहीं, नहीं, माफ़ करना चूक हुई| अब तो यह दुनिया हमसे भी अधिक तुम्हारी है|

अपनी उग्रता के चरम उत्कर्ष पर चढ़ा मध्य जून का तपता सूरज मदोन्मत्त होकर चुनौती भरी ललकार के साथ तुम्हारा स्वागत करने को आतुर है| मौसम से तुम्हारी पहली मुलाकात ही जानलेवा गरमी के साथ भीषण मुकाबला बन चुकी है| होड़ लगी है जगत और जीवन में, ताप और स्नेह में, क्रूर और कोमल में| प्रकृति और पेशियों के बीच की रस्साकशी में अस्तित्व का प्रश्न विजय के साथ सदा से सन्नद्ध रहा है| काँटों-सी चुभती, चुनचुनाती अम्हौरियाँ, ललाट के कोमल पटल पर चमकती पसीने की बूँदें, सतत गतिमान मासूम हृदय की अविरल धड़कन और साँसों के लयबद्ध संगीत की ताल पर थपकी देती स्नेहिल ममता प्रकृति के विरुद्ध अस्तित्व के युद्ध में तुम्हारी कदम-दर-कदम विजय के हर पल की साक्षी हैं|

मगर मौसम है कि अपनी हठधर्मिता में हार मानता ही नहीं और लड़ाई जारी है| जून की खड़ी दोपहरी, चौतरफ़ा चिनगारियाँ बिखेरती प्रचण्ड धूप, हर-हर करती हवा, हिलती-डुलती मृग-मरीचिका, हड्डियों तक को हिला देने वाली गरम लूह, दोनों गालों पर तड़ातड़ थप्पड़ मारते अन्धड़ के झोंकों पर झोंके, अभी-अभी गड्ढामुक्त की गयी सड़क पर पिघलता अलकतरा, सूरज की किरणों की चकाचौंध से चुँधियाई आँखों में बार-बार भर जाने वाली रास्ते से उड़ती धूल, बेचैन तितलियों की तरह उछलते-कूदते, लहराते-झूमते, उठते-गिरते, उड़ते-पड़ते, रंग-बिरंगे प्लास्टिक के खाली लिफ़ाफ़े, सूखे पत्तों और रद्दी कागज़ों की चिन्दियों के साथ बवण्डर पर सवार होकर बार-बार तुम्हारा दरवाज़ा खटखटाते रहते हैं|

और दरवाज़े पर है युग-परिवर्तन की खातिर संकल्पबद्ध परिजन का मौन परिचय देता जागृति-मंच का प्रतीक चिह्न| अपने सुगढ़, सुशिक्षित, सुशील, विनम्र, परिवर्तनकामी, रचनाधार्मिणी, लेखनी की धनी माँ के वात्सल्य की सुखद शीतल छाया तले से निरख-परख निहार रहे हो अपनी अचानक खुल जाने वाली नन्हीं आँखों से तुम विगत को, जगत को, आगत को, अनागत को| निराला हैं तुम्हारे पिता| सतत सक्रिय, लोगों को सिखाने की लगन में लीन, समता की सहज सम्वेदना के मर्मस्पर्शी स्वर की संस्कृति को स्थापित कर व्यवस्था की विसंगति को मटियामेट कर डालने को उद्यत| निरन्तर मुँह चिढ़ाती विकृति के विरुद्ध विक्षोभ की कशिश में हर दिन नये प्रयोगों को आकार दे रहे हैं, हर घड़ी नयी शैली में आशा को उकेर रहे हैं, उत्कट उद्वेग से उफनते उत्साही किशोरों को टोलियों में जोड़ रहे हैं| कड़ी-दर-कड़ी नाथते रचना-प्रक्रिया की श्रृंखला-अभिक्रिया को गति देते चल रहे हैं| आने वाले जन-युद्ध के सेनानियों का व्यक्तित्व ढालना ही उनके जीवन का चरम उद्देश्य है|

निश्चय ही सौभाग्यशाली हो तुम! तब जब कि तुम बड़े हो जाओगे, तो निश्चय ही गर्व होगा तुम्हें ऐसे माँ-बाप की सन्तान होने पर| ठीक वैसे ही जैसे मुझे गर्व है इनके साथ अपने सक्रिय होने पर क्योंकि गर्व तो एक शाश्वत उदात्त भाव है, जो सत्य और न्याय के योद्धाओं के प्रति मानवता के मन में सदा से छलकता रहा है| काश कि ऐसे ही माँ-बाप हम सब को भी मिले होते, तो फिर तो न जाने कब का साकार हो चुका होता हमारे वीर पुरखों का सपना| मगर अफ़सोस की बात है कि अगणित बलिदानों के बाद भी क्रान्ति की करुण कथा अभी भी अधूरी  है| क्योंकि ऐसा नहीं हो सका| सीमाएँ थीं, सो ऐसा हो भी नहीं सकता था| सीमाएँ थीं अज्ञान की, अशिक्षा की, अभाव की, गरीबी की, क्षुद्रता की, सम्पत्ति के स्वामित्व की, लोभ की, दम्भ की, संस्कारों में रचे-बसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी आँखों पर पट्टी कसते चले आ रहे अन्धविश्वासों की, परम्परागत रूढ़ियों की| छोटी-छोटी ज़िन्दगियाँ, छोटे-छोटे सपने – बस, हम सब की कमोबेश एक-सी ही कहानी रही है| मुट्ठी भर ही तो हुए, जिन्हें तुम्हारी तरह की पृष्ठभूमि मिली|

और इसीलिये तो तुम्हें देख कर मुझे भी उम्मीद का बल मिला है| भले ही मेरे बेवकूफ़ दोस्त छीनते रहते हैं मेरी रातों की नींद और फिरंगी की तरह मुझको नचाता रहता है मेरा तनाव और दर्द मेरी रग-रग को नोचता रहता है और नाकामी मुझको बार-बार पटक देती है और मायूसी हज़ार हाथों से मेरा गला घोंटती है और भूख मेरी आँतों में ऐंठती रहती है और अकेलापन मेरी साँसों को सोखता जा रहा है और दम्भ मुझे अपमानित करता रहता है और लोभ मुझे घृणा और गुस्से की आँच में भूनता है और क्षुद्र स्वार्थों के कुटिल घात लगाये बैठी मक्कार दुनियादारी मौका पाते ही मेरे साथ धूर्त गणित कर जाती है और निरन्तर पीटती रहती है मुझको विषमता की विडम्बना और बार-बार मेरी पीठ में छुरा मारता रहता है गद्दार ब्रूटस और डँस लिया करता है आस्तीन के अन्दर ही अन्दर तुम्हारे हिस्से का समूचा दूध लील जाने वाला ज़हरीला साँप बार-बार|
     
अभी भी गली के अबोध बच्चों को बहलाने वाले डमरू की डिम-डिम ताल पर दक्षता के दम्भ से छाती कूटता, चवन्नी-अठन्नी, रुपया-दो रुपया के सपने में डूबा चाटुकार तीन फुटा सँपेरा अपनी बौनी औकात को भूल कर गाल फुलाये प्रदर्शनप्रियता की बेडौल बीन को हिला-हिला कर नाग नाथ की विकराल वीभत्सता का नितान्त नंगा प्रचार आत्म-मुग्ध होकर कर रहा है| अभी भी थिरक रहा है कुण्डली से हाथ भर ऊपर हथेली-सा चौड़ा चित्तीदार फन, अभी भी नाच रही हैं गोल-गोल क्रूर आँखों के भीतर निष्ठुर पुतलियाँ, अभी भी लपलपा रही है दो-मुँही ज़ुबान, अभी भी चमकते हैं खूँख्वार नुकीले विषदन्त, अभी भी मौज़ूद है उसके काले कुचक्री सर के अन्दर मारक ज़हर की थैली और अभी भी जारी है नाग नाथ के चौपट-राज की अन्धेर-गर्दी हमारी-तुम्हारी नगरी में| मगर सब कुछ हथिया लेने की साज़िश के ताने-बाने बुनता बौना कितना गाफ़िल है अपने उद्देश्य की अकड़ में| भूल चुका है इतिहास युग-पुरुष कृष्ण की कालिया-मर्दन की कला और जन्मेजय के नाग-यग्य में भूने गये साँपों की परिणति का| कभी न कभी कोई अदना-सा किशोर देखते ही देखते डेढ़हत्था उठा कर इसका फन कुचल तो देगा ही| कैसे छोड़ देगा इसको जन-मन में भय का सतत संचार करते रहने के लिये?

अभी भी रंगीन टी.वी. के चमकदार स्क्रीन पर सायास दिखाया जाता है इन्द्रलोक का वैभव और देशी-विदेशी परियों-अप्सराओं के मादक सौन्दर्य का जगमगाता सतरंगा सपना| अभी भी मनभावन लोकलुभावन विज्ञापनों के मन्त्र कानों में हर रोज़ फूँक कर कर रहे हैं कुण्ठित कंगाल ‘दरिद्र-नारायण’ को और दे रहे हैं दीक्षा रात-दिन लगातार भ्रष्टाचार, व्यभिचार, अविचार की, कर रहे हैं सम्मोहित जन की सामूहिकता व न्यायप्रियता को और संचेतना को सुला रहे हैं पोंगापन्थी लन्तरानियों की लोरियाँ सुना-सुना कर, हर घर, हर मुहल्ले, हर शहर में हर घड़ी झुण्ड के झुण्ड हाज़िर काली ताकतों के जादूगर अभी भी बहला रहे हैं, फुसला रहे हैं जन के बल को मन्दिर से बम तक के खिलौने दिखा-दिखा कर| अभी भी जारी है जातिवादी चुनाव का नाटक| अभी भी हमारे आस-पास अक्सर उभर आते हैं अक्स असली हथियारों से लैस वर्दीधारी कठपुतलों के और दमकने लगती हैं हुकूमत के नशे में अन्धे हुक्मरानों की सचल प्रेत-छायाएँ|

पूँजीवादी जनतन्त्रों की आज़ादी के पीछे छिपा बैठा बहुराष्ट्रीय वित्तीय साम्राज्यवाद का सूत्रधार विश्वपूँजी का स्वामी कुबेर अभी भी खेल रहा है शेयर बाज़ार की बिसात पर आर्थिक मन्दी के नीम अँधेरे में भी डालर, रूबल, येन, पौण्ड, रुपया, रुपैया के छोटे-बड़े मोहरों से लाभ और लूट की शोषक शतरंज| रोज़ बड़े मोहरे छोटों को शह देते हैं और छोटे मोहरे बारी-बारी से खाते जा रहे हैं मात| तड़पती फ्लैश-लाइटों के आलोक में गलबहियाँ डाले कुर्सियाँ साथ-साथ देती हैं बयान माइक्रोफोन के लम्बे डण्डों के सामने कि देश तुम नहीं हो, हम नहीं हैं, वे हैं, केवल वे| और हमारा उन्नत विद्रोही स्वाभिमानी सिर काटने की कोशिश में धनतन्त्र की हिफाज़त की मंशा से राम का नाम नीलाम कर कुर्सी हथियाने वाले लक्ष्मी के तिकड़मी वाहन गोलबन्द कर रहे हैं प्रान्त-दर-प्रान्त की पुलिस ही नहीं, सेना को भी| और निशाने पर हैं जन-युद्ध के अपराजेय छापामार योद्धा| नक्सलवाद का शिकार करने की मंशा से बुन रहा है मकड़जाल अन्धराष्ट्रवाद का धृतराष्ट्र|

सुनो कामरेड, ध्यान दो! ऐसी दुनिया में आये हो तुम, जहाँ मेहनतकश जुलाहों के पसीने की खुशबू से तर, इन्कलाबी गीतों की गूँजती स्वर-लहरी से भाव-विभोर मऊ की गलियों में दिन के उजाले को धुआँ फैला कर ढकने की ज़ुर्रत करने वाले संशोधनवादी बहुरुपिये खोखली खपच्चियों से लटकते गुलाबी झण्डे के चीथड़े झुलाते बीमार शाम के धुँधलके में अपनी गलीज़ मानसिकता से फ़चाफ़च पान की पीक उगल कर उड़ाते हैं मज़ाक मेरा, तुम्हारा, हमारा, हम सब का| मीठे-मीठे समझाते हैं अपने लगुओं-भगुओं-पिछलग्गुओं को, ‘‘इनसे बचो, ये नक्सली हैं, इनसे सजग रहो, ये खतरनाक हैं, इनसे दूर रहो, ये इन्कलाबी हैं, इनके साथ मत जाओ, ये आतंकवादी हैं, इनका बहिष्कार करो, ये हिंसक हैं’’| मगर कामरेड, वे कभी नहीं बताते कि वे खुद क्या हैं! जातिवादी! सुधारवादी! यथास्थितिवादी! जड़तावादी! अस्तित्ववादी! सुविधावादी! या फिर नितान्त व्यक्तिवादी और अवसरवादी! एक हाथ के इन मुर्दा गद्दारों ने बार-बार बिरादरी से घात किया है और दुश्मन से हाथ मिला कर अपनी कुटिल-कृपा से क्षत-विक्षत किया है हरे-भरे जंगल की समूची जिजीविषा को| तुम्हें सचेत रहना होगा इन फन्दों से भी|


तो कामरेड, यह सब कुछ अच्छा तो नहीं है| मगर यही सच है आज की तुम्हारी-हमारी दुनिया का और मुझे उम्मीद है कि जब तुम बड़े हो जाओगे, तो इस दुनिया को बदलने की जंग में अपने भी शौर्य का प्रदर्शन करोगे और अपने माँ-बाप से भी बड़े कीर्तिमान स्थापित कर दिखाओगे| केवल तभी सार्थक हो सकेगा तुम्हारा यह गौरवशाली नाम, तुम्हारा अस्तित्व, तुम्हारा जीवन| सजग रहना, भागना मत! वरना उपहास का पात्र बनना पड़ेगा तुमको, मुझको, हम सब को|


अब बस, इतना ही|
क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ 
तुम्हारा एक बूढ़ा कामरेड

2 comments:

  1. मार्मिक और प्रेरक, दोनों ही.

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  2. नई पीढी के लिए प्रेरक कथन ।

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