Monday 15 April 2013

साम्प्रदायिक किसे कहते हैं? - गिरिजेश


प्रश्न :- साम्प्रदायिक किसे कहते हैं?

उत्तर :- जो भी व्यक्ति या संगठन अपने धर्म और सम्प्रदाय के विचारों को दूसरे धर्म और सम्प्रदाय के विचारों से बेहतर मानता है और दूसरे धर्म और सम्प्रदाय के विचारों को अपने से बदतर मानता है, वह साम्प्रदायिक कहलाता है. वह नारी-जाति को ज़बरदस्ती गुलाम बनाये रखने का दुराग्रह करता है. वह तार्किक चिन्तन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विरोध करता है. वह श्रेष्ठताबोध के भ्रम से ग्रस्त हो कर अपनी इस छुद्रतावादी अहंकारी सोच के चलते अपने विचारों को दूसरों पर ज़बरदस्ती थोपने के लिये दूसरे सम्प्रदाय का उपहास, अपमान और उत्पीडन करता है.

वह गरीबी, महँगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार आदि समाज की सारी समस्याओं के लिये केवल अपने विरोधी सम्प्रदाय को ही एकमात्र ज़िम्मेदार बताता है. इस तरह सभी सामाजिक समस्याओं के असली कारण - शोषक वर्गों द्वारा आम आदमी के वर्गीय शोषण को छिपाने के लिये वह धूर्तता के साथ धुएँ की दीवार खड़ी करने की साज़िश करता है. इस कुत्सा-प्रचार के चलते एक दूसरे के खिलाफ़ नफ़रत के गुस्से से लोगों को अन्धा बनाने वाली धार्मिक आस्थाओं के बीच मतभेद की यह तनातनी जब हद से बढ़ जाती है, तो साम्प्रदायिकतावादी संगठन साम्प्रदायिक दंगे कर के समाज में अपने आतंक के ज़रिये खौफ़ का माहौल पैदा करता है और फिर इन दंगों में बेगुनाह मासूम लोगों का वध करके प्रसन्न होता है. 

इस उत्तर के अनुसार हिन्दू धर्म के नाम पर दूसरे धर्मों का विरोध करने वाले तथाकथित हिन्दुत्ववादी गिरोह ही हमारे समाज की बहुसंख्यक आबादी के धर्म का प्रतिनिधि होने के चलते के सबसे बडे साम्प्रदायिक गिरोह है. कोई भी धर्म अगर दूसरे धर्मों के अनुयायियों के साथ सहनशीलता पूर्वक रह सके, तो उसे साम्प्रदायिक नहीं कहेंगे. मगर अगर दूसरे धर्म पर कीचड़ उछालता है, तो उसे साम्प्रदायिक ही कहेंगे. हिन्दू धर्म में वैष्णव और शैव सम्प्रदायों के बीच के ख़ूनी झगडों ने जब असहनीय स्थिति में वैष्णवों को फँसा दिया, तो उनको सन्यासियों से बचने के लिये अपने बीच से नागा साधुओं की जमात को खड़ा करना पड़ा. जब बौद्धों और सनातनियों के बीच का संघर्ष चरम पर पहुँचा, तो बौद्ध विहारों को ध्वस्त करने में ब्राह्मणवादियों ने कोई असर नहीं छोड़ी. इसी तरह आर्य समाज और ब्राह्मसमाज के समाज-सुधारकों को परम्परावादियों का विरोध झेलना पड़ा था. 

ऐसे में हिन्दू धर्म को साम्प्रदायिक विद्वेष से मुक्त कहना इतिहास को नज़र-अंदाज़ करना होगा. जितना छुआछूत, भेदभाव और नफ़रत हिन्दू धर्म में सवर्णों ने विधर्मियों और दलितों के साथ दुर्व्यवहार करने मे दिखाई है, उतना शायद और किसी ने नहीं. कठमुल्लापन और संकीर्णता का चरम रहा है हिन्दू धर्म में. जाति-बहिष्कृत करने में भी सबसे आगे हिन्दू धर्म के ठेकेदार ही रहे हैं. और धार्मिक केन्द्रों में बैठे सुविधाभोगी महन्त अकूत वैभव संचित करने के लिये हर तरह से ताल-तिकडम करने में किसी से भी आगे रहे हैं. समग्रता में दूसरे सभी धर्मों की तरह ही हिन्दू धर्म भी मूलतः साम्प्रदायिक ही है.

समाज में साम्प्रदायिकता का ज़हर फैला कर शासक पूँजीपति वर्ग जनता के बीच के मनोमालिन्य की दरार को और चौड़ा करता है, जनता के बीच के सौजन्य और सौहार्द्र के माहौल को बिगाड़ डालता है और फिर शोषण की चक्की को और तेज़ घुमाता चला जाता है. ऐसे में फ़ासिज़्म का दौर आता है. जब शासक वर्ग द्वारा सभी जनतांत्रिक मूल्यों को कुचल कर केवल नंगी गुण्डई के सहारे ज़ोर-ज़बरदस्ती की हुकूमत कायम की जाती है. फ़ासिज़्म के दौर में राजनीतिक दलों के, धार्मिक संगठनों के और पेशेवर गुण्डों, अपराधियों, माफिया और पुलिस और फ़ौज के दम पर शोषण, उत्पीडन, दमन और अन्याय का विरोध करने का साहस करने वाले हर स्वर को बेरहमी से कुचल दिया जाता है. 

अदालतों में न्याय के नाम पर केवल अन्याय होने लगता है. राजनीति में पक्ष और विपक्ष के बीच कोई सैद्धांतिक फ़र्क नहीं रह जाता है और सत्ता द्वारा लगातार एक के बाद एक जनविरोधी क़ानून बना कर देशी और विदेशी लुटेरों को लाभ पहुँचाने के लिये देश की सारी सम्पदा की बेशर्मी से लूट-पाट की जाती है. फ़ासिज़्म अक्सर अल्पसंख्यक सम्प्रदाय के प्रति बहुसंख्यक सम्प्रदाय की नफरत को अपना औजार बनाता है. केवल वैज्ञानिक दृष्टिकोण और क्रान्तिकारी विचारों से नयी पीढ़ी को लैस करके ही साम्प्रदायिकता के ज़हर से समाज को बचाया जा सकता है.

No comments:

Post a Comment