Friday 29 March 2013

नक्सलवाद का विरोध क्यों? - गिरिजेश



प्रिय मित्र, हमारे नक्सलवाद का विरोध करने वाले अधिकतर मित्र नक्सलवाद से क्या समझ रहे हैं!
वे समझ रहे हैं कि शोषण, दमन और उत्पीडन का विरोध सही है. मगर खुद हथियार उठा कर संघर्ष गलत है. क्योंकि हथियार की लड़ाई में सुरक्षा देने वाले सेना और पुलिस के सिपाही मारे जाते हैं. मगर अमीरों के पक्ष में नीतियाँ बनाने वाले पोलिटीसियन बच जाते हैं - यह तो सच है.

और जब सवाल सुरक्षा का आता है, तो पूछना पड़ता है कि सुरक्षा देने वाले फौज़ी क्या हमें सुरक्षा देते हैं? क्या वे उन्हीं पोलिटीसियन्स की सेवा नहीं कर रहे होते हैं? जब वे निहत्थे आंदोलनकारियों पर कहर बरपाते हैं, तो वे सुरक्षा दे रहे होते हैं. मगर किसको? न्याय माँगने गये लोगों को या अन्याय के लिये ज़िम्मेदार तन्त्र को?

क्या इस तन्त्र में वास्तविक न्याय मिलना सम्भव है? क्या इस जनविरोधी तन्त्र में सब का विकास सम्भव है? क्योंकि विकास का वास्तविक अर्थ है सब का विकास. नहीं न! तो इस व्यवस्था मे क्रान्ति के पक्ष में लगातार बात चलाने से ही सबका विकास होगा. क्रान्ति का अर्थ है - वैचारिक स्तर का विकास. 'मैं' की जगह 'हम' का बोध विकसित करना. क्योंकि 'हम' के बोध के बाद व्यक्तिवाद की जगह सामूहिकता की भावना आ जाती है.

मगर इस व्यवस्था में मुट्ठी भर लोग अकेले-अकेले अपने विकास के चक्कर में सब लोगों का विकास रोकते रहते हैं. और इसी के चलते सारा झगड़ा है. इस झगड़े का निपटारा सरकार फ़ोर्स से करती है, तो नक्सली भी हथियार से करते हैं. मगर वे भी तो केवल जंगलों के भीतर ही कर पा रहे हैं. और अगर जंगलों में भी खनिज-सम्पदा को पूँजीपतियों के हवाले करने का काम नहीं होता, तो क्या सरकार भी वहाँ अपनी सेना इस तरह से नक्सलवादियों से लड़ने के लिये भेजती? और तब अगर आदिवासियों के सामने अपने जंगल को सरकारी कब्ज़े से बचाने की चिन्ता नहीं होती, तो उस हालत में क्या नक्सलवादियों को इतना भी जन-समर्थन मिल पाता? नहीं न!

नक्सलवादी धारा बचकानी आतुरता का शिकार है. अतिवाद की इसी कमी को गहराई से समझने की ज़रूरत है. देश वैसे ही न तो सोच सकता है और न ही सोच पा रहा है, जैसे हमारे बन्दूकधारी साथी चाहते हैं और सोच रहे हैं. देश तो पहले भी लड़ा है और आज भी लड़ ही रहा है और आगे आने वाले दिनों में आर-पार की लड़ाई भी लड़ेगा ही. मगर अपनी पूरी तैयारी के बाद. और उसकी तैयारी में अभी समय शेष है.

लड़ाई में आतुरता से नहीं धैर्य से काम लेना होता है. क्रांतिकारियों की आतुरता क्रान्ति के शत्रु को ही लाभ पहुँचाती है. इस अतिवाद को रंग-रोगन से और चमकाने का और मीडिया के प्रचार-तन्त्र के दम पर दुष्प्रचार करने का सत्ता-प्रतिष्ठान के सेवक 'बुद्धिजीवी' और व्यवस्था के ‘चाकर’ मौका पा जाते हैं और फिर परिणामस्वरूप सत्ता और व्यवस्था आम लोगों में क्रांतिकारियों के बारे में तरह-तरह से दहशत और भ्रम फैलाती है.

और फिर क्रान्ति का फोटोस्टेट नहीं होता. चीन में जो नवजनवादी क्रान्ति लड़ी गयी, वह रूस जैसी नहीं थी और भारत में जो लड़ी जायेगी, वह चीन जैसी नहीं हो सकती. परिस्थिति और परिवेश के अन्तर को समझना ज़रूरी है. अब व्यवस्था और भी अधिक जटिल और संश्लिष्ट हो चुकी है. वह और भी केंद्रीकृत और सबल हो चुकी है. आतंकवादी सैन्यवादी कार्यदिशा और जनदिशा के अन्तर को समझना ज़रूरी है. क्रान्ति जनता करती है. मात्र मुट्ठी भर क्रान्तिकारी मुक्ति के देवदूत नहीं हो सकते. अगर हो सकते होते, तो सड़सठ से अब तक नवजनवादी क्रान्ति की मंज़िल मानने वाले सफल हो चुके होते.

तथाकथित सामंतवाद अब मात्र खण्डहर के तौर पर जान बूझ कर तन्त्र द्वारा रिजर्वेशन और जातिवाद के सहारे बचाया गया है और ब्राह्मणवाद के विरुद्ध नव-दलितवाद को खड़ा करके जन-सामान्य की एकजुटता के रास्ते की खाई को और भी बढ़ाया जा रहा है. और कहावत है ''खण्डहर ढहे, न बुढिया मरे". इस खण्डहर को ढहाने के लिये सांस्कृतिक क्रान्तियों की अगणित श्रृंखलाएँ चलानी पड़ेंगी. अभी तो इनके पीछे ही छिप कर पूँजी मासूम जन के श्रम का शिकार कर रही है.

इसीलिये आतंकवादी-सैन्यवादी कार्यदिशा सही नहीं है. क्रान्तिकारी विचारों के प्रचार-प्रसार के दौरान इस ढहते हुए सामंतवाद के नकली दुश्मन से लड़ने के बजाय असली दुश्मन यानि कि देशी-विदेशी पूँजी का पर्दाफाश किया जाना अधिक लाभकार होगा.

मुख्य समाज के लोग इस व्यवस्था के भीतर जीने वाले लोग हैं. वे नक्सली तरीके से लड़ नहीं सकते. इसलिये ही भगत सिंह का जनदिशा का रास्ता क्रान्ति का सही रास्ता है. इसमें केवल बम-पिस्तौल नहीं, बल्कि बौद्धिक और सामूहिक प्रयास किया जाता है. सब लोगों को साथ लेकर लम्बे समय तक की लड़ाई की तैयारी करनी होती है.

क्रान्ति के नाम पर चल रहा अन्ना, अरविन्द और रामदेव का तरीका तो सफल होता नहीं दिख पा रहा है. और फिर अन्ना और अरविन्द के बीच भी मतभेद पैदा हुआ क्योंकि अन्ना केवल आन्दोलन के ज़रिये ही लड़ना चाहते थे. जबकि अरविन्द को संसद का रास्ता पसन्द आया. उनके बीच मतभेद की वही रेखा है, जो सी.पी.आई., सी.पी.एम. और नक्सल आन्दोलन के बीच है.
फिर भी चूँकि दोनों को ही व्यवस्था के घेरे के भीतर ही लड़ना है, इसलिये दोनों अपने मतभेद के बावज़ूद एक दूसरे का साथ देते रहेंगे.

जबकि असली लड़ाई तो इस व्यवस्था से ही है. और इस व्यवस्था से लड़ने में इन्कलाबी तभी सफल हो सकते हैं, जब व्यवस्था की शक्ति को अपने अखाड़े के अन्दर घुसा ले जायें. उनके अखाड़े में जा कर तो हम उनके जाल में फँसते ही रहे हैं.
और संसद भी उनका ही अखाड़ा है.

क्या अन्ना नहीं जानते कि उनके ही इलाके के ढाई लाख किसानों ने पूँजी के जाल में फँस कर आत्महत्या की है? फिर भी क्या वजह है कि कभी भी तो वह इस पर नहीं बोल सके?
क्या अरविन्द नहीं जानते कि जिन्दल के चलते आदिवासियों का नरमेध हो रहा है. फिर भी वह जिन्दल से पुरस्कार लेते हैं. क्यों? सोचिए. सच सामने है.

युवाओं को ही दुनिया बदलने के इस काम के लिये हर तरह से तैयार करना होगा. मुझे तो यही समझ में आता है. फिर वे जैसा चाहेंगे, करेंगे. या तो वे भी घूसखोर अफसर बन जायेंगे या भगत सिंह की तरह लोगों को जगाने का काम आगे बढायेंगे. हम लोग इसी तरीके से क्रान्तिकारी शक्तियों को जोड़ने, सिखाने और विकसित करने में यकीन करते हैं.

इसके साथ ही हम सब को मिल जुल कर यह कोशिश करनी ही होगी कि अधिकतम मतभेद और न्यूनतम बिन्दुओं पर सहमति होने पर भी देश के सभी जनवादी और प्रगतिशील संगठनों के तौर पर और संगठनों से अलग रह कर व्यक्तिगत स्तर पर सक्रिय साथियों के बीच एकजुटता का कोई ढीला-ढाला ही सही एक आधार बन सके. तभी भारतीय क्रान्ति का दशकों पुराना सपना साकार हो सकेगा.

आपका क्या सोचना है!




Tuesday 26 March 2013

मैंने भी क्या होली खेला! – गिरिजेश



मैंने भी क्या होली खेला!
जीवन की रचना करने में
चाहे जितना मैंने झेला,
आने वाले कल की
खबरों की सुर्खी को चमकाने में
चाहे जो भी हुआ झमेला,
तनिक न झिझका, तनिक न हिचका,
अपनी गगरी में जितना भी भरा हुआ था
लाल-लाल जीवन का पानी
सबको मैंने
इस दुनिया पर खूब उड़ेला,
मन भर होली मैंने खेला.

मैंने भी क्या होली खेला!
दुनिया से मुझको जीवन भर,
जो भी, जितना भी, जैसे भी मिला कलुष है,
सबको मैंने
अपने ही दोनों गुब्बारों में भर डाला.
ख़ूब जोर से धुवाँ भरा,
फिर कस कर बाँधा.
और उन्हीं काली करतूतों की
स्याही से भरे हुए
अपने फूले-फूले गुब्बारे
रंग-बिरंगी दुनिया के दोहरे चेहरे की
फर्ज़ी-झूठी चमक-दमक पर
पूरी ताकत से दे मारा. 
यह लो, मैंने फिर दे मारा.


मैंने भी क्या होली खेला!
कदम-कदम पर इस दुनिया ने
मुझको अपना रंग दिखाया,
ख़ूब बिलबिलाया मन मेरा,
फिर भी नहीं कभी उसको मैंने भरमाया,
चाहे जैसे भी, जितना भी, जब भी मैंने मौका पाया,
रंग दिखाने वाली इस अन्धी दुनिया को
अपना भी तो रंग दिखाया,
देखो, इसको ख़ूब छकाया.

मैंने भी क्या होली खेला!
नकली ताम-झाम फैलाये,
कपटी मुस्कानों में लिपटी
दुनिया के चोगे को जब-जब मौका मैंने पाया,
अपने दोनों मरियल हाथों के मैले नाखूनों से
तब-तब पकड़ा, कस कर जकड़ा.
उसके सब ढोंगों को चिथड़ा कर के फाड़ा,
सच को हर दम ख़ूब उघाड़ा.

मैंने भी क्या होली खेला!
दुनिया के दोहरेपन को भी
जब भी, जिससे भी, जितना भी सीख सका था,
उसको मैंने
तब-तब, वैसे ही, उतना ही ख़ूब सिखाया!

मैंने भी क्या होली खेला!
मन के भीतर धँसे हुए
असली दुश्मन को
बाँबी में से खोज निकाला,
मुझको भी बच्चा समझा है!
उसे बताया, बीन बजाया,
नाच उसे मैंने तिगनी का ख़ूब नचाया...
27.3.13

Sunday 24 March 2013

शहीद-ए-आज़म भगत सिंह 2013



प्रिय मित्र, यह व्याख्यान 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' के अन्तर्गत आजमगढ़ में चलाये जा रहे साप्ताहिक अध्ययन-चक्र की उपज है. 
भारतीय क्रान्ति के प्रतीक पुरुष शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के युगद्रष्टा व्यक्तित्व के मूल्यांकन और वर्तमान क्रांतिकारी आन्दोलन की दशा और दिशा के सन्दर्भ में देशी-विदेशी पूँजी के गठजोड़ पर टिके भारतीय धनतन्त्र के विरुद्ध समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल के बारे में उनकी स्पष्ट समझ का विश्लेषण करने के एक प्रयास के तौर पर मेरा यह व्याख्यान इस अध्ययन-चक्र की श्रृंखला का आठवाँ व्याख्यान है. 
कृपया युवा-शक्ति की सेवा में विनम्रतापूर्वक समर्पित इस प्रयास की सार्थकता के बारे में अपनी टिप्पड़ी द्वारा मेरी सहायता करें.
- गिरिजेश
http://youtu.be/hGsj7VcDzqw

https://www.facebook.com/girijeshkmr?ref=tn_tnmn#

Thursday 21 March 2013

The Struggle for an Education- Booker T. Washington


Booker T. Washington (1856–1915). 
Up from Slavery: An Autobiography. 1901.
III. The Struggle for an Education
- Booker T. Washington
ONE day, while at work in the coal-mine, I happened to overhear two miners talking about a great school for coloured people somewhere in Virginia. This was the first time that I had ever heard anything about any kind of school or college that was more pretentious than the little coloured school in our town.

As they went on describing the school, it seemed to me that it must be the greatest place on earth, and not even Heaven presented more attractions for me at that time than did the Hampton Normal and Agricultural Institute in Virginia, about which these men were talking. I resolved at once to go to that school, although I had no idea where it was, or how many miles away, or how I was going to reach it; I remembered only that I was on fire constantly with one ambition, and that was to go to Hampton. This thought was with me day and night.

In the fall of 1872 I determined to make an effort to get there, although, as I have stated, I had no definite idea of the direction in which Hampton was, or of what it would cost to go there. I do not think that any one thoroughly sympathized with me in my ambition to go to Hampton unless it was my mother, and she was troubled with a grave fear that I was starting out on a “wild-goose chase.” At any rate, I got only a half-hearted consent from her that I might start. I had very little with which to buy clothes and pay my travelling expenses. My brother John helped me all that he could, but of course that was not a great deal.

Finally the great day came, and I started for Hampton. I had only a small, cheap satchel that contained what few articles of clothing I could get. My mother at the time was rather weak and broken in health. I hardly expected to see her again, and thus our parting was all the more sad. She, however, was very brave through it all. 

The distance from Malden to Hampton is about five hundred miles. By walking, begging rides both in wagons and in the cars, in some way, after a number of days, I reached the city of Richmond, Virginia, about eighty-two miles from Hampton. When I reached there, tired, hungry, and dirty, it was late in the night. 

I had never been in a large city, and this rather added to my misery. When I reached Richmond, I was completely out of money. I had not a single acquaintance in the place, and, being unused to city ways, I did not know where to go. I asked at several places for lodging, but they all wanted money, and that was what I did not have. Knowing nothing else better to do, I walked the streets. 

I must have walked the streets till after midnight. At last I became so exhausted that I could walk no longer. I was tired, I was hungry, I was everything but discouraged. Just about the time when I reached extreme physical exhaustion, I came upon a portion of a street where the board sidewalk was considerably elevated. I waited for a few minutes, till I was sure that no passers-by could see me, and then crept under the sidewalk and lay for the night upon the ground, with my satchel of clothing for a pillow. Nearly all night I could hear the tramp of feet over my head. 

The next morning I found myself somewhat refreshed, but I was extremely hungry, because it had been a long time since I had had sufficient food. As soon as it became light enough for me to see my surroundings I noticed that I was near a large ship, and that this ship seemed to be unloading a cargo of pig iron. I went at once to the vessel and asked the captain to permit me to help unload the vessel in order to get money for food. The captain, a white man, who seemed to be kind-hearted, consented. I worked long enough to earn money for my breakfast, and it seems to me, as I remember it now, to have been about the best breakfast that I have ever eaten.

My work pleased the captain so well that he told me if I desired I could continue working for a small amount per day. This I was very glad to do. I continued working on this vessel for a number of days. After buying food with the small wages I received there was not much left to add to the amount I must get to pay my way to Hampton. In order to economize in every way possible, I continued to sleep under the sidewalk. 

When I had saved what I considered enough money with which to reach Hampton, I thanked the captain of the vessel for his kindness, and started again. Without any unusual occurrence I reached Hampton, with a surplus of exactly fifty cents with which to begin my education. The first sight of the large, three-story, brick school building seemed to have rewarded me for all that I had undergone in order to reach the place. The sight of it seemed to give me new life. 

As soon as possible after reaching the grounds of the Hampton Institute, I presented myself before the head teacher for assignment to a class. Having been so long without proper food, a bath, and change of clothing, I did not, of course, make a very favourable impression upon her, and I could see at once that there were doubts in her mind about the wisdom of admitting me as a student. For some time she did not refuse to admit me, neither did she decide in my favour, and I continued to linger about her, and to impress her in all the ways I could with my worthiness. In the meantime I saw her admitting other students, and that added greatly to my discomfort, for I felt, deep down in my heart, that I could do as well as they, if I could only get a chance to show what was in me.

After some hours had passed, the head teacher said to me: “The adjoining recitation-room needs sweeping. Take the broom and sweep it.” 
It occurred to me at once that here was my chance. Never did I receive an order with more delight. 

I swept the recitation-room three times. Then I got a dusting-cloth and I dusted it four times. All the woodwork around the walls, every bench, table, and desk, I went over four times with my dusting-cloth. Besides, every piece of furniture had been moved and every closet and corner in the room had been thoroughly cleaned. I had the feeling that in a large measure my future depended upon the impression I made upon the teacher in the cleaning of that room. When I was through, I reported to the head teacher. She was a “Yankee” woman who knew just where to look for dirt. She went into the room and inspected the floor and closets; then she took her handkerchief and rubbed it on the woodwork about the walls, and over the table and benches. When she was unable to find one bit of dirt on the floor, or a particle of dust on any of the furniture, she quietly remarked, “I guess you will do to enter this institution.”

I was one of the happiest souls on earth. The sweeping of that room was my college examination, and never did any youth pass an examination for entrance into Harvard or Yale that gave him more genuine satisfaction. I have passed several examinations since then, but I have always felt that this was the best one I ever passed. 


The Kitemaker - Ruskin Bond



THERE WAS BUT ONE tree in the street known as Gali Ram Nathan ancient banyan that had grown through the cracks of an abandoned mosque—and little Ali's kite had caught in its branches. The boy, barefoot and clad only in a torn shirt, ran along the cobbled stones of the narrow street to where his grandfather sat nodding dreamily in the sunshine of their back courtyard.
'Grandfather shouted the boy. 'My kite has gone!
The old man woke from his daydream with a start and, raising his head, displayed a beard that would have been white had it not been dyed red with mehendi leaves.
'Did the twine break?' he asked. to know that kite twine is not what it used to be.
'No, Grandfather, the kite is stuck in the banyan tree.
The old man chuckled. 'You have yet to learn how to fly a kite properly, my child. And I am too old to teach you, that's the pity of it. But you shall have another.
He had just finished making a new kite from bamboo paper and thin silk, and it lay in the sun, firming up. It was a pale pink kite, with a small green tail. The old man handed it to Ali, and the boy raised himself on his toes and kissed his grandfather's hollowed-out cheek.
I will not lose this one he said. 'This kite will fly like a bird. And he turned on his heels and skipped out of the courtyard.
The old man remained dreaming in the sun. His kite shop was gone, the premises long since sold to a junk dealer; but he still made kites, for his own amusement and for the benefit of his grandson, Ali. Not many people bought kites these days. Adults disdained them, and children preferred to spend their money at the cinema. Moreover, there were not many open spaces left for the flying of kites. The city had swallowed up the open grassland that had stretched from the old fort's walls to the river bank.
But the old man remembered a time when grown men flew kites, and great battles were fought, the kites swerving and swooping in the sky, tangling with each other until the string of one was severed. Then the defeated but liberated kite would float away into the blue unknown. There was a good deal of betting, and money frequently changed hands.
Kite-flying was then the sport of kings, and the old man remembered how the Nawab himself would come down to the riverside with his retinue to participate in this noble pastime. There was time, then, to spend an idle hour with a gay, dancing strip of paper. Now everyone hurried, in a heat of hope, and delicate things like kites and daydreams were trampled underfoot.
He, Mehmood the kitemaker, had in the prime of his life been well known throughout the city. Some of his more elaborate kites once sold for as much as three or four rupees each.
At the request of the Nawab he had once made a very special kind of kite, unlike any that had been seen in the district. It consisted of a series of small, very light paper disks trailing on a thin bamboo frame. To the end of each disk he fixed a sprig of grass, forming a balance on both sides. The surface of the foremost disk was slightly convex, and a fantastic face was painted on it, having two eyes made of small mirrors. The disks, decreasing in size from head to tail, assumed an undulatory form and gave the kite the appearance of a crawling serpent. It required great skill to raise this cumbersome device from the ground, and only Mehmood could manage it.
Everyone had heard of the 'Dragon Kite' that Mehmood had built, and word went round that it possessed supernatural powers. A large crowd assembled in the open to watch its first public launching in the presence of the Nawab.
At the first attempt it refused to leave the ground. The disks made a plaintive, protesting sound, and the sun was trapped in the little mirrors, making of the kite a living, complaining creature. Then the wind came from the right direction, and the Dragon Kite soared into the sky, wriggling its way higher and higher, the sun still glinting in its devil-eyes. And when it went very high, it pulled fiercely on the twine, and Mehmood's young sons had to help him with the reel. Still the kite pulled, determined to be free, to break loose, to live a life of its own. And eventually it did so. The twine snapped, the kite leaped away toward the sun, sailing on heavenward until it was lost to view. It was never found again, and Mehmood wondered afterwards if he made too vivid, too living a thing of the great kite. He did not make another like it. Instead he presented to the Nawab a musical kite, one that made a sound like a violin when it rose in the air.
Those were more leisurely, more spacious days. But the Nawab had died years ago, and his descendants were almost as poor as Mehmood himself. Kitemakers, like poets, once had their patrons; but no one knew Mehmood, simply because there were too many people in the Gali, and they could not be bothered with their neighbours.
When Mehmood was younger and had fallen sick, everyone in the neighbourhood had come to ask after his health; but now, when his days were drawing to a close, no one visited him. Most of his old friends were dead and his sons had grown up: one was working in a local garage and the other, who was in Pakistan at the time of the Partition, had not been able to rejoin his relatives.
The children who had bought kites from him ten years ago were now grown men, struggling for a living; they did not have time for the old man and his memories. They had grown up in a swiftly changing and competitive world, and they looked at the old kitemaker and the banyan tree with the same indifference.
Both were taken for granted—permanent fixtures that were of no concern to the raucous, sweating mass of humanity that surrounded them. No longer did people gather under the banyan tree to discuss their problems and their plans; only in the summer months did a few seek shelter from the fierce sun.
But there was the boy, his grandson. It was good that Mehmood's son worked dose by, for it gladdened the old man's heart to watch the small boy at play in the winter sunshine, growing under his eyes like a young and well-nourished sapling putting forth new leaves each day. There is a great affinity between trees and men. We grow at much the same pace, if we are not hurt or starved or cut down. In our youth we are resplendent creatures, and in our declining years we stoop a little, we remember, we stretch our brittle limbs in the sun, and then, with a sigh, we shed our last leaves.
Mehmood was like the banyan, his hands gnarled and twisted like the roots of the ancient tree. Ali was like the young mimosa planted at the end of the courtyard. In two years both he and the tree would acquire the strength and confidence of their early youth.
The voices in the street grew fainter, and Mehmood wondered if he was going to fall asleep and dream, as he so often did, of a kite so beautiful and powerful that it would resemble the great white bird of the Hindus—Garuda, God Vishnu's famous steed. He would like to make a wonderful new kite for little Ali. He had nothing else to leave the boy.
He heard Ali's voice in the distance, but did not realize that the boy was calling him. The voice seemed to come from very far away.
Ali was at the courtyard door, asking if his mother had as yet returned from the bazaar. When Mehmood did not answer, the boy came forward repeating his question. The sunlight was slanting across the old man's head, and a small white butterfly rested on his flowing beard. Mehmood was silent; and when Ali put his small brown hand on the old man's shoulder, he met with no response. The boy heard a faint sound, like the rubbing of marbles in his pocket.
Suddenly afraid, Ali turned and moved to the door, and then ran down the street shouting for his mother. The butterfly left the old man's beard and flew to the mimosa tree, and a sudden gust of wind caught the torn kite and lifted it in the air, carrying it far above the struggling city into the blind blue sky.

Wednesday 20 March 2013

The Ant and the Grasshopper - W.S. Maugham

dear friend, please read this interesting story and listen it with google translator or from the link of the video given below to improve your pronunciation of english with the help of your computer. google translator speaks it in american accent. it is really very interesting to listen the loud reading of google english and is much helpful for the students of intermediate of u.p. board, as it is in their prose text-book.
what is the message of the author by drafting it - 
please think!

W.S. Maugham - The Ant and the Grasshopper 
When I was a very small boy I was made to learn by heart certain of the fables of La Fontaine, and the moral of each was carefully explained to me. Among those I learnt was The Ant and the Grasshopper, which is devised to bring home to the young the useful lesson that in an imperfect world industry is rewarded and giddiness punished. In this admirable fable (I apologise for telling something which everyone is politely, but inexactly, supposed to know) the ant spends a laborious summer gathering its winter store; while the grasshopper sits on a blade of grass singing to the sun. Winter comes and the ant is comfortably provided for, but the grasshopper has an empty larder: he goes to the ant and begs for a little food. Then the ant gives him her classic answer: 

"What were you doing in the summer time?" 

"Saving your presence, I sang, I sang all day, all night." 

"You sang. Why, then go and dance." 

I do not ascribe it to perversity on my part, but rather to the inconsequence of childhood, which is deficient in moral sense, that I could never quite reconcile myself to the lesson. My sympathies were with the grasshopper and for some time I never saw an ant without putting my foot on it. In this summary (and, as I have discovered since, entirely human) fashion I sought to express my disapproval of prudence and commonsense. 

I could not help thinking of this fable when the other day I saw George Ramsay lunching by himself in a restaurant. 

I never saw anyone wear an expression of such deep gloom. He was staring into space. He looked as though the burden of the whole world sat on his shoulders. I was sorry for him: I suspected at once that his unfortunate brother had been causing trouble again. I went up to him and held out my hand. 

"How are you?" I asked. 

"I'm not in hilarious spirits," he answered. 

"Is it Tom again?" 

He sighed. 

"Yes, it's Tom again." 

"Why don't you chuck him?" You've done everything in the world for him. You must know by now that he's quite hopeless. 

I suppose every family has a black sheep. Tom had been a sore trial for twenty years. He had begun life decently enough: he went into business, married and had two children. The Ramsays were perfectly respectable people and there was every reason to suppose that Tom Ramsay would have a useful and honourable career. But one day, without warning, he announced that he didn't like work and that he wasn't suited for marriage. He wanted to enjoy himself. He would listen to no expostulations. He left his wife and his office. He had a little money and he spent two happy years in the various capitals of Europe. Rumours of his doings reached his relations from time to time and they were profoundly shocked. He certainly had a very good time. They shook their heads and asked what would happen when his money was spent. They soon found out: he borrowed. He was charming and unscrupulous. I have never met anyone to whom it was more difficult to refuse a loan. He made a steady income from his friends and he made friends easily. But he always said that the money you spent on necessities was boring; the money that was amusing to spend was the money you spent on luxuries. For this he depended on his brother George. He did not waste his charm on him. George was a serious man and insensible to such enticements. George was respectable. Once or twice he fell to Tom's promises of amendment and gave him considerable sums in order that he might make a fresh start. On these Tom bought a motorcar and some very nice jewellery. But when circumstances forced George to realise that his brother would never settle down and he washed his hands of him, Tom, without a qualm, began to blackmail him. It was not very nice for a respectable lawyer to find his brother shaking cocktails behind the bar of his favourite restaurant or to see him waiting on the box-seat of a taxi outside his club. Tom said that to serve in a bar or to drive a taxi was a perfectly decent occupation, but if George could oblige him with a couple of hundred pounds he didn't mind for the honour of the family giving it up. George paid. 

Once Tom nearly went to prison. George was terribly upset. He went into the whole discreditable affair. Really Tom had gone too far. He had been wild, thoughtless and selfish; but he had never before done anything dishonest, by which George meant illegal; and if he were prosecuted he would assuredly be convicted. But you cannot allow your only brother to go to gaol. The man Tom had cheated, a man called Cronshaw, was vindictive. He was determined to take the matter into court; he said Tom was a scoundrel and should be punished. It cost George an infinite deal of trouble and five hundred pounds to settle the affair. I have never seen him in such a rage as when he heard that Tom and Cronshaw had gone off together to Monte Carlo the moment they cashed the cheque. They spent a happy month there. 

For twenty years Tom raced and gambled, philandered with the prettiest girls, danced, ate in the most expensive restaurants, and dressed beautifully. He always looked as if he had just stepped out of a bandbox. Though he was forty-six you would never have taken him for more than thirty-five. He was a most amusing companion and though you knew he was perfectly worthless you could not but enjoy his society. He had high spirits, an unfailing gaiety and incredible charm. I never grudged the contributions he regularly levied on me for the necessities of his existence. I never lent him fifty pounds without feeling that I was in his debt. Tom Ramsay knew everyone and everyone knew Tom Ramsay. You could not approve of him, but you could not help liking him. 

Poor George, only a year older than his scapegrace brother, looked sixty. He had never taken more than a fortnight's holiday in the year for a quarter of a century. He was in his office every morning at nine-thirty and never left it till six. He was honest, industrious and worthy. He had a good wife, to whom he had never been unfaithful even in thought, and four daughters to whom he was the best of fathers. He made a point of saving a third of his income and his plan was to retire at fifty-five to a little house in the country where he proposed to cultivate his garden and play golf. His life was blameless. He was glad that he was growing old because Tom was growing old too. He rubbed his hands and said: 

"It was all very well when Tom was young and good-looking, but he's only a year younger than I am. In four years he'll be fifty. He won't find life so easy then. I shall have thirty thousand pounds by the time I'm fifty. For twenty-five years I've said that Tom would end in the gutter. And we shall see how he likes that. We shall see if it really pays best to work or be idle." 

Poor George! I sympathized with him. I wondered now as I sat down beside him what infamous thing Tom had done. George was evidently very much upset. 

"Do you know what's happened now?" he asked me. 

I was prepared for the worst. I wondered if Tom had got into the hands of the police at last. George could hardly bring himself to speak. 

"You're not going to deny that all my life I've been hardworking, decent, respectable and straightforward. After a life of industry and thrift I can look forward to retiring on a small income in gilt-edged securities. I've always done my duty in that state of life in which it has pleased Providence to place me." 

"True." 

"And you can't deny that Tom has been an idle, worthless, dissolute and dishonourable rogue. If there were any justice he'd be in the workhouse." 

"True." 

George grew red in the face. 

"A few weeks ago he became engaged to a woman old enough to be his mother. And now she's died and left him everything she had. Half a million pounds, a yacht, a house in London and a house in the country." 

George Ramsay beat his clenched fist on the table. 

"It's not fair, I tell you; it's not fair. Damn it, it's not fair." 

I could not help it. I burst into a shout of laughter as I looked at George's wrathful face, I rolled in my chair; I very nearly fell on the floor. George never forgave me. But Tom often asked me to excellent dinners in his charming house in Mayfair, and if he occasionally borrows a trifle from me, that is merely from force of habit. It is never more than a sovereign.
http://cito-web.yspu.org/link1/metod/met44/node11.html
http://www.youtube.com/watch?v=03dfc5c4xEQ&playnext=1&list=PL34FDCCB788DD3571&feature=results_video

राहुल होना खेल नहीं - कैलाश गौतम


राहुल होना खेल नहीं, वह सबसे अलग निराला था, 
अद्भुत जीवट वाला था, वह अद्भुत साहस वाला था. 

रमता जोगी बहता पानी, कर्मयोग था बाहों में, 
होकर जैसे मील का पत्थर, वह चलता था राहों में. 

मुँह पर चमक आँख में करुणा, संस्कार का धनी रहा, 
संस्कार का धनी रहा, वह मान-प्यार का धनी रहा. 

बाँधे से वह बँधा नहीं, है घिरा नहीं वह घेरे से, 
जलता रहा दिया-सा हरदम, लड़ता रहा अँधेरे से. 

आँधी आगे रुका नहीं, वह पर्वत आगे झुका नहीं, 
चलता रहा सदा बीहड़ में, थका नहीं वह चुका नहीं. 

पक्का आजमगढ़िया बाभन, लेकिन पोंगा नहीं रहा,
जहाँ रहा वह रहा अकेला, उसका जोड़ा नहीं रहा. 

ठेठ गाँव का रहने वाला, खाँटी तेवर वाला था, 
पंगत मे वह प्रगतिशील था, नये कलेवर वाला था. 

जाति-धर्म से ऊपर उठ कर, खुल कर हाथ बँटाता था, 
इनसे उनसे सबसे उसका, भाई-चारा नाता था.

भूख-गरीबी-सूखा-पाला, सब था उसकी आँखों में,
क्या-क्या उसने नहीं लिखा है, रह कर बन्द सलाखों में. 

साधक था, आराधक था, वह अगुआ था, अनुयायी था, 
सर्जक था, आलोचक था, वह शंकर-सा विषपायी था.

सुविधाओं से परे रहा, वह परे रहा दुविधाओं से, 
खुल कर के ललकारा उसने, मंचों और सभाओं से.

माघ-पूस में टाट ओढ़ कर जाड़ा काटा राहुल ने,
असहायों लाचारों का दुःख हँस कर बाँटा राहुल ने.

कौन नापने वाला उसको, कौन तौलने वाला है?
जिसका कि हर ग्रन्थ हमारी आँख खोलने वाला है.

परिव्राजक, औघड़, गृहस्थ था, वह रसवन्त वसन्त रहा,
जीवन भर जीवन्त रहा वह, जीवन भर जीवन्त रहा.

"वह परीक्षा की घड़ी है!" - कमला सिंह ‘तरकस’


प्रिय मित्र, आज आपको अपने ओजस्वी, सेवाधर्मी, संघर्षशील, आशुकवि मित्र कमला सिंह 'तरकस' की वह कविता पढ़वाना चाहता हूँ, जो मुझे अतिशय प्रिय है और कठिन क्षणों में मेरे लिये अतिशय प्रेरक रही है.

जब न कोई पथ प्रखर हो, जब नहीं संकेत स्वर हो,
मौन हों सारी दिशाएँ, मात्र सन्नाटा मुखर हो;
रोशनी का कण नहीं हो, धैर्य का भी क्षण नहीं हो,
तड़प आकुल हो हृदय की, जब सुरक्षित प्रण नहीं हो.

धन न साधन-सम्पदा हो, बस चतुर्दिक आपदा हो,
और संशय हो सुलगता, शक्ति साहस सब विदा हो;
हो न कोई हमसफ़र भी, या कि अनुमानित डगर भी,
एकली काली निशा में प्रबल तूफानी लहर भी.

दैव भी बायें पड़ा हो, शत्रु मुँह बाये खड़ा हो,
काल भी विपरीत हो, दो हाथ करने को अड़ा हो;
मौत मानो सिर चढ़ी हो, जान पर भी आ पड़ी हो,
प्राण हरने के लिये प्रत्यक्ष यमदूती खड़ी हो.

वह परीक्षा की घड़ी है, वह प्रतीक्षा की घड़ी है,
उसी की आमन्त्रणा में जिन्दगी कब से खड़ी है;
यही क्षण पहिचान का है, यही क्षण अनुमान का है,
इसी से इतिहास बनता, यही रण सम्मान का है.

इसी में कर्तव्य रत है, इसी में तो धर्म मत है,
इसी के आलोक में जो अनवरत वह वीर व्रत है.

चकित हो रुकना नहीं तुम, मान भय झुकना नहीं तुम,
छातियों पर वार सहते टेकना घुटना नहीं तुम;
टिक सकेगा कौन ठिगना! तुम कदापि कभी न डिगना,
तुम्हीं आशा की किरण हो, शपथ तुमको, तुम न बिकना.
शपथ तुमको, तुम न बिकना, शपथ तुमको, तुम न बिकना...
– कमला सिंह ‘तरकस’

रिश्ता दोस्ती का - गिरिजेश

प्रिय मित्र, आभासी जगत के सम्बन्धों की क्षणभंगुरता और प्रत्यक्ष सम्बन्धों की प्रगाढ़ता के बारे में अपने मित्रों के कथन से सहमत मैं नहीं हो पा रहा हूँ. मैंने असली जिन्दगी के दोस्तों को भी दूर जाते देख कर पीड़ा झेली है और इस तथाकथित आभासी दुनिया से भी एक से एक शानदार दोस्त पाये हैं. 

दोस्ती की बुनियाद प्रत्यक्ष या परोक्ष होने पर नहीं, सहमति या असहमति पर भी नहीं, अपितु परस्पर विश्वास, सम्मान और स्नेह पर टिकती है. दोस्ती का रिश्ता निःस्वार्थ होता है. हम अक्सर अपने रिश्तों और अपने स्वार्थों के बीच गड्डमड्ड कर बैठते हैं. अगर ऐसा न हो, तो हम से बार-बार चूक हो सकती है, गलती हो सकती है, अपराध भी हो सकता है, मगर हमारे सम्बन्ध चलते रह सकते हैं. 

अपने लोगों के साथ हमारे सम्बन्धों के टूटने की वजह होती है अवश्य. मेरी समझ से हमारा अपना या हमारे उस मित्र का स्वार्थ, वैचारिक मतभेद और अक्सर तो मात्र अहं का टकराव ही रिश्तों के टूटने के पीछे कारण बन कर अंततः पूर्वाग्रह बन जाता है. और फिर रिश्तों को टूटने से बचाना नामुमकिन प्रतीत होने लगता है. 

मगर मैं तो अपने एक-एक दोस्त को उसके इस पूर्वाग्रह के चलते अपने से दूर जाने से बचाने की लगातार कोशिश करता रहता हूँ. क्योंकि मेरे लिये तो मेरा हर दोस्त बहुत ही कीमती रहा है. इसके लिये मुझे धैर्यपूर्वक उचित समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है और सही अवसर आते ही उस रिश्ते को नये सिरे से ऊर्जा देने के लिये पहल लेनी पड़ती है. और परिणाम होता है कि अक्सर मैं अपने ऐसे रिश्तों को दुबारा और भी अधिक सम्वेदना और प्रगाढ़ता के साथ जीत लेता हूँ. हाँ, बदले में अपने ढेरों शुभचिन्तकों को लगातार अपने ऊपर यह आरोप लगाते सुनता रहता हूँ कि मैं अपने रिश्तों के निर्वाह के प्रयास में 'ऐब्नार्मली हम्बल' हूँ. 

क्या मैं गलत करता रहा हूँ?
ऐसे में मुझे याद आ रही हैं ये पंक्तियाँ -
"जीवन के संघर्ष निरन्तर मात्र रहे साथी मेरे;
और न जाने कितने साथी बीच राह में छूट गये."
ढेर सारे प्यार और आप सब के स्नेह के लिये आप सब के प्रति आभार-प्रकाश के साथ 
आप का गिरिजेश

कबीर



प्रिय मित्र, मेरी समझ से कबीर ने जब धर्मान्धता को ललकारा था, तो उन्होंने बिलकुल सही कहा था -
"कांकर पाथर जोरि कै, मसजिद लई बनाय;
ता चढि मुल्ला बांग दें, बहरा हुआ खुदाय." 
और
"पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहाड़;
घर की चाकी कोऊ न पूजै, पीस खाय संसार."
धर्म की सभ्यता के आरम्भिक दौर में मानवता के विकास में सकारात्मक भूमिका थी. मगर विज्ञान के युग के आरम्भ होने से अब तक धर्म और विज्ञान के बीच समन्वय के अगणित प्रयासों के बावज़ूद धर्म लगातार विज्ञान पर हमलावर रहा है. 

और हमेशा से ही उसके पास सबसे कमज़ोर दुश्मन रही है नारी. हर धर्म ने नारी को ही बाँधने की कुटिल साज़िश किया है और अभी भी धर्म के ठेकेदार अगर किसी से सबसे अधिक खार खाये बैठे हैं, तो वह है नारी-मुक्ति आन्दोलन. 

वैज्ञानिकों को सूली और ज़हर देने से लेकर जिन्दा आग में भूनने तक गया है धर्म. मासूमों की हत्या और धर्मान्तरण के प्रयासों के अगणित आरोप गलत नहीं रहे हैं. धर्म-युद्ध के नाम पर शासकों ने गरीबों के बेटों को अपने साम्राज्य विस्तार की भूख की खुराक के तौर पर तोप के चारे के रूप में युद्ध की आग में बार-बार झोंका है. 

और जातिवाद तो वह कोढ़ है, जिसे सुविधाभोगियों ने वंचितों को अपने कब्ज़े में बनाये रखने के लिये सदियों से फैलाया और बढ़ाया है. आज भी चाहें ब्राह्मणवाद हो या दलितवाद - दोनों ही सत्ता के खिलाड़ियों के द्वारा जन-एकजुटता को तोड़ने और अपना वोट-बैंक बनाये रखने और बढाते जाने के औजार भर हैं. जन की भावनाओं को भड़काकर पेशेवर गुंडों के सहारे दंगे की आग मे जिन्दगी की शान्ति को भूनने वाले सभी धर्मों और जातियों के स्वयम्भू अलमबरदार ही तो हैं. 

इनके गन्दे इरादों को आम आदमी अभी भी पूरी तरह समझ नहीं पा रहा है. मगर धीरे-धीरे इनका पर्दाफाश होता चला जा रहा है. वह दिन अब बहुत दूर नहीं है कि जब मानवता विज्ञान की रोशनी में जिन्दगी को खुशहाल बनाने के लिये धर्म और अंधविश्वासों के बन्धनों को काट कर आगे बढ़ जायेगी. 

कबीर के हाथों से लेकर वही मशाल भगत सिंह ने उठायी और अब वही मशाल आज के इंकलाबियों के हाथों में पूरी आन-बान-शान से आगे बढ़ायी जा रही है. इस रास्ते में केवल संघर्ष हैं - तीखे और मरणान्तक संघर्ष, किसी तरह के समझौते नहीं. समझौते की बातें करके हम दोनों नावों पर सवार होने के चक्कर में कहीं भी नहीं पहुचेंगे.

बकौल कबीर -
"बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे ताड़-खजूर;
पंथी को छाया नहीं, फल लागत आती दूर."
अकेले-अकेले बड़ा होने के लिये ललचाने वाली व्यवस्था इस भ्रम को धुँवा की तरह फैलाती रही है. मगर अकेले न तो शान्ति मिल सकती है और न ही मुक्ति. जाल में अपने बच्चों के साथ खुद को भी फँसा कर सबको साथ लेकर उड़ने वाला बूढ़ा कबूतर बेवकूफ़ नहीं था.

Saturday 9 March 2013

कब तक करूँ प्रतीक्षा! - प्रतीक्षा पाण्डेय

life is easy,
man is busy;
rushing fast,
be first or last.

bitter and tough,

smooth or rough;
from morn till night,
we face the fight.

nothing to fear,

but burden to bear;
we move to goal,
to play our role.

fully exhausted,

yet full of hope;
who is there,
to compete and cope!

जीवन है भीषण संग्राम,

पल भर नहीं मिला आराम;
करना पड़ा अनवरत काम,
लक्ष्य रहा मेरा उद्दाम.

पूरी की सब की ही इच्छा,

कदम-कदम पर दिया परीक्षा;
वार झेलती रही वक्ष पर,
संघर्षों में पायी दीक्षा.

बाहर हलचल, भीतर हलचल,

शान्ति नहीं मिल पायी छिन-पल;
स्नेहिल मन की भूख यही है,
देखूँ, कब तक करूँ प्रतीक्षा!
- प्रतीक्षा पाण्डेय
9.3.13 (2.45p.m.)

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Friday 8 March 2013

ह्यूगो शावेज की याद में

  
संयुक्त राष्ट्र संघ में उनका भाषण
आतताई साम्राज्यवाद - ह्यूगो शावेज फ्रियास
(ह्यूगो शावेज की असामयिक मृत्यु ने आज दुनियाभर में न्याय और समता के सपने को साकार करने में लगे करोड़ों लोगों को शोकसंतप्त कर दिया है. उनकी याद में हम यहाँ 20 सितम्बर 2006 को काराकास में हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के सम्मेलन में राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज फ्रियास का संयुक्त राष्ट्र संघ और दुनिया की जनता के नाम सन्देश यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं जो विश्व जनगण के साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का एक अत्यंत महत्वपूर्ण दस्तावेज है. यह देश-विदेश पत्रिका के पाँचवें अंक में प्रकाशित हुआ था.)
अध्यक्ष महोदया, महामहिम राज्याध्यक्ष,
सरकारों के प्रमुख और दुनिया की सरकारों के उच्चस्तरीय प्रतिनिधिगण आप सब को शुभ दिवस!
सबसे पहले आपसे मेरा विनम्र अनुरोध है कि जिसने भी यह किताब नहीं पढ़ी है, इसे जरूर पढ़ लें। अमरीका ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के बहुत ही सम्मानित बुद्धिजीवी नोम चोम्सकी की ताजा रचना मैंने पढ़ी - वर्चस्व या अस्तित्व रक्षा? दुनिया पर प्रभुत्व कायम करने की अमरीकी कोशिश।यह किताब 20वीं सदी के दौरान जो कुछ हुआ और जो आज भी हो रहा है, हमारे भूमण्डल के ऊपर जो गम्भीर खतरे मँडरा रहे हैं, अमरीकी साम्राज्यवाद के जिस वर्चस्ववादी मंसूबे ने मानव जाति के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है, उन सबको समझने में यह काफी मददगार है। डेमोक्लीज की तलवार की तरह हमारे ऊपर लटक रहे इस खतरे के प्रति हम लगातार अमरीका और पूरी दुनिया की जनता को चेतावनी दे रहे हैं और उनका आह्वान कर रहे हैं।
मैं इसका एक अध्याय यहाँ पढ़ना चाहता था, लेकिन समय के अभाव में मैं केवल आपसे पढ़ने का अनुरोध भर कर रहा हूँ। यह काफी प्रवाहमय है। अध्यक्ष महोदया, यह वास्तव में बहुत अच्छी किताब है और आप जरूर इससे वाकिफ होंगी। यह अंग्रेजी, जर्मन, रशियन और अरबी में छपी है। देखिए, मेरे खयाल से संयुक्त राज्य अमरीका के हमारे भाईबहनों को तो सबसे पहले इसे पढ़ना चाहिए क्योंकि खतरा उनके घर में है। शैतान उनके घर में है। शैतान खुद उनके घर के भीतर है।
शैतान कल यहाँ भी आया था। (हँसी और तालियाँ)। कल शैतान यहीं था। ठीक इसी जगह। यह टेबुल जहाँ से मैं बोल रहा हूँ, वहाँ अभी भी सल्फर की बदबू आ रही है। कल, बहनोभाइयो ठीक इसी सभागार में संयुक्त राज्य अमरीका का राष्ट्रपति, जिसे मैं शैतान कह रहा हूँ, आया था और ऐसे बोल रहा था, जैसे वह दुनिया का मालिक हो। कल उसने जो भाषण दिया था, उसे समझने के लिए हमें किसी मनोचिकित्सक की मदद लेनी पड़ेगी।
साम्राज्यवाद के प्रवक्ता के रूप में वह हमें अपने मौजूदा वर्चस्व को बनाये रखने, दुनिया की जनता के शोषण और लूट की योजना का नुस्खा देने आया था। इस पर तो अल्फ्रेड हिचकॉक की एक डरावनी फिल्म तैयार हो सकती है। मैं उस फिल्म का नाम भी सुझा सकता हूँ - ‘‘शैतान का नुस्खा।’’ मतलब अमरीकी साम्राज्यवाद, और यहाँ चोम्सकी इस बात को गहरी और पारदर्शी स्पष्टता के साथ कहते हैं कि अमरीकी साम्राज्यवाद अपनी वर्चस्ववादी प्रभुत्व की व्यवस्था को मजबूत बनाने की उन्माद भरी कोशिशें कर रहा है। हम ऐसा होने नहीं देंगे, हम उन्हें विश्वव्यापी तानाशाही लादने नहीं देंगे।
दुनिया के इस जालिम राष्ट्रपति का भाषण मानवद्वेष से भरा हुआ था, पाखण्ड से भरा हुआ था। यही वह साम्राजी पाखण्ड है जिसके सहारे वे हर चीज पर नियन्त्रण कायम करना चाहते हैं। वे हम सबके ऊपर अपने द्वारा गढ़े गये लोकतन्त्र के नमूने को थोपना चाहते हैं, अभिजात्यों का फर्जी लोकतन्त्र। और इतना ही नहीं, एक बहुत ही मौलिक लोकतान्त्रिक नमूना जो विस्फोटों, बमबारियों, घुसपैठों और तोप के गोलों के सहारे थोपा जा रहा है, क्या ही सुन्दर लोकतन्त्र है! हमें अरस्तु और प्राचीन यूनानियों के लोकतन्त्र के सिद्धान्तों का पुनरावलोकन करना होगा यह समझने के लिए कि यह किस प्रकार के लोकतन्त्र का नमूना है जो समुद्री बेड़ों, आक्रमणों, घुसपैठों और बमों के जरिये आरोपित किया जा रहा है।
अमरीकी राष्ट्रपति ने इस छोटे से सभागार में कल कहा था कि ‘‘आप जहाँ भी जाओ, आपको उग्रवादी यह कहते हुए सुनायी देते हैं कि आप हिंसा और आतंक, मुसीबतों से छुटकारा पा सकते हैं और अपना सम्मान फिर से हासिल कर सकते हैं।’’ वह जिधर भी देखता है, उसे उग्रवादी दिखाई देते हैं। मुझे यकीन है कि वह आपकी चमड़ी के रंग को देखता है भाई, और सोचता है कि आप एक उग्रवादी हो। अपनी चमड़ी के रंग के चलते ही बोलीविया के माननीय राष्ट्रपति इवो मोरालेस जो कल यहाँ आये थे, एक उग्रवादी हैं। साम्राज्यवादियों को हर जगह उग्रवादी दिखायी देते हैं। नहीं ऐसा नहीं कि हम लोग उग्रवादी हैं। हो ये रहा है कि दुनिया जाग रही है और हर जगह जनता उठ खड़ी हो रही है। मुझे ऐसा लगता है श्रीमान् साम्राज्यवादी तानाशाह कि आप अपने बाकी के दिन एक दु:स्वप्न में गुजारेंगे, क्योंकि आप चाहे जिधर भी देखेंगे हम अमरीकी साम्राज्यवाद के खिलाफ उठ खड़े हो रहे होंगे। हाँ, वे हमें उग्रवादी कहते हैं क्योंकि हम दुनिया में सम्पूर्ण आजादी की माँग करते हैं, जनता के बीच समानता की माँग करते हैं और राष्ट्रीय सम्प्रभुता के सम्मान की माँग करते हैं। हम साम्राज्य के खिलाफ, वर्चस्व के तानेबाने के खिलाफ उठ खड़े हो रहे हैं।
आगे राष्ट्रपति ने कहा कि ‘‘आज हम सारे मध्यपूर्व की समूची जनता से सीधेसीधे कहना चाहेंगे कि मेरा देश शान्ति चाहता है।’’ यह पक्की बात है। अगर हम ब्रोंक्स की सड़कों से गुजरें, यदि हम न्यूयार्क, वाशिंगटन, सान दियेगो, कैलीपफोर्निया, सान फ़्रांससिस्को की गलियों से होकर गुजरें और उन गलियों के लोगों से पूछें तो यही जवाब मिलेगा कि अमरीका की जनता शान्ति चाहती है। फर्क यह है कि इस देश की, अमरीका की सरकार शान्ति नहीं चाहती। युद्ध का भय दिखाकर हमारे ऊपर अपने शोषण और लूट और प्रभुत्व का प्रतिमान थोपना चाहती है। यही थोड़ा सा फर्क है।
जनता शान्ति चाहती है लेकिन इराक में हो क्या रहा है? और लेबनान और फिलिस्तीन में क्या हुआ? और सौ सालों तक लातिन अमरीका और दुनियाभर में क्या हुआ? और वेनेजुएला के खिलाफ धमकी और ईरान के खिलाफ नयी धमकी? लेबनान की जनता से उसने कहा, ‘‘आप में से बहुतों ने अपने घर और अपने समुदायों को जवाबी गोलाबारी में फँसते देखा।’’ क्या सनकीपन है? दुनिया के सामने सफेद झूठ बोलने की कैसी महारत है? बेरूत के ऊपर एकएक सेण्टीमीटर की नापजोख करके गिराये गये बम क्या ‘‘जवाबी गोलाबारी’’ थी! मेरे खयाल से राष्ट्रपति उन पश्चिमी फिल्मों की बात कर रहा है जिसमें वे कमर की ऊँचाई से दूसरे पर अंधाधुंध गोलियाँ चलातें हैं और बीच में फँस कर कोई मर जाता है।
साम्राज्यवादी गोलाबारी, फासीवादी गोलाबारी! हत्यारी गोलाबारी! साम्राज्यवादियों और इजरायल के द्वारा फिलिस्तीन और लेबनान की निर्दोष जनता के खिलाफ नरसंहारक गोलाबारी, यही सच है। अब वे कहते हैं कि वे तबाह किये गये घरों को देखकर परेशान हैं।
आज सुबह मैं अपने भाषण की तैयारी के दौरान कुछ भाषणों को देख रहा था। अपने भाषण में अमरीकी राष्ट्रपति ने अफगानिस्तान की जनता को, लेबनान की जनता को, ईरान की जनता को सम्बोधित किया। कोई भी, अमरीकी राष्ट्रपति को उन लोगों को सम्बोधित करते हुए सुनेगा तो वह अचरज में पड़ जायेगा। वे लोग उससे क्या कहेंगे? यदि वे लोग उससे कुछ कह पाते तो उससे भला क्या कहते? मुझे इसका कुछ अन्दाजा है क्योंकि मैं उन लोगों की, दक्षिण के लोगों की आत्मा से परिचित हूँ। यदि दुनियाभर के वे लोग अमरीकी साम्राज्यवाद से एक ही आवाज में बोलें, तो दबेकुचले लोग कहेंगे - यांकी साम्राज्यवादी वापस जाओ! यही वह चीख होगी जो पूरी दुनिया में गूँज उठेगी।
अध्यक्ष महोदया, साथियो और दोस्तो, पिछले साल हम लोग ठीक इसी सभागार में आये, पिछले आठ वर्षों से हम लोग यहाँ जुटते हैं और हम सबने कुछ बातें कही थीं जो आज पूरी तरह सही साबित हुई हैं। मेरा विश्वास है कि इस जगह बैठे हुए लोगों में से कोई भी नहीं होगा जो संयुक्त राष्ट्र संघ की व्यवस्था के समर्थन में खड़ा होगा। हमें इस बात को ईमानदारी से स्वीकार करना चाहिए कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद जिस संयुक्त राष्ट्र संघ का उद्भव हुआ था, उसका पतन हो गया है, वह छिन्नभिन्न हो गया है, वह किसी काम का नहीं रहा। हाँ, ठीक है कि यहाँ आना और भाषण देना और एकदूसरे से साल में एक बार मिलनाजुलना, इतना काम तो होता है। लम्बे दस्तावेज तैयार करना, अपने विचार व्यक्त करना और अच्छे भाषण सुनना, जैसा कल इवो ने और लूला ने दिया था, हाँ इसके लिए यह ठीक है। और भी कई अच्छे भाषण भी, जैसा अभीअभी श्रीलंका के राष्ट्रपति और चिली के राष्ट्रपति ने दिया। लेकिन हमने इस मंच को महज एक विचार मण्डल में बदल दिया है जिसमें आज पूरी दुनिया जिन भयावह सच्चाइयों से रूबरू है उन्हें रत्ती भर भी प्रभावित करने का कोई दम नहीं है। इसलिए हम यहाँ एक बार फिर आज, यानि 20 सितम्बर 2006 को संयुक्त राष्ट्र संघ की पुनर्स्थापना का प्रस्ताव रखते हैं। पिछले साल अध्यक्ष महोदया, हमने चार निम्न प्रस्ताव रखे थे, जिन्हें मैं महसूस करता हूँ कि राज्याध्यक्षों, सरकार के प्रमुखों, राजदूतों और प्रतिनिधियों द्वारा स्वीकृति दिया जाना अत्यन्त जरूरी है। हमने इन प्रस्तावों पर विचारविमर्श भी किया है।
पहला - विस्तार। कल लूला ने यही बात कही थी, सुरक्षा परिषद् के स्थाई और साथ ही अस्थाई पदों को भी विकसित, अविकसित और तीसरी दुनिया के देशों के बीच से नये सदस्यों के लिए खुला रखना जरूरी है। यह पहली प्राथमिकता है।
दूसरा - दुनिया के टकरावों का सामना करने और उन्हें हल करने के लिए प्रभावी तौरतरीके अपनाना। वादविवाद और निर्णय लेने के पारदर्शी तौरतरीके।
तीसरा - वीटो की गैरजनवादी प्रणाली तत्काल समाप्त करना। सुरक्षा परिषद् के निर्णयों के ऊपर वीटो के अधिकार का प्रयोग हमारे खयाल से एक बुनियादी सवाल है और हम सब इसे हटाने की माँग करते हैं। इसका ताजा उदाहरण है अमरीकी सरकार द्वारा अनैतिक वीटो जिसने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के एक प्रस्ताव को बाधित करके इजरायली सेना को लेबनान की तबाही की खुली छूट दे दी और हम विवश देखते रह गये।
चौथा - जैसा कि हम हमेशा कहते रहे हैं, संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव की भूमिका और उसके अधिकारों को मजबूत बनाना जरूरी है। कल हमने महासचिव का भाषण सुना जिनका कार्यकाल जल्दी ही खत्म होने जा रहा है। उन्होंने याद दिलाया कि पिछले दस वर्षों के दौरान दुनिया पहले से कहीं ज्यादा जटिल हो गयी है तथा भूख, गरीबी, हिंसा और मानवाधिकारों के हनन जैसी दुनिया की गम्भीर समस्याएँ लगातार विकट होती गयी हैं। यह संयुक्त राष्ट्र संघ की व्यवस्था के पतन और अमरीकी साम्राज्यवाद के मंसूबों का भयावह परिणाम है।
अध्यक्ष महोदया, इसके सदस्य के रूप में अपनीअपनी हैसियत को समझते हुए कई साल पहले वेनेजुएला ने फैसला किया था कि हम संयुक्त राष्ट्र संघ के भीतर अपनी आवाज, अपने विनम्र विचारों के जरिये यह लड़ाई लडे़ंगे। हम एक स्वतन्त्र आवाज हैं, स्वाभिमान के प्रतिनिधि हैं, शान्ति की तलाश में हैं और एक ऐसी अन्तरराष्ट्रीय व्यवस्था के निरूपण की माँग करते हैं जो दुनियाभर की जनता के उत्पीड़न और वर्चस्ववादी आक्रमणों की भर्त्सना करे। इसी को ध्यान में रखते हुए वेनेजुएला ने अपना नाम प्रस्तुत किया है। बोलिवर की धरती ने सुरक्षा परिषद् के अस्थायी पद के उम्मीदवार के रूप में अपना नाम प्रस्तुत किया है। निश्चय ही आप सब जानते हैं अमरीकी सरकार ने एक खुला आक्रमण छेड़ दिया है ताकि वह सुरक्षा परिषद् के खुले पद को स्वतन्त्र चुनाव के जरिये हासिल करने में वेनेजुएला की राह में बाधा खड़ी करे। वे सच्चाई से डरते हैं। साम्राज्यवादी सच्चाई और स्वतन्त्र आवाज से भयभीत हैं । वे हम पर उग्रवादी होने की तोहमत लगाते हैं। उग्रवादी तो वे खुद हैं।
मैं उन सभी देशों को धन्यवाद देना चाहता हूँ जिन्होंने वेनेजुएला को समर्थन देने की घोषणा की है, बावजूद इसके कि मतदान गुप्त है और किसी के लिए अपना मत जाहिर करना जरूरी नहीं। लेकिन मैं सोचता हूँ कि अमरीका के खुले आक्रमण ने कई देशों को समर्थन के लिए बाध्य कर दिया ताकि वेनेजुएला को, हमारी जनता और हमारी सरकार को नैतिक रूप से बल प्रदान करें।
मरकोसुर के हमारे भाइयों एवं बहनों ने, मिसाल के लिए एक समूह के तौर पर वेनेजुएला को अपना समर्थन देने की घोषणा की है। अब हम ब्राजील, अर्जेण्टीना, उरुग्वे, परागुए के साथ मरकोसुर (लातिन अमरीकी साझा बाजारद्) के स्थायी सदस्य हैं। बोलीविया जैसे कई दूसरे लातिन अमरीकी देशों और सभी कैरीकॉम (कैरीबियाई साझा बाजार) के देशों ने भी वेनेजुएला को अपना समर्थन देने का वचन दिया है। सम्पूर्ण अरब लीग ने वेनेजुएला को समर्थन देने की घोषणा की है। मैं अरब दुनिया को, अरब दुनिया के अपने भाइयों को धन्यवाद देता हूँ। अफ़्रीकी संघ के लगभग सभी देशों ने तथा रूस, चीन और दुनियाभर के अन्य कई देशों ने भी वेनेजुएला को अपना समर्थन देने का वचन दिया है। मैं वेनेजुएला की ओर से, अपने देश की जनता की ओर से और सच्चाई के नाम पर आप सबको तहे दिल से धन्यवाद देता हूँ क्योंकि सुरक्षा परिषद् में स्थान पाकर हम न केवल वेनेजुएला की आवाज, बल्कि तीसरी दुनिया की आवाज, पूरे पृथ्वी ग्रह की आवाज को सामने लायेंगे। वहाँ हम सम्मान और सच्चाई की हिफाजत करेंगे। अध्यक्ष महोदया, सब कुछ के बावजूद मैं सोचता हूँ कि आशावादी होने के आधार है।
जैसा कवि लोग कहते हैं, विकट आशावादी, क्योंकि बमों, युद्ध, हमलों, निरोधक युद्धों और पूरी जनता की तबाही के खतरे के बावजूद कोई भी यह देख सकता है कि एक नये युग का उदय हो रहा है। जैसा कि सिल्वो रोड्रिग्ज गाता है - ‘‘जमाना एक नये जीवट को जन्म दे रहा है ।’’ वैकल्पिक प्रवृत्तियाँ, वैकल्पिक विचार और स्पष्ट विचारों वाले नौजवान उभर कर सामने आ रहे हैं। बमुश्किल एक दशक बीता और यह बात साफ तौर पर साबित हो गयी कि इतिहास के अन्तका सिद्धान्त पूरी तरह फर्जी है। अमरीकी साम्राज्य और अमरीकी शान्ति की स्थापना, पूँजीवादी नवउदारवादी मॉडल की स्थापना, जो दु:खदैन्य और गरीबी को जन्म देते हैं - पूरी तरह फर्जी है। यह विचार पूरी तरह बकवास है और इसे कूड़े पर फेंक दिया गया है। अब दुनिया के भविष्य को परिभाषित करना ही होगा। पूरी पृथ्वी पर एक नया सवेरा हो रहा है जिसे हर जगह देखा जा सकता है - लातिन अमरीका में, एशिया, अफ्रिका, यूरोप और ओसीनिया में। इस आशावादी नजरिये पर मैं अच्छी तरह रोशनी डाल रहा हूँ ताकि हम अपनी अन्तरात्मा और दुनिया की हिफाजत करने का, एक बेहतर दुनिया, एक नयी दुनिया के निर्माण के लिए लड़ने का, अपना इरादा पक्का कर लें।
वेनेजुएला इस संघर्ष में शामिल हो गया है और इसीलिए हमें धमकियाँ दी जा रही हैं। अमरीका ने पहले ही एक तख्तापलट की योजना बनायी, उसके लिए पैसे दिये और उसे अंजाम दिया। अमरीका आज भी वेनेजुएला में तख्तापलट की साजिश रचने वालों की मदद कर रहा है और वे लगातार वेनेजुएला के खिलाफ आतंकवादियों की मदद कर रहे हैं।
राष्ट्रपति मिशेल बैचलेट ने कुछ दिनों पहले, माफ करें, कुछ ही मिनटों पहले यहाँ बताया कि चिली के विदेश मन्त्री ओरलान्दो लेतेलियर की कितनी भयावह तरीके से हत्या की गयी। मैं इसमें इतना और जोड़ दूँ कि अपराधी दल पूरी तरह आजाद हैं। उस कुकृत्य के लिए, जिसमें एक अमरीकी नागरिक भी मारा गया था, जो लोग जिम्मेदार हैं वे सीआईए के उत्तरी अमरीकी लोग हैं, सीआईए के आतंकवादी है।
इसके साथ मैं इस सभागार में यह भी याद दिला देना जरूरी समझता हूँ कि आज से 30 साल पहले एक हृदयविदारक आतंकवादी हमले में क्यूबाना दे एविएसियोन के एक हवाई जहाज को बीच आकाश में उड़ा दिया गया था और 73 निर्दोष नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया गया था। इस महाद्वीप का वह सबसे घिनौना आतंकवादी कहाँ है जिसने स्वीकार किया था कि उस क्यूबाई हवाई जहाज को उड़ाने के षड्यन्त्र का दिमागी खाका उसी ने तैयार किया था? वह कुछ सालों तक वेनेजुएला की जेल में था, लेकिन सीआईए के अधिकारियों और वेनेजुएला की तत्कालीन सरकार की मदद से वह फरार हो गया। आजकल वह अमरीका में रह रहा है, और वहाँ की सरकार उसका बचाव कर रही है, इसके बावजूद कि उसने जुर्म का इकबाल किया था और उसे सजा हुई थी। अमरीका दोगली नीति अपनाता है और आतंकवादियों का बचाव करता है।
इन बातों के जरिये मैं यह बताना चाहता हूँ कि वेनेजुएला आतंकवाद के खिलाफ, हिंसा के खिलाफ संघर्ष के लिए वचनबद्ध है और उन सभी लोगों के साथ मिलकर काम करने को तैयार है जो शान्ति के लिए और एक न्यायपूर्ण दुनिया के लिए संघर्षरत हैं।
मैने क्यूबाई हवाई जहाज की बात की। लुइस पोसादा कैरिलेस नाम है उस आतंकवादी का। अमरीका में उसकी ठीक उसी तरह हिफाजत की जाती है जैसे वेनेजुएला के भ्रष्ट भगोड़ों की, आतंकवादियों के एक गिरोह की जिसने कई देशों के दूतावासों में बम लगाया था, तख्तापलट के दौरान निर्दोष लोगों की हत्या की थी और इस विनम्र सेवक (शावेज) का अपहरण किया था। वे मेरी हत्या करने ही वाले थे कि खुदा की मेहरबानी, अच्छे सैनिकों का एक समूह सामने आया और जिन्होंने जनता को सड़कों पर उतार दिया। यह चमत्कार ही समझिये कि मैं यहाँ मौजूद हूँ। उस तख्तापलट और आतंकवादी कारनामे के नेता यहीं हैं, अमरीकी सरकार की सुरक्षा में (अभी हाल ही में खबर आयी कि अमरीका ने इस आतंकवादी कैरिलेस को रिहा कर दिया है- अनुवादक) मैं अमरीकी सरकार पर आतंकवाद की हिफाजत करने और एक पूर्णत: मानवद्रोही भाषण देने का अभियोग लगाता हूँ।
जहाँ तक क्यूबा की बात है, हम लोग खुशीखुशी हवाना गये। कई दिनों तक हम लोग वहाँ रहे। जी–15 और गुट निरपेक्ष आन्दोलन के सम्मेलन के दौरान पारित एक ऐतिहासिक प्रस्ताव और दस्तावेज में नये युग के उदय का स्पष्ट प्रमाण मौजूद था। परेशान न हों। मैं यहाँ उन सबको पढ़ने नहीं जा रहा हूँ। लेकिन पूरी पारदर्शिता के साथ खुले विचारविमर्श के बाद लिए गये प्रस्तावों का एक संग्रह यहाँ उपलब्ध है। पचास देशों के राज्याध्यक्षों की उपस्थिति में एक हफ्रते तक हवाना दक्षिण की राजधानी बना हुआ था। हमने गुट निरपेक्ष आन्दोलन को दुबारा शुरू किया। और आपसे हमारी यही गुजारिश है कि मेरे भाइयों और बहनों, मेहरबानी करके आप लोग गुट निरपेक्ष आन्दोलन को मजबूत बनाने के लिए अपना पूरा सहयोग दें, क्योंकि यह नये युग के उदय तथा आधिपत्य और साम्राज्यवाद पर लगाम लगाने के लिए बहुत ही जरूरी है। साथ ही आप सब जानते हैं कि हमने फिदेल कास्त्रो को अगले तीन वर्षों के लिए गुट निरपेक्ष आन्दोलन का अध्यक्ष बनाया है और हमें पक्का यकीन है कि साथी अध्यक्ष फिदेल कास्त्रो पूरी दक्षता के साथ अपना पद सम्भालेंगे। जो लोग फिदेल की मौत चाहते थे, उन्हें निराशा ही हाथ लगी क्योंकि फिदेल अपनी जैतूनी हरे रंग की वर्दी में वापस आ गये हैं और वे अब न केवल क्यूबा के राज्याध्यक्ष हैं बल्कि गुट निरपेक्ष आन्दोलन के भी अध्यक्ष हैं।
अध्यक्ष महोदया, मेरे प्यारे दोस्तों राज्याध्यक्षों, हवाना में दक्षिण का एक बहुत ही मजबूत आन्दोलन उठ खड़ा हुआ है। हम दक्षिण के औरत और मर्द हैं। हम इन दस्तावेजों, इन धारणाओं और विचारों के वाहक हैं। जिन परचों और पुस्तको को मैं वहाँ से अपने साथ लाया हूँ - वे आपके लिए रखवा दिये गये हैं। इन्हें भूलिएगा मत। मैं वास्तव में आपसे इन्हें पढ़ने की सिफारिश कर रहा हूँ। पूरी विनम्रता के साथ हम लोग इस ग्रह को बचाने, साम्राज्यवाद के खतरे से इसकी हिफाजत करने की दिशा में वैचारिक योगदान करने का प्रयास कर रहे हैं और भगवान ने चाहा तो जल्दी ही यह काम हो जायेगा। इस सदी की शुरुआत में ही यदि खुदा ने चाहा हम लोग खुद भी और अपने बच्चों, अपने पोतेपोतियों के साथ एक शान्तिपूर्ण दुनिया का मजा ले सकेंगे, जो संयुक्त राष्ट्र संघ के नवीन और पुनर्निर्धारित बुनियादी सिद्धान्तों के अनुरूप होगी। मेरा विश्वास है कि संयुक्त राष्ट्र संघ किसी अन्य देश में स्थापित होगा, दक्षिण के किसी शहर में । हमने इसके लिए वेनेजुएला की ओर से प्रस्ताव दिया है। आप सबको पता है कि हमारे चिकित्सकों को हवाई जहाज में बन्द करके रोक दिया गया है। हमारे सुरक्षा प्रमुख को हवाई जहाज में बन्द कर दिया गया। वे उन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ में नहीं आने देंगे। एक और दुर्व्यवहार, एक और अत्याचार।
अध्यक्ष महोदया, मेरा आग्रह है कि इसके लिए व्यक्तिगत तौर पर उसी सल्फ्रयूरिक शैतान को जिम्मेदार माना जाये।
गर्मजोशी भरा आलिंगन। खुदा हम सब की खैर करे। शुभ दिवस।

डोंट चेंज द क्लाइमेट, चेंज द सिस्टम: ह्यूगो शावेज
कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तनपर ह्यूगो शावेज का भाषण (22 दिसंबर, 2009)
अध्यक्ष महोदय, देवियों और सज्जनों, राष्ट्राध्यक्षों और दोस्तों, मैं वादा करता हूं कि उतना लंबा नहीं बोलूंगा जितना कि आज दोपहर यहां बहुत सारे लोग बोले हैं। ब्राजील, चीन, भारत और बोलीविया के प्रतिनिधियों ने यहां अपना पक्ष रखते हुए जो कहा है, मैं भी अपनी बात की शुरूआत वहीं से करना चाहता हूं। मैं उनके साथ ही बोलना चाहता था, पर शायद तब यह संभव नहीं था। बोलीविया के प्रतिनिधि ने यह बात रखी, इसके लिए मैं बोलीविया के राष्ट्रपति कॉमरेड इवो मोरालेस को सलाम करता हूं। तमाम बातों के बीच उन्होंने कहा कि जो दस्तावेज यहां रखा गया है, वह न तो बराबरी पर आधारित है और न ही लोकतंत्र पर।
इससे पहले के सत्र में जब अध्यक्ष यह कह ही रहे थे कि एक दस्तावेज यहां पेश किया जा चुका है, तब बमुश्किल मैं यहां पहुचा ही था। मैंने उस दस्तावेज की मांग भी की, पर वह अभी भी हमारे पास नहीं है। मुझे लगता है कि यहां उस टॉप सीक्रेटदस्तावेज के बारे में कोई भी कुछ नहीं जानता है। यहां बराबरी और लोकतंत्र जैसा कुछ भी नहीं है, जैसा कि बोलीवियन कॉमरेड ने कहा था। पर दोस्तों, क्या यह हमारे समय और समाज की एक सच्चाई नहीं है? क्या हम एक लोकतांत्रिक दुनिया में रह रहे हैं? क्या यह दुनिया सबकी और सबके लिए है? क्या हम दुनिया के वर्तमान तंत्र से बराबरी या लोकतंत्र जैसी किसी भी चीज की उम्मीद कर सकते हैं? सच्चाई यह है कि इस दुनिया में, इस ग्रह में हम एक साम्राज्यवादी तानाशाही के अंदर जी रहे हैं। और इसीलिए हम इसकी निंदा करते हैं। साम्राज्यवादी तानाशाही मुर्दाबाद! लोकतंत्र और समानता जिंदाबाद!
और यह जो भेदभाव हम देख रहे हैं, यह उसी का प्रतिबिंब है। यहां कुछ देश हैं, जो खुद को हम दक्षिण के देशों से, हम तीसरी दुनिया के देशों से, अविकसित देशों से श्रेष्ठ और उच्च मानते हैं। अपने महान दोस्त एडवर्डो गेलियानो के शब्दों में कहूं तो हम कुचले हुए देश हैं, जैसे कि इतिहास में कोई ट्रेन हमारे ऊपर से दौड़ गई हो। इस आलोक में यह कोई बहुत आश्चर्य की बात नहीं है कि दुनिया में बराबरी और लोकतंत्र नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। और इसीलिए आज फिर से हम साम्राज्यवादी तानाशाही से दो-चार हैं। अपना विरोध दर्ज कराने के लिए अभी दो नौजवान यहां खड़े हो गए थे, सुरक्षा अधिकारियों की सावधानी से मामला सुलझ गया। पर क्या आपको पता है कि बाहर ऐसे बहुत सारे लोग हैं। सच यह है कि उनकी संख्या इस सभागार की क्षमता से बहुत-बहुत ज्यादा है। मैंने अखबार में पढ़ा है कि कोपेनहेगन की सड़कों पर कुछ गिरफ्तारियां हुईं हैं, और कुछ उग्र प्रतिरोध भी दर्ज कराये गए हैं। मैं उन सारे लोगों को, जिनमें से अधिकांश युवा हैं, सलाम करता हूं।
सच यह है कि ये नौजवान लोग आने वाले कल के लिए, इस दुनिया के भविष्य के लिए हमसे कहीं ज्यादा परेशान और चिंतित हैं, और यह सही भी है। इस सभागार में मौजूद हम में से अधिकांश लोग जिंदगी की ढलान पर हैं, जबकि इन नौजवान लोगों को ही आने वाले कल का मुकाबला करना है। इसलिए उनका परेशान होना लाजिमी है।
अध्यक्ष महोदय, महान कार्ल माक्र्स के शब्दों का सहारा लेकर कहूं तो एक भूत कोपेनहेगन को आतंकित कर रहा है। वह भूत को कोपेनहेगन की गलियों को आतंकित कर रहा है और मुझे लगता है कि वह चुपचाप इस कमरे में हमारे चारों तरफ भी टहल रहा है, इस बड़े से हॉल में, हमारे नीचे और आसपास; यह एक भयानक और डरावना भूत है और लगभग कोई भी इसका जिक्र नहीं करना चाहता। यह भूत, जिसका जिक्र कोई भी नहीं करना चाहता, पूंजीवाद का भूत है।
बाहर लोग चीख रहे हैं कि यह भूत पूंजीवाद ही है, कृपया उन्हें सुनिए। बाहर सड़कों पर नौजवान लड़कों और लड़कियों ने जो नारे लिख रखे हैं, उनमें से कुछ को मैंने पढा है। इन्हीं में से कुछ को मैंने अपनी जवानी में भी सुना था। पर इनमें से दो नारों का जिक्र मुझे जरूरी लग रहा है, आप भी उन्हें सुन सकते हैं- पहला, ‘जलवायु को नहीं, व्यवस्था को बदलो (डोंट चेंज द क्लाइमेट, चेंज द सिस्टम)।
इसलिए मैं इसे हम सबके लिए चुनौती के तौर पर लेता हूं। हम सबको सिर्फ जलवायु बदलने के लिए नहीं, बल्कि इस व्यवस्था को, इस पूंजी के तंत्र को बदलने के लिए प्रतिबद्ध होना है। और इस तरह हम इस दुनिया को, इस ग्रह को बचाने की शुरूआत भी कर सकेंगे। पूंजीवादी एक विनाशकारी विकास का मॉडेल है, जो जीवन के अस्तित्व के लिए ही खतरा है। यह संपूर्ण मानव जाति को ही पूरी तरह खत्म करने पर आमादा है।
दूसरा नारा भी बदलाव की बात करता है। यह नारा बहुत कुछ उस बैंकिंग संकट की ओर संकेत करता है, जिसने हाल ही में पूरी दुनिया को आक्रांत कर रखा था। यह नारा इस बात का भी प्रतिबिंब है कि उत्तर के अमीर देशों ने किस हद तक जाकर बड़े बैंकों और बैंकरों की मदद की थी। बैंकों को बचाने के लिए अकेले अमेरिका ने जो मदद की थी, मैं उसके आंकड़े भूल रहा हूं, पर वह जादुई आंकड़े थे। वहां सड़क पर नौजवान लड़के और लड़कियां कह रहे हैं कि जलवायु एक बैंक होती तो इसे जाने कब का बचा लिया गया होता (इफ द क्लाइमेट वॅर अॅ बैंक, इट वुड हेव वीन सेव्ड ऑलरेडी)।
और मुझे लगता है कि यह सच है। अगर जलवायु दुनिया के सबसे बड़े बैंकों में से एक होती तो अमीर सरकारों द्वारा इसे अब तक बचा लिया गया होता।
मुझे लगता है कि ओबामा अभी यहां नहीं पहुचे हैं। जिस दिन उन्होंने अफगानिस्तान में निर्दोष नागरिकों को मारने के लिए 30 हजार सैनिकों को भेजा, लगभग उसी दिन उन्हें शांति के लिए नोबल पुरस्कार भी मिला। और अब संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति शांति के नोबल पुरस्कार के साथ यहां शामिल होने आ रहे हैं। लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका के पास पैसा और डॉलर बनाने की मशीन है और उसे लगता है कि उसने बैंकों और इस पूंजीवादी तंत्र को बचा लिया है।
वास्तव में यही वह टिप्पणी थी जो मैं पहले करना चाहता था। हम ब्राजील, भारत, चीन और बोलीविया के दिलचस्प पक्ष का समर्थन करने के लिए अपना हाथ उठा रहे थे। वेनेजुएला और बोलिवर गठबंधन के देश इस पक्ष का मजबूती से समर्थन करते हैं। पर क्योंकि उन्होंने हमें वहां बोलने नहीं दिया, इसलिए अध्यक्ष महोदय, कृपया इसको मिनट्स में न जोड़ा जाए।
मुझे फ्रेंच लेखक हर्वे कैंफ से मिलने का सौभाग्य मिला है। उनकी एक पुस्तक है- हाउ द रिच आर डेस्ट्राॅइंग न प्लेनेट’, मैं यहां पर उस पुस्तक की अनुशंसा करना चाहता हूं। यह किताब स्पेनी और फ्रेंच भाषा में उपलब्ध है। और निश्चय ही अंग्रेजी में भी उपलब्ध होगी। ईसा मसीह ने कहा है कि एक ऊंट का तो सुई के छेद में से निकल जाना आसान है, पर एक अमीर आदमी का स्वर्ग के राज्य में प्रवेश पाना मुश्किल है। यह ईसा मसीह ने कहा है।
ये अमीर लोग इस दुनिया को, इस ग्रह को नष्ट कर रहे हैं। क्या उन्हें लगता है कि वे इसे नष्ट कर कहीं और जा सकते हैं? क्या उनके पास किसी और ग्रह पर जाने और बसने की योजना है? अभी तक तो क्षितिज में दूर-दूर तक इसकी कोई संभावना नजर नहीं आती। यह किताब मुझे हाल ही में इग्नेशियो रेमोनेट से मिली है, जो शायद इस सभागार में ही कहीं मौजूद हैं। प्रस्तावनाकी समाप्ति पर क्रैम्फ एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कहते हैं, मैं उसे यहां पढ रहा हूं- ‘‘इस दुनिया में पाये जाने वाले संसाधनों के उपभोग में हम तब तक कमी नहीं ला सकते जब तक हम शक्तिशाली कहे जाने वाले लोगों को कुछ कदम नीचे आने के लिए मजबूर नहीं करते और जब तक हम यहां फैली हुई असमानता का मुकाबला नहीं करते। इसलिए ऐसे समय में, जब हमें सचेत होने की जरूरत है, हमें थिंक ग्लोबली एण्ड ऐक्ट लोकलीके उपयोगी पर्यावरणीय सिद्धांत में यह जोड़ने की जरूरत है कि कंज्यूम लेस एण्ड शेयर बेटर’’
मुझे लगता है कि यह एक बेहतर सलाह है जो फ्रेंच लेखक हर्वे कैंफ हमें देते हैं।
अध्यक्ष महोदय, इसमें कोई संदेह नहीं है कि जलवायु परिवर्तन इस शताब्दी की सबसे विध्वंसक पर्यावरणीय समस्या है। बाढ, सूखा, भयंकर तूफान, हरीकेन, ग्लेशियरों का पिघलना, समुद्रों के जलस्तर और अम्लीयता में वृद्धि, और गरम हवाएं- ये सभी उस वैश्विक संकट को और तेज कर रहे हैं, जो हमें चारों तरफ से घेरे हुए है। वर्तमान में इंसानों के जो क्रियाकलाप हैं, उन्होंने इस ग्रह में जीवन के लिए और स्वयं इस ग्रह के अस्तित्व के लिए एक खतरा पैदा कर दिया है। लेकिन इस योगदान में भी हम गैर-बराबरी के शिकार हैं।
मैं याद दिलाना चाहता हूं कि पचास करोड़ लोग, जो इस दुनिया की जनसंख्या का 7 प्रतिशत हैं, मात्र 7 प्रतिशत, वे पचास करोड़ लोग -7 प्रतिशत अमीर लोग- 50 प्रतिशत उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं। जबकि इसके विपरीत 50 प्रतिशत गरीब लोग, मात्र और मात्र 7 प्रतिशत उत्सर्जन के लिए जवाबदेह हैं।
इसलिए संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन से एक ही जवाबदेही और जिम्मेदारी की अपेक्षा करना मुझे आश्चर्य में डाल देता है। यूएसए जल्द ही 30 करोड़ की जनसंख्या के आंकड़े पर पहुंच जाएगा, वहीं चीन की जनसंख्या लगभग यूएसए से पांच गुनी है। यूएसए दो करोड़ बैरल रोज के हिसाब से तेल की खपत करता है, जबकि चीन की खपत 50 से 60 लाख बैरल प्रतिदिन की है। इसलिए आप संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन को एक ही तराजू पर नहीं तौल सकते।
यहां पर बात करने के लिए बहुत सारे मुद्दें हैं, और मैं उम्मीद करता हूं कि राज्यों और सरकारों के प्रतिनिधि हम सब लोग इन मुद्दों और इनसे जुड़ी सच्चाइयों पर बात करने के लिए बैठ सकेंगे।
अध्यक्ष महोदय, आज इस ग्रह का 60 प्रतिशत पारिस्थितिकी तंत्र क्षतिग्रस्त हो चुका है, भूमि के ऊपरी धरातल का 20 प्रतिशत हिस्सा नष्ट हो चुका है। हम जंगलों के खत्म होते जाने, भूमि परिवर्तन, रेगिस्तानों के बढते जाने, शुद्ध पेयजल की उपलब्धता में गिरावट, समुद्री संसाधनों के अत्यधिक उपभोग, जैव विविधता में कमी और प्रदूषण में बढोतरी- इन सबके संवेदनहीन गवाह रहे हैं। हम भूमि की पुनरुत्पादन क्षमता से भी 30 प्रतिशत आगे बढकर उसका उपभोग कर रहे हैं। हमारा ग्रह अपनी वह क्षमता खोता जा रहा है जिसे तकनीकी भाषा में स्वयं के नियमन की क्षमताकहा जाता है। रोज हम उतने अपशिष्ट पदार्थों का उत्सर्जन कर रहे हैं जिन्हें फिर से नवीनीकृत करने की क्षमता हम में नहीं है। पूरी मानवता को एक ही समस्या आक्रांत किये हुए है और वह है मानव जाति के अस्तित्व की समस्या। इतना अपरिहार्य होने के बावजूद क्योटो प्रोटोकॉलके अंतर्गत दूसरी बार प्रतिबद्धता जताने में भी हमें दो साल लग गए। और आज जब हम इस आयोजन में शिरकत कर रहे हैं, तो भी हमारे पास कोई वास्तविक और सार्थक समझौता नहीं है।
सच्चाई यह है कि आश्चर्यजनक रूप से और एकाएक जो दस्तावेज हमारे सामने पेश हुआ है, हम उसे स्वीकार नहीं करेंगे। यह हम वेनेजुएला, बोलिवर गठबंधन और अल्बा (ए.एल.बी.ए.) देशों की तरफ से कह रहे हैं। हमने पहले भी कहा था कि क्योटो प्रोटोकॉलऔर कन्वेंशन के वर्किंग ग्रुप से बाहर के किसी भी मसौदे को हम स्वीकार नहीं करेंगे। क्योंकि उनसे जुड़े मसौदे और दस्तावेज ही वैध और जायज हैं, जिन पर हम इतने सालों से इतनी गहराई से बात करते आ रहे हैं।
और अब, जब पिछले कुछ घंटों से न आप सोये हैं और न ही आपने कुछ खाया है, यह ठीक नहीं होगा कि मैं, आपके अनुसार, इन्हीं पुरानी चीजों में से किसी दस्तावेज को आपके सामने पेश करूं। प्रदूषण फैलाने वाली गैसों के उत्सर्जन में कमी का लक्ष्य वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित है, पर आज मुझे ऐसा लग रहा है कि इस लक्ष्य को पाने और दूरगामी सहयोग के महारे प्रयास असफल हो गए हैं। कम से कम हाल फिलहाल तो ऐसा ही है।
इसका कारण क्या है? मुझे इस बारे में कोई संदेह नहीं है कि इसका कारण इस ग्रह के सबसे शक्तिशाली देशों का गैर जिम्मेदाराना व्यवहार और उनमें राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी का होना है। यहां पर किसी को अपमानित महसूस करने या नाराज होने की जरूरत नहीं है। महान जोस गेर्वासियो आर्तिगास के शब्दों में कहूं तो ‘‘जब मैं सच कहता हूं तो न मैं किसी को आघात पहुंचा रहा होता हूं और न ही किसी से डरता हूं’’। पर वास्तव में यहां अपने पदों को गैर जिम्मेदारी के साथ इस्तेमाल किया गया है, लोग अपनी बातों से पीछे हटे हैं, भेदभाव किया गया है, और समाधान के लिए एक अमीरपरस्त रवैया अपनाया गया है। यह रवैया ऐसी समस्या के साथ है जो हम सबकी साझी है, और जिसका समाधान हम सब मिलकर ही निकाल सकते हैं।
एक तरफ दुनिया के सबसे बड़े उपभोक्ता और अमीर देश हैं; दूसरी तरफ हैं भूखे और गरीब लोग, जो बिमारियों और प्राकृतिक आपदाओं का शिकार होने के लिए अभिशप्त हैं। राजनैतिक दकियानूसीपन और स्वार्थ ने पहले को दूसरे के प्रति असंवेदनशील बना दिया है। जिन दलों के बीच समझौता होना है, वे मौलिक रूप में ही असमान हैं। इसलिए अध्यक्ष महोदय, उत्सर्जन की जिम्मेदारी के आधार पर और आर्थिक, वित्तीय और तकनीकी दक्षता के आधार पर ऐसा नया और एकमात्र समझौता अनिवार्य हो गया है, जो कन्वेंशनके सिद्धांतों के प्रति बिना शर्त सम्मान रखता हो।
विकसित देशों को अपने उत्सर्जन में वास्तविक कटौती के संदर्भ में बाध्यकारी, स्पष्ट और ठोस प्रतिबद्धता निर्धारित करनी चाहिए। साथ ही उन्हें गरीब देशों को वित्तीय और तकनीकी सहायता उपलब्ध कराने का उत्तरदायित्व भी अपने ऊपर लेना चाहिए ताकि वे गरीब देश जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी खतरों से बच सकें। ऐसे देशों का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए जो सबसे कम विकसित हैं और जो द्वीपों के रूप में बसे हुए हैं।
अध्यक्ष महोदय, आज जलवायु परिवर्तन एकमात्र समस्या नहीं है जिसका ये मानवता सामना कर रही है। और भी कई अन्याय और उत्पीड़न हमें घेरे हुए हैं। सहस्राब्दी लक्ष्योंऔर सभी तरह की आर्थिक शिखर बैठकों के बावजूद अमीर और गरीब के बीच की खाई बढती जा रही है। जैसा कि सेनेगल के राष्ट्रपति ने सच ही कहा कि इन सभी समझौतों और बैठकों में सिर्फ वादे किये जाते हैं, कभी न पूरे होने वाले वादे; और यह दुनिया विनाश की तरफ बढती रहती है।
इस दुनिया के 500 सबसे अमीर लोगों की आय सबसे गरीब 41 करोड़ 60 लाख लोगों से ज्यादा है। दुनिया की आबादी का 40 प्रतिशत गरीब भाग यानी 2.8 अरब लोग 2 डॉलर प्रतिदिन से कम में अपनी जिंदगी गुजर-बसर कर रहे हैं। और यह 40 प्रतिशत हिस्सा दुनिया की आया का पांच प्रतिशत ही कमा रहा है। हर साल 92 लाख बच्चे पांच साल की उम्र में पहुंचने से पहले ही मर जाते हैं और इनमें से 99.9 प्रतिशत मौतें गरीब देशों में होती हैं। नवजात बच्चों की मृत्युदर प्रति एक हजार में 47 है, जबकि अमीर देशों में यह दर प्रति हजार में 5 है। मनुष्यों के जीवन की प्रत्याशा 67 वर्ष है, कुछ अमीर देशों में यह प्रत्याशा 79 वर्ष है, जबकि कुछ गरीब देशों में यह मात्र 40 वर्ष ही है। इन सबके साथ ही साथ 1.1 अरब लोगों को पीने का पानी मयस्सर नहीं है, 2.6 अरब लोगों के पास स्वास्थ्य और स्वच्छता की सुविधाएं नहीं हैं। 80 करोड़ से अधिक लोग निरक्षर हैं और 1 अरब 2 करोड़ लोग भूखे हैं। ये है हमारी दुनिया की तस्वीर।
पर फिर सवाल यही है कि इसका कारण क्या है? आज जरूरत है इस कारण पर बात करने की; यह वक्त अपनी जिम्मेदारियों से भागने या समस्या को नजरंदाज करने का नहीं है। इस भयानक परिदृश्य का कारण निस्संदेह सिर्फ और सिर्फ एक हैः पूंजी का विनाशकारी उपापचयी तंत्र और इसका मूर्त रूप- पूंजीवाद।
यहां मैं मुक्ति के महान मीमांसक लियानार्डो बाॅफ का एक संक्षिप्त उद्धरण देना चाहता हूं। लियानार्डो बाॅफ, एक ब्राजीली, एक अमरीकी, इस विषय पर कहते हैं कि ‘‘इसका कारण क्या है? आह, इसका कारण वह सपना है जिसमें लोग खुशी या प्रसन्नता पाने के लिए अंतहीन उन्नति और भौतिक संसाधनों का संग्रह करना चाहते हैं, विज्ञान और तकनीक के माध्यम से इस पृथ्वी के समस्त संसाधनों का असीम शोषण करना चाहते हैं।’’ और यहीं पर वे चाल्र्स डार्विन और उनके प्राकृतिक वरणको उद्धृत करते हैं, ‘योग्यतम की उत्तरजीविताको। पर हम जानते हैं कि सबसे शक्तिशाली व्यक्ति सबसे कमजोर की राख पर ही जिंदा रहता है। ज्यां जैक रूसो ने जो कहा था, वह हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि मजबूत और कमजोर के बीच में स्वतंत्रता ही दमित और उत्पीडि़त होती है। इसीलिए साम्राज्यहमेशा स्वतंत्रता की बात करते हैं। उनके लिए यह स्वतंत्रता है दमन की, आक्रमण की, दूसरों को मारने की, दूसरों के उन्मूलन और उनके शोषण की। उनके लिए यही स्वतंत्रता है। रूसो बचाव के लिए एक मुहावरे का इस्तेमाल करते हैं- ‘‘मुक्त करता है तो केवल कानून और नियम’’
यहां कुछ ऐसे देश हैं जो नहीं चाहते कि कोई भी दस्तावेज सामने आए। जाहिर तौर पर इसलिए कि वे कोई नियम या कानून नहीं चाहते, कोई मानक नहीं चाहते। ताकि इन कानूनों और मानकों के अभाव में वे अपना खेल जारी रख सकें- शोषण की स्वतंत्रता का खेल दूसरों को कुचलने की स्वतंत्रता का खेल। इसलिए हम सभी को यहां और सड़कों पर इस बात के लिए प्रयास करना चाहिए, इस बात के लिए दबाव बनाना चाहिए कि हम किसी न किसी प्रतिबद्धता पर एकमत हो सकें, कोई न कोई ऐसा दस्तावेज सामने आए जो धरती के सबसे शक्तिशाली देशों को भी मजबूर कर सके।
अध्यक्ष महोदय, लियानार्डो बाॅफ पूछते हैं किक्या आपमें से कोई उनसे मिला है? मैं नहीं जानता कि बाॅफ यहां आ सकते हैं या नहीं? हाल में मैं पेराग्वे में उनसे मिला था। हम हमेशा उनको पढते रहे हैंक्या सीमित संसाधनों वाली धरती एक असीमित परियोजना को झेल सकती है? असीमित विकासः पूंजीवाद का ब्रह्मवाक्य है, एक विध्वंसक पैटर्न है और आज हम इसे झेल रहे हैं। आइए, इसका सामना करें। तब बाॅफ हमसे पूछते हैं कि हम कोपेनहेगन से क्या उम्मीद कर सकते हैं? कम से कम एक ईमानदार स्वीकारोक्ति कि हम इस व्यवस्था को जारी नहीं रखेंगे और एक सरल प्रस्ताव कि आओ इस ढर्रे को बदल दें। हमें यह करना होगा लेकिन बिना किसी झंझलाहट, बिना झूठ, बिना दोहरे प्रावधानों के। बिना किसी मनमाने दस्तावेजों के हम इस ढर्रे को बदलें। पूरी ईमानदारी से, सबके सामने और सच के साथ।
अध्यक्ष महोदय, हम वेनेजुएला की तरफ से पूछते हैं कि हम कब तक इस अन्याय और असमानता को जारी रखेंगे? कब तक हम मौजूदा वैश्विक अर्थ तंत्र और सर्वग्रासी बाजार व्यवस्था को बर्दाश्त करते जायेंगे? कब तक हम एचआईवी एड्स जैसी भयानक महामारियों के सामने पूरी मनुष्यता को बिलखने के लिए छोड़ देंगे? कब तक हम भूखे लोगों को खाना नहीं मिलने देंगे या उनके बच्चों को भूखों मरने देंगें? कब तक लाखों बच्चों की मौत उन बिमारियों के चलते बर्दाश्त करते रहेंगे, जिनका इलाज संभव है? आखिर कब तक हम दूसरे लोगों के संसाधनों पर ताकतवरों द्वारा कब्जा करने के लिए जारी सशस्त्र हमलों में लाखों लोगों को कत्ल होते हुए देखते रहेंगे?
इसलिए हमलों और युद्धों को बंद किया जाए। साम्राज्यों से, जो पूरी दुनिया को दबाने और शोषण करने में लगे हुए हैं, हम दुनिया के लोग चीखकर कहते हैं कि इन्हें बंद किया जाए। साम्राज्यवादी सैन्य हमले और सैन्य तख्तापलट अब और नहीं! आइए एक ज्यादा न्यायपूर्ण और समानतामूलक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था बनाएं, आइए गरीबी मिटा दें, आइए तुरंत इस विनाशकारी उत्सर्जन को रोक दें, आइए पर्यावरण के इस क्षरण को समाप्त करें और जलवायु परिवर्तन के भीषण दुष्परिणामों से इस धरती को बचावें। आइए, पूरी दुनिया को ज्यादा आजाद और एकताबद्ध करने के महान उद्देश्य के साथ खुद को जोड़ लें।
अध्यक्ष महोदय, लगभग दो शताब्दियों पहले महान सीमोन बोलिवर ने कहा था कि अगर प्रकृति हमारा विरोध करती है तो हमें उससे लड़ना होगा और उसे अपनी सेवा में लाना होगा। यह राष्ट्रों के मुक्तिदाता, आने वाली नस्लों की चेतना के अग्रदूत महान साइमन बोलिवर का कहना था। बोलिवेरियन वेनेजुएला से, जहां हमने लगभग 10 साल पहले आज जैसे ही एक दिन अपने इतिहास की भीषणतम जलवायु त्रासदी (वर्गास त्रासदी) का सामना किया था, उस वेनेजुएला से जहां क्रांति ने सबको न्याय देने का प्रयास किया है, हम कहना चाहते हैं कि ऐसा करना सिर्फ समाजवाद के रास्ते से संभव है।
समाजवाद, वह दूसरा भूत जिसकी कार्ल माक्र्स ने चर्चा की थी, जो यहां भी चला आया है, दरअसल यह तो उस पहले भूत का विरोधी है। समाजवाद यही दिशा है, इस ग्रह के विनाश को रोकने का यही रास्ता है। मुझे कोई शक नहीं है कि पूंजीवाद नर्क का रास्ता है, दुनिया की बर्बादी का रास्ता है। यह हम वेनेजुएला की तरफ से कह रहे हैं जो समाजवाद के कारण अमेरिकी साम्राज्य के कोप का सामना कर रहा है।
अल्बा के सदस्य देशों की तरफ से बोलिवेरियन गठबंधन की तरफ से हम आह्वान करते हैं, और मैं भी पूरे आदर के साथ अपनी अंतरात्मा से इस ग्रह के सभी लोगों का आह्वान करता हूं, हम सभी सरकारों और पृथ्वी के सभी लोगों से कहना चाहते हैं, साइमन बोलिवर का सहारा लेते हुए कि यदि पूंजीवाद का विनाशक चरित्र हमारा विरोध करता है, हम इसके विरुद्ध लडेंगे और इसे जीतेंगे; हम मनुष्यता के खत्म हो जाने तक इंतजार में नहीं बैठे रह सकते। इतिहास हमें एकताबद्ध होने के लिए और संघर्ष के लिए पुकार रहा है।
यदि पूंजीवाद विरोध करता है, हम इसके खिलाफ युद्ध के लिए प्रतिबद्ध हैं, और यह युद्ध मानव जाति की मुक्ति का रास्ता प्रशस्त करेगा। यीशु, मुहम्मद, समानता, प्रेम, न्याय, मानवता- सच्ची और सबसे गहरी मानवता का झंडा उठाए हम लोगों को यह करना है। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो इस ब्रह्मण्ड की सबसे विलक्षण रचना, मनुष्य, का अंत हो जाएगा, मानव जाति विलुप्त हो जाएगी।
यह ग्रह करोड़ों वर्ष पुराना है, यह ग्रह करोड़ों वर्ष हमारे वजूद के बिना ही अस्तित्व में रहा है। स्पष्ट है यह अपने अस्तित्वं के लिए हम पर निर्भर नहीं है। सारतः बिना धरती के हमारा अस्तित्व संभव नहीं है और हम इसी धरती मांको नष्ट कर रहे हैं, जैसा इवो मोरेल्स कह रहे थे, जैसा दक्षिण अमेरिका से हमारे देशज भाई कहते हैं।
अंत में, अध्यक्ष महोदय, मेरे खत्म करने से पहले कृपया फिदेल कास्त्रो को सुनिए, जब वे कहते हैं: एक प्रजाति खात्मे के कगार पर हैः मनुष्यता
रोजा लग्जमबर्ग को सुनिए जब वे कहती हैं: समाजवाद या बर्बरतावाद
उद्धारक यीशु को सुनिए जब वे कहते हैं: गरीब सौभाग्यशाली हैं क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है
अध्यक्ष महोदय, देवियों और सज्जनों, हम इस धरती को मनुष्यता का मकबरा बनने से रोक सकते हैं। आइए, इस धरती को स्वर्ग बनाएं। एक स्वर्ग जीवन के लिए, शांति के लिए, पूरी मनुष्यता की शांति और भाईचारे के लिए, मानव प्रजाति के लिए।
अध्यक्ष महोदय, देवियों और सज्जनों, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद! दोपहर के भोजन का आनंद उठाइए।
(अनुवाद- संदीप सिंह, भूतपूर्व जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष)

"We Lost our Best Friend"-------FIDEL CASTRO

"We Lost our Best Friend" is the title of an article written by Cuban Revolution leader on Venezuela's Hugo Chavez, which was published by the Cuban media on Monday.(11/03/2013)
In his article, Fidel Castro recalls the news about the passing away of Hugo Chavez on March 5; he said that although he was aware of the critical health conditions of the Bolivarian leader, the bitter news
strongly moved him, and that he recalled that Chavez at times played jokes by telling him that once they concluded their revolutionary task, he would invite him on a tour along the Arauca River, which reminded him of the leisure time he never enjoyed.
We are honored to have shared with the Bolivarian leader the same ideals of social justice and the support of the exploited ones. The poor are the poor in any part of the world, Fidel wrote.

In his article, the Cuban Revolution leader recalled the words of National Hero Jose Marti when he visited Venezuela and went straight to pay tribute to the statue of Bolivar. Fidel recalled Marti's words about the United States when he said that he lived in the monster and knew its entrails, as well as his
last letter before he was killed in action in Cuba, in which the National Hero said that he was about to give his life to prevent the > United States from expanding on Latin America.

Fidel also brings to mind the words by the Liberator Simon Bolivar when he said that the United States seemed to be destined by Devine Providence to plague the Americas with miseries in the name of freedom.
Fidel Castro said that on January 23, 1959, twenty two days after the triumph of the Cuban Revolution, he visited Venezuela to thank the people and the government that took power after the Perez Jimenez
dictatorship for the shipment to Cuba of 150 rifles in 1958.

On that occasion, he said that the fatherland of the Liberator, was the land where the ideas of Latin American unity were forged, and that Venezuela should be the leading nation in promoting the unity of Latin American countries and that the Cuban people supported their Venezuelan brothers and sisters.

He said that his ideas were not encouraged by any personal ambition, or the ambition of glory, because in the end, the ambition of glory is mere vanity, and he recalled the words by Jose Marti that all the
glory of the world fits in a kernel of corn.

if we want to save the Cuban Revolution, the Venezuelan Revolution and the revolutions in all the countries of our continent, we have to get together and back one another strongly, because by our selves and divided we will fail," Fidel recalled his own words.

"That is what I said that day, and I ratified it 54 years later!, he pointed out and said that he had to include on that list of countries those nations that for over half a century have been the victims of
exploitation and plunder. That precisely was the struggle waged by Chavez.

And Fidel concludes his article by stressing that not even Chavez himself was aware of how great he really was.Onward to victory for ever, unforgettable friend!
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=421843804573387&set=a.114695071954930.23698.100002433136975&type=1&relevant_count=1&ref=nf

ह्यूगो शावेज के साथ मुलाकातें - ऐलन वुड्स
(लन्दन, 29 अप्रैल, 2004)
लैटिन अमरीका के महान क्रांतिकारी नेता ह्यूगो शावेज हमारे दिलों में जिन्दा रहेंगे।
ह्युगो शावेज की शहादत लातिन अमरिकी मुक्ति आन्दोलन में एक दुखद घटना है। दुनिया की जनता को उनकी कमी लगातार खलती रहेगी। शावेज वैश्वीकरण और नव-उदारवादी नीति के प्रबल विरोधी थे। वे वेनेजुएला के ऐसे राष्ट्र-प्रमुख थे, जो समाजवादी विचारधारा और लातिन जन-संघर्ष के महान उसूलों से जनता की सेवा करते थे। वे वर्तमान में दुनिया की मेहनतकश जनता के सबसे पसंदीदा नेता थे। अपनी इन्हीं खूबियों की वजह से वे साम्राज्यवादी अमरिका और दुनिया भर में उसके लगुये-भगुओं के आंख की किरकिरी थे। अमरिका कई बार तख्थापलट और उनकी ह्त्या की नाकाम कोशिश कर चुका था। अब अमरिकी हुकूमत चैन और राहत की सांस लेने की सोच रहा होगा। लेकिन दुनिया की जनता उन्हें चैन की साँस लेने नहीं देगी।
शावेज प्रगतिशील साहित्य पढने के शौक़ीन थे और अपनी जनता से जीवंत संपर्क में रहते थे। वे एक जनप्रिय और क्रांतिकारी नेता थे। उन्होने आज की विषम परिस्थिति में समाजवादी नीतियों को काफी हद तक अपने देश में लागू किया। उन्होंने वेनेजुएला को आज ऐसे मुकाम पर पहुँच दिया कि वहां के निर्धन लोग अब मुफ्त शिक्षा, स्वास्थ्य और दूसरी बुनियादी सुविधाओं तक आसानी से पहुँच सकते है। उन्होंने वेनेजुएला को सैन्य और आर्थिक मामलों में भी आत्मनिर्भर बनाया। उन्होंने लातिन अमरीकी देशों में आपसी सहयोग बढ़ने के लिए एल्बा संगठन बनाने की पहल की। जिसमें क्यूबा, इक्वाडोर और बोलीबिया शामिल है। मैक्सिको और कई कैरीबियाई देश इसमें शामिल होने के इच्छुक हैं जबकि वियतनाम पर्यवेक्षक के रूप में जुड़ने के लिए राजी है। भविष्य में यह संस्था स्थानीय सहयोग के जरिये साम्राज्यवाद के लिए चुनौती बनाकर उभर सकती है।
वेनेजुएला की जनता आज अपने महान नेता शावेज के जाने के शोक में डूबी है। यह न केवल वेनेजुएला के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए अपूरणीय क्षति है। देश की संपदा को लूटने के लिए देशी और विदेशी धन्ना सेठों, कारोबारियों और पूंजीपतियों ने शावेज के आंदोलन को कुचलने की भरसक कोशिश की। लेकिन वे कुछ हासिल न कर सके। क्योंकि वहां की जनता शावेज को प्यार करती है। उनके न रहने पर क्रांतिविरोधी ताकतें फिर षड़यंत्र रचना शुरू करेंगी। वे किस हद तक अपने मंसूबों में कामयाब होंगी, यह इस बात पर निर्भर करता है कि नया नेतृत्व जनता को किस दिशा में ले जायेगा। लेकिन वेनेजुएला की जनता अपने महान नेता के सपनों को पूरा करने के लिए आगे आयेगी।
कुछ वर्षों पहले अमरीका के मार्क्सवादी विचारक ऐलन वुड्स शावेज से मिलने वेनेजुएला गए थे। उन्होंने लौटकर अपने अनुभव को कलमबद्ध किया था। कई मामलों में हम ऐलन वुड्स की बातों से असहमत हो सकते हैं लेकिन यह यात्रा वृत्तांत बहुत रोचक है जिससे न केवल शावेज के करिश्माई व्यक्तित्व का पता चलता है बल्कि वेनेजुएला के समाज की भी एक झलक मिलाती है। उस शानदार लेख का अनुवाद यहाँ दिया जा रहा है।

ह्यूगो शावेज के साथ मुलाकातें -ऐलन वुड्स (लन्दन, 29 अप्रैल, 2004)
जैसा कि मार्क्सिस्ट.कॉम के पाठक पहले से ही जानते होंगे, मैं पिछले सप्ताह वेनेजुएला की क्रान्ति के समर्थन में आयोजित द्वितीय अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में शरीक होने के लिए काराकास गया था। यह सम्मेलन अप्रैल, 2002 में किये गये प्रतिक्रान्ति के प्रयासों को विफल किये जाने की दूसरी जयन्ती पर आयोजित किया गया था। व्यस्तता भरे इस एक सप्ताह के दौरान मैंने कई सभाओं को सम्बोधित किया जिनमें मुख्य रूप से बोलिवेरियाई आन्दोलन के कार्यकर्ताओं और वेनेजुएला की क्रान्ति के समर्थकों, मजदूरों और गरीब जनता के बीच मैंने मार्क्सवाद का पक्ष प्रस्तुत किया। मैं 12 अप्रैल की विशाल रैली में शामिल हुआ, जहाँ मुझे लोगों की उस क्रान्तिकारी सरगर्मी को देखने का प्रत्यक्ष मौका मिला जो जनता को प्रेरणा देती है और जिसने प्रतिक्रान्ति को उसी जगह रोक देने में उन्हें समर्थ बनाया था।
मुझे बोल्वेरियाई गणतन्त्र के राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज से मिलने और बात करने का अवसर भी मिला। एक लेखक और मार्क्सवादी इतिहासकार होने के नाते मैं इतिहास बनाने वाले पुरुषों और स्त्रियों के बारे में तो लिखता ही रहता हूँ लेकिन ऐतिहासिक प्रक्रिया के किसी नायक को इतने करीब से देखने, उससे सवाल पूछने और केवल अखबारी रिर्पोटों के आधार पर ही नहीं, बल्कि व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर उसके बारे में एक राय बनाने का मौका रोज-रोज नहीं मिलता।
मैं अपने विषय पर बात शुरू करने के पहले कुछ बातें स्पष्ट करना चाहूँगा। मैं वेनेजुएला की क्रान्ति को एक बाहरी दर्शक की नजर से नहीं देखता और एक चाटुकार के नजरिये से तो कतई नहीं। मैं उसे एक क्रान्तिकारी की नजर से देखता हूँ। चाटुकारिता क्रान्ति की दुश्मन है। क्रान्तियों के लिए सर्वोपरि जरूरत है सच्चाई को जानना। ‘‘क्रान्तिकारी पर्यटन’’ की परिघटना से मुझे सख्त घृणा है खास करके वेनेजुएला के मामले में इसके लिए कोई गुंजाइश नहीं है क्योंकि यहाँ क्रान्ति खतरों से घिरी हुई है। जो लोग ऐसे मूर्खतापूर्ण भाषण देते रहते हैं जिनमें बोलिवेरियाई क्रान्ति के चमत्कारों पर तो बराबर जोर दिया जाता है लेकिन उसके सामने आज भी मौजूद खतरों के सुविधाजनक ढंग से नजरन्दाज कर दिया जाता है, वे क्रान्ति के असली दोस्त नहीं हैं उन पर कोई भरोसा नहीं किया जा सकता।
किसी भी सफल क्रान्ति के कई तथाकथित दोस्तहोते हैं । शहद की ओर जैसे मक्खियाँ आकर्षित होती हैं वैसे ही सत्ता के प्रति आकर्षित होने वाले वे मध्यवर्गीय तत्व, जो तब तक क्रान्ति का गुणगान करने के लिए तैयार रहते हैं जब तक वह सत्तासीन है लेकिन उसे दुश्मनों से बचाने के लिए कोई उपयोगी काम नहीं करते, जो उसका तख्ता पलट होने पर चन्द घड़ियाली आँसू बहाते हैं लेकिन दूसरे ही दिन से जिन्दगी के अगले कार्यक्रम को लागू करने में मगन हो जाते हैं। ऐसे दोस्तदो टके के होते हैं। असली दोस्त वह नहीं है जो आपको हमेशा यह बताता रहे कि आप सही हैं असली दोस्त वह है जो आपसे सीधे नजर मिलाकर यह कहने में नहीं डरता कि आप गलत हैं।
वेनेजुएला की क्रान्ति के सबसे अच्छे दोस्त बल्कि एकमात्र वास्तविक दोस्त हैं दुनिया का मजदूर वर्ग और उसके सबसे सचेत प्रतिनिधि यानि मार्क्सवादी क्रान्तिकारी। यही वे लोग हैं जो वेनेजुएला की क्रान्ति को उसके दुश्मनों से बचाने के लिए जमीन-आसमान एक कर देंगे। लेकिन साथ-साथ क्रान्ति के ये सच्चे दोस्त, उसके ईमानदार और वफादार दोस्त, अपने मन की बात हमेशा निडर होकर कहेंगे। जहाँ हमें लगेगा कि सही रास्ता अपनाया जा रहा है, वहाँ हम प्रशंसा करेंगे और जहाँ हमें लगेगा कि गलतियाँ की जा रही हैं, वहाँ हम दोस्ताना मगर दृढ़ता से आलोचना रखेंगे। सच्चे क्रान्तिकारियों और अन्तरराष्ट्रवादियों से आखिर इससे भिन्न किस प्रकार के व्यवहार की उम्मीद की जानी चाहिए?
वेनेजुएला में मेरे हर भाषण के दौरान, जिसमें टी.वी. पर दिये गये साक्षात्कार भी शामिल हैं, मुझसे बार-बार यह पूछा गया कि वेनेजुएला की क्रान्ति के बारे में मेरी क्या राय है? मेरा जवाब इस प्रकार था ‘‘ आपकी क्रान्ति दुनिया के मजदूरों के लिए प्रेरणा का स्रोत है, आपने चमत्कारिक उपलब्धियाँ हासिल की हैं, हालाँकि इस क्रान्ति की संचालक शक्ति मजदूर वर्ग और जनसाधारण हैं और उसकी भावी सफलता का राज भी यही है फिर भी अभी यह क्रान्ति पूर्णता तक नहीं पहुँची है और पहुँच भी नहीं सकती, जब तक कि बैंकरों और पूँजीपतियों की आर्थिक सत्ता को पूरी तरह से नष्ट नहीं किया जाता, यह करने के लिए जनता को हथियारों से लैस करना होगा और हर स्तर पर उसे संगठित करने के लिए एक्शन कमेटियाँ गठित करनी होंगी। मजदूरों के अपने स्वतन्त्र संगठन होने चाहिए और हमें मार्क्सवादी क्रान्तिकारी प्रवृत्ति का निर्माण करना चाहिए।’’
लोकतन्त्र और सत्ताधारी वर्गः
मैंने जहाँ कहीं भी बात रखी, इन विचारों को हर जगह पूरे जोशो-खरोश के साथ स्वीकारा गया। अपने विचारों में किसी भी तरह का फेरबदल करने के लिए मुझ पर कहीं, कभी भी कोई दबाव नहीं डाला गया। हर स्तर पर लोगों ने मार्क्सवादी धारणाओं में काफी रुचि दिखायी। चारों तरफ फैलाये जा रहे घृणित झूठ और लांछनों (सी.आई.ए. की थोड़ी सी मदद से) के विपरीत क्रान्तिकारी वेनेजुएला में पूर्ण लोकतन्त्र है। पूँजीवादी विपक्ष, जो जनतन्त्र के खिलाफ सतत षड्यन्त्र करता रहता है, को भी अपने विचार रखने की उतनी ही आजादी है जितनी की मुझे। दरअसल उन्हें ज्यादा आजादी है क्योंकि सारे मुख्य टी.वी. चैनलों का मालिकाना उन्हीं के हाथों में है और ये चैनल निरन्तर प्रतिक्रान्तिकारी प्रचार उगलते रहते हैं, यहाँ तक कि वे लोगों को तख्ता-पलट करने के लिए खुले रूप से भड़काते भी रहते हैं।
क्रान्ति के दुश्मनों का यह दावा कि शावेज एक तानाशाह है, विडम्बनापूर्ण है। व्हाईट-हाउस के वर्तमान निवासी को कभी भी बहुमत से चुना नहीं गया था। वह इस पद की सुख-सुविधा का लुत्फ सिर्फ इसलिए उठा रहा है क्योंकि उसने तीन-तिकड़म करके चुनाव जीता था, इसके विपरीत ह्यूगो शावेज ने कुल छह सालों की कालावधि में दो चुनावों को बहुमत से जीता है और पाँच अन्य चुनावी प्रक्रियाओं द्वारा उसके कार्यक्रम की पुष्टि हुई है। शावेज ने एक नया संविधान पेश किया है जिसका नितान्त जनवादी चरित्र ही उसकी लाक्षणिक विशेषता है। मजेदार बात यह है कि यही संविधान लोगों को यह अधिकार देता है कि वे जनमत-संग्रह करके किसी भी ऐसी अलोकप्रिय सरकार को बर्खास्त कर सकते हैं। इसी का इस्तेमाल करके विपक्ष शावेज सरकार को गिराने के, असफल ही सही, प्रयास कर रहा है। यानि दोनों पक्ष उन्हीं कानूनों तथा उसी संविधान की गुहार लगा रहे हैं।
शुरू में अल्पतन्त्र शावेज सरकार को समझ नहीं पा रहा था। उन्हें लगा कि यह सरकार किसी भी अन्य सरकार की तरह ही होगी। किसी भी ऐसे देश की तरह जहाँ औपचारिक लोकतन्त्र कायम है, वेनेजुएला में भी चुनी हुई सरकारें दूसरे देशों की तरह ही मालहोंगी, यानि उन्हें खुले रूप से खरीदा-बेचा जा सकता होगा, सिर्फ ठीक-ठीक दाम तय करने की ही बात है। ह्यूगो शावेज को तो लोग जानते ही नहीं थे लेकिन सोचते थे कि आखिर वह एक भूतपूर्व सेना अधिकारी था और देर-सवेर मान ही जायेगा। सत्ताधारी वर्ग के लिए चुनावी प्रचार सभाओं में नेताओं द्वारा दियें गये भाषण कोई मायने नहीं रखते हैं। उन्हें कोई गम्भीरता से नहीं लेता।
ब्रिटेन की कंजरवेटिव पार्टी के एक नेता ने एक बार एक समाजवादी से कहा था, ‘‘तुम कभी जीत नहीं सकते क्योंकि हम हमेशा तुम्हारे नेताओं को खरीद लेंगे।’’ इसी सिद्धान्त को लागू करते हुए अल्पतन्त्र ने नयी सरकार के साथ एक समझौता करने का प्रयास किया। उन्होंने ह्यूगो शावेज के पक्ष में लिखा भी। वेनेजुएला की राजनीति के पुराने मार्गदर्शक सिद्धान्त के अनुसार उन्होंने सोचा कि किसी सौहार्दपूर्ण समझौते पर पहुँचा जा सकेगा जो निम्नलिखित बिन्दुओं पर आधारित होगा। ‘‘देखो इस देश में ऊपर की आमदनी बहुत ज्यादा है, यहाँ हम सब के लिए पर्याप्त माल है। इसलिए बहस करने की वास्तव में कोई जरूरत ही नहीं है। आइये हम दो सभ्य व्यक्तियों की तरह एक समझौता कर लें। आप इतना हिस्सा लीजिए और बाकी हम लेंगे।’’
लेकिन शासक वर्ग का दुर्भाग्य है कि हर कोई बिकाऊ नहीं होता। सरकार द्वारा नया संविधान पारित किये जाने के बावजूद अल्पतन्त्र निराश नहीं हुआ। नयी सरकार ने जो संविधान पारित किया है वह पूरे लातीन अमेरीका में सबसे ज्यादा जनवादी संविधान है और शायद पूरी दुनिया के पैमाने पर भी सबसे ज्यादा जनवादी हो। यह संविधान नस्ल, रंग या लिंगभेद किये बिना सबको समान अधिकार प्रदान करता है। यह स्वाभाविक था कि अल्पतन्त्र ने इसे गम्भीरता से नहीं लिया। आखिर, संविधान एक कागज के टुकड़े के अलावा और है ही क्या? अल्पतन्त्र का तर्क बिल्कुल त्रुटिहीन था और औपचारिक पूँजीवादी लोकतन्त्र के समस्त कानूनों और संविधानों की सच्चाई को दर्शाता था। वास्तव में गम्भीरता से लेने लायक होते ही नहीं। वे तो सिर्फ बहुमत के ऊपर सम्पन्न अल्पमत के वर्चस्व को बदस्तूर कायम रखने के लिए और वस्तुस्थिति पर पर्दा डालने के लिए बनाये गये आभूषण हैं।
सत्ताधारी वर्ग-लोकतन्त्र, संसद, चुनाव, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा ट्रेड यूनियनों को एक ऐसी अनिवार्य बुराई के रूप में देखता है जिसे तब तक बर्दाश्त किया जा सकता है जब तक यह बैंकों और इजारेदारियों की तानाशाही के लिए खतरा नहीं बनती। लेकिन जैसे ही लोकतन्त्र की इस मशीनरी को जनता द्वारा समाज में एक बुनियादी बदलाव लाने के लिए इस्तेमाल किया जाने लगता है, वैसे ही सत्ताधारी वर्ग का इसके प्रति रवैया बदल जाता हैं फिर भले ही सरकार भारी बहुमत से क्यों न चुनी गयी हो, जैसा कि वेनेजुएला में हुआ, वे उसे तानाशाही की संज्ञा देकर चीख-पुकार मचाने लगते हैं। जनवादी तरीके से चुनी गयी सरकार को परेशान करने, गुप्त रूप से उसे नुकसान पहुँचाने तथा उसकी जड़ें काटने के लिए वे अपने अर्थिक बल, राष्ट्र के आर्थिक जीवन में अपने दखल, प्रचार-प्रसार के साधनों पर और न्यायपालिका में अपने हस्तक्षेप तक का सहारा लेते हैं। यानि सरकार का तख्ता-पल्ट करने के लिए वे गैर-संसदीय तरीकों का इस्तेमाल करते हैं।
कोई अगर ये सोचता है कि ऐसी परिस्थितियों में संविधान के माध्यम से सरकार को बचाया जा सकता है तो यह भोलेपन की हद होगी। संविधान की गुहार लगाकर या संसद में भाषण देकर सत्ताधारी वर्ग के गैर-संसदीय क्रियाकलापों से निपटा नहीं जा सकता। उन्हें सिर्फ जनता द्वारा की गयी गैर-संसदीय कार्रवाइयों द्वारा ही परास्त किया जा सकता हैं वेनेजुएला की क्रान्ति का अनुभव इस बात को सौ फीसदी सही साबित करता है, क्यांेकि बहुमत को सारे अधिकार प्रदान करने वाले संविधान का समर्थन करना एक बात है और इन अधिकारों को सच्चाई में तब्दील करना बिल्कुल दूसरी बात है। बहुलांश आबादी के पक्ष में काम करने के लिए पहले अल्पतन्त्र के निहित स्वार्थांे से टकराना होगा। यह काम एक व्यापक संघर्ष की माँग करता है।
11अप्रैल का तख्ता-पलटः
जैसे ही अल्पतन्त्र को यह समझ में आया कि शावेज के साथ कोई समझौता मुमकिन नहीं है और उसे खरीदा नहीं जा सकता, वैसे ही उन्होंने उस पर हमला बोल दिया। अभिजात वर्ग ने अपनी ताकतों को संगठित करना और उनकी लामबन्दी करना शुरू कर दिया। प्रचार तन्त्र पर अपने नियन्त्रण को उन्होंने मध्यम वर्ग में उन्माद पैदा करने के लिए इस्तेमाल किया। चिली में साल्वादोर अलेन्दे की सरकार के खिलाफ कराई गयी ट्रक ड्राइवरों की हड़ताल का अनुकरण करते हुए, उसी तरह की प्रतिक्रियावादी हड़ताल करवाने के लिए उन्होंने सी.आई.ए. के जरिये कुछ भ्रष्ट ट्रेड यूनियन नेताओं को घूस दिलवायी। निवेशकों की एक हड़ताल के जरिये अरबों की सम्पत्ति मियामी के बैक खातों में पहुँचा दी गयी। वे 11 अप्रैल, 2002 के प्रतिक्रान्तिकारी तख्ता-पलट के लिए जमीन तैयार कर रहे थे।
यह बताने की जरूरत ही नहीं है कि इस षड़यन्त्र की लगाम वाशिंगटन के हाथों में थी। अमरीकी साम्राज्यवाद शावेज से इतनी नफरत क्यों करता है? वह बोलिवेरियाई क्रान्ति से इतना डरता क्यों है? अभी तक तो शावेज ने वेनेजुएला में स्थित बड़ी-बड़ी अमरीकी कम्पनियों की सम्पत्ति जब्त नहीं की है। अमरीका को की जा रही तेल की आपूर्ति पर भी अभी उसने प्रतिबन्ध नहीं लगाया है। अल्पतन्त्र की सम्पत्ति का राष्ट्रीयकरण भी उसने अभी नहीं किया है।
शावेज के प्रति वाशिंगटन के शत्रुतापूर्ण रवैये का एक कारण है। अमरीकी साम्राज्यवाद द्वारा थोपी जा रहीं बातों का उग्र विरोध करने का शावेज का दृढ़ संकल्प। वह शुरू से ही तेल की उफँची कीमत बनाये रखने का ठोस समर्थक रहा है। यह नीति मन्दी से बाहर आने के लिए जूझ रहे अमरीकी पूँजीवाद के हितों को नुकसान पहुँचाती है जो तेल की कीमतों में गिरावट चाहता है। शावेज सरकार के पहले जो सरकार काराकास में सत्ता में थी, उसे अपने हिसाब से मोड़ना वाशिंगटन के लिए आसान था। थोड़े से पैसे के लिए यह सरकार अमरीका के अनुकूल नीति बनाने के लिए तैयार हो जाती थी। हालाँकि वेनेजुएला की तेल कम्पनी पी.डी.वी.एस.ए. का औपचारिक तौर पर राष्ट्रीयकरण हो चुका था. फिर भी यह भ्रष्ट नौकरशाहों के कब्जे में थी, जो उसे किसी भी अन्य पूँजीवादी उद्योग की तरह चलाते थे और जिनकी अमरीका की बड़ी तेल कम्पनियों के साथ कुछ ज्यादा ही साँठगाँठ थी।
लेकिन शावेज के प्रति अमरीकी साम्राज्यवाद की अमिट नफरत के वास्तविक कारणों को हमें कहीं और खोजना होगा. वर्तमान समय में मियेरा देल फ्रयूगो से लेकर रायो ग्राण्डे तक कोई भी ऐसा पूँजीवादी राष्ट्र नहीं मिलगा जिसमें स्थायित्व हो। पूरे लातीन अमरीकी महाद्वीप में क्रान्तिकारी संघर्षों की एक लहर उमड़ पड़ी है, जो राजधानी वाशिंगटन में बैठे पूँजीवादी रणनीति बनाने वालों के दिलों में भविष्य की चिन्ता और खौफ पैदा कर रही है। दुनिया की निगाहें मध्यपूर्व पर गड़ी हुई हैं जो अमरीकी साम्राज्यवाद के लिए आर्थिक तथा सामरिक रूप से अत्यन्त महत्वपूर्ण इलाका है। लेकिन लातिन अमरीका को अमरीका का पिछवाड़ा समझा जाता है। दक्षिण में घटने वाली कोई भी घटना अमरीका को सीधे प्रभावित करती है।
ह्यूगो शावेज की बोलिवेरियाई क्रान्ति भी अमरीकी साम्राज्यवाद के लिए प्रत्यक्ष खतरा पेश कर रही है क्योंकि वह लातिन अमरीका के बाकी देशों की उत्पीड़ित जनता के लिए एक मिसाल पेश करती है। इसने लोगों को अपनी दीर्घकालीन शीत-निद्रा से जगाकर लड़ने के लिए प्रेरित किया है। इस क्रान्ति की व्यावहारिक ठोस उपलब्धियों की सूची काफी प्रभावशाली है। इसके तहत मजदूरो और गरीबों के हित में कुछ गम्भीर सुधार किये गये हैं। लगभग 15 लाख लोगों को पढ़ना-लिखना सिखाया गया है। और लगभग 30 लाख लोगों को विभिन्न स्तरों पर शैक्षिक योजनाओं में शामिल किया गया है। क्यूबा से आये डॉक्टरों को गाँवों में तथा शहरों की झुग्गी-झोपड़ियों में भेजा गया है. जिससे ऐसे लगभग 1 करोड़ 20 लाख लोगों को इलाज की सुविधा प्राप्त हुई, जिन्होंने कभी डॉक्टर का मुँह नहीं देखा था। 20 लाख हेक्टयेर जमीन किसानों को आवंटित की गयी है।
ये वास्तविक उपलब्धियाँ हैं. लेकिन इस क्रान्ति की जो असली उपलब्धि है, वह इससे ज्यादा महत्वपूर्ण और अमूर्त है। उसे तौला नहीं जा सकता, नापा नहीं जा सकता और गिना भी नहीं जा सकता, लेकिन वही निर्णायक है। इस क्रान्ति ने जनसाधारण में मानवीय गरिमा की भावना जगायी है, उनमें न्याय की गहरी भावना और अपनी सत्ता का नया बोध पैदा किया है और एक नया आत्मविश्वास जगाया है। उन्हें इससे भविष्य के लिए एक नई उम्मीद मिली है। सत्ताधारी वर्ग और साम्राज्यवाद के हिसाब से ये सारी बातें एक घातक खतरे का प्रतिनिधित्व करती हैं।
वर्तमान समय में वर्ग-शक्तियों का सन्तुलन क्रान्ति के हित में है। शावेज की व्यक्तिगत लोकप्रियता को चुनौती देने वाला कोई नहीं है। चुनाव में उसे 60 प्रतिशत से भी ज्यादा वोट मिलते हैं। लेकिन अगर हम उसका समर्थन करने वाली सभी ताकतों को ध्यान में रखें, तो वास्तव में उसे बहुत व्यापक जनसमर्थन प्राप्त है। वेनेजुएला में जो कुछ भी जिन्दा है, सृजनशीन है और जिसमें जीवन स्पन्दित हो रहा है, वह क्रान्ति के साथ है। दूसरी ओर जो कुछ भी पतित, भ्रष्ट और सड़ा हुआ है, वह प्रतिक्रियावादी और दकियानूसी ताकतों के साथ है।
वेनेजुएला के लगभग 200 सालों के इतिहास में पहली बार जनता को यह महसूस हो रहा है कि सरकार ऐसे लोगों के हाथ में है जो उनके हितों की रक्षा करना चाहते हैं। अतीत में हमेशा ही सरकार एक परायी ताकत हुआ करती थी जो उनके खिलाफ खड़ी होती थी। वे उन पुरानी भ्रष्ट पार्टियों की वापसी नहीं चाहते।
रूसी क्रान्ति का इतिहासकिताब में ट्राट्स्की समझाते हैं कि क्रान्ति ऐसी स्थिति को कहते हैं जिसमें लोग अपनी किस्मत को अपने हाथों में ले लेते हैं। आज वेनेजुएला में निश्चित तौर पर ऐसा ही हो रहा है। जनता का जागृत होना और राजनीति में उसकी सक्रिय भागीदारी वेनेजुएला की क्रान्ति का सबसे निर्णायक लक्षण है तथा उसकी कामयाबी का राज भी।
दो साल पहले जनता के स्वतःस्पफूर्त आन्दोलन ने प्रतिक्रान्ति को पराजित कर दिया। इसी घटना ने पूरी प्रक्रिया को तेजी से आगे बढ़ाया। लेकिन अब दो साल बाद लोगों की मनोदशा में कुछ नये बदलाव नजर आ रहे हैं। लोगों में निराशा और असन्तोष का भाव दिखायी दे रहा हैं उनकी आकांक्षाएँ पूरी नहीं हुई हैं। वे आगे बढ़ना चाहते हैं। वे प्रतिक्रान्तिकारी ताकतों का सामना करके उन्हें परास्त करना चाहते हैं और इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए लोग लगातार आगे बढ़ रहे हैं।
लेकिन ऊपर के तबकों में कुछ ऐसे लोग हैं जो यह सोचते हैं कि यह क्रान्ति हद से ज्यादा आगे बढ़ गयी है। ये वे लोग हैं जो एक तरफ तो जनता से डरते हैं और दूसरी तरफ साम्राज्यवाद से। ये आन्दोलन को रोकना चाहते हैं। इन दो अन्तरविरोधी प्रवृत्तियों का ज्यादा समय तक सह-अस्तित्व नहीं रह सकता। इनमें से एक को जीतना होगा। क्रान्ति का भविष्य इसी आन्तरिक संघर्ष के नतीजे पर निर्भर है।
यह केन्द्रीय अन्तरविरोध हर स्तर पर यानि समाज में, आन्दोलन में, सरकार में, मीरा फ्रलोरेंस के राजमहल में और खुद राष्ट्रपति के भीतर भी प्रतिबिम्बित होता है।
शावेज और जनताः
कई दशकों तक वेनेजुएला में भ्रष्ट और पतित अल्पतन्त्र की सत्ता रही। वह एक दो दलीय व्यवस्था थी, जिसमें दोनों पार्टियाँ उसी अल्पतन्त्र का प्रतिनिधित्व करती थीं। शावेज ने जब बोलिवेरियाई आन्दोलन की नीव रखीं, तब उसने वेनेजुएला के राजनीतिक जीवन की सड़ांध को साफ करने का प्रयास किया। यह एक मर्यादित और सीमित उद्देश्य था। फिर भी उसके इन प्रयासों का सत्ताधारी अल्पतन्त्र और उसके नुमाइन्दों द्वारा तीखा विरोध हुआ।
दो साल पहले 11 अप्रैल को वाशिंगटन के सक्रिय समर्थन से अल्पतन्त्र ने तख्ता पलट करके शावेज को सत्ताच्युत करने का प्रयास किया। शावेज को पहले गिरफ्रतार किया गया और फिर से अगवा करके मिरा फ्रलोरेंस के राजमहल में बन्दी बनाकर रखा गया। लेकिन 48 घण्टों के भीतर ही जनता के स्वतःस्फूर्त विद्रोह ने उन्हें उखाड़ फेंका। सेना की टुकड़ियाँ जो शावेज के प्रति वफादार थीं, जनता के साथ मिल गयीं और अल्पतन्त्र के इस तख्ता पलट के प्रयास की बुरी तरह भद्द पिट गयी।
वेनेजुएला की क्रान्ति के समर्थन में आयोजित दूसरे अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में मेरे अनुमान से लगभग 150 विदेशी प्रतिनिधि थे, जिनमें से ज्यादा दक्षिण और मध्य अमरीका से आये थे। 13 अप्रैल की शाम को हम सब तख्ता पलट की पराजय की यादगार के रूप में आयोजित विशाल प्रदर्शन देखने के लिये मध्य काराकास में स्थित मीरा फ्रलोरेंस राजमहल के ठीक बाहर मंच पर एकत्रित हुए। वह एक अचम्भित करने वाला दृश्य था। लाल कमीज और बेसबॉल की टोपियाँ पहने, शावेज के दसियों हजार समर्थक झण्डे और तख्तियाँ लहराते हुए फैक्टरियों तथा गरीब बस्तियों से निकलकर सड़क पर उमड़ पड़े थे। यही वे लोग थे, जिन्होंने दो साल पहले प्रतिक्रान्ति को पराजित किया था और आज भी क्रान्ति के प्रति उनकी उमंग, उनके जोश में कोई कमी नहीं आयी थी।
माहौल में कुछ गर्माहट पैदा करने के लिये दिये गये चन्द भाषणों और संगीत के साथ सभा शुरू हुई। शावेज और जनसाधारण के बीच के रिश्ते देखना काफी दिलचस्प था। इन्हें देखकर यह लग रहा था कि गरीब और पददलित जनता की इस आदमी के प्रति प्रबल निष्ठा के बारे में शक की कोई गुंजाइश नहीं हो सकती। पहली बार कोई इन दबे-कुचले लोगों की आवाज, उनकी उम्मीद बनकर आया था। शावेज के प्रति उनकी असाधारण आस्था और निष्ठा का राज यही है। उसने उन्हें जिन्दगी दी और अब वे अपने आपको उसमें देखते हैं। इसी वजह से शावेज को धनी और शक्तिशाली तबके की अमिट नफरत मिली है और आम लोगों की वफा और उनका प्यार।
सत्ताधारी वर्ग की शावेज के प्रति घोर नफरत के पीछे भी यही कारण है। यह वह नफरत है जो अमीरों में गरीबों के प्रति और शोषकों में शोषितों के प्रति होती है। इस नफरत के पीछे छुपा हुआ है भय। अपनी सम्पत्ति अपनी ताकत और विशेषाधिकारों को खोने का भय। यह ऐसी खाई है जो सुन्दर शब्दों से पाटी नहीं जा सकती। यह समाज का बुनियादी वर्गभेद है। तख्तापलट की हार से उसका खात्मा नहीं हुआ है, न ही उसके बाद की गयी उच्च अधिकारियों की तालाबन्दी से। बल्कि यह और ज्यादा तीव्र हो गया है।
हमेशा की तरह शावेज ने कई राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय मुद्दो को समेटते हुए विस्तार से अपनी बात रखी। खास तौर पर, अपनी बात में उसने अमरीका की सरकार और अमरीका की जनता के बीच एक सुस्पष्ट विभाजन रेखा खींची और अमरीका की जनता से बुश के और साम्राज्यवदियों के खिलाफ लड़ाई में समर्थन की अपील की। शावेज जब भाषण दे रहा था तब उसके पीछे लगे हुए बड़े पर्दे पर मुझे लोगों की प्रतिक्रिया दिखायी दे रही थी। बूढ़े और नौजवान, आदमी और औरतें, मजदूर वर्ग की लगभग पूरी आबादी, सब पूरा ध्यान लगाकर सुन रहे थे और हर शब्द सुनने का प्रयास कर रहे थे। वहाँ खड़ी हुई भीड़ में लोग तालियाँ बजा रहे थे, जयघोष कर रहे थे, हँस रहे थे और रो भी रहे थे। यह ऐसे जनसमुदाय का चेहरा था जो जाग उठा है, जो ऐतिहासिक प्रक्रिया में अपनी भूमिका के बारे में सचेत हो चुका है। यह क्रान्ति का चेहरा था।
और शावेज? शावेज की ताकत का आधार इसी जनसाधारण का समर्थन है, जिनके साथ वह घनिष्ठ एकता महसूस करता है। इसके बात रखने के अंदाज से भी, जो बिल्कुल स्वतःस्पूफर्त है और जिसमें कहीं भी एक पेशेवर राजनीतिज्ञ की सख्त औपचारिकता नहीं झलकती लोग उससे जुड़ाव महसूस करते हैं। यदि कभी बातचीत में स्पष्टता की कमी दिखायी देती है तो वह भी जन-आन्दोलन जिस दौर से गुजर रहा है उसे दर्शाती है। यह एक मुकम्मिल पहचान है।
पहला सामनाः
जनसभा के तुरन्त बाद अन्तरराष्ट्रीय प्रतिनिधियों को मीरा फ्रलोरंेस के राजमहल में आयोजित स्वागत समारोह में निमन्त्रित किया गया। इस जगह में प्रवेश करना तथा बाहर निकलना दोनों ही बहुत कठिन काम है। हत्या के खतरे के बने रहने की वजह से सुरक्षा व्यवस्था बहुत चुस्त है। किसी के भी सामान की बार-बार जाँच होती है। पासपोर्ट भी बड़ी बारीकी से देखा जाता है। आइना लिए हुए सिपाही सभी गाड़ियों की नीचे की सतहों का भी निरीक्षण करते हैं। इसमें समय बहुत लगता है. लेकिन ये सारी सावधानियाँ बहुत आवश्यक हैं।
अन्दर पहुँचने पर शावेज ने फिर सभा को सम्बोधित किया। न जाने इतनी ऊर्जा उसको कहाँ से मिलती है। तख्तापलट के दिन के बारे में विस्तार से बताते हुए उसने अपनी गिरफ्तारी की बात बतायी और कुछ ऐसे तथ्य बताये जो उस क्षण तक किसी को भी मालूम नहीं थे। बाद में उससे हाथ मिलाने और दो-चार बात करने के लिए लोगों ने उसे घेर लिया। लग रहा था जैसे सब रग्बी मैच खेलने के लिए जा रहे हों. लेकिन आखिर मुझे शावेज के पास जाकर अपना परिचय देने का मौका मिला। ‘‘मै लन्दन से ऐलन वुड्स हूँ, ‘रीजन इन रिवोल्टका लेखक’’ मैने कहा। मेरे बढ़ाये हुए हाथ को मजबूती से अपने हाथ में लेते हुए उसने कौतूहलपूर्ण नजरों से मुझे देखा और पूछा ‘‘कौन-सी किताब का नाम लिया आपने?’’ मैने दोहराया रीजन इन रिवोल्ट।’’
उसके चेहरे पर मुस्कुराहट खिल गयी और उसने कहा ‘‘वह तो अद्भुत किताब है! मैं आपको बधाई देता हूँ।’’ फिर अपने इर्द-गिर्द। के लोगों को देखते हुए उसने घोषणा की, ‘‘आप सबको यह किताब पढ़नी चाहिए।’’
कई लोग अभी उससे मिलने का इन्तजार कर रहे थे इसलिए और समय जाया किये बिना मैंने पूछ लिया कि क्या हम दुबारा मिल सकते हैं? बगल में खड़े एक नौजवान की ओर इशारा करते हुए उसने कहा, ‘‘ हमें जरूर मिलना चाहिए, आप मेरे सेक्रेटरी से बात कीजिये’’ सेक्रेटरी ने तुरन्त बताया कि वह मुझसे सम्पर्क में रहेगा।
मैं निकलने ही वाला था ताकि और लोग राष्ट्रपति से मिल सकें, तभी उसने मुझे रोक लिया। अब वह इर्द-गिर्द के माहौल से बेखबर लग रहा था और पूरे उत्साह से मुझे सम्बोधित करते हुए उसने कहा, ‘‘जानते हो, वह किताब मेरे बिस्तर के पास रखी हुई है और मैं उसे रोज रात को पढ़ता हूँ। मैं द मॉलिक्यूलर प्रोसेस ऑफ रेवोल्यूशनवाले चैप्टर तक पहुँचा हूँ, यानि जहाँ तुमने गिब्बस की ऊर्जा के बारे में लिखा है।’’ लगता है किताब के इस हिस्से से वह काफी प्रभावित है क्योंकि अपने हर भाषण में वह उसे उद्धृत करता रहता है। मिस्टर गिब्बस पहले कभी इतने मशहूर नहीं हुए होंगे।
लेकिन यह महज एक इत्तफाक नहीं हैं वेनेजुएला की क्रान्ति एक ऐसे नाजुक मोड़ पर पहुँच चुकी है जहाँ से आगे किसी न किसी तरह का निश्चित परिणाम आना चहिए। वह जिस चैप्टर का जिक्र कर रहा था वह केमेस्ट्रीके ऐसे ही एक निर्णायक बिन्दु की बात करता है, जहाँ ऊर्जा की एक निश्चित मात्रा, जिसे गिब्ब्स एनर्जी कहते हैं, गुणात्मक परिवर्तन लाने के लिए आवश्यक होती है। शावेज ने इस बात को समझ लिया है कि क्रान्ति को अब गुणात्मक छलांग लगाने की जरूरत है और इसी वजह से किताब के इस हिस्से ने उसका ध्यान आकर्षित कर लिया है.
अगले दिन मैं बहुत व्यस्त रहा। इस क्रान्ति की बुनियादी समस्याओं पर चल रही बहस में शिरकत करते हुए मैंने लगभग सौ लोगों की एक सभा में अपनी बात रखी। इसमें मैंने अल्पतन्त्र की सम्पत्ति को जब्त करने, लोगों को हथियारबन्द करने तथा मजदूरों के हाथों में नियन्त्रण और प्रबन्धन सौंपने की वकालत की। मैंने मजदूरों की सत्ता के लिये लेनिन द्वारा बतायी गयी चार आवश्यक शर्तों को उद्धृत किया। इसमें से अधिकारियों के वेतन को सीमित करने वाला हिस्सा लोगों के बीच खासा लोकप्रिय हो गया।
मेरी बात का जवाब कोलम्बिया के एक सांसद ने दिया। उसने पूर्णतया सुधारवादी अवस्थिति रखी। यह अतीत में गुरिल्ला लड़ाई में शामिल रहा है; ये सबसे उग्र सुधारवादी होते हैं. मैंने उसका दृढ़तापूर्वक जवाब दिया. जिसे सुनकर श्रोतागण काफी प्रफुल्लित हो उठे। मैंने टॉवनी के मशहूर कथन को उद्धृत किया कि ‘‘आप प्याज को परत दर परत छील सकते हैं मगर बाघ की चमड़ी नाखून दर नाखून नहीं उतार सकते।’’ अन्त में वह बेचारा काफी संभ्रमित-सा हो गया था।
शाम को पाकिस्तान से आये हुए मार्क्सवादी सांसद मंसूर अहमद मेरे साथ हो लिए। बेचारे मंसूर 33 घण्टे का थकाने वाला सफर तय करके अभी-अभी हवाई जहाज से उतरे थे। इसके बावजूद, जब उन्होंने मुख्य अधिवेशन में प्रेरणादायी भाषण दिया, जिसमें उन्होंने वेनेज्यूएला की क्रान्ति और पाकिस्तान की 1968-69 की क्रान्ति की तुलना की, तो वे काफी तरोताजा लग रहे थे।
जब मंसूर यह बाता रहे थे कि क्रान्ति को अन्त तक ले जाने में भुट्टो के असफल रहने पर क्या-क्या स्थितियाँ पैदा हुईं, तो मैं वहाँ इकट्ठा हुए लोगों के चेहरे देख रहा था। उनमें से ज्यादातर बोलिवेरियाई घेरे के मजदूर कार्यकर्ता थे। मंसूर की बातें सुनकर वे काफी खुश हो रहे थे और बीच-बीच में यह भी कह रहे थे ‘‘ठीक है, यही तो हम चाहते है! सही समय आ गया है। अब ये बातें नहीं कही जायेंगी तो कब कही जायेंगी। आखिर जब मंसूर ने यह निष्कर्ष निकालते हुए अपनी बात समाप्त की कि ‘‘आप आधी-अधूरी क्रान्ति नहीं कर सकते इसे अपने अंजाम तक पहुँचाना होगा’’ तो तालियों की गड़गड़ाहट के साथ लोगों ने इसका समर्थन किया। मंसूर एकमात्र व्यक्ति थे, जिनके सम्मान में उस शाम लोगों ने खडे़ होकर जयघोष किया।
मेरी दूसरी मुलाकातः
दूसरे दिन मैंने मुलाकात का समय तय करनेके लिए शावेज के सेक्रेटरी को फोन किया। जवाब उम्मीद बँधाने वाला नहीं था। ‘‘राष्ट्रपति बहुत व्यस्त हैं, बहुत से व्यक्ति उनसे मिलना चाहते हैं।’’
‘‘खैर मुझे ये स्पष्ट बता दें कि मुलाकात होगी या नहीं?’’
‘‘मुझे लगता है सम्भव नहीं हो पायेगा।’’
मतलब बहुत साफ था। इसके बाद मैं पुएर्टो ला क्रूज से आये हुए दो तेल मजदूर नेताओं के साथ बात करने के लिए उनके साथ खाना खाने चला गया।
खाने के बीच में फरनाण्डो बोसी ने होटल में प्रवेश किया और हमारी टेबल की ओर आया। उसे देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। वह अर्जेण्टीना का है और पूरे लातीन अमरीका में लोकप्रिय होती जा रही बोलिवेरियाई पीपुल्स कांग्रेस का अध्यक्ष है।
उसने मेरी तरफ देखकर कहा, ‘‘ ऐलन साढ़े पाँच बजे तक तैयार हो जाना। राष्ट्रपति तुमसे साढ़े छह बजे मिलेंगे।’’
मिराफ्रलोरेंस का राजमहल एक सुरुचिपूर्ण ढंग से बनी हुई नव-क्लासिकीय इमारत है, यह स्पेनी औपनिवेशिक काल की याद दिलाती है। बीच में एक बड़ा-सा आँगन है, जो स्तम्भों से घिरा हुआ है। यद्यपि, मीटिंग पहले साढ़े छह बजे तय हुई थी, फिर भी जब मुझे बुलावा आया, तब दस से भी ज्यादा बज चुके थे। मैं जब इन्तजार में वहाँ खड़ा था, तो मुझे झींगुरों की कर्कश ध्वनि को सुनना पड़ रहा था, जो स्पेन के झींगुरों की तुलना में ज्यादा कर्कश थी।
मुझे बताया गया था कि मैं 20 से 30 मिनट के साक्षात्कार की उम्मीद करूँ। मुझे भी यह पर्याप्त समय लग रहा था। मुझसे पहले जो आदमी राष्ट्रपति से मिलकर निकला, वह हाइन्ज डाइटरिक नाम का जर्मन था, जो अब मेक्सिको में रहता है और शावेज का पुराना मित्र रह चुका है। वह राष्ट्रपति के साथ 40 मिनट तक था और निकलते ही उसने मुझसे तहे दिल से मापफी माँगी कि मुझे इतनी देर तक इन्तजार करवाया। मैंने उसे बताया कि मुझे इससे कोई नाराजगी नहीं थी। उसके बाद मुझे और देर तक रुके रहना पड़ा और काफी समय बाद अन्दर बुलाया गया। मैं यह मानकर चल रहा था कि शावेज दिन-भर की गतिविधियों के बाद थके होंगे और आराम करना चाह रहे होंगे या फिर कुछ अल्पाहार ले रहे होंगे।
मेरे ये सारे अनुमान गलत निकले, मुझे बाद में पता चला कि ह्यूगो शावेज इतनी जल्दी थकने वाले आदमी नहीं हैं। वे रोज सुबह आठ बजे से पहले काम करना शुरू करते हैं और भोर में लगभग तीन बजे तक काम करते रहते हैं। उसके बाद वे पढ़ते हैं ;वे पढ़ने के अत्यन्त शौकीन हैं। पता नहीं वे सोते कब हैं? इसके बावजूद वे हमेशा ऊर्जा से ओतप्रोत और विभिन्न विषयों पर अथक बात करते हुए नजर आते हैं। उनकी इस आदत की वजह से उनके साथ काम करना कोई आसान बात नहीं है। उनके निजी सचिव ने मुझे बताया कि ‘‘मैं उनके लिये कुछ भी कर सकता हूँ. लेकिन मुझे एक मिनट की भी शान्ति नहीं मिल पाती। यहाँ तक कि कभी-कभी तो मैं पेशाब करने भी नहीं जा पाता। मैं जैसे ही उस दिशा में चलता हूँ कोई चिल्लाता है, ‘‘राष्ट्रपति आप को याद कर रहे हैं।’’
मुझसे इसलिए इन्तजार करवाया गया था क्योंकि राष्ट्रपति, ‘वेनेजुएला से दूर रहो’; हैन्ड्स ऑफ वेनेजुएला अभियान से सम्बन्धित सारी सामग्री पढ़ जाना चाहते थे। जब मैंने उनके ऑफिस में प्रवेश किया तब वे अपनी मेज पर बैठ्र हुए थे और उनके पीछे सिमोन बोलिवार की बड़ी सी तस्वीर टँगी हुई थी, मेज पर मुझे रीजन इन रिवोल्टकी एक प्रति और मेरे द्वारा उन्हें भेजा गया एक पत्र भी नजर आया। पत्र की बहुत-सी पंक्तियों को गहरी नीली स्याही से रेखांकित किया गया था।
शावेज ने गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया। यहाँ किसी तरह का ‘‘शिष्टाचार’’ नहीं था, सिर्फ एक खुलापन और साफगोई थी। उन्होंने बातचीत करते हुए वेल्स और मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में जानना चाहा; मैंने बताया कि मैं एक मजदूर वर्गीय परिवार से ताल्लुक रखता हूँ। इस पर उन्होंने बताया कि वे एक किसन परिवार से हैं। उन्हांेने मुझसे पूछा, ‘‘तब ऐलन तुम क्या सोचते हो? कुछ हम भी सुनें।’’ वास्तव में मैं तो उनकी बात सुनने में ज्यादा दिलचस्पी रखता था, जो ज्यादा रोचक होती।
पहले मैंने उन्हें दो किताबे उपहारस्वरूप दीं। मेरे द्वारा लिखा गया बोल्शेविक पार्टी का इतिहास, ‘‘ वोल्शेविज्म, द रोड टू रिवोल्यूशन’’ और ट्रेड ग्राण्ट की किताब, ‘‘रूस क्रान्ति से प्रतिक्रान्ति तक।’’ किताबें देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए। ‘‘मुझे किताबें बेहद पसन्द हैं’’ उन्होंने कहा। ‘‘अगर अच्छी किताबें है तो मुझे उनसे और ज्यादा लगाव होता है लेकिन अगर किताबें बुरी हैं तब भी मुझे उनसे लगाव तो होता ही है।’’
बोल्शेविज्म के बारे में लिखी गयी किताब खोलते हुए उन्होंने मेरे द्वारा लिखे गये समपर्णवाले हिस्से को पढ़ा। लिखा था, ‘‘ राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज को, मेरी हार्दिक शुभेच्छओं सहित। क्रान्ति का रास्ता-मार्क्सवादी धारणाओं, कार्यक्रमों तथा परम्पराओं से होकर गुजरता है। हम विजय की ओर अग्रसर हों।’’
उन्होंने कहा यह तो बहुत प्रशंसनीय समर्पण लिखा है तुमने। धन्यवाद, ऐलन।’’ वे किताब के पन्ने पलटने लगे और फिर रुके।
‘‘मैं देख रहा हूँ तुमने प्लेखानोव के बारे में लिखा है।’’
‘‘ठीक कह रहे हैं आप, मैंने कहा।
‘‘मैंने बहुत पहले प्लेखानोव द्वारा लिखी गयी एक किताब पढ़ी थी जिसका नाम था, ‘द रोल ऑफ दी इन्डीविज्युअल इन हिस्ट्री’; इतिहास में व्यक्ति की भूमिका। तुम जानते हो इस किताब के बारे में? मैं तो उससे बहुत प्रभावित हुआ था।’’
मैंने हामी भरी कि मैं भी उस किताब को जानता था।
‘‘इतिहास में व्यक्ति की भूमिका’’ उन्होंने उस पर सोचते हुए दोहराया। फिर बोले ‘‘खैर, यह बात तो मैं जानता हूँ कि हम में से कोई भी क्रान्ति के लिए अनिवार्य नहीं है। यानि हमारे बिना भी क्रान्ति होगी।’’
मैंने कहा, ‘‘यह पूर्ण रूप से सही नहीं है। इतिहास में कुछ ऐसे मोड आते हैं, जब कोई व्यक्ति भी बुनियादी फर्क डाल सकता है।’’
‘‘हाँ मुझे यह देखकर खुशी हुई कि रीजन इन रिवोल्टमें तुमने कहा है कि ‘‘मार्क्सवाद को महज आर्थिक कारकों तक सिकोड़कर नहीं रखा जा सकता।’’
मैंने कहा, ‘‘सही कह रहे हैं आप। ऐसा करना मार्क्सवाद का मजाक उड़ाने जैसा हो जायेगा।’’
उन्होंने पूछा, ‘‘जानते हो मैंने प्लेखानाव की यह किताब कब पढ़ी थी?’’
‘‘नहीं मैं नहीं जानता।’’
‘‘मैने वह किताब तब पढ़ी थी जब मैं सेना में गुरिल्ला विरोधी टुकड़ी में पहाड़ों में सेवारत अधिकारी था। जानते हो, वे हमें इस तरह की सामग्री इसलिए पढ़ाते थे, ताकि हम व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह समझ सकें। मैंने पढ़ा कि विद्रोही लोगों के बीच काम करते हैं, उनके अधिकारों की हिपफाजत करते हैं और उनके दिलो-दिमाग को जीत लेते हैं। मुझे यह बहुत बढ़िया बात लगी।’’
‘‘फिर मैंने प्लेखानोव की किताब पढ़ना शुरू किया और उसने मुझ पर गहरा प्रभाव डला। मुझे पहाड़ों में वह सुन्दर तारों भरी रात याद है, जब मैं अपने टेण्ट में एक मशाल की रोशनी में पढ़ रहा था। मैंने जो पढ़ा उससे मैं सोचने पर मजबूर हो गया और अपने आप से पूछने लगा कि आखिर मैं सेना में क्या कर रहा था। मैं बहुत दुखी हो गया।’’
‘‘जानते हो हाथ में रायफल लिये पहाड़ों में घूमना हमारे लिये कोई ऐसी समस्या नहीं थी। गुरिल्ला विद्रोहियों की भी कोई ऐसी समस्या नहीं थी, उन्हें भी हमारी तरह घूमना था। लेकिन जो सबसे ज्यादा झेलते थे, वे थे सामान्य किसान। वे बेबस थे और उन्हें बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ता था। मुझे याद है एक दिन हम एक गाँव में गये और हमने देखा कि कुछ सिपाही दो किसानों पर बहुत जुल्म कर रहे थें। मैंने उन्हें तुरन्त रुकने का आदेश दिया और बताया कि जब तक मैं कमाण्ड में हूँ, तब तक इस तरह की घटनाएँ दोहरायी नहीं जानी चाहिए।’’
‘‘खैर इससे मैं बहुत संकट में फँस गया। वे मुझ पर सैनिक आज्ञा भंग के आरोप में मुकदमा भी चलाना चाह रहे थे। उन्होंने आखिरी दो शब्दों पर ज्यादा जोर दिया. उसके बाद मैंने तय कर लिया कि मुझे सेना में नहीं रहना चाहिए। मैं उसे छोड़ना चाहता था. लेकिन एक पुराने कम्युनिस्ट ने मुझे यह कह कर रोका, सेना में रहकर तुम क्रान्ति को दस ट्रेड युनियन नेताओं ज्यादा फायदा पहुँचा सकते हो। इसलिए मैं सेना में बना रहा। आज मुझे लगता है कि मैंने ठीक किया।’’
‘‘तुम्हें पता है मैंने उन पहाड़ियों में एक सेना बनायी थी। वह पाँच लोगों की सेना थी. लेकिन उसका नाम काफी लम्बा-चौड़ा था। हम अपने को सीमोन बोलिवार राष्ट्रीय मुक्ति जन सेनाकहते थे। यह बताते हुए वे ठहाका लगाकर हँसे।’’
‘‘यह कब की बात थी?’’ मैंने पूछा।
‘‘यह 1974 की बात है। मैंने सोचा, यह सीमोन बोलिवार की धरती है। यहाँ उसकी रूह का कोई अंश तो जिन्दा होगा, शायद हमारे खून में। इसलिए हम उसे जिन्दा करने में लग गये।’’
मुझे इस बात की जानकारी नहीं थी कि वेनेजुएला की सेना में आज जो स्थिति बनी हुयी है वह दशकों तक धैर्यपूर्वक किये गये क्रान्तिकारी काम का नतीजा है लेकिन सच्चाई यही हैं शावेज ने अपनी बात जारी रखी मानों वे अपनी विचारों की श्रृंखला को ही अभिव्यक्त कर रहे हों।
‘‘दो साल पहले तख्ता पलट के समय, जब मुझे गिरफ्रतार किया गया था और पकड़ कर ले जाया जा रहा था, तब मुझे लगा कि अब मुझे गोली मारकर उड़ा दिया जायेगा। मैंने अपने आप से पूछा कि क्या मेरे जीवन के पिछले 25 साल यूँ ही बरबाद हो गये? क्या हमने जो भी किया उसका कोई मूल्य नहीं? लेकिन वह सब व्यर्थ नहीं था जैसा कि पैराट्रूपर रेजीमेण्ट के विद्रोह ने साबित कर दिया।’’
शावेज तख्तापलट के बारे में बताते हैः
शावेज ने काफी विस्तार से तख्ता पलट के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि कैसे उन्हें एकान्तवास में रखा गया था। तख्तापलट कराने वाले यह चाहते थे कि उन पर दबाव डालकर उनसे इस्तीफे के कागजात पर दस्तखत करा लें। उसके बाद वे उन्हें छोड़ देते और क्यूबा या ऐसे ही कहीं निष्काषित करते। वे वही करना चाहते थे, जो उन्होंने हाल में हैती में एरिस्टाइड के साथ किया था. शावेज को भी वे शारीरिक रूप से नहीं मारते. बल्कि वे उनके समर्थकों की निगाह में उन्हें गिराकर उन्हें नैतिक रूप से खत्म कर डालना चाहते थे। लेकिन उन्होंने कागजात पर हस्ताक्षर करने से ही इनकार कर दिया।
षडयन्त्रकारियों ने उनसे इस्तीफा लेने के लिये हर तरह के दाँव-पेंच इस्तमाल किये। यहाँ तक कि उन्होंने चर्च का भी इस्तेमाल किया; इसके बारे में शावेज बहुत कटु भाषा मे बताते हैं - ‘‘हाँ, उन्होंने मुझे समझाने के लिए कार्डिनल पुजारी तक को भेजा। उसने भी झूठ-फरेब से मेरा मनोबल तोड़ना चाहा। मुझे बताया गया कि मेरे समर्थन में अब कोई नहीं था, सबने मेरा साथ छोड़ दिया था, यहाँ तक कि सेना भी अब तख्तापलट करवाने वाली ताकतों के ही साथ है। मैं बाहरी दुनिया से पूरी तरह कटा हुआ था और मेरे पास कोई सूचना नहीं पहुँच रही थी। उसके बावजूद मैंने हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया।’’
‘‘मुझे बन्दी बनाने वाले लोगों की हालत खराब हो रही थी। उन्हें वाशिंगटन से फोन पर फोन किये जा रहे थे और उनसे यह पूछा जा रहाथा कि आखिर मेरे द्वारा हस्ताक्षर किया गया इस्तीफा कहाँ है? जब उन्होंने देखा कि मैं मानने वाला नहीं हूँ तब वे और हताश हो गये। कार्डिनल मुझे पर यह कहकर दबाव डालने लगा कि देश को गृहयुद्ध (और खूनखराबे से बचाने के लिए आपको इस्तीफा दे देना चाहिए। लेकिन तभी मैने देखा कि उसके बातचीत के लहजे में अचानक परिवर्तन आ गया था। वह कुछ शिष्ट और समझौतावादी भाषा बोलने लगा था। मुझे सन्देह हुआ कि इनके इस बदले हुए रवैये का जरूर कोई कारण होगा। कुछ तो जरूर हुआ होगा।’’
‘‘इतने में फोन की घण्टी बजी। मुझे बन्दी बनाने वालों में से एक ने कहा, ‘रक्षा मन्त्री बात कर रहे हैं और वे आपसे बात करना चाहते हैं।मैंने उसे बताया कि मैं किसी मन्त्री-सन्त्री से बात नहीं करूँगा। फिर उसने कहाः लेकिन यह तो आपके रक्षा मन्त्री बात कर रहे हैं।इतना सुनते ही मैंने लपक कर उसके हाथ से फोन छीना और तब मुझे ऐसी आवाज सुनायी दी, जो सूरज की तरह दमक रही थी। पता नहीं मेरी उपमा सही है या नहीं. लेकिन मुझे तो उस समय वह ऐसी ही सुनाई दी।’’
इस संवाद से मुझे शावेज के इन्सानी पक्ष के बारे में एक धारणा बनाने में मदद मिली। उनके बारे में सबसे प्रथम जो बात प्रभवित करती है वह है उनकी पारदर्शी ईमानदारी। उनकी संजीदगी बिल्कुल स्पष्ट दिखायी देती है और क्रान्ति के उद्देश्य के प्रति उनका समर्पण तथा अन्याय और उत्पीड़न के प्रति नफरत भी। बेशक ये गुण अपने आप में क्रान्ति की जीत की गारण्टी देने के लिए पर्याप्त नहीं हैं लेकिन लोगों के बीच उनकी लोकप्रियता में निश्चित रूप से इनकी भूमिका है।
उनहोंने मुझसे पूछा कि वेनेज्यूएला के आन्दोलन के बारे में मैं क्या सोचता हूँ? मैंने बताया कि मैं काफी प्रभावित था क्योंकि यह स्पष्ट था कि इस आन्दोलन की मुख्य संचालक शक्ति जनता ही थी और क्रान्ति को अपनी अन्तिम मंजिल तक पहुँचाने के लिये सारी आवश्यक शर्तें मौजूद थीं। बस एक चीज की कमी थी। उन्होंने पूछा कौन-सी चीज? मैंने बताया कि आन्दोलन की कमजोरी यह थी कि न तो उसकी कोई सुस्पष्ट रूप से परिभाषित विचारधारा थी और न ही कार्यकर्ता। मेरी इस बात पर उन्होंने सहमति जतायी।
उन्होंने कहा ‘‘जानते हो, मैं अपने आप को मार्क्सवादी इसलिये नहीं मानता क्योंकि मैंने पर्याप्त मार्क्सवादी किताबें नहीं पढ़ी हैं।’’
इस बातचीत से मुझे ऐसा महसूस हुआ कि ह्यूगो शावेज एक नये विचार की खोज में थे और मार्क्सवादी विचारों में उनकी गहरी और सच्ची रुचि थी। वे सीखने के लिए उत्सुक थे। वेनेजुएला का क्रान्तिकारी आन्दोलन जिस मंजिल तक पहुँच चुका है उसी से इस बेचैनी का सम्बन्ध है। ज्यादातर लोग जितना सोचते हैं, उसके पहले ही इस आन्दोलन को एक बहुत कठोर चुनाव करना पड़ेगा, या तो उसे अल्पतन्त्र की आर्थिक शक्ति को समाप्त करना होगा या फिर जल्दी ही अपनी हार का सामना करना पड़ेगा।
सम्भावना यह है कि घटनाक्रम खुद ही शावेज को वाम की ओर तीव्र मोड़ लेने की जरूरत का एहसास करायेगा। हाल ही में अपने एक भाषण में उन्होंने लोगों को हथियारबन्द करने का आह्वान किया। वे विपक्ष द्वारा की जा रही संसद के भीतर और बाहर होने वाली तोड़-फोड़ और भड़काऊ कार्रवाइयों से जाहिरा तौर पर काफी खिन्न हो चुके हैं। न्ययाधीशों, विपक्षी सांसदों, महानगरीय पुलिस और पेट्रोलियम कम्पनी पी.डी.वी.एस.ए. के नौकरशाहों द्वारा इस्तेमाल किये जा रहे तोड़-फोड़ के तरीकों की उन्होंने सूची बनायी है. इन बाधाओं को हटाये बिना क्रान्तिकारी आन्दोलन का आगे बढ़ना नामुमकिन है। इन बाधाओं को हटाने के लिये जन आन्दोलन को गोलबन्द, संगठित और हथियारबन्द करना होगा।
आन्दोलन की नेतृत्वकारी कतारों में इस बात को लेकर प्रतिरोध है। निचली कतारों में सुधारवादी और समाजिक-जनवादी तत्व या तो कमजोर हैं या उनका अस्तित्व नहीं के बराबर है लेकिन शीर्ष पर उनकी ताकत ज्यादा है। शावेज की समर्थक कतारों में इस बात को लेकर तीव्र असन्तोष है। प्रतिक्रान्ति के खिलाफ निर्णायक कदम न उठाए जाने की वजह से उनकी हताशा बढ़ रही है।
इन परिस्थितियों में मार्क्सवादी विचारों की, जिसका प्रतिनिधित्व क्रान्तिकारी मार्क्सवादी धारा एल मिलिटान्टटोपो आब्रेरो द्वारा किया जा रहा है, शक्तिशाली गूंज सुनाई दे रही है।
वेनेजुएला से दूर रहोअभियानः
हमारी बातचीत इसके बाद हमारे अन्तरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने के वेनेज्यूएला से दूर रहोअभियान की ओर मुड़ी। राष्ट्रपति शावेज ने इसमें गहरी दिलचस्पी दिखायी। उन्होंने मुझसे इस अन्तरराष्ट्रीय समूह के बारे में मेरी राय पूछी। मैंने बताया कि विचार तो बढ़िया है लेकिन इसकी कई कमजोरियाँ भी हैं। यूरोप से आये हुये लगभग सभी प्रतिनिधि महज व्यक्तिगत हैसियत से इसमें शामिल हुए थे। ज्यादातर शिक्षाविद या बुद्धिजीवी थे और वे और किसी का नहीं सिर्फ अपना प्रतिनिधित्व कर रहे थे। शावेज की प्रतिक्रिया से लगा कि वे इस बात से वाकिफ थे।
मैंने कहा ‘‘ऐसे लोग क्या कर सकते हैं? वे घर जाकर एक सेमिनार का आयोजन करेंगे, जिसमें बोलिवेरियाई क्रान्ति कितनी अद्भुत है - इसका बखान करेंगे। ऐसे समर्थन से आपको ज्यादा लाभ नहीं मिलेगा। क्रान्ति के लिए ज्यादा जरूरी है कि पूरे अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक आन्दोलन के भीतर एक गम्भीर प्रचार आन्दोलन चलाया जाये।’’
‘‘लेकिन बुद्धिजीवी भी तो कुछ कर सकते हैं। वे हमारे लिए प्रचार कर सकते हैं।’’
‘‘मैं सहमत हूँ आपसे। बुद्धिजीवियों को आन्दोलन से बाहर रखने की बात तो मैं नहीं करता लेकिन मजदूर वर्ग और अन्तरराष्ट्रीय मजदूर आन्दोलन को वेनेजुएला की क्रान्ति के समर्थन का मुख्य आधार बनना चाहिये।’’
मेरी इस बात से राष्ट्रपति पूरी तरह सहमत थे। उसके बाद वे वेनेजुएला से दूर रहोअभियान के समथर्कों के हस्ताक्षरों की 16 पन्नों की सूची को ध्यान से पढ़ने लगे। जैसे-जैसे वे नाम पढ़ते गये, उनके चेहरे के भाव बदलते गये।
वे अपने सेक्रेट्ररी से बोले, ‘‘देखो मैं नहीं कह रहा था? ये सिर्फ व्यक्ति नहीं है। इस सूची में दुकानों के प्रबन्धकों, ट्रेड यूनियन सचिवों और मजदूर नेताओं के नाम भी हैं। इन्हीं की तो हमें जरूरत है। ‘‘फिर वे एक क्षण के लिए रुके।
‘‘देखो कुछ ने तो सन्देश भी लिखे हैं। एक यही ले लो। ऐलन, ‘राबोचाया डेमोक्रटियाका मतलब क्या होता है?’’
‘‘यह रूसी भाषा का शब्द है जिसका मतलब है मजदूरों का जनतन्त्रमैंने बताया।
फिर शावेज ने सन्देश को स्पेनिश भाषा में अनूदित किया। सन्देश इस प्रकार था,
वेनेजुएला के श्रमिक पुरुषों और महिलाओं के लिये,
साथियों!
ऐसे समय में जब अमरीकी साम्राज्यवाद के खूंखार पंजे वेनेजुएला के भीतर की प्रतिक्रियावादी ताकतों के साथ साँठ-गाँठ करके बोलिवेरियाई गणतन्त्र की ओर बढ़ रहे हैं, इस देश की सम्पदा-तेल का निजीकरण करने का प्रयास कर रहे हैं और वेनेजुएला के मजदूरों और किसानों को और ज्यादा तंगहाली की स्थिति में धकेलते जा रहे हैं हम रूसी सोवियत मार्क्सवादी प्रतिक्रियावादी ताकतों के खिलाफ लड़े जा रहे वेनेजुएला के मजदूरों के वर्ग-संघर्ष के साथ अपनी पूरी एकजुटता का इजहार करते हैं।
1917 की रूसी क्रान्ति का सफल अनुभव यह बताता है कि साम्राज्यवादियों के मंसूबों को पराजित करना हो, तो यह सिर्फ मजदूरों की परिषदों; सोवियतों और मजदूरों की एक सेना का गठन करके तथा मजदूरों के नियन्त्रण में उद्योगों का राष्ट्रीयकरण करके ही सम्भव हो सकता है।
वेनेजुएला में अगर क्रान्ति कामयाब हो जाती है और मजदूरों के राष्ट्र की बुनियाद पड़ जाती है तो यह न सिर्फ लातिन अमरीका बल्कि पूरी दुनिया के मजदूरों और गरीबों के लिए एक आशा का स्रोत बन जायेगा।
दुनिया के मजदूरों एक हो!
‘‘यह वास्तव में बहुत ही शानदार सन्देश है’’ शावेज ने भावुक होकर कहा। ‘‘मुझे लगता है कि इन्हें पत्र लिखकर धन्यवाद देना चाहिए। मुझे उन सबको पत्र लिखना चाहिए। ये कैसे सम्भव होगा?’’
‘‘आप हमारी वेबसाइट पर सन्देश भेज सकते हैं’’, मैंने सुझाव दिया।
‘‘मैं यही करूँगा,’’ उन्होंने जोश के साथ कहा।
राष्ट्रपति ने अपनी घड़ी की ओर देखा, तो ग्यारह बज रहे थे।
‘‘अगर मैं बस कुछ क्षणों के लिए टी.वी. चला दँू तो आप बुरा तो नहीं मानेंगे? हम लोग एक नया समाचारों का कार्यक्रम शुरू कर रहे हैं और मैं देखना चाहता हूँ कि वह कैसा बना है?’’
हम लोगों ने लगभग पाँच मिनट के लिये समाचार देखा. यह कार्यक्रम ईराक के बारे में था। ‘‘तो ऐलन, कैसा लगा तुम्हें कार्यक्रम?’’
‘‘बुरा नहीं है।’’
‘‘हम लोग एक नयी दूरदर्शन सेवा स्थापित करने के बारे में सोच रहे हैं, जिसके द्वारा पूरे लातीन अमरीका में कार्यक्रमों का प्रसारण होगा।’’
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि ह्यूगो शावेज ने अमरीकी साम्राज्यवादियों की नींद हराम की हुई है।
जार्ज डब्ल्यू बुश के बारे में बोलते हुए शावेज ने गहरे तिरस्कार के साथ अपनी बात कही ‘‘व्यक्तिगत तौर पर वह कायर है। उसने ऑगेनाइजेशन ऑफ अमरीकन स्टेट्स की सभा में फिदेल कास्त्रो की गैरहाजिरी में, फिदेल के विरोध में आक्रामक ढंग से बात रखी। अगर फिदेल मौजूद रहते, तो उसकी इतनी हिम्मत नहीं होती। लोग तो यह भी कहते हैं कि वह मुझसे मिलने से डरता है और मुझे यह सच भी लगता है। वह मुझसे बचने की कोशिश करता है. लेकिन ओ.ए.एस. की एक शिखर वार्ता में हम लोग साथ थे और वह मेरे काफी करीब बैठा था।’’ शावेज ने मजा लेते हुए बताया।
वे आगे बताते गए ‘‘मैं एक घूमने वाली कुर्सी पर बुश की ओर पीठ किये बैठा था। फिर थोड़ी देर बाद मैंने अचानक कुर्सी घुमायी, इस तरह हम अब आमने-सामने थे। मैंने कहा हैलो, मिस्टर प्रेसीडेण्ट!’’ उसके चेहरे की हवाइयाँ उड़ गयीं। उसका चेहरा पहले लाल, फिर जामुनी और फिर नीला पड़ गया। कोई भी देखकर यह बता सकता है कि यह आदमी कुण्ठाओं का एक पुंज मात्र है। ऐसे आदमी के हाथ में सत्ता हो, तो वह और ज्यादा खतरनाक हो जाता है।’’
हमारी मुलाकत के अन्त में ह्यूगो शावेज ने हमारे वेनेजुएला से दूर रहोअभियान को अपना दृढ़ समर्थन जताया। उन्होंने मेरी किताब रीजन इन रिवोल्टका वेनेजुएलाई संसकरण प्रकाशित करने के लिये अपना व्यक्तिगत समर्थन दिया और भविष्य में अन्य किताबों के प्रकाशन में भी सहयोग करने की सम्भावना जतायी। हम लोगों ने बहुत दोस्ताना माहौल में एक-दूसरे से विदा ली। मेरे अनुमान से तब 11.30 बज चुके थे. लेकिन जब मैं निकलने ही वाला था, उन्होंने मुझ से जानना चाहा कि पाकिस्तान के मार्क्सवादी सांसद मंसूद अहमद आये हैं या नहीं।
मैंने बताया कि वे कल ही पहुँच चुके थे। शावेज ने पूछा ‘‘लेकिन फिर वे मुझसे मिलने क्यों नहीं आये।’’ मैंने कहा, ‘‘शायद इसलिये कि उन्हें निमन्त्रण नहीं मिला है।’’
राष्ट्रपति का चेहरा एक क्षण के लिए उदास हो गया. लेकिन फिर उन्होंने मुझसे कहा, ‘‘खैर आप मंसूर को मेरी तरफ से यह कहिए कि उन्हें मुझसे मिले बिना वेनेजुएला से चले जाने के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए। मेरी एपॉइन्टमेन्ट बुक कहाँ है? शावेज अधीरता से मिलने का समय नोट करने वाली डायरी के पन्ना पलटने लगे। मीटिंग के बाद मीटिंगों का ऐसा क्रम तय किया गया था कि उनके पास खाली समय नहीं था। वे क्षण भर के लिये सोच में पड़ गये. लेकिन फिर कुछ सोचकर मुस्कुराये और मुझसे कहा, ‘‘खैर हम लोगों को कल रात के खाने के बाद मिलना पड़ेगा। आप दोनों रहेंगे ना? ठीक है। तब कल रात दस बजे मिलते है।
तत्काल तैयार किया गया भाषणः
अगली शाम विदेशी प्रतिनिधि फिर एक बार राष्ट्रपति के महल के एक सभागार में एकत्रित हुए। लगभग 200 लोग फिर मौजूद थे। दूरदर्शन के कैमरे भी लगे हुए थे। मैं थोड़ी देर से पहुँचा था और भीड़ भरे सभागार में पीछे की ओर बैठा था। कुछ ही मिनट बाद राष्ट्रपति के कार्यालय से एक व्यक्ति मेरी तरफ आया और उसने मेरा कंधा छूकर मुझसे कहा, ‘‘मिस्टर वुड्स पाँच मिनट के अन्दर आप भाषण देने के लिए तैयार हो जाइए।’’
मैं इसके लिये कतई तैयार नहीं था. फिर भी मैं टेलीविजन कैमरे के ठीक सामने रखे हुए माइक तक जा पहुँचा। बगल में मेज लगाकर राष्ट्रपति भी बैठे थे। मैंने दुनिया भर में बढ़ते जा रहे पूँजी के संकट के बारे में बात रखी। मैंने यह समझाने का प्रयास किया कि जो भी युद्ध, आर्थिक संकट, आतंकवाद इत्यादि की घटनाएँ कहीं भी दिखायी दे रही थीं, वे सब पूँजीवाद के अपने स्वभावगत संकट की अलग-अलग अभिव्यक्तियाँ थीं। मैंने यह भी बताया कि मानवता की इन समस्त समस्याओं को हल करने का एकमात्र रास्ता था, पूँजीवाद का खात्मा और दुनिया भर में समाजवाद की स्थापना। मैंने समझाया कि बोलिवार के मरने के बाद 200 सालों की कालावधि में लातिन अमरीका के पूँजीपतियों ने ऐसी जमीन को जो धरती पर स्वर्ग बन सकती थी, करोड़ों लोगों के लिये जीते-जागते नर्क में तब्दील कर दिया है।
निष्कर्ष के तौर पर मैंने बताया कि उत्पादक शक्तियों की विराट सम्भावनाएँ सिर्फ इसलिये बबार्द हो रहीं हैं क्योंकि मानव विकास के रास्ते में दो बड़ी बाधाएँ खड़ी हैं, उत्पादन के साधनों पर निजी मालिकाना और ‘‘बर्बरता का वह अवशेष यानि राष्ट्र-राज्य।’’ मैंने लोगों का ध्यान विज्ञान और तकनीक द्वारा की गयी उन विशालतम उपलब्धियों की ओर आकर्षित किया, जो अपने आप में इस पृथ्वी के ज्यादातर लोगों की जिन्दगी को बदलकर रख देने के लिये पर्याप्त हैं।
अपनी बात को यहाँ तक पहुँचा कर मैंने कहा, ‘‘सुना है कि अब अमरीकी, आदमी को मंगल ग्रह पर भेजने की तैयारी कर रहे हैं। मेरा मानना है कि हमें इस प्रस्ताव का समर्थन करना चाहिए बशर्ते कि, भेजे जाने वाले का नाम, जार्ज डब्ल्यु बुश हो और उसे सिर्फ वहाँ जाने के लिये एकतरफा टिकट दिया जाये।
इस बात पर पूरा हॉल हँसी से गूँजने लगा और इस सारे शोर-शराबे के ऊपर शावेज की आवाज यह कहते हुए सुनायी दी, ‘‘और अजनार उसे क्यों भूल रहे हो?’’
लेकिन मैंने कहा ‘‘मिस्टर प्रेसिडेन्ट, हम मरे हुए लोगों की बुराई न करें!’’ उस शाम जितने भाषण हुए उनमें से सिर्फ मेरा भाषण राजनीतिक था और उसे लोगों ने अच्छी तरह से लिया।
हमेशा की तरह शावेज सबसे अन्त में बोले और काफी देर तक बोले. अपने भाषण के दौरान उन्होंने कई मौकों पर मेरे भाषण का हवाला दिया। थोड़ी-थोड़ी देर के अन्तराल पर प्रबन्धकों की ओर से कोई याद दिलाने आता था कि देर करने की वजह से खाना बर्बाद हो रहा है। लेकिन उन्हें कोई रोक नहीं सकता था। बेचारे सन्देशवाहक की ओर देखकर वे कहते थे, ‘‘क्या! तुम फिर आ गये!’’ और फिर धाराप्रवाह बोलने लगते थे, मानों कुछ भी न हुआ हो। वेनेजुएला के सभी लोगों की तरह शावेज भी विनोदशीलता के धनी हैं। जब वे काफी देर तक बोल चुके, तब उन्होंने अचानक आवाज लगायी, ‘‘ऐलन क्या तुम अभी यहीं हो? ’’
‘‘हाँ मैं अभी यहीं हूँ।’’
‘‘क्या तुम सो रहे हो?’’
‘‘नहीं मैं पूरी तरह से जाग रहा हूँ।’’
थोड़ी देर रुककर ‘‘ये गिब्ब्स कौन थे?’’
‘‘ये एक वैज्ञानिक थे।’’
‘‘अच्छा, वे वैज्ञानिक थे।’’ और इतना कहकर उन्होंने फिर अपनी बात जारी रखी।
बीच में ही उनके इस सवाल की वजह से और गिब्ब्स का उनके द्वारा हिब्ब्स जैसा उच्चारण करने के चलते लोगों में एक रहस्य जैसा बन गया और मुझे लोगों को उसका सही उच्चारण बताने और गिब्ब्स कौन थे - यह समझाने के लिये खासा समय देना पड़ा।
आखिर जब हम खाना खाने बैठे तो आधी रात हो चुकी थी। मैं अपने दोस्त और कामरेड मंसूर के साथ था और इस बात से नाखुश था कि हमारे खाने की व्यवस्था अलग-अलग मेजों पर की गयी थी, भले ही वे पास-पास थीं। मैंने शिष्टाचार विभाग से एक महिला को बुला कर बताया कि मैं अपनी जगह बदलकर मंसूर के साथ बैठना चाहता हूँ क्योंकि वह स्पेनिश भाषा नहीं जानने की वजह से अकेलापन महसूस करेंगे। इस पर उसने कहा, ‘‘कोई बात नहीं, हम उनके लिये एक दुभाषिये का इन्तजाम कर देंगे। ‘‘मैंने अपनी असहमति जतायी और अपने दोस्त की बगल में बैठने लगा।
मैं अभी बैठा भी नहीं था कि एक सख्त चेहरे वाली महिला, जो शायद शिष्टाचार विभाग, जिससे सब डरते थे, की मुखिया थी - मेरी तरफ आयी और कोई बहस नहींवाले अन्दाज में उसने मुझे रोका ‘‘मिस्टर वुड्स!’’ एक आखिरी नाकामयाब अपील के बाद मैंने अपने भाग्य को स्वीकार कर लिया और कसाईघर में जा रहे बकरे की तरह चुपचाप उसके पीछे चल पड़ा. अपनी मेज पर पहुँचकर मैं चुपचाप अपने पास बैठे मेहमानों की ओर देखने लगा। मुझे यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि मेज पर बैठे मेहमानों के बीच राष्ट्रपति शावेज और उनकी युवा बेटी भी थी। संगीतज्ञों का एक समूह गिटार, हार्प और अन्य पारम्परिक वाद्यों पर वेनेजुएलाई संगीत बजाकर हमारा मनोरंजन कर रहा था। शावेज मुझे इशारा करके यह नजारा दिखा रहे थे और खुद भी काफी मजा ले रहे थे।
खाना खत्म होते-होते लगभग डेढ़ बज गया। लेकिन शावेज के लिए ये देर नहीं थी और अभी मंसूर के साथ उनकी मुलाकात बाकी थी और दो बजे से थोड़ा पहले हमें एक बड़े से कमरे में ले जाया गया, जो हमेशा की तरह बोलिवार की बड़ी-बड़ी तस्वीरों से सजाया गया था. शावेज और उनके सेक्रेट्ररी के अलावा विदेशी मामलों के मन्त्री भी वहाँ मौजूद थे - जो इस साक्षात्कार को दिये जा रहे महत्व के द्योतक थे। पहली बार मुझे लगा जैसे राष्ट्रपति कुछ थके हुए नजर आ रहे थे। लेकिन इसके बावजूद उन्होंने मंसूर से पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बारे में विस्तृत सवाल पूछे।
हम जिस दुनिया में रहते हैं, उसके बारे में और जानकारी हासिल करने की उनकी अमिट इच्छा को कुछ भी प्रभावित नहीं कर सकता था। लेकिन दूसरी ओर उनके सेक्रेट्ररी और मन्त्री नींद से बेहाल हुए जा रहे थे।
मंसूर ने उन्हें, सिन्ध की कढ़ाई की हुई पारम्परिक शाल तथा पाकिस्तान के धातु मजदूरों की ओर से तोहफे के रूप में भेजे गये कुछ नक्काशीदार फूलदान भेंट किये। उन्होंने उन फूलदानों को कमरे में ऐसी जगह पर सजाया, जहाँ से वे सबको नजर आते और शाल ओढ़कर फोटो खिंचवाया। शावेज के लिए ऐसी बातों का महत्व कम नहीं है। अगले दिन रेडियो पर उन्होंने मंसूर के साथ हुई इस मुलाकात का विस्तार से वर्णन किया. इस आदमी के लिये समर्थन में की गयी हर अन्तरराष्ट्रीय कार्रवाई बहुत महत्वपूर्ण और मूल्यवान है।
कुछ आखिरी शब्दः
मैं और क्या कह सकता हूँ? मैं आम तौर पर व्यक्तियों के बारे में इतने विस्तार से नहीं लिखता और मैं इस बात के बारे में भी सचेत हूँ कि कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि मेरे मार्क्सवादी साहित्य में इस तरह के लेखन के लिए कोई जगह नहीं। लेकिन मैं सोचता हूँ कि वे लोग गलत सोचते हैं या कम से कम उनकी सोच एकांगी है। मार्क्स कहते हैं कि स्त्री-पुरुष मिलकर इतिहास रचते हैं और इतिहास रचने में जिसकी भूमिका होती है ऐसे व्यक्तियों के बारे में अध्ययन सिर्फ साहित्य का ही नहीं मार्क्सवादी साहित्य का भी वैध हिस्सा है।
व्यक्तिगत तौर पर मुझे मनोविज्ञान में कभी रुचि नहीं रही, अगर उसकी बहुत व्यापक परिभाषा छोड़ दी जाए तो। अक्सर, दूसरे दर्जे के लेखक इतिहास के बारे में अपने वास्तविक ज्ञान की कमी छुपाने के लिए कुछ मशहूर हस्तियों के मन की गहराइयों में उतरने का दावा करते हैं। उदाहरण के लिये वे बताते हैं कि स्तालिन और हिटलर दोनों का बचपन बहुत दुख भरा था। वे इस तथ्य को उस कारण के बतौर पेश करना चाहते हैं, जिसके चलते बाद में ये दोनों व्यक्ति बेरहम तानाशाह बने, जिन्होंने करोड़ो लोगों को आतंकित किया। लेकिन वास्तव में ऐसे तर्कों का कोई मतलब नहीं है। बहुत सारे लोगों के बचपन बहुत दुख और कष्ट में बीतते हैं. लेकिन ये सारे लोग स्तालिन या हिटलर नहीं बनते। ऐसी परिघटनाओं को समझाने के लिए हमें पहले वर्गों के आपसी सम्बन्धों तथा उन्हें पैदा करने वाली वस्तुगत सामाजिक-आर्थिक प्रक्रियाओं को समझना पड़ेगा।
बहरहाल, एक हद तक किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व भी इतिहास की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। मेरे लिये जो रुचि का विषय है, वह है व्यक्ति और पदार्थ के बीच का द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध या जैसे हीगेल इसे कहते हैं, विशिष्ट और सार्वभौम के बीच का अन्तर्सम्बन्ध। ह्यूगो शावेज और वेनेजुएला की क्रान्ति के बीच क्या रिश्ता है, इस पर अगर कोई किताब लिखी जाये, तो यह अपने आप में एक बहुत ही शिक्षाप्रद अनुभव होगा। इनके बीच रिश्ता है, इसमें तो कोई शक नहीं है। लेकिन यह रिश्ता सकारात्मक है या नकारात्मक, यह इस पर निर्भर करेगा कि हम किस वर्ग-दृष्टिकोण की हिमायत करते हैं।
अगर हम आम जनता, गरीब और पददलित लोगों की नजर से देखें, तो शावेज वह व्यक्ति है जिसने उन्हें अपने पैरों पर खड़ा किया, जिन्हे अपने व्यक्तिगत साहस से उन्हें भी बेमिसाल साहसपूर्ण कार्य करने के लिये प्रेरित किया। लेकिन वेनेजुएला की क्रान्ति की कहानी अभी अधूरी है। उसके कई तरह के अन्त हो सकते हैं, जिनके बारे में सोच कर सुखद अनुभूति तो नहीं होती। जनता अभी सीख रही है, बोलिवेरियाई आन्दोलन अभी विकसित हो रहा है। वर्गों के भयंकर ध्रुवीकरण का अन्त ऐसे खुले संघर्ष में होगा कि सभी पार्टियों, प्रवृत्तियों, कार्यक्रमों और व्यक्तियों का उसमें परीक्षण होगा।
ह्यूगो शावेज के साथ मेरे सीमित सम्पर्क के आधार पर ही मुझे उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी, साहस और दलित-शोषित जनता के उद्देश्य के प्रति उनके समर्पण के बारे में पक्का भरोसा हो गया है। हमारी मुलाकात के पहले भी मैं ऐसा ही सोचता था और अब मैंने प्रत्यक्ष रूप से जो भी देखा और सुना है, वह मेरे इस विश्वास को और भी मजबूती प्रदान करता है। लेकिन जैसा कि मैंने पहले भी कई बार कहा है, व्यक्तिगत ईमानदारी और साहस अपने आप में किसी क्रान्ति की जीत की गारण्टी नहीं बन सकते।
फिर क्या जरूरी है? स्पष्ट विचार, एक वैज्ञानिक समझदारी, एक सच्चा क्रान्तिकारी कार्यक्रम, नीतियाँ और परिप्रेक्ष्य, ये सारी चीजें जरूरी हैं।
बोलिवेरियाई क्रान्ति का भविष्य जमीन से उठ रहे जनान्दोलन पर टिका है। मजदूरों की अगुवाई में चल रहे इस जनान्दोलन को अपने हाथ में ताकत केन्द्रित करनी होगी। इसके लिये जरूरी है कि आन्दोलन के सबसे सुसंगत क्रान्तिकारी तबके यानि क्रान्तिकारी मार्क्सवादी धारा को तेजी के साथ विकसित किया जाये।
मेरा यह मानना है कि बोलिवेरियाई आन्दोलन में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है जो मार्क्सवादी विचारों की तलाश में हैं। मुझे यकीन है कि इसके कई नेताओं और पर भी यह लागू होता है। और ह्यूगो शावेज? उन्होंने मुझे बताया कि वे इसलिये मार्क्सवादी नहीं हैं क्योंकि उन्होंने पर्याप्त मार्क्सवादी साहित्य नहीं पढ़ा है। लेकिन वे अब मार्क्सवादी किताबें पढ़ रहे हैं। फिर सामान्य जीवन जीते हुए जो बातें लोग 20 सालों में नहीं सीखते उससे ज्यादा बातें वे क्रान्ति के दौरान 24 घण्टे में सीख जाते हैं। अन्ततः वेनेज्यूएला के समाज के सारे बेहतरीन तत्वों को मार्क्सवाद अपनी ओर आकर्षित करेगा और उन्हें लड़ने वाली एक अजेय ताकत के रूप में एकजुट करेगा। इसी रास्ते पर चलकर ही जीत हासिल हो सकती है।


इतिहास बना गया लातिन में चमका लाल सितारा (विशेष लेख) - अमरपाल
ह्यूगो शावेज का सामना न कर सका अमेरिका
अमेरिकी साम्राज्वाद के विरोध प्रतीक के रूप में स्थापित हो चुके 58 वर्षीय वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज के निधन से पूरी दुनिया के इंसाफ-पसंद लोग आहत हैं. भूमंडलीकरण और बाजार प्रभावी अर्थव्यवस्था के दौर में वेनेजुएला दुनिया के कुछेक देशों में है, जहां की आर्थिकी की प्राथमिकता में समाज के आखिरी पायदान के लोग हैं. ह्यूगो शावेज ने अपने 14 साल के कार्यकाल में वेनेजुएला को एक सामाजवादी मूल्यों वाले देश के रूप में विकसित किया, जिसकी शुरूआत वर्ष 1999 से हुई. अमेरिकी साम्राज्यवादी साजिशों से जूझते हुए समाजवादी-साम्यवादी शासन तंत्र के मूल्यों को स्थापित करने वाले शावेज दुनियाभर में कैसे एक उदाहरण बने, उन पहलुओं को समेटते हुए एक वृहद विश्लेषण :
अमेरिका की लाख कोशिशों के बावजूद वेनेजुएला के अक्टूबर चुनाव शावेज की जीत हुई. वर्ष 1999 से अब तक ह्यूगो शावेज की यह चौथी जीत थी. चुनाव जीतने के बाद शावेज ने 10 लाख से भी अधिक समर्थकों की भीड़ को सम्बोधित करते हुए कहा, ‘मैंने आपको कभी धोखा नहीं दिया है, मैंने आपसे कभी झूठे वादे नहीं किये हैं. सीमोन बोलिवार के देश में क्रान्ति की जीत हुई है. योजना बनाने में पूरे देश को शामिल किया जायेगा और मैं वादा करता हूँ कि वेनेजुएला कभी भी नव उदारवाद के रास्ते पर नहीं जायेगा.
यह शावेज का अब तक का सबसे कठिन चुनाव था. शावेज को सत्ता से बाहर करने के लिए अमेरिकी विदेश मंत्रालय ही नहीं, बल्कि अमेरिकी मीडिया भी शावेज विरोधी पार्टियों का मुखपत्र बन गया. पूरे चुनाव के दौरान कार्टर सेन्टर के अधिकारियों और अमेरिकी मीडिया ने दुष्प्रचार किया कि शावेज के समर्थक हर हाल में चुनाव में धांधली करेगें और राजधानी कराकस की सड़कों पर वेनेजुएला के नेशनल गार्ड एके 47 के साथ गश्त कर रहे हैं. 7 अक्टूबर के चुनाव से पहले मीडिया ने इसे काँटे की टक्करया शावेज की तानाशाहीकहा.
यह भी झूठा प्रचार किया गया कि वेनेजुएला की स्थिति बहुत खराब है जिसके चलते वेनेजुएला की जनता ह्यूगो शावेज के खिलाफ है. इसे शावेज का अंतिम चुनाव बताते हुए वेनेजुएला में अमेरिकी पिट्ठू मीडिया के पंडितों ने ह्यूगो शावेज के दौर का अंत भी घोषित कर दिया था. पूरे पश्चिमी जगत और अमेरिकी मीडिया ने वेनेजुएला की जनता को और अन्य सभी देशों की जनता को भ्रमित करने के लिए बिना सिरपैर की बातें फैलायी. ताकि शावेज को किसी भी कीमत पर हराया जा सके. अमेरिका ने सद्दाम और गद्दाफी से तो झुटकारा पा लिया, लेकिन जॉर्ज बुश प्रशासन द्वारा 2002 में तख्ता पलट की कोशिश के बावजूद शावेज को सत्ता से बाहर करने में उसे कामयाबी हाथ नहीं लगी.
तभी से इस क्षेत्र में अमेरिका की पकड़ कमजोर होती जा रही है. इसके लिए अमेरिका का सबसे महत्त्वपूर्ण एजेण्डा था कि एक ऐसा नेता तलाशा जाय, जो उन पुराने दिनों को वापस ला सके जिनमें व्यापारिक घरानों का कब्जा था और जिनकी चाबी अमेरिका के हाथ में रहती थी. शावेज विरोधी पार्टी में ऐसे नेताओं की भरमार है जो नवउदावादी नीतियों के समर्थक हैं. इसके लिए अमेरिका ने वेनेजुएला की शावेज विरोधी 30 पाटिर्यों को डेमोक्रेटिक यूनिटी राउण्ड टेबल (एमयूटी) नाम की पार्टी के झण्डे के नीचे एकत्रित कर एक समूह बनाया और हेनरिक केपरेल्स रदोनस्की को इसका नेता बनाकर एक अच्छे राजनेता के रूप में पेश किया. उसे ब्राजीली नेता लूला डिसिल्वा के समतुल्य बताया गया जबकि वह एक रईस परिवार की संतान है और अपनी जवानी के दिनों में ही कंजरवेटिव (घोर पूँजीपती) राजनीति का समर्थक रहा है.
हेनरिक के समर्थकों ने ही 2002–03 में मालिकों की हड़तालसे वेनेजुएला की अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करने की कोशिश की थी. इस हड़ताल को गरीब, मजदूरों ने ही विफल किया था जो शावेज के समर्थक हैं और आज भी शावेज के साथ खड़े हैं. हेनरिक ने 2002 में अपने समर्थकों द्वारा शावेज का अपहरण करा कर तख्ता पलट करवाने में अमेरिका का साथ दिया था और क्यूबाई दूतावास के सामने हिंसक प्रदर्शन का नेतृत्व भी किया था. वह 1960–70 के दशक में दक्षिण अमेरिका के हिस्से पर काबिज सैनिक सत्ता का भी समर्थक रहा है. वह 29 हजार क्यूबाई डॉक्टरों और पैरा मेडिकल कर्मचारियों का भी विरोधी है. जो वेनेजुएला के गरीबों की सेवा में निशुल्क काम कर रहे हैं. हेनरिक कम विकसित और प्रतिबंधित देशों में सस्ते दामों में तेल देने का भी विरोधी है.
विकीलिक्स ने खुलासा किया है कि वेनेजुएला में शावेज विरोधी पार्टियाँ अमेरिकी दूतावास से सांगठनिक और वित्तीय सहायता पा रही है. मीडिया में हेनरिक केपरेल्स का एक दस्तावेज लीक हुआ जिसमें लिखा था कि अगर वह चुनाव जीत गया तो नवउदारवादी नीतियों को लागू करेगा. इस दस्तावेज में भोजन और गरीब इलाकों में स्थापित किये गये सामुहिक गोदामों पर से सरकारी सहायता समाप्त करने की बात कही गयी है. जबकि हेनरिक का चुनावी वादा था कि वह शावेज की अधिकतर घरेलु नीतियों को जारी रखेगा और गरीब लोगों को मकान भोजन, शिक्षा और स्वास्थ्य पर सरकारी छूट रहेगी.
हेनरिक केपरेल्स के दस्तावेज लीक होने से उनकी करनी कथनी साफ समझ में आती है. पूरी कार्यवाही बहुत सड़यंत्र के साथ की गयी थी. इतनी की अपने मोर्चे में शामिल सभी पार्टियों को हेनरिक रदोनस्की अपनी नीतियाँ बताकर अपने विश्वास में नहीं लिया और उनसे भी झूठ बोला. इसका ताजा उदाहरण यह है कि चुनाव की पूर्व संध्या पर हेनरिक के दस्तावेज लीक होने वाले इस तथ्य की बात मोर्चे का हिस्सा रही. तीन पार्टियों ने उसे छोड़ दिया. इस तथ्य ने शावेज के विपक्षियों और अमेरिकी षड़यंत्र की पोल खोल दी है.
शावेज की जीत को स्वीकार करने के बजाय यह साम्राज्यवादी तंत्र अभी अपनी पूरी ताकत से पूरी दुनिया को गफलत में डालने और उन्हें भ्रमित करने के लिए और ह्यूगो शावेज की छवि खराब करने व दुनिया में बदनाम करने के लिए अपना प्रचार जारी रखे हुए है कि वेनेजुएला में मीडिया पर सरकारी एकाधिकार है जिसके चलते शावेज की जीत हुई है. हकीकत यह है कि वेनेजुएला की मीडिया पर 94 फीसदी कब्जा विरोधियों का है. देश के दो सबसे बड़े अखबार भी शावेज और उनकी सरकार के घोर विरोधी हैं. 88 फीसदी रेडियो स्टेशनों पर भी देश के पूँजीपतियों का कब्जा है जो शावेज से नफरत करते हैं. केवल 6 फीसदी इलैक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया पर और 12 फीसदी रेडियो स्टेशनों पर शावेज की सरकार या जनता का अधिकार है.
अमेरिकी मीडिया के इस दुष्प्रचार की पोल भी भूतपूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर की संस्था कार्टर सेंटरके द्वारा खुल जाती है. यह संस्था दुनिया के तमाम देशों के चुनाव को मॉनिटर करती है. इस चुनाव में भी कार्टर सेंटरने पर्यवेक्षक की भूमिका निभायी है और चुनाव के बाद वेनेजुएला की चुनावी व्यवस्था की प्रशंसा करते हुए कहा कि सच्चाई यह है कि अब तक हमने दुनिया के 92 चुनावों को मॉनिटर किया है उनमें से वेनेजुएला के चुनावों की प्रक्रिया सर्वोतम दिखायी दी.
इसके बाद भी अमेरिका ने अपनी खीज मिटाने के लिये वेनेजुएला की आम जनता को कोसना शुरू किया. अमेरिकी अखबार फाइनेंशियलने शावेज को दुबारा चुने जाने को देश के लिये एक गहरा आघातबताया और एसोसियेट प्रेस ने अपनी खबर में बताया कि जनता राजनीतिक यथार्थ को समझने में नाकाम रही है. वेनेजुएला में 80 फीसदी मतदान हुआ है और अमेरिका में 62 फीसदी. फिर किस देश की जनता ने लोकतंत्र में ज्यादा भरोसा किया है. मतदान के इन आँकड़ों से हम समझ सकते हैं. जाहिर है कि मीडिया ने शावेज के खिलाफ पूरी दुनिया की जनता को भ्रमित करने की लगातार कोशिश की है.
पिछले 14 वर्षों में वेनेजुएला को जो उपलब्धियाँ हासिल हुई हैं उन्हें आज कोई नकार नहीं सकता. शावेज ने जब पहली बार सत्ता की बागडोर अपने हाथ में ली तब वेनेजुएला की स्थिति बहुत ही खराब थी. देश की अर्थव्यवस्था विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा संचालित थी और सभी कल्याणकारी योजनाओं पर रोक लगा दी गयी थी. सभी तरह की सबसिडी समाप्त कर दी गयी थी. वेनेजुएला में अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष की नीतियाँ चरम पर पहुँच रही थी और इन नीतियों का सीधा असर गरीब तबकों, मजदूरों, किसानों पर पड़ रहा था. 1989 में इन्हीं नीतियों के चलते देश में जन आन्दोलन पैदा हुए और इसी विद्रोह के बीच ह्यूगो शावेज का नेतृत्व पैदा हुआ.
अमीरगरीब के बीच की खाई कम हुई है.
वेनेजुएला में 1999 में ह्यूगो शावेज के आने के बाद वहाँ की स्थिति जिसे खुद अमेरिकी एजेन्सियों ने दर्शाया है. बेरोजगारी, जो 1999 में 14–5 प्रतिशत थी वह घटकर 2009 में केवल 7–6 प्रतिशत रह गयी. सीधे 50 प्रतिशत की कमी आयी. प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद जो 1999 में चार हजार एक सौ चार डालर था. 2011 में यह दस हजार एक सौ एक डालर हो गया. 1999 में 23 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करती थी जो 2011 में घटकर 8–5 प्रतिशत रह गयी. नवजात बच्चों की मृत्यु दर में भी भारी कमी आयी है. पहले 1999 में 1 हजार में 20 बच्चे मर जाते थे और 2011 में यह संख्या 13 रह गयी है. 1999 से पहले जो शिक्षा, चिकित्सा, भोजन की व्यवस्था मुफ्त नहीं थी, शावेज ने सबसे पहले व्यापक समुदाय के लिए मुफ्त वितरण व्यवस्था लागू की. 1999 के बाद गरीबी में 50 फीसदी और भीषण गरीबी में 70 फीसदी की कमी आयी है. 2006 के हाइड्रो कानून के अनुसार अपने तेल पर वेनेजुएला का पूरा नियंत्रण है. संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार वेनेजुएला लातिन अमेरिका में सबसे कम असमानता वाला देश है. शावेज ने अमेरिका के बाजार पर अपनी निर्भरता कम कर एशिया को तेल का निर्यात दोगुना कर दिया है. वेनेजुएला आज साउदी अरब को पछाड कर तेल उत्पादन में पहले स्थान पर आ गया है. वेनेजुएला सीरिया और ईरान जैसे देशों को परिशोधित कच्चा तेल भेजता है. शावेज अमेरिका के गरीबों को कड़ाके की ठंड से बचाने के लिये मुफ्त तेल देता है. वेनेजुएला के पास दुनिया के कुल तेल का सर्वाधिक 18 प्रतिशत तेल का सुरक्षित भंडार है.
पिछले डेढ दशक से वेनेजुएला में शावेज का शासन है और इसी का नतीजा है कि आज दक्षिण अमेरिका के अनेक देशों में ऐसी सरकारें हैं जो उदारवादी और नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के खिलाफ हैं तथा एक हद तक समाजवादी अर्थव्यवस्था को अपना रही हैं. ब्राजील में लूला डिसिल्वा और इनके बाद डिल्मा रूसेफ जिसके लिए शावेज ने खुद चुनाव प्रचार किया, जो आज ब्राजील की राष्ट्रपति है. जो खुलकर अमेरिकी नीतियों का विरोध करती हैं.
बोलिविया में इवो मोरेलेस समाजवादी हैं और ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता रहे हैं इवो मोरेलेस खुद किसान परिवार से हैं. उन्होंने अमेरिका द्वारा बोलीविया में लागू किसान विरोधी नीतियों के खिलाफ लम्बे समय तक संघर्ष किया है. वे ह्यूगो शावेज और फिदेल कास्त्रो को अपना आदर्श मानते हैं. उरूग्वे में जोसे मुजिका भी समाजवादी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने में लगे हुए हैं. वे पूर्व छापामार योद्धा हैं. वह अपने वेतन का सिर्फ 10 प्रतिशत लेते हैं और 90 प्रतिशत एक धर्मार्थ संस्था को दान कर देते हैं. अर्जेन्टीना की राष्ट्रपति क्रिस्टिना किर्चनर जनहित की नीतियों को लागू कर रही हैं.
ह्यूगो शावेज ने विदेश नीति के मोर्चे पर लातिन अमेरिका के राजनीतिक नक्शे को नया आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है. अमेरिका का एक समय पूरे लातिन अमेरिका के क्षेत्र पर दबदबा था जिसे 1999 के बाद बहुत छोटेछोटे क्षेत्रीय संगठनों जैसे, –सीईएल ने अमेरिकी प्रभुत्व वाले समूह ओएएस को सीमित कर दिया है. 1999 में शावेज ने लीबिया के गद्दाफी और ईराक के सद्दाम हुसैन के साथ मिलकर ओपेक को पश्चिमी देशों के चंगुल से मुक्त कराया. इससे ओपेक देशों की आर्थिक अर्थव्यवस्था काफी मजबूत हुई. साम्राज्यवाद विरोधी देशों के समूह एलबा के निमार्ण में भी शावेज की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है.
अमेरिका, लातिन अमेरिकी देशों में अपने कम होते प्रभाव और वेनेजुएला के ह्यूगो शावेज और क्यूबा के फिदेल कास्त्रो की विचारधारा के बढ़ते प्रभाव से खिन्न और बेचैन है. इसलिए हर हाल में शावेज को हराना चाहता था. अगर जीत का अन्तर थोड़ा भी अस्पष्ट रहता तो तख्ता पलट की भी योजना थी. यह खुलासा पूर्व अमेरिकी राजदूत पैट्रिक डीडूडी ने विदेशी सम्बंधों की एक काउन्सिल के दस्तावेज में उद्घाटित किया कि अगर शावेज की जीत स्पष्ट होती है, तो उसके साथ समानहित के मुद्दों पर समझौतों की कोशिश की जाये और अगर अंतर जरा भी अस्पष्ट रहता है तो अन्तरराष्ट्रीय दबाव बनाकर उसकी सत्ता पलटने की कोशिश की जाय.
(अमरपाल सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं.)

The Life and Legacy of Hugo Chavez GREGORY WILPERT, ADJ. PROF. POLITICAL SCIENCE, BROOKLYN COLLEGE
Bio -(Gregory Wilpert a German-American sociologist who earned a Ph.D. in sociology from Brandeis University in 1994. Between 2000 and 2008 he lived in Venezuela, where he taught at the Central University of Venezuela and then worked as a freelance journalist, writing on Venezuelan politics for a wide range of publications and also founded Venezuelanalysis.com, an english-langugage website about Venezuela. In 2007 he published the book Changing Venezuela by Taking Power: The History and Policies of the Chavez Government (Verso Books). He moved back to the U.S. in 2008 because his wife was named Consul General of Venezuela in New York. Since returning to the U.S. he has been working as an Adjunct Professor of Political Science at Brooklyn College.)

 Hugo Rafael Chávez Frías, or Comandante Chávez, as he was affectionately known by his supporters and followers, passed away on March 5, at 4:25 p.m. local time, following a 21-month battle against cancer. 

When he died, at 58 years of age, he had become one of Venezuela's and perhaps even the world's most important contemporary leaders, having launched what he and his movement called the "Bolivarian Revolution," named after Simón Bolívar, the 19th-century independence hero who had liberated Venezuela and four other countries from Spanish colonial rule. Chávez was a devotee of Simón Bolívar, and his vice president, Nicolás Maduro, recently referred to Chávez as "the new liberator of the 21st century." Whether this is a fair assessment only history will tell, but what is certain is that Chávez changed the face of Venezuela during his 14 years as president.

Regardless of whether Chávez was the new liberator of Venezuela, he did leave a tremendous legacy, and with many achievements, but also with some unachieved projects. Among the unachieved projects are getting rid of inefficiency and corruption in the public administration and lowering the country's high crime rate. The persistence of these problems probably help explain why Chávez got reelected in October 2012 by a margin of only 55 to 45 percent, a smaller margin than his resounding victory 2006, when he won with 63 percent of the vote.

That he was able to win reelection after 14 years in office and despite massive opposition from the country's old elite is no small achievement, however. This achievement was possible because Chávez accomplished more than most people realize. 

In the area of his foreign policy, Chávez was perhaps the most important driving force for regional integration. He greatly expanded an oil program for the Caribbean, known as Petrocaribe, where island nations receive oil and oil infrastructure at highly preferential financing rates. He then launched, together with Cuba, Bolivia, and later Ecuador and Nicaragua, among others, the Bolivarian Alliance for the People of our Americas, known as ALBA, which is a counter-model to the predominant free trade agreements of the region and would promote trade on the basis of solidarity and cooperation instead of competition. He was also one of the main forces behind the establishment of the Union of South American Nations, UNASUR, to which all South American countries belonged. And, most recently, he helped launch the Community of Caribbean and Latin American States, CELAC, which is a regional body that includes all countries of the Western Hemisphere except the United States and Canada. 

One of the consequences of this integration process has been to end the isolation of Cuba. 

Finally, he was also one of the world's most vocal opponents of U.S. foreign policy, vociferously rejecting U.S. wars in Afghanistan, Iraq, and Libya, and opposing Israel's attack on Gaza. For that he became one of the Arab world's greatest heroes.

Another important accomplishment that is often overlooked is that Chávez served as an inspiration for voters and politicians throughout Latin America, who began voting for leftist parties and leaders throughout the continent. He inspired people because he was one of the few politicians who said what he thought and who acted on what the said without hesitation. 

In this sense he began a project of reinvigorating socialism in 2005 when he declared himself to be socialist and when he subsequently launched a new political party, the United Socialist Party of Venezuela, PSUV. The reinvigoration of the socialist project was important because he made clear that he espoused a 21st-century socialism, by which he meant a socialism that would be participatory and fully democratic, in contrast to the 20th-century state socialism of the Soviet Union.

But what, exactly, did this Venezuelan path to socialism consist of? For one thing, Chávez placed an important emphasis on creating a more equal country. As soon as he came into office he strengthened discipline within OPEC, which raised oil prices within a year of his being elected. Next, he increased oil production royalties on the country's public and private oil industry and nationalized large parts of the private oil industry. With the tremendous boost in oil revenues, he was able to launch numerous new social programs, one after the other, having to do with the eradication of illiteracy, providing elementary, high school, and university education for the country's poor, giving financial support to poor single mothers, expanding and increasing retirement benefits, providing neighborhood doctors to all communities, introducing a comprehensive land reform program, and, most recently, launching a massive public housing construction program, among many other social programs.

As a result of these policies, inequality decreased so much that Venezuela went from being the country with one of Latin America's greatest income inequality to the one with the least income inequality. Also, he managed to reduce poverty by half and extreme poverty by two-thirds.

Another important accomplishment was the introduction of participatory democracy in Venezuela. This project, which is still incomplete, has put over 30,000 communal councils in charge of their own neighborhoods, so that people feel like they have a stake in their future like never before. This feeling is born out in opinion polls about what Venezuelans think of their democracy, where Venezuelans rate their democracy more favorably than citizens of almost any other country in Latin America. Also, a larger proportion of Venezuelans vote and participate in political activities than anywhere else or at any other time in Venezuelan history.

No doubt, Chávez was also a controversial figure, who could count on complete love and devotion from his followers, but who was also hated by many. The love and devotion came from Chávez's charisma, his ability to identify with ordinary Venezuelans and their ability to identify with him. His folksy style, his willingness to sing traditional folk songs, and his ability to tell stories, endeared him to millions.

At the same time, his working-class style, his unhesitating condemnation of the U.S. government, his roughness in condemning his political opponents, and his willingness to go after economically powerful made him the target of hate and undying opposition of many in Venezuela's middle class, but especially of its upper class. Of course, the fact that private mass media was involved in an unrelenting campaign against Chávez for most of his presidency caused plenty of fights.

One of the perhaps most delicate and controversial aspect of his presidency was his government's human rights record, which groups such as Human Rights Watch, Reporters Without Borders, and the Inter-American Human Rights Commission repeatedly condemned. Many, though, believed that these attacks were mostly unwarranted, exaggerated, or opposition-manipulated distortions of what was actually happening in Venezuela.

How did Chávez come to be such an important figure? What brought him to the world stage?

He was born in a small town in one of Venezuela's poorest rural areas, in the town of Sabaneta, in Barinas state, the second of seven siblings. His parents were schoolteachers in the town, and Chávez described his life there as one of relative poverty. Growing up, he was fascinated with baseball and at first wanted to become a professional baseball player. However, for kids from Barinas, the only possibility of playing baseball regularly was in the military, so he joined the military at age 17.

Chávez became radicalized during his time in the military, where he participated in an unusual program that provided Venezuelan military officer education in civilian universities. Also, his encounters with Colombian rebels along the Venezuela-Colombia border, his witnessing of poverty in different parts of Venezuela, and his exposure to Juan Velasco Alvarado, the left-populist military leader of Peru in 1974, whose works he read eagerly, further radicalized Chávez. 

Witnessing corruption and abuse of power within the military, Chavez made his first foray into conspiratorial politics in 1977 when he founded a secret military grouping with the military. His group would later morph into the Revolutionary Bolivarian Movement (MBR-200), and then into his political party, the Movement for a Fifth Republic (MVR).

A key event in Chávez's radicalization happened in February 27, 1989, when Venezuelans took to the streets in partly violent protests against the neoliberal economic adjustment package that the International Monetary Fund had imposed on Venezuela. Chávez's group within the military was not ready to take action yet, and, worse yet, the government sent military into the streets to violently repress protests, killing anywhere between 300 and 3,000 Venezuelans over the course of four days.

These riots and subsequent repression accelerated the plans of Chávez and his co-conspirators to overthrow the government that was responsible for these massacres. And three years later, on February 4, 1992, they were ready. 

However, word of the military rebellion, or coup, leaked to then-president Carlos Andrés Perez, and he was able to have Chávez and his men arrested. Chávez became famous during a brief television appearance that the president allowed him, in which he took responsibility for the rebellion and said that his effort had failed "for now." Those words, "for now," sparked the hope of poor and frustrated Venezuelans and impressed them tremendously, also because Chávez was the first Venezuelan leader in recent memory to take public responsibility for a failure.

He was sent to prison, but remained there for only two years. When Rafael Caldera was elected as president in 1994, he fulfilled a campaign promise to release Chávez because he knew that Chávez's cause enjoyed large popular support. After leaving prison, Chávez spent the next three years traveling the country and got to know exactly how his fellow citizens were living. It was in the course of these travels that Chávez realized that he had popular support and decided to run for the presidency.

He ran against a candidate of the country's old elite and won a resounding victory of 56 percent, one of the largest margins in Venezuelan history. 

His time as president was very tumultuous. He started out with support from sectors of the country's business class, but alienated this sector almost immediately when he refused to appoint anyone from that circle to his cabinet. He then introduced a new constitution in 1999, followed by new elections in 2000 and a slew of new laws that reformed numerous aspects of Venezuelan society, from agriculture to oil, to fishing, banking, and insurance, among many others. 

These actions proved to be too much, and the opposition mobilized to topple Chávez via a coup. On April 11, 2002, with the help of dissident military officers, they succeeded briefly, naming a businessman, Pedro Carmona, as interim president. The coup, however, was reversed within two days because Chávez's supporters would not quietly accept the coup as the country's old elite had hoped and come to expect.

Chávez's presidency would go on to be challenged on numerous fronts, in late 2002 with a shutdown of the country's all-important oil industry, in 2004 with a recall referendum, and in 2005 with an opposition boycott of the National Assembly elections. Finally, by 2006, when Chávez won reelection with an overwhelming margin of 63 percent of the vote, the country seemed to become more normal again.

It was not until mid 2011, when Chávez unexpectedly announced that he had been diagnosed with cancer, that the political landscape began to shift once again. Chávez seemed to recover from cancer and his treatment and went on to win another reelection in October 2012. But shortly after his reelection, he practically disappeared again, only to announce, on December 8, 2012, that the cancer had reappeared and that he had to return to Cuba again for a major operation. December 9, on his way to Cuba, was the last day that he was seen in public.

Chávez leaves a gaping hole in Venezuela's political and social landscape, but he also leaves a legacy that his successors will have to build upon and expand upon.

End
DISCLAIMER: Please note that transcripts for The Real News Network are typed from a recording of the program. TRNN cannot guarantee their complete accuracy.
http://therealnews.com/t2/index.php?option=com_content&task=view&id=31&Itemid=74&jumival=9811#.UT8ZzpYT3KB

तीसरी दुनिया के लिए चावेज का महत्व - विद्यार्थी चटर्जी
Hugo Rafael Chávez Frías (2 February 1999 – 5 March 2013)
क्या गरीबों को सशक्त करने का मतलब अमीरों को अलग-थलग छोड़ देना और उनकी नाराज़गी मोल लेना है? किताबी सिद्धांत तो ऐसा नहीं कहते, लेकिन व्यावहारिक दुनिया में यह बात सही है। बिस्तर पर पड़े वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो चावेज से बेहतर इसका जवाब कौन दे सकता है, जिन्होंने हाल ही में तेल उत्पादन के मामले में सउदी अरब को पहले पायदान से नीचे धकेल दिया है। दुनिया भर की नज़रें समाजवाद, बोलिवेरियाई क्रांति (सीमोन बोलिवार के नाम पर, जिन्होंने स्पेन के शासन से कई लातिन अमेरिकी देशों को उन्नीसवीं सदी में मुक्त कराया) और ईसाइयत (ईसा की शिक्षा के मुताबिक गरीबों के प्रति न्याय और करुणा की चेतना) के इस पैरोकार पर आज टिकी हैं जो वास्तव में बहुत बीमार है। गरीबों को सस्ता खाना और आवास दिलाने तथा शिक्षा और स्वास्थ्य तक उनकी पहुंच बढ़ाने की चावेज की घरेलू नीतियों ने उन्हें लगातार चार बार चुनाव में जीत का सेहरा पहनाया है। पिछली बार वे अक्टूबर 2012 में जीते थे जब उन्हें कुल पड़े वोटों का 54 फीसदी हासिल हुआ था। इससे पहले कभी भी मूलवासी आबादी को इस देश में इतनी गंभीरता से नहीं लिया गया। सामाजिक न्याय यानी गरीब तबके के लिए बेहतर जीवन के प्रति चावेज की प्रतिबद्धता ने उन्हें अमेरिका, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों और पश्चिमी तेल कंपनियों की खुराफाती तिकड़ी के खिलाफ खड़ा कर दिया है। चावेज के सत्ता में आने से पहले वेनेजुएला की विशाल तेल संपदा उन्हीं लोगों द्वारा लूटी जा रही थी जो आज उन्हें सत्ता से हटाने की ख्वाहिश रखते हैं। उनका गुस्सा समझ आता है क्योंकि चावेज ने न सिर्फ इस लूट को खत्म किया बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि तेल निर्यातक देशों के संगठन ओपेक को पश्चिमी देशों से तेल की ज्यादा कीमत मिले। पश्चिमी तेल कंपनियों गल्फ, शेल, स्टैंडर्ड ऑयल और टेक्साको को पहले के मुकाबले ज्यादा रॉयल्टी देने को बाध्य कर के चावेज ने करोड़ों लोगों का दिल जीत लिया है। दुनिया भर की ज्ञात समूची तेल संपदा का पांचवां हिस्सा वेनेजुएला में है, इस तथ्य का उन्होंने फायदा अपनी बात मनवाने के लिए बखूबी उठाया है। अमेरिका द्वारा कराकस के तख्त को पलटने की लगातार कवायद ज़ाहिर तौर पर समूचे लातिन अमेरिका के करोड़ों घरों में चर्चा का विषय बनी हुई है, जो पूंजीवादी जगत के लोभ, धोखे और वर्चस्व के एक माकूल जवाब के तौर पर कैंसर से जूझ रहे राष्ट्रपति को देखते हैं। न सिर्फ लातिन अमेरिका, बल्कि तथाकथित तीसरी दुनियाके कुछ दूसरे हिस्से भी यह जानने के लिए कम उत्साहित नहीं हैं कि इतने जीवट और संकल्प वाले इस शख्स ने जनता के लिए सामाजिक न्याय और बेहतर आर्थिक जीवन सुनिश्चित करने का अपना लक्ष्य कैसे पूरा किया है। अपने गौरवशाली पूर्वजों निकारागुआ के सैंदिनिस्ता या कहीं ज्यादा याद किए जाने वाले चिली के अलेंदे के नक्शे कदम पर चलते हुए चावेज आज प्रतिरोध, बहाली और पुनर्निर्माण का प्रतीक बन कर उभरे हैं। आज वे न सिर्फ अपनी जनता के लिए, बल्कि राहत की छांव खोज रहे एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका के दूसरे देशों के लिए भी उदाहरण हैं- उस आत्मसंकल्प की प्रेरणा हैं जिसे पूंजीवादी विश्व के आकाओं ने संगठित तौर पर नुकसान पहुंचाने की कोशिश की और जब कभी उनके हित आड़े आए, उन्होंने अपना लोकतांत्रिक आवरण उतार फेंका। वेनेजुएला बोलिवेरियाना- पोएब्लो ई लूचा दे ला क्वार्तो गेहा मूंजियाओ (वेनेजुएला बोलिवेरियाना- जनता और चौथे विश्व युद्ध का संघर्ष) नाम की फिल्म के निर्माताओं के मुताबिक दुनिया भर के लोग फिलहाल वैश्विक स्तर पर जारी चौथे विश्व युद्ध का हिस्सा हैं और यह युद्ध नवउदारवादी पूंजीवाद व वैश्वीकरण के खिलाफ है। साक्षात्कारों के कुछ अंश और आर्काइव के फुटेज के मिश्रण से बनी और सुघड़ता से संपादित की गई यह फिल्म तथाकथित बोलिवार क्रांति के रूप में तेजी से पनपते एक वैकल्पिक आंदोलन की छवियों को दिखाती है। यह आंदोलन फरवरी 1989 में शुरू हुआ था जब ईंधन और खाद्य वस्तुओं के दाम बढ़ने के खिलाफ विद्रोह हो गया जिसमें कई लोग मारे गए थे। बाद के वर्षों में 1998 तक यहां सामाजिक अस्थिरता कायम रही, जब अचानक राष्ट्रपति के चुनाव में एक पूर्व लेफ्टिनेंट कर्नल ह्यूगो चावेज की जीत हो गई। एक नया संविधान पारित किया गया और चावेज ने भ्रष्टाचार व महंगाई को खत्म करने का वादा किया- वह वादा वे आज तक पूरी शिद्दत से पूरा करने की कोशिश करते आए हैं। दूसरे लातिन अमेरिकी देशों की ही तरह वेनेजुएला के सामने भी वैश्वीकरण, अंतरराष्ट्रीय आर्थिक राजनीति और अमेरिकी साम्राज्यवाद का खतरा है। इस दौरान एक मजबूत जनाधार और संचार प्रणाली के माध्यम से खड़ा हुआ वेनेजुएला की जनता का संघर्ष नवउदारवादी पूंजीवाद के खिलाफ एक अंतरराष्ट्रीय आंदोलन में तब्दील हो चुका है। हमेशा अमेरिका को खुश करने में लगे भारत (हाल में एफडीआई के मुद्दे से इसे समझा जा सकता है) से यह उम्मीद करना नाजायज़ होगा कि वह बोलिवेरियाई आंदोलन को समर्थन दे। लेकिन कहना न होगा कि इस देश के सभी जागरूक लोगों का लक्ष्य होना चाहिए कि वे इस तरह से मिलजुल कर काम करें जिससे लचीली रीढ़ वाली अपनी भारत सरकार को वे नवउदारवाद के खतरे के करीब जाने से कम से कम रोक सकें। कामगार तबकों के बीच लोकप्रिय चावेज ने ज़ाहिर तौर पर मध्यवर्ग और उच्चवर्ग में अपने कई दुश्मन पैदा कर लिए हैं। ये वर्ग नहीं चाहते कि चावेज अपनी योजना के मुताबिक तेल से आने वाला मुनाफा वंचित और कमज़ोर जनता में दोबारा बांट दें। सितंबर 2001 में आयरलैंड के दो स्वतंत्र फिल्मकार किम बार्टले और डोनाशा ओब्रायन चावेज की जिंदगी पर फिल्म बनाने के लिए कराकस गए थे। उनकी छवि एक चमत्कारी नेता की थी, जनता के आदमी की, जो एक लोकप्रिय राजनेता होने के साथ विचारक और बौद्धिक विमर्शकार भी था और एक राष्ट्रवादी सिपाही भी, जिसके इतिहासबोध और उद्देश्यों में अखिल लातिन अमेरिका की अनुगूंज थी। हुआ ये कि दक्षिणपंथियों द्वारा किए गए एक तख्तापलट में चावेज की सरकार गिर गई और ये फिल्मकार उस देश में हो रही एक क्रांति की तरह ही वहां फंस गए। कोई जादुई यथार्थवाद था या कुछ और, लेकिन एक झटके में 48 घंटे के भीतर चावेज दोबारा सत्ता में आ गए। यह फिल्म द रिवॉल्यूशन विल नॉट बि टेलिवाइज्ड इस छोटी सी अवधि में होने वाले तमाम नाटकीय मोड़ों और पड़ावों को कैद करती है। विद्रोहियों के विजयीभाव भाषण, उनके खिलाफ सेना के विद्रोह और अंततः चावेज की सत्ता में वापसी इस उत्तेजक सेलुलाइड अनुभव में उत्कर्ष के क्षण हैं। अपेक्षा के मुताबिक निजी स्वामित्व वाले टीवी स्टेशनों ने चावेज के तख्तापलट का समर्थन किया था, जैसा कि मीडिया अमीरों और ताकतवरों का हमेशा ही पक्ष लेता है। जिस तरह से खबरों को उस वक्त लिखा गया, वह देखने लायक है। फिल्म के निर्देशक इस सवाल का जवाब बड़ी ईमानदारी से देते हैं कि क्रांति का प्रसारण जब टीवी पर होता है, तो वास्तव में क्या होता है। प्रतिक्रांति के एजेंट के रूप में मीडिया का ज़िक्र आया है तो निकारागुआ में मार्क्सवादी सैंदिनिस्ता के सत्ता में आने के पल को नहीं भूला जा सकता जब पश्चिमी प्रेस ने इकट्ठे और खास तौर पर मानागुआ के सबसे बड़े अखबार ने उनके खिलाफ कुत्सा प्रचार अभियान चलाया था। जैसे कि मीडिया के कुत्सा प्रचार और झूठ से मन न भरा हो, अमेरिका में प्रशिक्षित और अनुदानित भाड़े के कॉन्ट्रा विद्रोहियों को निकारागुआ में पड़ोसी देश हॉन्डुरास के रास्ते घुसाया गया ताकि लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सैंदिनिस्ता सरकार का तख्तापलट किया जा सके। इसीलिए जब कभी वॉशिंगटन की ज़बान से लोकतंत्र, स्वतंत्रता, मानवाधिकार आदि शब्द फूटते हैं, तो बाकी दुनिया जो कि कई जगहों पर अमेरिका से भी ज्यादा स्वतंत्र है, तय नहीं कर पाती कि इस पर हंसे या गाली दे, जिसका अमेरिका सच्चा हकदार है। गैर-दोस्ताना सरकारों के खिलाफ अमेरिका की साज़िशों पर नज़र रखने वाले राजनीतिक विश्लेषक, लेखक और शिक्षक अचिन विनायक ने कोलकाता के एक दैनिक में कुछ साल पहले लिखा था, ‘‘अमेरिका और वेनेजुएला के उसके साझीदार बाहर से आखिर क्या कर पाएंगे, या क्या होने की उम्मीद रख सकते हैं? अमेरिका का पैर पश्चिमी एशिया में फंसा है इसलिए फिलहाल सीधा हमला मुमकिन नहीं है। चावेज विरोधियों के लिए सबसे अच्छी रणनीति तीन काम करने की होगी। विचारधारात्मक स्तर पर उनके खिलाफ यथासंभव ताकत से प्रोपगैंडा और दुष्प्रचार किया जाए। आर्थिक मोर्चे पर किसी भी तरीके से उनके शासन को अस्थिर किया जाए, चाहे तोड़-फोड़ ही क्यों न करनी पड़ जाए। सैन्य स्तर पर कोलंबिया की सेना और सरकार को उकसाया जाए कि वह वेनेजुएला में अघोषित जंग छेड़ दे। लेकिन सबसे असरदार और तात्कालिक उपाय हत्या करवाना होगा, और हाल ही में एक कार में हुए विस्फोट में चावेज के सरकारी वकील की हत्या से यह संभावना मज़बूत हो जाती है।’’ चालीस साल पहले लोकतंत्र के प्रतीक चिली के राष्ट्रपति सल्वादोर अलेंदे के साथ अमेरिका ने जो किया, वह आखिर कोई कैसे भूल सकता है। उनका अपराधसिर्फ इतना था कि उन्होंने देश के ताम्बा उद्योग का राष्ट्रीयकरण कर दिया था ताकि देश के मजदूर बेहतर जिंदगी बिता सकें और यह संपदा अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों एनाकोंडा, केनेकॉट और सेरो के हाथों लुटने से बचाई जा सके। सीआईए की साज़िश से ऑगस्तो पिनोशे द्वारा किए गए इस तख्तापलट में न सिर्फ राष्ट्रपति अलेंदे बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में मौजूद उनके हज़ारों समर्थकों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा, चाहे वे शिक्षक रहे हों, कलाकार, मजदूर नेता या किसान नेता। गलियों से सड़क के तक ऐसे किसी भी शख्स को नहीं बख्शा गया जो सामाजिक विकास और इंसानी तरक्की के वैकल्पिक मॉडल के अलेंदे के नज़रिये का समर्थक था। अलेंदे की मौत का फरमान ताम्बे में छुपा था, उनसे पहले चिली के राष्ट्रपति जोस मैनुअल बाल्माचेदा की मौत नाइट्रेट संपदा लेकर आई थी जबकि इस बार की लड़ाई तेल के कारण चावेज और उनके अमेरिका समर्थित विरोधियों के बीच है जिन्हें ‘‘आठ के समूह’’ से भी कुछ का समर्थन हासिल है। चावेज का हवाना में इलाज चल रहा है। वहां से आ रही खबरों के मुताबिक यदि वे घर आ गए, तब भी अपनी जिम्मेदारियां नहीं निभा पाएंगे। उनके उपराष्ट्रपति निकोलस मादूरो का व्यक्तित्व उतना चमत्कारिक नहीं है, न ही उन्हें चावेज जैसा लोकप्रिय भरोसा घरेलू या अंतरराष्ट्रीय दायरे में हासिल है। पहले की अन्यायपूर्ण सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को खत्म कर के उसकी जगह ज्यादा समतापूर्ण व्यवस्था लाने की चावेज की नीतियों के विरोधियों के लिए हमला करने का शायद यही सही समय है। लातिन अमेरिका ही नहीं, समूची दुनिया सांस रोके देख रही है कि क्या होने वाला है। यह समझना मुश्किल नहीं है कि वेनेजुएला के दक्षिणपंथी आखिर चावेज का इतना विरोध क्यों कर रहे हैं। पहली बात तो यही है कि पुराने दिनों में जिस तरीके से वे पैसे और ताकत की लूट मचाए हुए थे, अब वैसा नहीं कर पा रहे और उनके सब्र का बांध टूटने लगा है। एक और वजह यह है कि चावेज का क्यूबा के साथ करीबी रिश्ता है, जो अमेरिकी सांड़ के लिए किसी लाल झंडे से कम नहीं है जबकि अमेरिका खुद वेनेजुएला में विपक्ष के नेता एनहीक कापीलेस राउंस्की जैसे नेताओं का मार्गदर्शक है। क्यूबा में तीस हज़ार डॉक्टर और पैरामेडिकल कर्मचारी गरीबों के लिए जो काम कर रहे हैं, उसकी सराहना करने के बजाय कापीलेस जैसे नेता उसकी आलोचना करते फिरते हैं। वे चावेज की सत्ता के करीबी अल्पविकसित देशों को सब्सिडीयुक्त तेल बेचने के भी खिलाफ हैं। कराकस में बैठे अमेरिका के पिट्ठुओं को यह बात परेशान करती है कि चीन और भारत को वेनेजुएला ने तेल के मामले में ‘‘तरजीही देश’’ का दर्जा दिया क्यों हुआ है। चावेज ने तो खुल कर कह दिया है कि अमेरिका के तेल बाज़ार पर अपनी निर्भरता को कम करने के लिए उनसे जो बन पड़ेगा, वे करेंगे। फिर इसमें क्या आश्चर्य यदि अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान उन्हें अपना असली दुश्मन मानता है? अमेरिका जितना ज्यादा चावेज से नफरत करेगा, वे उतने ही ज्यादा अपने लोगों के करीब आते जाएंगे जिन्होंने उन्हें बार-बार चुना है। वेनेजुएला के इतिहास में पहली बार हुआ है कि गरीबों को निशुल्क स्वास्थ्य, शिक्षा और मुनाफारहित खाद्य वितरण प्रणाली मुहैया कराई गई है। गरीब वर्ग को इससे सम्मान और ताकत का अहसास हुआ है। पिछले चुनावों में पड़े 81 फीसदी वोट बताते हैं कि इस देश के लोग कितनी शिद्दत से चाहते थे कि चावेज वापस सत्ता में आ जायें। ऐसी स्थिति में यदि चावेज को कुछ भी होता है, तो वेनेजुएला की जनता का दुख और हताशा का कोई ओर-छोर नहीं रह जाएगा। ऐसा कुछ भी हुआ, तो सदमा सिर्फ वेनेजुएला तक सीमित नहीं रहेगा। पिछले डेढ़ दशक के दौरान चावेज एक उभरते हुए लातिन अमेरिका का प्रतीक बन कर उभरे हैं- एक ऐसे उबलते महाद्वीप का प्रतीक, जो अमेरिका की प्रभुत्ववादी साजिशों के खिलाफ उबल रहा है। वास्तव में लंबे समय से झूल रहा गुटनिरपेक्ष आंदोलन भी अचानक इधर के वर्षों में ही प्रोत्साहित हुआ है और यह सब वेनेजुएला, क्यूबा, बोलीविया, इक्वेडर और निकारागुआ की वाम रुझान वाली सरकारों के नेतृत्व का ही परिणाम है। अर्जेंटीना और ब्राज़ील यदि अमेरिकी नीतियों और हरकतों की उतनी खुल कर निंदा नहीं करते, तो सिर्फ इसलिए इन्हें अमेरिका का समर्थक नहीं कहा जा सकता। पेरू भी अमेरिका से सतर्क है। दुनिया भर में लोगों को आशंका है कि चावेज की गैरमौजूदगी में उनकी विरासत खत्म तो नहीं होगी, लेकिन कमज़ोर जरूर हो जाएगी। उनका किया रंग ला ही रहा था कि बीच में वे कैंसर की चपेट में आ गए। क्या विडंबना है! सबसे ज्यादा निराशा हालांकि मुझको इस बात से होती है कि चावेज की निशक्तता या फिर उनकी दुर्भाग्यपूर्ण अनुपस्थिति भारत के राजनीतिक वर्ग को नहीं अखरेगी, जो किसी भी कीमत पर अपनी जेब भरने के टुच्चे खेल में जुटा हुआ है। मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह अहलूवालिया, चिदंबरम और विश्व बैंक व आईएमएफ के दूसरे घोषित टट्टुओं के लिए तो चावेज को जीते जी एक प्रेत की तरह नज़रंदाज़ करना और उनकी अनुपस्थिति को यथाशीघ्र भुला देना ही बेहतर है। एक ओर चावेज हैं जो अपनी पूरी क्षमता से अपने प्राकृतिक और मानव संसाधनों का इस्तेमाल कर के एक नया राष्ट्र बनाने में लगे हैं जहां वेनेजुएला के अब तक उपेक्षित रहे लोगों को सम्मान और मजबूत आवाज़ मिल सके। दूसरी ओर भारत के नेता और उनके आर्थिक सलाहकार हैं जो किसी धार्मिक उपदेश का पालन करते हुए अपने यहां से गरीबों को खत्म करने में जुट गए हैं। (समयांतर के फरवरी अंक से साभार, अनुवाद- अभिषेक श्रीवास्‍तव) http://www.junputh.com/2013/03/blog-post.html

अमरीका से जीते पर मौत से हारे ह्यूगो चावेज़ - B.B.C.
दक्षिण अमरीकी देश वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो चावेज़ का निधन हो गया है. चावेज़ के निधन की आधिकारिक घोषणा उप-राष्ट्रपति निकोलस मडूरो ने की. चावेज पिछले एक साल से कैंसर से जूझ रहे थे और उनकी कई बार सर्जरी की जा चुकी थी. सर्जरी के बाद चावेज़ सांसों से जुड़ी नई परेशानी का सामना कर रहे थे. काफी दिनों से वे आम लोगों के बीच नहीं दिख रहे थे. पिछले महीने ही वे काफी दिनों बाद राजधानी कराकास में आम जनता से मुखातिब हुए थे. वेनेज़ुएला के उप-राष्ट्रपति ने कुछ देर पहले ही बताया था कि चावेज़ अपना 'सबसे मुश्किल समय' काट रहे हैं.
ह्यूगो चावेज़ के निधन पर दुनिया के कई नेताओं ने गहरा दु:ख जताया है. अर्जेंटीना की राष्ट्रपति क्रिस्टीना फर्नांडीज डी किर्चनर ने इस खबर को सुनने के बाद अपने सभी कार्यक्रमों को रद्द कर दिया है. वहीं पेरू की संसद ने एक मिनट का मौन रखा. चिली और इक्वाडोर की सरकारों ने ह्यूगो चावेज़ के निधन पर आधिकारिक शोक संदेश भेजा है.
अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा है कि ह्यूगो चावेज़ का निधन वेनेजुएला के लिए एक चुनौती भरा समय है. उन्होंने कहा कि अमरीका वेनेजुएला के लोगों के प्रति अपने समर्थन की एक बार फिर पुष्टि करता है.
अमरीकी षड्यंत्र
वेनेज़ुएला के नागरिकों ने उनकी मौत पर गहरा दुख व्यक्त किया है. ह्यूगो चावेज़ की मृत्यु की घोषणा के साथ ही मडूरो ने वेनेज़ुएला के खिलाफ चल रहे षड़यंत्र की बात की. मडूरो ने जोर देकर कहा कि उन्हें इस बात पर कोई संदेह नहीं की चावेज़ को कैंसर देश के दुश्मनों की वजह से हुआ था. अमरीका ने तत्काल इस बात को बेसिरपैर वाला ठहरा दिया.
मडूरो ने कहा कि एक वैज्ञानिक आयोग एक दिन ज़रूर इस बात की पुष्टी कर देगा कि चावेज़ का कैंसर वेनेज़ुएला के दुश्मनों की देन था. आंसुओं के साथ भरे भर्राए गले से बोलते हुए मडूरो ने अपने देशवासियों से अपील की कि वो एकता बनाए रखें. उन्होंने यह भी घोषणा की कि सरकार ने पूरे देश में सेना और पुलिस को सड़कों पर तैनात कर दिया है " ताकी आम लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके." इसके अलावा उपराष्ट्रपति ने इस बात की भी घोषणा की कि उन्होंने दो अमरीकी राजनयिकों को देश की सेना पर जासूसी करने के कारण देश से निकाल दिया है. इस बीच सेना ने एक बयान दे कर कहा है कि वो देश लोगों की रक्षा करते रहेंगे साथ ही वो देश के उपराष्ट्रपति और संसद के प्रति प्रतिबद्ध हैं.
चावेज़ का अंतिम संस्कार शुक्रवार को स्थानीय समयानुसार सुबह 10 किया जाएगा.
लोकप्रिय और विवादित नेता
पिछले 14 सालों से क्लिक करें वेनेजुएला के राष्ट्रपति रहे 58 वर्षीय समाजवादी नेता ह्यूगो चावेज़ ने पिछले साल अक्टूबर महीने में ही चुनाव जीते थे और अगले छह सालों के लिए उन्होंने जनादेश प्राप्त किया था. ह्यूगो चावेज़ लातिन अमरीका के सबसे मुंहफट और विवादास्पद नेताओं में से एक थे. सेना में पैराट्रूपर रहे जावेज़ साल 1992 में सैन्य तख्तापलट की विफल कोशिश के बाद नेता के तौर पर पहली बार सुर्खियों में आए थे. फिर छह वर्ष बाद ही वेनेज़ुएला की राजनीति में मची उथल-पुथल के बाद वे जनाक्रोश की लहर पर सवार होकर राष्ट्रपति की कुर्सी तक पहुंच गए.
इसके बाद चावेज़ एक के बाद एक कई चुनाव और जनादेश अपने नाम करने में कामयाब होते गए. इनमें वो संवैधानिक जनादेश भी शामिल है जिसमें संविधान में बदलाव करके कहा गया था कि कोई व्यक्ति कितनी भी बार राष्ट्रपति बन सकता है.
http://www.bbc.co.uk/hindi/international/2013/03/130305_breaking_news_hugo_chavez_dies_sy.shtml
ह्यूगो चावेज़: अमरीका की नाक में दम करने वाला नेता
ह्यूगो चावेज़ चौथी बार दक्षिण अमरीकी देश वेनेज़ुएला के राष्ट्रपति चुन लिए गए हैं. अगले छह साल के लिए राष्ट्रपति पद संभालनेवाले चावेज़ 1998 से वेनेज़ुएला का नेतृत्व कर रहे हैं और उन्हें लैटिन अमरीका के सबसे चर्चित, मुखर और विवादास्पद शख्सियतों में से एक माना जाता है. राजनीति में आने से पहले वायुसैनिक रहे चावेज़ ने 1992 में वेनेज़ुएला में एक असफल सैनिक विद्रोह का नेतृत्व किया था. और छह साल बाद उन्होंने परंपरागत राजनीति में भूचाल लाते हुए लोगों का भारी जनसमर्थन हासिल किया और देश के राष्ट्रपति बन गए. उसके बाद चावेज़ ने कई चुनाव और जनमत संग्रह में जीत हासिल की. जनता के भारी समर्थन के बल पर उन्होंने राष्ट्रपति के असीमित कार्यकाल संबंधी सांविधानिक बदलाव पर भी जनमत संग्रह में विजय हासिल की. चावेज़ के समर्थक कहते हैं कि वो गरीबों के हित की बात करते हैं जबकि उनके आलोचक उनपर निरंकुश होने का आरोप लगाते हैं.
कैंसर
ह्यूगो चावेज़ और क्यूबाई नेता फ़िदेल कास्त्रो गहरे दोस्त हैं. 1954 में पैदा हुए चावेज़ को 2011 में कैंसर का मुकाबला करना पड़ा. कई ऑपरेशनों कीमोथेरेपी के बाद बताया जाता है कि वो कैंसर से उबर गए हैं लेकिन उनकी बीमारी की सही स्थिति की जानकारी कभी सार्वजनिक नहीं हो सकी. अमरीका विरोधी और वामपंथी विचारधारा के समर्थक ह्यूगो चावेज़ क्यूबाई नेता फिदेल कास्त्रो और उनके भाई राउल कास्त्रो के क़रीबी दोस्त माने जाते हैं. यहां तक कि कैंसर का इलाज करवाने के लिए भी वो क्यूबा ही गए. चावेज़ अक्सर ये तर्क देते हैं कि वेनेज़ुएला में सामाजिक क्रांति की जड़ें मज़बूत बनाने के लिए उन्हें और समय की ज़रूरत है. वेनेज़ुएला में 1958 से लोकतांत्रिक सरकार थी और देश की दो मुख्य पार्टियों पर लगातार भ्रष्टाचार और तेल संसाधनों के ग़लत इस्तेमाल के आरोप लगते रहे थे. ह्यूगो चावेज़ ने देश की जनता को क्रांतिकारी सामाजिक नीतियों का वादा किया और लगातार देश की सत्ता पर बैठे दलों और उसके नेताओं पर अंतरराष्ट्रीय पूंजी के हाथों की कठपुतली बनने का आरोप लगाते रहे. देश को संबोधित करने का कोई मौका नहीं चूकने वाले चावेज़ ने एक बार तेल के कथित ठेकेदारों को व्यभिचार और शराब में डूबे विलासी की संज्ञा दी थी. चावेज़ ने अपने राजनीतिक जीवन में कई बार चर्च को भी आड़े हाथ लिया. उन्होंने चर्च पर ग़रीबों की अवहेलना करने, विपक्ष का साथ देने और अमीरों का बचाव करने का आरोप लगाया था.
अमरीका से संबंध
चावेज़ ने अमरीकी राष्ट्रपति पर 2001 में आतंक से आतंक का मुक़ाबला करने का आरोप लगाया था. अमरीका के साथ उनके संबंध हमेशा तल्ख़ रहे लेकिन संबंधों में और कड़वाहट तब पैदा हुई जब उन्होंने बुश प्रशासन पर 2001 के अफगानिस्तान युद्ध को लेकर आरोप लगाया कि अमरीका सरकार आतंक का मुकाबला आतंक से कर रही है. चावेज़ ने अमरीका पर 2002 के उस तख्तपलट में शामिल होने का आरोप भी लगाया जिसकी वजह से उन्हें कुछ दिनों के लिए सत्ता से बेदखल होना पड़ा था. संकट की इस घड़ी से दो साल बाद चावेज़ और मज़बूत होकर उभरे जब देश की जनता ने एक जनमत संग्रह में उनके नेतृत्व का भारी समर्थन किया. उसके बाद 2006 के राष्ट्रपति चुनाव में वो फिर चुन लिए गए. चावेज़ की सरकार ने अपने सामाजिक कार्यक्रमों के तहत वेनेज़ुएला में कई सुधार लागू किए जिनमें सबके लिए शिक्षा और स्वास्थ्य शामिल हैं. हालांकि इन सुधारों और धनी तेल संपदा के बावजूद देश में बड़े पैमाने पर ग़रीबी और बेरोज़गारी है. चावेज़ अपने भाषण के ख़ास अंदाज़ के लिए मशहूर हैं और इसका इस्तेमाल वो साप्ताहिक टीवी कार्यक्रम में जमकर करते हैं. इस टीवी कार्यक्रम का नाम है 'हलो प्रेसीडेंट' जिसमें वो अपने राजनीतिक विचारों के बारे में बात करते हैं, मेहमानों का इंटरव्यू लेते हैं और नाचने और गाने से भी परहेज़ नहीं करते. अब एक बार फिर से वेनेज़ुएला की जनता ने ह्यूगो चावेज़ के नेतृत्व में भरोसा जताया है और अगले छह साल के लिए उन्हें राष्ट्रपति की कुर्सी प्रदान कर दी है.
http://www.bbc.co.uk/hindi/international/2012/10/121008_international_us_plus_chavez_profile_akd.shtml
ह्यूगो चावेज़: तानाशाह या 'लोगों का मसीहा'?
ह्यूगो चावेज़ की छवि एक मुंहफट वक्ता की थी. पिछले साल अक्तूबर में छह और वर्ष के लिए राष्ट्रपति का पद अपने नाम करने वाले ह्यूगो चावेज़ लातिन अमरीका के सबसे मुंहफट और विवादास्पद नेताओं में से एक थे. सेना में पैराट्रूपर रहे चावेज़ साल 1992 में सैन्य तख्तापलट की विफल कोशिश के बाद नेता के तौर पर पहली बार सुर्खियों में आए थे. फिर छह वर्ष बाद ही वेनेज़ुएला की राजनीति में मची उथल-पुथल के बाद वे जनाक्रोश की लहर पर सवार होकर राष्ट्रपति की कुर्सी तक पहुंच गए. इसके बाद चावेज़ एक के बाद एक कई चुनाव और जनादेश अपने नाम करने में कामयाब होते गए. इनमें वो संवैधानिक जनादेश भी शामिल है जिसमें संविधान में बदलाव करके कहा गया था कि कोई व्यक्ति कितनी भी बार राष्ट्रपति बन सकता है. राष्ट्रपति चावेज़ ये तर्क देते रहे कि वेनेज़ुएला में समाजवादी क्रांति जड़े गहरी करने के लिए उन्हें और समय की आवश्यकता है. चावेज़ के समर्थकों का कहना है कि वे गरीबों के हित की बात करते हैं, वहीं उनके आलोचक कहते हैं कि उनकी तानाशाही बढ़ती गई. साल 2011 में सर्जरी और कीमोथैरेपी के बाद मई 2012 में चावेज़ ने कहा कि वे कैंसर से उबर आए हैं. लेकिन 8 दिसम्बर 2008 को राष्ट्रपति चावेज़ ने घोषणा करते हुए कहा कि उन्हें और सर्जरी कराने की ज़रूरत है. उन्होंने अपने संभावित उत्तराधिकारी के तौर पर उप-राष्ट्रपति निकोलस मेडुरो का नाम आगे बढ़ाया.
सरकार गिराने की कोशिश
चावेज़ सत्ता पाने के चक्कर में जेल भी गए. फरवरी 1992 में चावेज़ ने खर्चों में कटौती के उपायों से लोगों में बढ़ते आक्रोश के बीच राष्ट्रपति कार्लोस एंड्रेज़ पेरेज़ की सरकार गिराने की कोशिश की. इस विफल सैन्य तख्तापलट की आधारशिला एक दशक पहले ही रखी गई थी जब चावेज़ और उनके कुछ सैन्य सहयोगियों के दल ने दक्षिण अमरीकी स्वतंत्रता के नायक सिमोन बोलिवर के नाम पर एक गुप्त आंदोलन शुरु किया था. साल 1992 में रेवॉल्यूशनरी बोलिवियन मूवमेंट के सदस्यों के विद्रोह में 18 लोग मारे गए थे और 60 अन्य घायल हुए थे. इसके बाद चावेज़ को पकड़कर जेल में डाल दिया गया था. उनके सहयोगियों ने नौ महीने बाद भी सत्ता पर कब्जे की नाकाम कोशिश की थी. नवम्बर 1992 में तख्तापलट के दूसरे प्रयास को भी कुचल दिया गया था. माफी मिलने से पहले चावेज़ ने जेल में दो वर्ष बिताए और इसके बाद उन्होंने मूवमेंट फॉर फिफ्थ रिपब्लिकन नाम से अपने पार्टी दोबारा संगठित की. अब वो सैनिक से नेता बन गए थे. वर्ष 1998 के चुनावों के बाद चावेज़ सत्ता पर काबिज हुए. अपने ज्यादातर पड़ोसी मुल्कों की तुलना में वेनेज़ुएला में साल 1958 से ही लोकतांत्रिक सरकारें रही हैं. लेकिन सत्ता पर बारी-बारी से काबिज होते रहे देश के दो प्रमुख राजनीतिक दलों पर भ्रष्टाचार और देश की अतुल तेल सम्पदा के दोहन के आरोप लगते रहे.
क्रांतिकारी सामाजिक नीतियों का वादा
ह्यूगो चावेज़ ने चर्च के नेताओं को भी आड़े हाथों लिया था. ह्यूगो चावेज़ ने देश की सामाजिक नीतियों में क्रांतिकारी सुधार का वादा किया और अंतरराष्ट्रीय पूंजीवाद पर लगातार हमला बोलते रहे. वे राष्ट्र को संबोधित करने के किसी भी मौके से कभी चूकते नहीं थे. तेल-उद्योग से जुड़े लोगों के बारे में एक बार चावेज़ ने कहा था कि ये वो लोग हैं जो विलासिता का जीवन जीते हैं और व्हिस्की पीते हैं. चर्च के नेताओं के साथ भी चावेज़ का लगातार टकराव होता रहा. चावेज़ ने उन पर गरीबों की अनेदखी करने और अमीरों का पक्ष लेने का आरोप लगाया. 11 सितम्बर 2001 के बाद बुश प्रशासन ने अफगानिस्तान युद्ध के दौरान कड़ा रवैया अपनाया तो चावेज़ ने अमरीका पर आरोप लगाया कि वो आंतक से निपटने के लिए आंतक का ही इस्तेमाल कर रहा है. इससे दोनों देशों के संबंध और भी खराब हो गए. साल 2002 में एक विद्रोह के जरिए चावेज़ को कुछ दिनों के लिए सत्ता से बेदखल कर दिया गया था. चावेज़ ने इसके पीछे अमरीका का हाथ होने का आरोप लगाया था. तमाम घटनाक्रमों से उबरते हुए चावेज़ ने दो वर्ष बाद जनादेश हासिल किया और वे एक सशक्त नेता के रूप में उभरे. इसके बाद साल 2006 का राष्ट्रपति चुनाव भी उन्होंने जीत लिया. चावेज़ की सरकार ने शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं समेत कई क्षेत्रों में तरह-तरह के कार्यक्रमों की शुरुआत की, लेकिन वेनेज़ुएला में अभी भी गरीबी और बेरोजगारी बरकरार है जबकि देश के पास तेल सम्पदा का भंडार है. चावेज़ की छवि एक मुंहफट वक्ता की थी जो इसके लिए हर हफ्ते एक टीवी कार्यक्रम का सहारा लेते थे जिसका नाम हैलो प्रेसीडेंट था. इस कार्यक्रम के जरिए वे अपने राजनीतिक विचार जाहिर करते थे, अतिथियों का साक्षात्कार करते थे और नाचते-गाते भी थे.
http://www.bbc.co.uk/hindi/international/2013/03/121214_hugo_chavez_obit_sdp.shtml

ह्यूगो शावेज के लिए एक कविता - माइकेल डी. मोरिस्से
(20 सितम्बर 2006 को शावेज ने अपना मशहूर कराकास भाषण दिया था और उसके अगले ही दिन अमरीकी कवि माइकेल डी. मोरिस्से ने उस भाषण की प्रशंसा में अंतरराष्ट्रवाद से ओतप्रोत यह कविता लिखी थी.)
तुम्हारे शब्द ढाढस बंधाते हैं क्षतिग्रस्त राष्ट्र को
तुम्हारे ही नहीं, बल्कि मेरे लंगड़ाते दिग्गज राष्ट्र को भी
जिसकी आत्मा लहूलुहान कर दी है अपने ही नेताओं ने,
उन्हीं लोगों ने जिन्हें तुम कहते हो
साम्राज्यवादी और शैतान, हत्यारे, उत्पीडक.

हमे भी पता है यह. लेकिन इसे तुम्हारे मुँह से सुनना जरूरी है
क्योंकि हम जानते हैं तुम हमारे मित्र हो.
तुम हमें भाई कहते हो, और हमें तुम पर भरोसा है.
तुम हमें याद दिलाते हो दस्तावेजी सबूत के साथ, सीआइए के अपराधों की
जिन्हें अंजाम दिया गया न सिर्फ तुम्हारे देश के खिलाफ,
बल्कि कई दूसरे देशों और खुद हमारे अपने ही देश के खिलाफ.

तुम जानते हो कि 9/11 और उसके बाद जो कुछ हुआ
उन सब के पीछे शैतान बुशको था, और तुम्हें कोई भय नही इसे बताने में.
चोमस्की नहीं जा सके इस हद तक, लेकिन डेविड ग्रिफिन गये
और सहमत हैं तुमसे शैतान के विषय में.

हमने भी यही किया. हम जनता के लोग
जो गर्क हो रहे हैं बीते युग के जर्मनी जैसे फासीवाद में,
जिन्होंने इतिहास से कोई सबक नहीं ली,
गूंगे, बहरे और अंधे हो गये 9/11 से नहीं
बल्कि टेलीविजन और न्यू यार्क टाइम्स के धमाकों से
जो वर्षों पहले शैतान के हाथों बिक चुके थे.

अब तुम आये, ह्यूगो शावेज, कहते हुए वह सब जो
टाइम्स नहीं छापेगा, लेकिन हमारे दिल धधक रहे थे कहने को
संयुक्त राष्ट्र की आम सभा से पहले ही.

धन्यवाद दे रहे हैं तुम्हें इतने तुच्छ रूप में, इस उम्मीद के साथ
कि कल ये छोटी-छोटी आवाजें गूंजेंगी समवेत सुर में
जैसे आज तुम्हारे देश में, और बोलीविया में
और एक दिन हमारे यहाँ भी होगा असली चुनाव फिर से
और हम चुनेंगे तुम्हारे जैसे लोग जो सच बोलेंगे
और वैसा ही करेंगे वे जो हम चाहते हैं
न कि जैसा वे करना चाहते है, हमें गुलाम बनाने के लिए,
हमारी जान लेने कंगाल बनाने और लूटने के लिए, और हद तो यह
कि हमें पता भी नहीं इन जुल्मों का, इस ख्याल में कि आजाद हैं हम,
दुनिया का सबसे महान देश.
पूरे इतिहास में क्या इससे ज्यादा घृणास्पद राजसत्ता हुई है कोई?

और वे सोचते थे कि आजाद हैं वे!
यही दर्ज होगा हमारी कब्र के पत्थर पर
तिरस्कर्ताओं के उप-राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से,
अगर हम जागते नहीं, मेरे भाई, और हँसते नहीं तुम्हारी तरह
भाईचारे और न्याय की हँसी. सलाम, अमरीकियों के दोस्त, ह्यूगो.
(अनुवाद- दिगम्बर)