Sunday 29 July 2012

कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचन्द की प्रेरक स्मृति को नमन!





कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचन्द की प्रेरक स्मृति को नमन!

प्रेमचन्द का उदय ऐसे काल में हुआ था, जब विश्व में साम्राज्यवादी व्यवस्था चरमरा रही थी और हमारे पराधीन राष्ट्र के योद्धा भी प्रथम स्वाधीनता समर की पराजय के पश्चात पुनर्जागरण काल में रूढ़िवादी, सामन्तवादी परम्पराओं पर करारे प्रहार करने लगे थे। उपनिवेशवाद से मुक्ति की उग्र छटपटाहट से आभामण्डित कथा-सम्राट की विचार-यात्रा का प्रस्थान बिन्दु गाँधीवाद है। आदर्शवाद तथा यथार्थवाद की मोहक भूलभुलैया से होती हुई इस यात्रा का समापन जीवन के अन्तिम वर्षों में मार्क्सवाद पर पहुँच कर होता है।

प्रेमचन्द का युग समूची धरती पर परिवर्तन का युग था। दुनिया को लूटने में मशगूल साम्राज्यवादी लुटेरे दुनिया के बाज़ार को अपने-अपने उपनिवेशों में बाँटने-बदलने की साजिशों के चरम के तौर पर बार-बार विश्व-युद्धों के दावानल धधका रहे थे। दूसरी ओर पेरिस कम्यून के वीर शहीदों के महान वारिसों ने रूस की विराट जारशाही को ध्वस्त कर डाला था और शोषित-पीड़ितों के सपनों की समाजवादी समाज-व्यवस्था की रचना सोवियत-संघ में करते जा रहे थे। पड़ोस में नव जनवादी क्रान्ति का मन्त्र रचने वाले महान माओ लाल इलाकों की स्थापना करने में जुटे थे। एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के ग़ुलाम बेचैन थे। फ़िजाँ में साम्यवाद की सफलता के गीत गूँज रहे थे। राष्ट्र दासता की शृंखलाओं पर घन बरसा रहा था और गोरे-काले लुटेरे ज़ालिम ज़ुल्म और लूट की अन्धेरगर्दी बरपा किये हुए थे।

31 जुलाई, 1880 को लमही (वाराणसी) में जन्मे मुंशी प्रेमचन्द ने 36 वर्षों तक सतत उर्दू तथा हिन्दी साहित्य को माध्यम बना कर शोषितों, दलितों, उपेक्षितों, अनाथों की व्यथा तथा विद्रोह को स्वर दिया। नवाब राय के नाम से ‘सोज़-ए-वतन’ नामक क्रान्तिकारी रचना लिखने और उसके ज़ब्त होने के साथ ही धनपत राय वल्द अजायब राय को सरकारी नौकरी को लात मारने और प्रेमचन्द बन मैदान-ए-जंग में कूद पड़ने के अवसर ने कलम का सिपाही बना दिया।

उपन्यास-सम्राट ने बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के उपनिवेशवाद विरोधी स्वाधीनता-समर को अपनी रचनाओं में मुखरित किया, असंख्य धार्मिक, सामाजिक, मानसिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, पारिवारिक, राजनैतिक, वैचारिक विकृतियों का पर्दाफ़ाश किया तथा बार-बार शासक वर्गों को बाँटने और राज करने की कुटिल साज़िशों को धूल-धूसरित किया। लोकजीवन के महान चितेरे ने स्पष्ट रूप से अपनी वर्गीय पक्षधरता चुनी। उन्हें पाखण्ड तथा लूट पर टिके ऐश्वर्यशाली वर्ग से तीखी घृणा थी और दीन-दुखियों, भूमिहीन किसानों, विधवाओं, कन्याओं तथा बच्चों से हार्दिक सहानुभूति। देशभक्ति, निस्पृहता, आदर्श, बलिदान, सेवा, समर्पण, संकल्प, संवेदना तथा विद्रोह ने प्रेमचन्द के शस्त्रागार को समृद्ध किया और किसानों के शोषण, चमारों की दुर्दशा, सवर्णों की क्रूरता, धर्म के ठेकेदारों की कृतघ्नता, राजनेताओं की कुटिलता, सूदखोरों की लालच, निकम्मों की काहिली, मक्कारों की बेहयाई और जीने में भी मुश्किलें पैदा करने को कटिबद्ध विषम आर्थिक परिस्थिति - सबको प्रेमचन्द के ज़मीर ने सदैव ललकारा और अपनी सतत साधना के प्रतिवाद का पात्र बनाया। ‘रंगभूमि’ के सूरदास के रूप में गाँधीवादी प्रेमचन्द, ‘प्रेमाश्रम’ में प्रेमशंकर के आदर्शवादी रंग में रंगता है और अन्ततः ‘गोदान’ तक आते-आते फिरंगी शोषकों के साथ ही गाँव की गलियों में रेंगती छोटी-बड़ी सभी तरह की जोंकों को चिह्नित कर ले जाता है। जीवन की संध्या में ‘महाजनी सभ्यता’ तथा ‘मंगलसूत्र’ लिखकर और ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के संस्थापक अध्यक्ष बनकर वह पूँजीवाद की अमानवीयता के प्रति घृणा और सशस्त्र क्रान्तिकारी विद्रोह के औचित्य को पूरी स्पष्टता के साथ बेझिझक हो उकेरते हैं। इस तरह प्रेमचन्द का विराट व्यक्तित्व अपने चरम पर मार्क्स के साम्यवाद के साथ साफ-साफ जा खड़ा होता है और हम सबसे भी अपना पक्ष - क्रान्तिकारी जन-पक्ष चुनने का नित-निरन्तर आग्रह करता है, क्योंकि आज भी उनके विचार प्रासंगिक और प्रेरक हैं। ज़मींदार न रहे तो क्या? खेतिहर मज़दूर तो हैं। कल के किसान के पुत्र और सामन्त से भी अधिक बढ़ कर शोषण करने वाले नवधनवान कुलक किसान भी हैं। औपनिवेशिक दासता न रही तो क्या? वित्तीय नव-उपनिवेशवाद का डंकल छाप नाग-पाश तो है, राष्ट्रीय स्वाधीनता को बेच खाने वाले पतित पूँजीवादी राजनेता तो हैं। देशी और विदेशी पूँजी का गठबन्धन अपने नापाक मन्सूबों में कामयाब तो है। ग़रीब की ज़िन्दगी नरक तो है। ऐसे में, आइए, देखें प्रेमचन्द की कलम की मशाल से निकली चिनगारियों को और सोचें कि हमें क्या करना होगा! हमारा फर्ज क्या है!

(उद्धरण मित्र अमरनाथ मधुर के सौजन्य से)

'समाज का चक्र साम्य से शुरू होकर फिर साम्य पर ही ख़त्म हो जाता है एकाधिपत्य, रईसों का प्रभुत्व उसकी मध्यवर्ती दशाएं हैं. -[पशु से मनुष्य]

"संसार आदिकाल से लक्ष्मी की पूजा करता चला आता है. लेकिन संसार का जितना अकल्याण लक्ष्मी ने किया है, उतना शैतान ने भी नहीं किया. यह देवी नहीं डायन है. संपत्ति ने मनुष्य को क्रीतदास बना लिया है. उसकी सारी मानसिक, आत्मिक और दैहिक शक्ति केवल संपत्ति के संचय में बीत जाती है. मरते दम तक भी हमें यही हसरत रहती कि हाय, इस संपत्ति का क्या होगा. हम संपत्ति के लिए जीते हैं, उसी के लिए मरते हैं. हम विद्वान बनते हैं संपत्ति के लिए, गेरुए वस्त्र धारण करते हैं संपत्ति के लिए. घी में आलू मिलाकर हम क्यों बेचते हैं? दूध में पानी क्यों मिलाते हैं? भांति-भांति के वैज्ञानिक हिंसा-यंत्र क्यों बनाते हैं? वेश्याएं क्यों बनती हैं? और डाके क्यों पड़ते हैं? इसका एक मात्र कारण संपत्ति है. जब तक सम्पत्तिहीन समाज का संगठन नहीं होगा, जब तक संपत्ति-व्यक्तिवाद का अंत नहीं होगा, संसार को शांति नहीं मिलेगी." -"राष्ट्रीयता और अंतर्राष्ट्रीयता" लेख से

"...जब तक साहित्य का काम केवल मनबहलाव का साधन जुटाना, केवल लोरियां गाकर सुलाना, केवल आंसू बहकर जी हल्का करना था, तब तक इसके लिए कर्म की आवश्यकता नहीं थी. वह एक दीवाना था, जिसका ग़म दूसरे खाते थे, मगर हम साहित्य को केवल विलासिता की वस्तु नहीं समझते. हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो - जो हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं; क्योंकि अब और ज़्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है..." - प्रेम चंद (मोहन श्रोत्रिय के सौजन्य से)

जनता को आज संस्कृतियों की रक्षा करने का न अवकाश है न जरूरत | संस्कृति अमीरों का, पेट भरों का, बेफिक्रों का व्यसन है| दरिद्रों के लिए प्राण रक्षा ही सबसे बड़ी समस्या है . - [साम्प्रदायिकता और संस्कृति ]

अगर साम्प्रादायिकता अच्छी हो सकती है तो पराधीनता भी अच्छी हो सकती है .मक्कारी भी अच्छी हो सकती है. हम तो साम्प्रदायिकता को समाज का कोढ़ समझते हैं.- [ अच्छी और बुरी साम्प्रदायिकता ]

साम्यवाद का वही विरोध करता है जो दूसरों से ज्यादा सुख भोगना चाहता है.-[ हवा का रुखा ]

भाग्यवाद सरकार का सबसे बड़ा टैक्स कलक्टर है . - [बजट १९१४]

हार में हमें अपनी कमजोरियां सूझती हैं और जीत में खूबियाँ. -[ठेलमठेल] 

भेष और भीख में सनातन की मित्रता है . -[गबन ]

वियोगियों के मिलन की रात बटोहियों के पडाव की रात है जो बातों में कट जाती है .- [गबन ]

प्रेम सीधी सादी गौ नहीं शेर है जो अपने शिकार पर किसी की आँख भी नहीं पड़ने देता है . -[गोदान ]

जिस पेट के लिए रोटी मयस्सर नहीं उसके लिए मरजाद और इज्जत ढोंग है . -[ गोदान ]

मोटे वह होते हैं जिन्हें न ऋण का सोचा होता है न इज्जत का. इस जमाने में मोटे होना बेहयाई है. सौ को दुबला करके एक मोटा होता है. ऐसे मोटेपन में क्या सुख? सुख तो तब है जब सब मोटे हों. -[गोदान ]

बूढों के लिए अतीत के सुखों, वर्तमान के दुखों और भविष्य के सर्वनाश से ज्यादा मनोरंजक और कोई प्रसंग नहीं होता . -[गोदान ]

दरिद्रता और धरोहर में वही सम्बन्ध है जो कुत्ते और मांस में . -[ दो भाई ]

देहात का रास्ता सांझ होते ही बच्चों की आँख की तरह बंद हो जाता है . -[पंच परमेशवर ]

जब दूसरों के पांव के तले गर्दन दबी हो तो उन पांवों को सहलाने में ही सुख है .-[गोदान ]

यदि साहित्यकार ने अमीरों का याचक बनने को जीवन का सहारा मान लिया है और उन आन्दोलनों ,हलचलों , क्रांतियों से बेखबर हो, जो समाज में हो रही हों, तो इस दुनिया में उसके लिए कोई जगह न होने में अन्याय नहीं है.- प्रेमचन्द

Sunday 15 July 2012

कोयल



कोयल  - एक
कोयल पागल हो बैठी है, अपनी सुध-बुध खो बैठी है।
बोल रही है, डोल रही है, अपने पर वह तोल रही है।
आज़ादी से गाती कोयल, सबके मन सरसाती कोयल।
आज़ादी का मूल्य चुकाती, मौसम आने पर ही गाती।

उसमें धीरज का भी बल है, बेमौसम चुप का सम्बल है।
यदि कोयल धीरज खो देती, बेमौसम ही गाती-रोती,
किसे भला फिर अच्छी लगती, भोली मनबढ़ बच्ची लगती।
इसकी विरह-व्यथा संगीन, प्रकृति नटी की अद्भुत बीन।
दीवानापन तनिक न दीन, सतत साधना-सुर में लीन।

कोयल की सुर-तान भली है, बिलकुल मस्तानी पगली है।
क्या कोई भी रोक सका है, इस सरगम को टोक सका है?
शासक भी क्या झुका सका है, कहाँ बन्दिनी बना सका है?
इसकी गर्वीली बोली पर कोई पहरा लगा सका है?

कोमल किसलय इसको प्यारा, सबसे सुन्दर सबसे न्यारा।
सहज लालिमामय किसलय-दल, बिलकुल काली अपनी कोयल।
यह बेमेल स्नेह-सम्बन्ध, जीवन के मद का अनुबन्ध,
समझ गये तो सुख पाओगे, तुम भी नाचागे-गाओगे,
वरना अपनी जड़ करनी पर आगे-पीछे पछताओगे!

कोयल  - दो
कोयल उदास हो बैठी है, कितनी पीड़ा है - ऐंठी है!
ना राजा है, ना रानी है, कोयल की करुण कहानी है।
जंगल में आग लगाने को, कलरव की गूँज मिटाने को,
कुत्सा-प्रचार फैलाने को, कोयल को दुःखी बनाने को,

कुछ नर-पिशाच निज स्वार्थ-लीन, षडयन्त्र कर रहे हैं महीन।
धू-धू करके जलता जंगल, चीत्कार कर रहे जीव सकल।
कोयल के अण्डे फूट गये, कोयल के बच्चे छूट गये।
पड़ गयी अकेली है कोयल, कैसे खोले निज स्वर कोमल?

आशा टूटी, डाली छूटी, जल रहा घोंसले का निवास,
दुर्दान्त शिकारी अट्टहास, कर रहे उठा कर बाहु-पाश।
उपहास कर रहे कोयल के गीतों का, मीठी तानों का,
अपमान कर रहे कोयल की निष्कलुष प्रवीण उड़ानों का।

क्या कोयल रोती जायेगी? फिर कब-कैसे वह गायेगी?
सोचो, तुमको क्या करना है? क्या वन में मंगल भरना है?
फिर से हरियाली लाने को, षड्यन्त्र नष्ट कर पाने को,
अपनी ताकत एकत्र करो, वृक्षारोपण सर्वत्र करो।

तब नयी कोपलें फूटेंगी, कोयल की कुण्ठा टूटेगी।
फिर से कोयल पागल होगी, अपनी धुन में प्रतिपल होगी।
उम्मीद भरा जीवन होगा, कोयल का पुनर्मिलन होगा।

Thursday 12 July 2012

लोकतंत्र में शिक्षा के साथ षड़यंत्र - यादवचन्द्र


लोकतंत्र में शिक्षा के साथ षड़यंत्र
यादवचन्द्र
सृजन और सरोकार ब्लॉग से साभार (यह आलेख ‘अभिव्यक्ति’ के ३८वें अंक में प्रकाशित हुआ है, वहीं से साभार )
‘‘विद्यालय से सीखा हुआ सब कुछ भूल जाने के बाद भी जो बच जाता है, वही शिक्षा है।…. किसी मनुष्य का मूल्य इससे तय किया जाना चाहिये कि वह कितना देता है, न कि वह कितना पा सकने में सक्षम है।’’
‘‘हम विद्यालय को, नई पीढ़ी तक अधिक से अधिक ज्ञान को हस्तांतरित करने वाले मात्र साधन के रूप में देखते हैं – जो गलत है। ज्ञान मृत होता है, जब कि विद्यालय जीवितों की सेवा करता है। इसे अल्प-वयस्कों के बीच उन गुणों एवं क्षमताओं को विकसित करना चाहिए जो समाज के लिए मूल्यवान हैं।’’
‘‘क्या हम इस आदर्श को नीति-प्रवचनों द्वारा पाने का प्रयास करें, कदापि नहीं। शब्द खोखले हैं और रहेंगे। तथा किसी आदर्श की महज मुंहपुराई से सदा सत्यानाश का ही मार्ग प्रशस्त हुआ है। व्यक्तित्व का निर्माण श्रम और कार्य से होता है, न कि उससे जो सुना गया और कहा गया।’’
उपरोक्त विचार विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टाइन के हैं जो अमरीकी उच्च शिक्षा के एक समारोह में अलबनी ( न्यूयार्क ) में 15 अक्टूबर 1936 को व्यक्त कर रहे थे। इसी क्रम में विद्यालय की भूमिका पर उन्होंने कहा कि – ‘‘विद्यालय के काम की सबसे महत्वपूर्ण प्रेरणा है काम से मिलने वाला आनन्द, उसके फल की प्राप्ति का आनन्द तथा समाज के लिए इस फल के महत्व का ज्ञान। इन मनोभावों को युवावर्ग के बीच जाग्रत करना और उन्हें मजबूत बनाना ही विद्यालय का सब से महत्वपूर्ण कार्य है।’’
‘‘विद्यालय का लक्ष्य सदा ही यह होना चाहिए कि यहां से नवजवान समन्वित व्यक्तित्व से सम्पन्न होकर निकलें, नाकि विशेषज्ञ के रूप में। स्वतंत्र चिंतन एवं निर्णय की क्षमता के विकास को सर्वोपरि लक्ष्य मानना चाहिए, न कि विशेष ज्ञान की प्राप्ति को।’’
आज, कुकुरमुत्ते की तरह भारत की छाती पर उगी प्राइवेट स्कूलों की तादाद कौन सी तस्वीर, कौन सा आदर्श प्रस्तुत कर रही है, यह इस व्यवसाय में पूंजी लगाने वाले ही बेहतर जानते हैं। हां, यह सच है कि शिक्षा सम्बन्धी नीतियों का निर्धारण सदा शासक वर्ग अपनी जरूरतों और वर्ग हितों को ध्यान में रखकर ही करता आया है। मानव सभ्यता के हजारों वर्षों के वर्ग विभाजित समाज के इतिहास में शिक्षा प्रत्येक युग में शासक वर्ग द्वारा संचालि आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक मान्यताओं एवं अवधारणाओं का न केवल पृष्ठ पोषण करती है बल्कि उसकी यथास्थिति को बरकरार रखने के लिए सैद्धांतिक एवं वैचारिक आधार भी प्रदान करती है। वर्ग विभाजित समाज में वर्गीय संरचना से जुड़े होने के कारण शिक्षा स्वतंत्र, निष्पक्ष एवं तटस्थ भूमिका का निर्वाह कर ही नहीं सकती। यह वर्ग विहीन समाज में ही सम्भव है।
भारत में भी अपना उपनिवेश कायम रखने और नव स्थापित रेलवे, डाक, तार आदि के रख रखाव और चंद उद्योगों के संचालन हेतु अंग्रेजों को कुछ प्रशिक्षित अभियंताओं, शिक्षकों, डॉक्टरों, प्रशासकों से लेकर किरानियों और चपरासियों की जरूरत पड़ी। अंग्रेजों ने अपने हित का ख्याल रखते हुए ब्रिटिश पद्धति से पाठ्यक्रम लगाए। मैकाले ने गुलामों के लिए एक मुकम्मिल शिक्षा की रूप रचना तैयार की जो आजादी के बाद भी हमारी शिक्षा के रूप-विधा-नीति-निर्देशक आदि का आधार बना हुआ है।
अंग्रेजों की इस शिक्षा की बखिया उधेड़ते हुए सितम्बर 1933 में मुंशी प्रेमचन्द ने लिखा – ‘‘समाज पर अब तक व्यक्तिवाद की प्रमुखता रही है और हमारी शिक्षा-प्रणाली भी व्यक्ति का ही समर्थन करती है। बचपन से ही व्यक्ति का विकास होने लगता है और यूनिवर्सिटियों में जाकर पूरा हो जाता है। उस सांचे में ढलकर युवक आत्मसेवी, घोर स्वार्थी, मित्रता में भी स्वार्थ की रक्षा करने वाला, पक्का उपयोगितवादी और घमंडी होकर रह जाता है।’’
आगे के शब्दों में वे पूंजीवादी-साम्राज्यवादी शिक्षा के अमानवीय, असामाजिक, निर्लज्ज, फरेबी, मक्कार पहलू का खुलासा चन्द शब्दों में कर रहे हैं- ‘‘हमारी शिक्षा प्रणाली हमारी चेतना को नहीं जगाती, उसका उद्देश्य अपने फायदे के लिए समाज से काम निकालना है। समाज केवल इसलिए है कि वह उसे ( साम्राजियों को ) बढ़ने और संचय करने का अवसर दे। वही मनुष्य सफल समझा जाता है जो समाज को खूब अच्छी तरह एक्सप्लाइट कर सके।’’
डच, फ्रेंच, अंग्रेज, पोर्तुगीज, अमेरिकन या जो भी विदेशी भारत में आए या आ रहे हैं, सब का एकमात्र उद्देश्य रहा है – एक्सप्लाइटेशन-शोषण। सारे थैलीशाहों की शिक्षा आम जनता को बुद्धू, गूंगा, पिछड़ा और परले दर्जे का स्वार्थी बनाती है। 1911 में गोपाल कॄष्ण गोखले ने प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य करने का बिल पेश किया। एसेम्बली ने उसे खारिज कर दिया। इसका कारण बंबई प्रांत के गवर्नर द्वारा वाइसराय के भेजे गए पत्र में साफ-साफ है – ‘‘यदि सभी किसान पढ़ जाएंगे तो असंतोष को उत्तेजना में बदलने की शक्ति बहुत बढ़ जाएगी।’’
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के विरूद्ध अंग्रेजों ने शिक्षण संस्थाओं का भरपूर उपयोग किया। इस दिशा में विद्यार्थियों पर शिक्षक सदा पैनी नजर रखते थे। इस काम के लिए विद्यालयों तथा मन्दिरों-मस्जिदों का उपयोग निर्लज्जतापूर्वक किया जाता था। संस्कृत और उर्दू-फारसी के शिक्षकों को ‘मास्टर साहब’ या ‘सर’ अथवा ‘सब्जेक्ट टीचर’ के संबोधन से नहीं, बल्कि पंडित जी और मौलवी साहब कहकर पुकारा जाता था। ‘रिलीजियस पीरियड’ प्रायः उन्हीं के नाम पर होते थे। पंडितजी और मौलवी साहब ( अन्य शिक्षक भी रहते थे ) हिन्दू और मुसलमान विद्यार्थियों को साथ लेकर मंदिर-मस्जिद में मार्च करते थे। वहां विद्यार्थी, अंग्रेज राजा और अंग्रेज शासन के दीर्घायु होने की कामना करते थे। ईश्वर-अल्लाह की इबादत होती थी। ट्यूनेसिया ( अफ्रीका ) को द्वितीय विश्वयुद्ध के दौर में कुचल डालने या रक्षा के नाम पर यह खूब होता था। जैसे आज भी ईराक की आजादी की लूट की खुशी में भारत से फौज मार्च कराने की बात अमेरिकन आका कर रहे हैं।
एस्काउट के रूप में छात्रों की तीन उंगलियों से यूनियन जैक ( इंगलिश झंडा ) को सलामी देते हुए घोषणा करनी पड़ती थी कि – मैं ईश्वर, देश और ;अंग्रेजद्ध नरेश के प्रति अपना कर्तव्य पालन करूंगा। 1921 के बाद कुछ शिक्षक खादी का कपड़ा भी पहनने लगे। गांधीवादी आदर्श के प्रति शासकों में उदारता आई। किन्तु हॉस्टल या किसी विद्यार्थी के पास से क्रांतिकारी पर्चा निकल आया तो कोहराम मच जाता था। विद्यालय अधिकारी तुरंत पुलिस को खबर करते। ‘सर्च’ शुरू हो जाती। प्रिंसिपल अगर थोड़ा रहमदिल हुआ तो उस लड़के का नाम काट कर भगा देता और उसके ‘कैरेक्टर’ के सम्मुख अंकित कर देता – ‘बैड’।
क्रांतिकारियों से सम्बन्धित पुस्तक पढ़ने के लिए छात्रों के पास शेर का कलेजा होना चाहिए था। हम एक्सील हाई स्कूल के तीन छात्र रात में एक बजे के बाद किसी गुप्त मकान में मन्मथनाथ गुप्त की लिखी किताब पढ़ने के लिए इकट्ठे होते और चार बजते-बजते वहां से फरार हो जाते। इंगलिश लेखक रजनी पामदत्त की भारतीय अर्थशास्त्र पर लिखी किताब ‘आज का भारत’ या सुन्दर लाल की ‘भारत में अंग्रेजी राज’ पर वैसी ही पाबंदी थी। जबकि ‘नेहरूज लेटर्स टू हिज डॉटर’ कोर्स में थी। इसका रहस्य तब स्पष्ट हुआ जब आजादी के बाद मैंने छठे वर्ग के साहित्य में नेहरू जी लिखित ‘चांगकाई शेक’ पढ़ा और तत्कालीन शिक्षा पर 1933 में प्रेमचन्द ने लिखा – ‘‘संसार में इस समय जिस शिक्षा प्रणाली का व्यवहार हो रहा है, वह मनुष्य में ईर्ष्या, घृणा, स्वार्थ, अनुदारता और कायरता आदि दुर्गुणों को पुष्ट करती है और यह क्रिया शैशव अवस्था से ही शुरू जो जाती है। सम्पन्न माता-पिता अपने बालक को जरूरत से ज्यादा लाड़-प्यार करके और बड़े होने पर उसकी दूसरे लड़कों से अच्छी दशा में रखने की चेष्टा करके, उसे इतना निकम्मा बना देते हैं, और उसकी बुनियाद को इतना परिवर्तित कर देते हैं कि वह समाज का खून चूसने के सिवा और किसी काम का रह नहीं जाता।’’
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौर में गोखले, राममोहन राय, महात्मा गांधी, जाकिर हुसैन, काका कालेलकर आदि ने शिक्षा की दिशा में आदर्शवादी ढंग से कुछ सोचा अवश्य लेकिन सोच पूर्णतः एकांकी, आदर्शवादी और अवैज्ञानिक थी। कांग्रेस के अन्दर भी इस पर कभी जमकर बहस नहीं हुई। मदन मोहन मालवीय, जवाहर लाल नेहरू, सर सैयद आदि अंग्रेजी प्रणाली को ही राष्ट्रीय रंग-रोगन देकर कायम रखने की वकालत करते थे। तीसरा भाग पुरुषोत्तम दास टंडन, लियाकत अली, जिन्ना, सम्पूर्णानन्द आदि जैसे उदार सम्प्रदायवादियों का था। वैसे वे विद्या भारती, सरस्वती शिशु मंदिर, संस्कार भारती आदि की तरह तो नहीं थे जो बच्चों से परीक्षा में प्रश्न पूछते हों कि – ‘बाबर ने कब राम मंदिर को तोड़ा और बाबरी मस्जिद का निर्माण किया? या राम जन्मभूमि किस तरह से भगवान राम की जन्म भूमि है?’ आदि आदि। वे गुजरात के शिक्षा परिषद के वर्ग दस की पाठ्य-पुस्तक की तरह खुले आम हिटलर और उसके दर्शन-नाजीवाद की प्रशंसा नहीं छाप सकते थे। ( दि स्टेटसमैन, 1 अप्रैल, 2000 ) क्योंकि परिस्थिति उनके अनुकूल आज भी नहीं है। फिर भी, तत्ववाद और धार्मिक प्रतीति को भी वे राष्ट्रीयता का अंग मानते थे। व्यक्तिवाद उन पर बुरी तरह हावी था। वस्तुतः कांग्रेस सभी तरह के विचारों की वास्तविक ‘कांग्रेस’ थी जिसके पास देश के लिए न कोई राजनीति थी और न अर्थनीति, शिक्षा नीति, विदेश नीति या कोई भी नीति। ऐसी हालत में 1947 के बाद सत्ता से किसी नीति की अपेक्षा रखना निरर्थक है। इनकी नीति-नैतिकता सिर्फ एक ही है – ‘महाजनों जे न गता से पन्था’ अर्थात् जिस रास्ते महाजन जाएंगे, हम भी उसी के पीछे लग जाएंगे।
56 वर्षों से हम प्रजातंत्र का ढोल पीट कर बच्चों को पूंजीवाद की शिक्षा दे रहे हैं। यह सर्वविदित है कि सभी स्कूल-कॉलेजों में पूंजीवादी अर्थशास्त्र पढ़ाया जाता है क्योंकि प्रजातंत्री अर्थशास्त्र होता ही नहीं है। पूंजीवादी और समाजवादी अर्थशास्त्र से अलग कोई अर्थशास्त्र नहीं होता। अर्थशास्त्र के अनुरूप ही देश की अर्थव्यवस्था – शासन, न्याय, शिक्षा, चुनाव आदि सब कुछ होता है। थैलीशाहों का पूंजीवाद बुरी तरह बदनाम हो चुका है। इसलिए अपने लूटतंत्र को वे प्रजातंत्र, जनतंत्र या लोकतंत्र के नाम पर कायम करते हैं और विश्व की 90% मेहनतकश जनता की छाती पर मूंग दलते हैं। भूमंडलीकरण अर्थात् मुट्ठीभर कुबेर पुत्रों द्वारा पूरे भूमंडल की सम्पूर्ण सामाजिक सम्पत्ति के निजीकरण की कार्य योजना ही आज पूंजीवाद का विकसित रूप है।
यह कार्य-योजना सार्वजनिक स्तर पर सर्वप्रथम शिक्षा जगत में भारतीय जनतंत्र के भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी द्वारा वर्ष 1986 की ‘नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ ;छण्च्ण्म्ण्द्ध के साथ प्रस्तावित की गई। आगे चलकर नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्री काल में इसे नई आर्थिक नीति के विकास के साथ जोड़ कर सभी सरकारों ने इसे संगठित करने की मुहिम तेज कर दी, चाहे वह केरल हो या बंगाल। क्या हुआ भारतीय लोकतांत्रित संविधान की घोषणा का? – ‘‘भारतीय संविधान-निर्माण के दस वर्ष के भीतर सब को साक्षर कर दिया जायेगा।’’ क्या हुआ ‘यूनस्को’ के झूठे वायदों का? – ‘‘2000 तक सब को शिक्षित कर दिया जायेगा।’’
तो इसके जवाब में 1986 में हार्वर्ड विश्वविद्यालय ( अमेरिका ) में राजीव गांधी का भाषण सुन लीजिए – ‘‘मैं नहीं समझता कि साक्षरता लोकतंत्र की कुंजी है…हमने देखा है…और मैं सिर्फ भारत की ही बात नहीं कर रहा हूं…कि कभी-कभी साक्षरता दृष्टि को संकुचित बना देती है, उसे विस्तृत नहीं बनाती।’’ लगे हाथ कांग्रेस के तथाकथित प्रमुख विरोधी और भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से भी मिल लीजिए – ‘‘सरकार के लिए सभी भारतीयों को शिक्षित करना सम्भव नहीं। अतः गैर सरकारी संस्थान आगे आए और देश को पूर्ण शिक्षित करें।’’ विद्याभारती द्वारा आयोजित खेल प्रतियोगिता का यह उद्घाटन भाषण वाजपेयी जी ने 12 दिसम्बर 1999 को दिया था। ( दि ऑर्गनाइजर, 9.1.2000 )
अवाम के विरूद्ध मुट्ठीभर सुविधाभोगी सम्पन्न वर्ग के इस दृष्टि-साम्य का कारण बतलाते हुए राममोहन राय ने एकबार कहा था – ‘‘निरंकुश सरकारों द्वारा लगातार जो तर्क दिया जाता है कि ज्ञान का प्रचार-प्रसार कानून की संस्थाओं के अस्तित्व के लिए खतरनाक है, वह इसलिए कि लोग जागरूक हो गये तो समझ जाएंगे कि बहुसंख्यक लोग संगठित प्रयास के द्वारा अपनी गर्दन पर लदे चंद लोगों के जुए को बहुत आसानी से झटक दे सकते हैं और इस प्रकार सत्ता के बन्धनों से अपने को मुक्त कर सकते हैं।’’
अतः अपने को डेमोक्रेटिक कहने वाली सभी पूंजीवादी सरकारों ने शिक्षा के दायित्व से मुंह मोड़ लिया है और नर्सरी से लेकर उच्च शिक्षा को प्राइवेट मैनेजमेन्ट के हवाले कर दिया है। जो कॉनवेन्ट स्कूल यूरोप में लावारिस बच्चों के पठन-पाठन के लिए फ्री स्कूल के नाम से खोले गए थे, आज भारत में सोने के अंडे देने वाली मुर्गी बन कर चल रहे हैं। विश्व बैंक का आग्रह है कि इस देश में निजी पूंजी निवेश को प्रोत्साहन दिया जाये। निजी पूंजी निवेश का प्रथम लक्ष्य है मुनाफा कमाना। आज शिक्षा भी मुनाफा देने वाला एक अच्छा व्यवसाय बन गया है। वह दिन दूर नहीं जब कारगिल, रिलायंस, सहारा सरीखी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां 10 करोड़ रूपये किसी सरकारी बैंक में जमा कर यहां विश्वविद्यालय खोलेंगी और उंचे दामों पर डिग्रियां बेचेंगी। शिक्षा मुट्ठीभर लोगों के हाथों में सिमट कर रह जाएगी और सामान्य जन शिक्षितों की परिधि से बाहर चले जाएंगे।
आज देश के शासक वर्ग ने अमेरिकी साम्राज्यवाद की नियंत्रित संस्था विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के निर्देशन में सम्पूर्ण देश को नव उपनिवेश के रूप में परिवर्तित करने में अपनी सारी शक्ति लगा दी है। पूंजीपतियों के लिए व्यापार के अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा शिक्षा को सर्वाधिक लाभ देने वाला व्यवसाय बना दिया है।
ऐसी व्यावसायिक संस्थाएं सभी छोटे-बड़े शहरों में न्यूनतम 800 से 5000 तक शिक्षण शुल्क और एक मोटी रकम डोनेशन, कैपिटेशन, कॉशनमनी, विकास शुल्क, मिसलेनियस आदि के नाम पर अंग्रेजी मीडिया का बोर्ड लटका कर ऐंठती हैं। आज विद्यार्थी, शिक्षक और जनता को लूटना ही शिक्षा है। आजादी के बाद ‘कैरेक्टर’ की जगह ‘कैरियर’ है। तस्करी की दुनिया में माल टपानेवाले को कैरियर कहते हैं। अपहरण उद्योग में भी अब यह शब्द चल निकला है। शिक्षा-जगत में भी यह शब्द इसी अर्थ में चलाया जा रहा है। आपका कैरियर खड़ा करने के लिए दाखिला है, घूस है, परीक्षा में चोरी, सर्टीफिकेट की बिव्रळी, कोचिंग की बाढ़, ठेका पर डिवीजन है। एभैल्यूएसन में व्याप्त आपाद मस्तक भ्रष्टाचार है, शिक्षा में एकरूपता की पूर्णतः समाप्ति है, 80% जनता को शिक्षा कम्पाउन्ड में घुसने की मनाही है। काठमांडो या मनिला का गांजा, अफीक, स्मैक, ब्राउन सुगर ऐसे ही नहीं दिल्ली पहुंच जाता है।
जिस देश के 40% लोग गरीबी की सीमा रेखा से नीचे हों, 50% महिलाएं धार्मिक तथा सामंती-सामाजिक संरचना के कारण शिक्षा की मुख्य धारा से कटी हों, शिक्षा उद्योग में प्रतियोगी देशी-विदेशी धन्नासेठ कूद चुके हों, सरकार उनके टेबुल पर कप-प्लेट सजाने और ‘टिप’ कमाने में पेरशान हों, वहां देश की 85% जनता, देश पर जान लुटाने वाले देश भक्त विद्यार्थी, नौजवान, मजदूर-किसान, दार्शनिक और बुद्धिजीवी क्या सोच रहे हैं?
अब प्रश्न केवल शिक्षा का नहीं रहा। देश, देश की जनता, जनता की आजादी, भूख, बदहाली – सारे सवालों से शिक्षा अभिन्न रूप से जुड़ गई है। क्या आज से 56-57 वर्ष पूर्व अंग्रेजी साम्राज्यवाद में हमने अपने देश की दर्दनाक तस्वीर नहीं देखी थी? आज अमेरीकी साम्राज्यवाद के जनद्रोही-राष्ट्रद्रोही रूप को छुपाया क्यों जा रहा है? क्या अमरीकी पैसों पर पलते भांटों के कहने पर हम अपनी पिछली दो सौ वर्षों का इतिहास भुला दें? इराक, अफगानिस्तान, फिलिस्तीन, नेपाल, लाओस, कंबोडिया, चीन, वियतनाम, जापान, कोरिया, भारत, पाकिस्तान, बांगलादेश आदि देशों के पिछले कोई दो सौ वर्षों की लूट, धोखा, मक्कारी और कमीनापनी का इतिहास यदि डच, पोर्तुगीज, फ्रेच, अंग्रेज और अमेरिकन के पास है तो हम एशियाई देशों की सीधी-सादी जांबाज जनता के पास भी सुरक्षित है। किन्तु, इस महादेश की जनता की जैसी दुर्गति अमरीकी साम्राज्यवाद ने की, वैसी किसी ने नहीं की थी।
भारत को कुछ जयचन्दों ने अमरीकी साम्राज्यवादियों के हाथ गिरवी रख दिया। अरबों-खरबों कमाए। क्या हुआ हवालों घोटालों को? देश खत्म हो चुका है। हम शिक्षा की रक्षा का प्रस्ताव, मांग, सुझाव आखिर किसके सम्मुख रखें? हम डेलीगेसन, प्रदर्शन लेकर आखिर किसके दरवाजे जाएं? प्रश्न से जी चुराना अपराध है। विवेकानन्द के शब्दों में -‘‘मैं, उसे गद्दार कहूंगा जो शिक्षित होने के बाद लाखों- करोड़ों, शोषितों के खून पर जीवन व्यतीत करता है और उनके बारे में कभी एक पल भी नहीं सोचता है।’’
जनता सर्वोच्च है। हम एक निर्णायक संघर्ष फिलहाल खड़ा करें – सभी संघर्षरत दलों, तबकों और व्यक्तियों से मिल कर नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति ( NPE 1986 ) को अविलम्ब पूर्णतः समाप्त करने का आंदोलन प्रारम्भ किया जाय। शिक्षा- प्रणाली में पूर्ण एकरूपता शिक्षा मिले-इसकी गारंटी हो। चैदह वर्ष तक के बच्चों की निःशुल्क अनिवार्य शिक्षा शीघ्र पूरी की जाये। सम्पूर्ण खर्च सरकार उठाए। निजीकृत और राजकीयकृत का फर्क मिटाया जाये। पूरे कार्यदिन पढ़ाई हो। रिक्त पदों की पूर्ति हो और बिना किसी अगर-मगर के शिक्षकों का वेतन नियमित हो। शिक्षेतर कार्य जैसे – चुनाव जनगणना, पोलियो मार्च, पर्यावरण का खेल-तमाशा, नेताओं के जन्मोत्सव का जुलूस-प्रदर्शन आदि शिक्षेतर कर्मचारियों से कराए जायें। शिक्षिकाओं को राष्ट्रीय समुन्नत संस्कृति की जननी बनाई जाये। गुरू-शिष्य और अभिभावकों के निकायों द्वारा शिक्षा की लोकतांत्रिक व्यवस्था खड़ी की जाये। शिक्षालयों को जातीय एवं साम्प्रदायिक विद्वेष से हर हालत में मुक्त रखा जाये। आदर्श, आनन्ददायक, मनोरंजन युक्त, मानवीय और कलात्मक शिक्षा ही शिक्षा का उद्देश्य है।
क्या शिक्षक, शौचालय, पुस्तकालय, ब्लैकबोर्ड, उपस्कर, पानी और भवन विहीन या भूतों के खंडहरों द्वारा ऐसी शिक्षा सम्भव है? बिहार के 90% प्राथमिक विद्यालय इसी ढंग के हैं। इस स्थिति में छात्र-शिक्षक अभिभावक और सांस्कृतिक-साहित्यिक-राजनैतिक दल क्या करें? पर्चाबाजी, भाषण, मांग, धरना, प्रदर्शन…. जो भी आज सम्भव हो, हम शुरू कर दें वर्ना नाव में पानी भर चुका है, सर्वनाश से हमें कोई नहीं बचा सकता।
साभार: http://ravikumarswarnkar.wordpress.com/2012/06/02/%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A4%A4%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%B8%E0%A4%BE/)

Wednesday 11 July 2012

हमारे सपने, तुम्हारे सपने!


हमारे सपने, तुम्हारे सपने,
अभी ये सपने उगे-उगे हैं;
अगर मिला वक्त भी इन्हें तो,
कभी तो ये भी जवान होंगे.

अभी कदम से कदम मिले हैं,
कभी कदम के निशान होंगे;
जब उन निशानों को देखना तो,
नमी न आँखों में आने पाये.

नहीं मुरव्वत करेगी दुनिया,
हमारे सपनों को मार देगी;
अगर बचाने हैं अपने सपने,
छिपाओ आँसू औ' मुस्कुराओ.

कभी मिले जब मुकाम तुमको,
मुझे न तुम यूँ ही याद करना;
नये तराने उठें लबों से,
नये फसानों को गुनगुनाना....

सवाल सच का !




सवाल सच का !!!

"सत्यं वद धर्मम् चर" या "सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्" ?
"सत्यमेव जयते नानृतम्" !
साँच बराबर तप नहीं...

सच कहना अगर बगावत है, तो समझो मैं भी बागी हूँ.
the truth is alone but a lie has many faces.
हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग...
सच परेशान तो होता रहा है. मगर अभी तक साख उसी की है.
सच बोलने का अनुरोध करते ही 
आदमी की असलियत की पहिचान हो जाती है. 
आदमी की यही अन्तिम परीक्षा है. 
मुझे दु:ख है कि
 इस परीक्षा में मेरे अनेक मित्र खरे नहीं उतर पाये और 
मुझे सच और अपने झूठ बोलने वाले मित्रों

दोनों में से


सच को चुनना पड़ा 
और मित्रों को छोड़ना पड़ा 
क्योंकि 
मैं सच का झण्डा छोड़ नहीं सकता 
और 
वे सच बोलने का साहस कर नहीं सकते.
वे सभी मुझे बेतहाशा प्यार तो करते हैं. 
मगर मेरे सामने अपनी सीमाओं को स्वीकार करने के बावज़ूद 
वे मेरे साथ चलने में अक्षम हैं. 
सच के साथ खड़े रहने का ही परिणाम है कि 
मुझे तो दुनिया में 
अकेला, अकिंचन, अपमानित, असफल और उपेक्षित 
हो कर जीना पड़ा है. 
और उनके साथ धूर्त चाटुकारों की भीड़ है
आदमी का खून निचोड़ कर जुटायी गयी सम्पत्ति है 
और है 
तथाकथित सफलता के आभामण्डल का दम्भ. 
मगर अन्दर से वे 
निहायत ही बेचारे, भयभीत, खोखले, कमज़ोर और बौने हैं.
मुझे शोषण, उत्पीडन और अन्याय पर टिकी 
इस पूँजीवादी व्यवस्था से 
तीखी नफ़रत है. 
क्योंकि यह जनविरोधी व्यवस्था 
इसी तरह के कपट करने वाले चरित्रों को ही गढ़ सकती है. 
और
 "इन्कलाबी अपने विचारों को छिपाना 
अपनी शान के खिलाफ समझते हैं..."

फिर भी मैं अपने स्थिति से पूरी तरह संतुष्ट हूँ.
मैं तो हमेशा सच ही बोलता हूँ 
क्योंकि 
सच ही मेरी पहिचान है.
प्रिय मित्र
क्या आप भी सच कहने का साहस रखते हैं?
या फिर आप झूठ का सहारा लेने के लिये मजबूर हैं? 
अगर हाँ
तो आप भी एक अवसरवादी ही हैं, इन्कलाबी नहीं !
बहुत बहुत प्यार के साथ
गिरिजेश


कौन बचायेगा देश ?


प्रिय मित्र, हमारे पराक्रमी पुरखों ने ब्रिटिश उपनिवेशवादियों से स्वतन्त्रता का युद्ध सफलतापूर्वक लड़ कर हमें गुलामी से तो आज़ाद कर दिया.
मगर यह आज़ादी पूँजीवादी धनतन्त्र तक ही सिमट कर रह गयी.
धनतन्त्र को जनतन्त्र में बदलने का युद्ध अभी जारी है.
इस युद्ध को जीते बिना आप सम्मानपूर्वक यह नहीं कह सकते कि
जन का, जन द्वारा, जन के लिये तन्त्र भारत में बन चुका.
काले अंग्रेज़ों से सम्पूर्ण आज़ादी के इस युद्ध में अपनी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करें.
जो भी आप कर सकते हैं, कर गुजरें.
"सर्दियाँ उनकी सही, वसन्त हमारा होगा."
कौन बचायेगा देश ? आप ! केवल आप !!
भारत का जन-तन्त्र जिन्दाबाद !
इन्कलाब जिन्दाबाद !!


"वो देखो सुबह का गुरफा खुला, पहली किरन फूटी,
वो देखो पौ फटी, गुन्चे खिले, जंजीर-ए-शब टूटी;
उठो, चौंको, बढ़ो, मुँह-हाथ धो, आँखों को मल डालो,
हवा-ए-इन्कलाब आने को है, हिन्दोस्तां वालों!" - अज्ञात





Sunday 8 July 2012

जिन्दा मैं हूँ! जिन्दा तुम हो!!

(हिमांशु कुमार अपने आश्रम के प्रशासन द्वारा ध्वस्त किये जाते समय)



जिन्दा मैं हूँ, जिन्दा तुम हो,
जिन्दा वे भी हैं, जो कल तक/
सौ बार प्रशंसा करते थे,
जो दिखा-दिखा कर रोते थे,
जो दिखा-दिखा कर हँसते थे, 
पर उनका वह सब नकली था, 
था ढोंग-धतूरा, फर्ज़ी था.

सच देख चुके हो तुम भी अब,
उन सब का जो गद्दार रहे,
तुम कहते हो, मैं सहता हूँ.
बेहतर होगा कुछ न कहना,
सहते रहना, चुप भी रहना,
कह देने पर हम हलके हैं,
सह लेने पर ताकतवर हैं.

है दर्द बहुत हो रहा तुम्हें,
गुस्सा मुझको भी आता है,
इस दर्द और इस गुस्से को,
पीकर आगे बढ़ते जाओ!
चुपचाप सहो, बर्दाश्त करो,
करते जाओ, सहते जाओ,
देखो तो फिर क्या होता है;

बर्बाद कौन, आबाद कौन,
अनुमान लगाने दो उनको,
फिर-फिर डर जाने दो उनको,
देखो वे थर-थर काँप रहे,
हर बार हुआ जो, वही सुनो -
इस बार क्यों नहीं होना है!
कल किसका है - सब जान रहे!
सच जीता है, सच जीत रहा,
सच जीतेगा - सब मान रहे.

Tuesday 3 July 2012

वरिष्ठ नागरिकों के नाम एक पत्र - गिरिजेश



वरिष्ठ नागरिकों के नाम एक पत्र - गिरिजेश 

प्रिय मित्र, कई बार नयी पीढ़ी के बारे में आप की टिप्पड़ियों से मुझे लगता है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि आप सब जेनेरेशन गैप के शिकार हो रहे हैं. कृपया नयी पीढ़ी की जगह पर खड़े हो कर सोचने का कष्ट करें. उनको हर बात के लिये लगातार केवल कोसते रहना उनको आपके प्रति और भी पूर्वाग्रहग्रस्त कर देगा. उनसे प्यार से अपनी बात कहने का तरीका अधिक प्रभावी होगा. तभी वे आपको सुन सकेंगे, उस पर सोच सकेंगे और आपकी अपने लिये चिंताओं को महसूस कर सकेंगे. उनके पास अपने युग-जन्य सपने हैं, अपने लक्ष्य हैं और अपने जीवन-मूल्य हैं. उनका मनोमस्तिष्क केवल पतित पाश्चात्य संस्कृति की तलछट से ही नहीं अटा पड़ा है. उनके भी अपने आदर्श हैं, जिनके जैसा वे बनना चाहते हैं और उसके लिये खूब कस कर श्रम भी करते हैं. अगर वे आप जैसे नहीं हैं, तो क्या इसमें आपका भी दोष नहीं है. आप तो केवल पैसा पैदा करने में हर तरह का ताल-तिकडम करते हुए सारी जिन्दगी अपना सारा समय लगाते गये. उनके लिये तो आपके पास आत्मीय क्षण के नाम पर समय बिलकुल था ही नहीं. जब वे छोटे थे तो आप उनको गुड्डा-गुड़िया समझ कर के खेलते रहे, थोड़ा बड़े हुए तो डाँटने-फटकारने, आतंक और भय का सहारा लेने लगे, और जब बड़े हो गये, तो उन्होंने अपनी दुनिया बना ली. एक ऐसी दुनिया जिसके बारे में आप लगभग कुछ भी नहीं जानते. आपने उनके लिये केवल पैसा जुटाया और उनको प्यार न देकर केवल पैसा ही देते रहे. और वह भी उनकी एक-एक ज़रूरत पर रिरका-रिरका कर, जलील कर-कर के, तौल-तौल कर कम से कम. ऐसे में उन्होंने अगर आपको केवल अपना ए.टी.एम.कार्ड समझ लिया, तो उनका क्या दोष! मैं तो जिन्दगी भर नौजवानों से दोस्ती करता रहा हूँ. और वे भी मुझे टूट कर प्यार करते हैं, मुझे पूरी सम्वेदना से महसूस करते हैं, मेरी सलाह सुनते हैं, उस पर खूब तर्क करते हैं और जहाँ तक हो सकता है, उसे लागू भी करते ही हैं. जैसे भी हैं, वे ही हमारा-आपका भविष्य हैं. आने वाला कल उनका ही है. वे सुबह के उगते हुए सूरज की तरह हैं. ऊर्जा से लबरेज़. उनको धिक्कारने और कोसने के बजाय प्यार करने और उनकी चूक को बर्दाश्त करने के साथ अपनी सलाह देने की आवश्यकता है. मगर उनकी अपनी आज़ादी का सम्मान करते हुए ही. निर्णय का अधिकार उनको ही देते हुए अपनी बात कहनी होगी. हम-आप अपनी जिन्दगी जैसी भी जी सके, लगभग पूरी ही जी चुके हैं. अब तो केवल इतना समझने की ज़रूरत है कि जिन्दगी अगर उनकी है, तो अपनी जिन्दगी के निर्णय भी वे ही करेंगे. और उनका ही निर्णय जब लागू होगा, तो ही वे सुखी रह सकेंगे. हमको उनके हर निर्णय के साथ हर कदम पर मजबूती से खड़े रहना होगा. उनको तरह-तरह से इमोशनली ब्लैक मेल कर के अपने सारे फैसले उन पर थोपना नितान्त गलत है. यह कहना क्या अपमानजनक नहीं है कि "मैं तुम्हारा बाप हूँ, या तुम मेरे बाप हो"! या "तुमने हमारी इज्ज़त मिट्टी में मिला दी"! या "याद रखो, तुम ही मेरी मौत की वजह बनोगे"! जब उनको अपनी पहल पर कुछ भी कर गुजरने की आज़ादी मिलेगी, तभी वे कोई भी कारनामा कर के दिखा सकते हैं. और दिखा भी रहे हैं. यह क्या केवल हमारा खुद का दृष्टि-दोष नहीं है कि हम उनके व्यक्तित्व के सकारात्मक पक्षों को पूरी तरह देख नहीं पा रहे! मेरी कड़वी जबान के लिये मुझे माफ करें. परन्तु मेरे निवेदन पर एक बार विचार अवश्य कीजियेगा. शायद दुनिया बदलने में आप सब भी कुछ और अधिक बेहतर भूमिका का निर्वाह कर ले जायें. कहा भी गया है - 

"प्राप्ये तु षोडसे वर्षे पुत्रं मित्रवत आचरेत!" 

अपनी एक कविता के साथ मैं अपना पत्र समाप्त करने की अनुमति चाहता हूँ.

अपेक्षा करता हूँ कि यह पत्र अनुत्तरित नहीं रहेगा. 

आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में - आपका गिरिजेश 


इन्द्रधनुष 
जो गढ़ा गया है बरसों में, कैसे पल में वह बदलेगा?
जो हरकत आदत बन बैठी, छूटेगी तो दिल मचलेगा।
बाहर की दुनिया वैसे ही दिन-रात भागती जाती है,
दिल के अन्दर ही सुलग-सुलग चिनगारी ख़ून जलाती है।
कुढ़ने से, चिढ़ने से, रोने-चिल्लाने से क्या होता है?
यह तो लोगों को और अधिक पूर्वाग्रह से भर देता है।
मन-माफ़िक यदि हो नहीं सका, तो क्या कुढ़ना, क्या चिल्लाना?
यदि हार गये जीवन-रण में, तो परिणति से क्या घबराना?
जग बढ़ा जा रहा है अपने ही अल्हड़पन की मस्ती से,
उसमें किशोर की अमित शक्ति, गति थकी नहीं है पस्ती से।
उसके भी सपने हैं, संगति है, पृष्ठभूमि की सीमा है,
उसके विकास का निर्धारक कारक थोड़ा ही धीमा है।
उसका अपना सुख-चैन बँधा नन्ही-नन्ही गतिविधियों से,
उसको क्या लेना-देना है, जग की नाना विध निधियों से?
क्या इन्सानों को सिक्कों-सा, टकसाल बना तुम ढालोगे?
उसकी वैयक्तिक निजता के अस्मिता-गर्व को खा लोगे?
यह सही कहा है तुमने, ‘‘अपने भर कोशिश की, प्यार किया,
अपना सारा पिछला जीवन मुट्ठी-भर ख़ातिर वार दिया।’’
क्या उनको भी तुम तनिक भी नहीं गढ़ पाने में सफल हुए?
उनके आचरणों के कारण को पढ़ पाने में विफल हुए!
उनमें जो कुछ भी है, उसमें कुछ अंश तुम्हारा भी तो है,
उनके सपनों के इन्द्रधनुष में रंग तुम्हारा भी तो है।
पर इन्द्रधनुष ‘लाल’ ही रहा, तो विकृत वह हो जायेगा;
फिर कैसे, किसको, कितना, क्यों आकर्षित वह कर पायेगा?
यदि सहज विकास-प्रवाह रुका, तो क्या सड़ाँध रुक पायेगी?
रोगी, विकलांग व्यवस्था को कुछ और ख़राब बनायेगी!
इस दुनिया में कितने आये, जो कठिन राह अपना पाये?
इनमें से भी निकले कितने, जो आख़िर तलक निभा पाये?
यदि मुट्ठी-भर लोगों ने ही, हर बार उठायी है तरंग,
तो कहाँ से तुम्हें मिल पायेगी, हर छाती में वह उमंग?
जो पीठ नहीं दिखलायेगी, जो नहीं भाग कर आयेगी;
जो जीत दिला देगी तुमको, जो नहीं कलंक लगायेगी?
हर बार पराजय-बोध, मृत्यु से अधिक बेध ही जाता है;
उल्लास नष्ट कर देता है, सबका उपहास सुनाता है।
क्या कभी पराजय से पहले ही आज तलक है विजय मिली?
पहले उगते हैं काँटे, या फिर पहले कोई कली खिली?
क्या अवरोधों से टकराने पर गिर जाना अनिवार्य नहीं?
है विकट मार्ग तो क्यों एकाकी घिर जाना स्वीकार्य नहीं?
मरना-जीना, गिरना-उठना, जीवन की सतत कहानी है,
उत्कर्ष-पतन अनिवार्य अंग, भवितव्य-कथा अनजानी है!
6
जीवन की गति स्वीकार करो, अपना प्रयास साकार करो;
छोटे घेरे में मत सिमटो, उसका पल-पल विस्तार करो।
है काम तुम्हारा बार-बार अपने प्रयास को दोहराओ,
यदि नहीं नतीज़ा सही मिला, तो सार-संकलन कर जाओ।
फिर से विराट की शक्ति पूजने का निश्चय कर बढ़ जाओ,
कितना भी प्रतिभट ललकारे, झिझको न तनिक तुम चढ़ जाओ!
या तो वह जीतेगा ही, या फिर नष्ट-भ्रष्ट हो जाना है,



जीतेगा तो फिर से लड़ना, हारेगा तो बढ़ जाना है। - गिरिजेश


"जिस ओर जवानी चलती है, उस ओर ज़माना चलता है..."
प्रिय मित्र, युवा पीढ़ी को ले कर मेरा तो इससे पूरी तरह से अलग ही अनुभव है. उम्र दराज़ लोग केवल हमारी बात सुनने का अभिनय मात्र करते प्रतीत होते हैं. अगर कभी वे प्रशंसा करते भी हैं, तो उनकी प्रशंसा भी औपचारिक ही लगती है. जबकि युवा प्रशंसा कम ही करते हैं, मगर उनकी आँखों की चमक बताती है कि उनके दिल को हर महत्वपूर्ण बात छू रही है और वे लगातार एक से बढ़ कर एक कमाल भी करते ही रहते हैं. उनकी आँखों के सपने अभी वक्त की मार से टूटे नहीं होते और उनसे और भी बेहतर करवा सकने की सम्भावना हमेशा बनी रहती है. 

जबकि प्रौढ़ लोगों की प्राथमिकता किसी तरह केवल अपनी बची-खुची जिन्दगी को ढोते रहने की ही बचती है और वे केवल युवा पीढ़ी को बिलावजह कोसने में ही अपनी समूची ऊर्जा खर्च करते रहते हैं. परम्परागत सोच से बाहर निकल कर वे खुद तो कुछ भी नया करने की हिम्मत नहीं कर पाते और अगर युवा कभी भी जो कुछ भी नया-नया प्रयोग करने की ज़ुर्रत करते हैं, तो प्रौढ़ और बुज़ुर्ग लोग हरदम केवल उनका विरोध करने में ही अपनी समझदारी समझते हैं. वे युवाओं पर अपने अनुभवों और सफ़ेद बालों की धौंस जमाते रहते हैं. नये और पुराने के द्वंद्व में बार-बार हार जाने पर वे युवाओं को टार्चर करते हैं और हर सम्भव रास्ता खोज-खोज कर उनको तरह-तरह से मनोवैज्ञानिक तरीके से ब्लैकमेल करते रहते हैं. 

मुझे तो लम्बे समय तक अलग-अलग प्रयोगों के बाद केवल युवाओं से ही परिवर्तनकामी प्रयोगों में कोई प्रभावी भूमिका निभाने की उम्मीद बची है. यह उम्मीद भी उनके ऊपर पछुआ हवा के दबाव के चलते भले ही क्षीण है, मगर फिर भी है ही. और इसीलिये पिछले दो दशकों से मैं तो केवल उनके जागरण के लिये ही काम कर रहा हूँ. और आगे भी इसी काम को ज़ारी रखने का इरादा है.
मुझे जे.पी. आन्दोलन के दौर में लोकप्रिय हुआ एक गीत याद आ रहा है -
"उठो जवानो, तुम्हें जगाने क्रान्ति द्वार पर आयी है..."

कंट्राडिक्शन! एक पीढ़ी बाद वालों से यारी करेंगे, तो कदम-कदम पर झेलना पड़ेगा कंट्राडिक्शन!
उनके गाने अलग, उनकी फ़िल्में अलग, सौंदर्यबोध अलग, उनकी हर बात अलग....
और उनके हर तर्क के आगे आप लाजवाब....
और हारने ही लगें तो उम्र का हवाला दे के आपको लाजवाब कर देंगे....
कहा नहीं है बुजुर्गों ने- "लौंडों से दोस्ती, ढेले की सनसनाहट....
लेकिन इस कंट्राडिक्शन का भी अपना मजा है, बार-बार जवानी लौट आती है...

पिता और पुत्र -
यही दिन देखने के लिये ही तो आपने जिन्दगी भर झूठ बोल कर और झपसटई कर के बेतहाशा दौलत बटोरी थी और अपने बेटे की सात पुश्तों के लिये कुबेर का खज़ाना जमा करना चाहते थे.
अब जब आपकी उसी दौलत पर बेटे ने कब्ज़ा कर लिया और आपको आपकी सही जगह पर पहुँचा दिया, तो उसे कोसते क्यों हैं?
क्या आप खुद अपने आचरण में हरिश्चन्द्र रहे हैं? नहीं न! तो फिर अपने बेटे से श्रवण कुमार बनने की उम्मीद क्यों पाले हुए थे? उसे श्रवण कुमार बनाने के लिये उसके सामने आपने कौन-सा आदर्श प्रस्तुत किया था?
ऐसे लायक बेटे का नालायक बाप बनने से क्या बेहतर नहीं है कि बेटे और दौलत के चक्कर में फँस कर बुढ़ापा बर्बाद करने की नौबत लाने के बजाय जिन्दगी मानवता की सेवा में चुपचाप खर्च कर दी जाये!
तब कम से कम यह दिन तो नहीं ही देखना पड़ेगा और किसी को कोसने की ज़रूरत भी नहीं पड़ेगी.
मेरी तो यही समझ रही है. आप क्या सोचते हैं!


माँ बाप का दिल जीत लोगे तो कामयाब हो जाओगे , 
वर्ना सारी दुनियाँ जीत कर भी हार जाओगे ..... !! 

दुर्भाग्य है हमारा , हमारे भारत देश का जहाँ पर हम श्रवण कुमार की कहानियाँ अपने बच्चो को इसलिए पढ़ाते है , की वह बड़े होकर हमारी सेवा श्रवण कुमार की तरह करें , 

ताज्जुब होता है जब वही कहानियाँ सुनाने वाला व्यक्ति व्यक्ति अपने माँ बाप के लिए अपेक्षा करता है की वह जाकर " वृद्धाश्रम या ओल्ड एज प्युपिल हाउस " मे जाकर रहें ....!! 

मित्रों तुलसीदास जी ने कहा है , 

" बाड़हीं पूत पिता के धर्मा " , अतएव माता पिता का आशीर्वाद ही हमें आंगे बढाता है , ऐसे मैं जब हम कामयाबी की बुलंदी के आसमां को छूते है तो अपनी बुनियाद को कैसे भूल सकते है ? 

क्या यही हमारा न्याय या धर्म है ? 

धिक्कार है ऐसी सोच पर ...................!! 

Monday 2 July 2012

"सुनो, भेड़िये गुर्राते हैं!"



अपनी बकरी छोटी-सी है, खूब गदबदी, मोटी-सी है;
इसको शेर बनाना होगा, दाँव-पेंच सिखलाना होगा।

सुनो, भेड़िये गुर्राते हैं, वे केवल गुर्रा सकते हैं; 
भोली-भाली, सीधी-सादी दुनिया को धमका सकते हैं।

मौका पाकर, घात लगाकर बकरी को बहका सकते हैं;
लूट-पाट कर, नोंच-नाच कर अपनी बकरी खा सकते हैं।

क्या हम यह सब देख-भाल कर मन अपना बहला सकते हैं? 
यहीं पड़ेगा रहना हमको, कहाँ भाग कर जा सकते हैं?

कभी नहीं, यह नहीं चलेगा, हमीं मशाल जला सकते हैं;
कुछ कर के दिखलाना होगा, हमें मशाल जलाना होगा।

Sunday 1 July 2012

व्यक्तित्व-विकास के लिए मुझको भी यह करना ही है!



प्रिय मित्र, व्यक्तित्व-विकास परियोजना के बारे में आप सभी की सकारात्मक और प्रेरक टिप्पड़ी के लिये आभार व्यक्त करना चाहता हूँ. प्रस्तुत हैं वे विशेषताएँ जिनको अपने व्यक्तित्व में विकसित कर लेने पर कोई भी इन्सान अपराजेय हो जाता है.

व्यक्तित्व-विकास के लिए मुझको भी यह करना ही है!
1- समयबद्ध दिनचर्या, नींद के घण्टे केवल 6, निजी टाइम-टेबुल बनाना एवं लागू करना
2- मन लगाकर काम करना, बेमन से न पढ़ना, तल्लीनता के सुख की अनुभूति में जीना
3- वर्तमानजीवी बनना, न तो अतीत के गीत गाना, न दिवा-स्वप्नों में ही वक्त गुजारना
4- व्यायाम तथा भोजन भरपूर करना
5- नशा-मुक्त रहना
6- सहर्ष श्रमदान की पहल लेना, सफाई में हाथ बँटाना, कामचोर नहीं श्रमजीवी बनना
7- पसीना सूखने से पहले पारिश्रमिक देने की स्वस्थ परम्परा कायम रखना
8- श्रम का सम्मान व श्रमसंस्कृति का पक्ष पुष्ट करना, सवारी न गाँठना, बेगारी न लेना
9- तर्क-सम्मत बातों को बेझिझक मान लेना, कठदलीली न करना, अपनी गलती सार्वजनिक रूप से स्वीकार करना तथा स्पष्ट शब्दों में आत्मालोचना का साहस जुटाना
10- प्रतिदिन असली डायरी अवश्य और ईमानदारी से बनाना
11- लापरवाही न करना, गम्भीर माहौल बनाना
12- समझ-समझ कर पढ़ना,रटने के बजाय सोच-समझ कर और लिख कर याद करना
13- सीखी गयी बातों पर अपने साथियों के बीच बहस करना
14- सुन्दर अक्षरों में लिखना तथा अन्तिम अक्षर तक स्पष्ट उच्चारण कर के बोलना
15- प्रतिदिन एक पुस्तक से कुछ न कुछ पढ़ते हुए आद्योपान्त स्वाध्याय करना, तभी दूसरी पुस्तक उठाना
16- पुस्तकालय की पुस्तकों का नोट्स तथा पढ़ी गयी पुस्तकों की सूची बनाते जाना
17- विनम्रता परन्तु दृढ़ता से बातें करना, तर्क पूर्ण प्रतिवाद करना
18- जनसेवा व ज़रूरतमन्दों की मदद करना
19- दिमागी गुलामी से स्वयं को तथा दूसरों को मुक्त करने का सचेत प्रयास करना
20- लोगों की सुविधा-असुविधा का ध्यान रखना
21- सहनशीलता, क्षमा तथा करुणा का विकास करना
22- शब्दों में अपने क्रोध को व्यक्त न करना, शान्त व सन्तुलित चित्त से संयम दिखाना
23- सहजता तथा सन्तुलन कायम रखना, तनाव पैदा न होने देना
24- परीक्षा में टाॅप करने-कराने के लिए घनघोर मेहनत करना
25- अराजक जीवन-शैली से पिण्ड छुड़ाने के लिए तकनीकी एवं अनुत्पादक समय को घटा कर उत्पादक श्रम-काल बढ़ाने का प्रयास करना, बातें कम - काम ज़्यादा करना
26- अपने प्रति निष्ठुर तथा दूसरों के प्रति उदार मानसिकता बनाना, परन्तु उदारतावाद के फन्दे में न फँसना, आत्मनिर्भर इकाई चलाना
27- सर्वोत्तम की कामना करना, सबसे बुरी हालत के लिए तैयार रहना
28- अवरोधों से विचलित न होना, अवसादग्रस्त होकर आत्महत्या का संकल्प न करना
29- हीन-भावना की ग्रन्थि न पालना, अपने कृतित्व में आस्था रखना, नाउम्मीद न होना
30- अपमान, हानि, वेदना या पराजय मिलने पर विलाप न करना
31- अधीर न होना, विपरीत परिस्थिति में भी सफलता के लिए अनवरत प्रयास करना
32- आमने-सामने, दो-टूक सच बोलकर नुकसान उठाने के लिए तैयार रहना
33- सही का समर्थन, गलत का विरोध किसी भी कीमत पर करना
34- निर्बन्ध-निर्भीक व्यक्तित्व गढ़ना, कभी भी किसी से भी डरना नहीं
35- घमण्ड न करना, शेखी न बघारना, चोरी न करना, कपट न करना, झूठ न बोलना
36- किसी के हुक्म का गुलाम किसी कीमत पर भी न बनना, खुद को जो सही लगे वही करना
37- वचन देकर न फिरना, हर हालत में पूरी तरह निभाना
38- दूसरों की चूक से हुई हानि को झेल जाना तथा उनके विकास और सुधार का प्रयास तब तक करना, जब तक वे असाध्य ही साबित न हो जायें और तब जाकर उनसे सम्बन्ध तोड़ लेना ताकि अगले आदमी के लिए कोशिश शुरू की जा सके
39- अनिर्णय में न झूलना, निर्णय लेने का ख़तरा उठाना
40- भावनात्मक सम्बन्धों का विकास विचारधारात्मक स्तर तक करना, एकजुटता के घेरे का विस्तार करना
41- उपेक्षा, उपहास और अपमान करने से बचना, सामने चापलूसी तथा पीठ पीछे निन्दा किसी की भी किसी भी हालत में न करना
42- अन्धविश्वास नहीं, वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखना और उसका विस्तार करना
43- आत्म-मन्थन, आत्म-विश्लेषण, आत्म-मूल्यांकन और आत्म-परिष्कार करना
44- प्रगतिशील विचारों को साकार करने का लक्ष्य बनाना और लक्ष्य-बद्ध जीवन जीना
45- सन्देह से सम्बन्ध की शुरुआत करना, आचरण के आधार पर सोच-समझ कर ही यकीन करना 46- स्वार्थ में अन्धे होकर कर्तव्य से गद्दारी न करना
47- लालच पर काबू पाना, उधार ली गयी वस्तु हड़प न करना, उसे लौटा देना अन्यथा समुचित क्षतिपूर्ति देना
48- कृतघ्न न होना, कृतज्ञता-ज्ञापन करना
49- फिजूलखर्ची से बचना, सही समय पर सही कार्य के लिए बचत करना
50- अच्छे लोगों को स्नेह और सम्मान देना तथा बुरे लोगों से नफ़रत करना
51- लोक-हित, लोक-मत और लोक-भय को सम्मान देना
52- कातरता के प्रदर्शन और सहानुभूति की लालसा से बचना
53- अन्याय के विरुद्ध विद्रोह ही करना, आत्म-समर्पण कभी नहीं
54- अनागत की आशंका के भय से मुक्त एवं निद्र्वन्द्व रहना
55- रचनात्मक प्रतिद्वन्द्विता तथा सकारात्मक प्रतिशोध की पद्धति का अनुसरण करना
56- लोगों के सुख-दुःख में साथ देना, उनका यकीन जीतना, विश्वास की हत्या न करना
57- अपनी पीड़ा को चेहरे पर झलकने न देना, आस-पास प्रसन्नतापूर्ण माहौल बनाना
58- व्यक्तिवाद को सामूहिकता के अधीन करने का सचेत अभियान चलाते रहना
59- सामूहिक कीर्ति का विस्तार करके देश-काल की सीमाओं को ध्वस्त कर देना और वर्तमान एवं भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत बना देना
60- शोषक प्रवृत्ति से स्वयं को तथा अपने मित्रों को सतत बचाना
61- शोषण-मुक्त समाज-व्यवस्था की स्थापना के महासमर में अपनी भूमिका चुनना तथा आमरण उसका निर्वाह करना.
निवेदन है कि अगर इनमें से कोई बिन्दु अस्पष्ट प्रतीत हो और उसका मतलब समझ में न आ रहा हो, तो बेझिझक मुझसे सम्पर्क करें. इन बिंदुओं के सहारे स्वयं ही आत्म-मूल्यांकन करें और देखें कि इनमें से कौन-कौन से गुण आपके अन्दर पहले से ही हैं. और जो नहीं हैं उनको अपने व्यक्तित्व में उगाने का प्रयास करें. आपके इस प्रयास में किसी भी तरह की कठिनाई आने पर सहायता के लिये मैं विनम्रतापूर्वक उपलब्ध हूँ.


Dear friend,
The factors for personality-cultivation project are presented here, to transform you in an undefeatable person when developed in your personality.
As you know we are living in an era of globalisation and technology.
We need to keep pace with ever-evolving society; we can do that only by making us disciplined, proactive and visionary.
For this purpose only this project has been developed.
Gladly become the part of our project and think that I also have to do it to develop my personality :
1.       Time bound routine, only six hours of sleep, to make and apply personal time-table.
2.      When work, only work should be on mind (Remember Dance as if no one is watching), no reading reluctantly, live in the pleasure of involvement, one work at one time with full concentration will give ultimate pleasure in life and lead forward.
3.      Live in present, don’t get lost in past all the time, thinking about good memories. Once in a while remembrance of past is good, but all the time singing of past is a disease which kills slowly without even letting you know. And don’t waste time only in day-dreaming as it won’t yield anything fruitful either because Future is unpredictable and past is gone. Cherish your present and try to make it more beautiful and meaningful for better future.
4.       Maintain healthy and rich diet with sufficient exercise. Remember always Healthy Brain resides in healthy body.
5.       Lead life without any addiction. It leads to destruction only.
6.      Always take initiative to volunteer for manual labour happily, participate in cleaning, become active not idle. An idle person lives on other’s labour. So don’t become parasite.
7.       Maintain the healthy tradition of paying the wage before drying the sweat.
8.      Respect labour and strengthen the side of the culture of labour, don’t ride on the back of anyone, don’t force anyone to work without payment.
9.       Agree with logical statements without hesitation and publicly acknowledge the mistakes and have the courage to self-criticize in clear words.
10.   Prepare real diary daily honestly.
11.   No negligence, create serious atmosphere.
12.   Learn any chapter and try to understand it while reading; read, think, write and understand to memorize, rather than learning only by rote.
13.   Discuss the learned things among the peers and friends for better understanding of the subject and clear your own concept.
14.  Write in beautiful letters and speak clearly with fine articulation, punctuation, pronunciation up to the last character of the sentence.
15.   Read daily a little from the very first page up to the last page of a book for self-study and touch next book after finishing the first one.
16.   Prepare notes from the books of library while reading and make a list of those books.
17.   Speak politely but firmly and contradict logically.
18.   Serve the masses and help the needy.
19.   Conscious effort to free yourself and others from mental slavery of ages.
20.   Take care of the facilities and inconvenience of the people around.
        21.   Develop tolerance, forgiveness and compassion.
        22.   Do not react in harsh words in anger, show patience with cool and calm head.
        23.   Be natural, normal and balanced, do not create tensed environment around.
        24.   Work hard and motivate others also to strive for the best rank in examinations.
        25.   Work productively by increasing work-time to get rid of unproductive anarchic life style, less talks and more work should be the motto.
        26.   Be tough towards yourself and have generous attitude towards others, but don’t get trapped in the loop of liberalism. Beware of clever people who want to use you. Develop a self dependent unit.
        27.   Hope for the best and be prepared for the worst.
        28.   Don’t be scared of obstacles in life; don’t think of suicide by getting depressed.
        29.   Don’t feel inferiority-complex, believe in your creativity, don’t be hopeless.
        30.   Never lament on humiliation, loss, anguish or defeat.
        31.   Don’t be impatient; strive hard for success even in most adverse conditions.
       32.   Always be ready for loss by speaking the truth on face.
       33.   Support the right and oppose the wrong at any cost.
       34.   Carve a discreet and fearless personality, don’t be afraid of anybody anytime.
      35.   Don’t be self-conceited, don’t brag about oneself and others; don’t cheat and lie.
      36.   Do not accept slavery of anyone at any cost, do as feel right.
      37.   Keep promises, don’t backstab by changing your statements.
      38.   Tolerate the loss done by others and try for their improvement and development till they are not incurable and then only break away from them to try the same process for a next person.
      39.   Don’t stagger in indecisive mode like a pendulum, take the risk of decision-making.
     40.   Develop the emotional relations upto ideological level; strive to expand the circle of solidarity for unity in diversity.
     41.   Refrain from neglecting, mocking and insulting, don’t flatter in front of and slander behind anybody under any circumstances.
     42.   Keep scientific outlook and expand it, say no to superstition (We are species gifted with brain, why not to use it).
     43.   Delve into introspection, Self-analysis, self-evaluation, self-confrontation to come out of current typical mindset given by surrounding environment and thus self-refinement as per advancements in the personality. By this process only we can come out of our mental slavery of ages inflicted upon our souls like deep scars. Remember we are ever-evolving species; there is no limit to our learning and development.
      44.   Make aim to implement the realization of progressive thoughts and live life aim-bound.
      45.   Start any relation with suspicion, start believing on the basis of behavioural aspects by understanding in totality.
      46.   Don’t betray the duty becoming blind in selfishness.
      47.   Control the greed, don’t grab anything borrowed, return it or pay back proper compensation with entire due loss.
      48.   Don’t be thankless, express gratefulness.
      49.   Avoid extravagance, save for right work at right time.
      50.   Respect and love nice people and hate and stay away from cunning and crooked ones.
     51.   Respect the benefit and opinion of and fear from the masses.
     52.   Stay away from display of timidity and desire of getting sympathy.
     53.   Rebel against injustice, never surrender.
     54.   Be free from the fear of the suspicion of unknown future and live without wavering.
     55.   Follow the concept of creative competition and positive retaliation.
    56.   Participate in others’ happiness-sorrow, win their goodwill, and don’t kill their trust.
    57.   Don’t show your pains on your face, make jovial atmosphere around.
    58.   Continue conscious campaign to keep individualism under collectivity.
    59.   Beat off limitations of place and time by expanding collective fame and make it the source of inspiration for present and next generations.
    60.   Continuously save yourself and your friends from exploitative leaning.
    61.   Select your role in the great struggle of establishment of exploitation free scientific social system and play it till death.
I humbly request you to contact me without hesitation, if the sense of any of the above points is tough for you to understand. Please self-analyse through these points and see which qualities you already have in your personality and try to cultivate the missing ones. For any difficulty in cultivation of the personality project, I am ever-ready to help you…

      जाने कितने बुने थे सपनेजिन्हें दफ़न कर के मैं खड़ा हूँ;
जाने कितने गढे थे अपनेजिन्हें विदा कर के मैं अड़ा हूँ:

 मैं फिर परिन्दों के रू--रू हूँनयी उड़ानें सिखा रहा हूँ;
मैं इस ज़माने को मोड़ दूँगानये तराने बना रहा हूँ

                               गिरिजेश
(Please keep it safe, photocopy it and make it available to your friends)