Sunday 4 August 2019

सहजता की साधना

प्रिय मित्र, किसी का प्रश्न है : क्या साधारण होना बेहतर है या असाधारण होना ? आत्मविश्वास और अवमानना के अन्तर्सम्बन्ध का प्रश्न जटिल है। फिर भी एक प्रयास....
असाधारण तो मदर नेचर ने आपको गढ़ने के दौरान ही बनाया है। आप जैसा कोई और नहीं है। इसे सामान्य और विशेष के अन्तर्सम्बन्ध के रूप में महर्षि कणाद का सप्तपदार्थी वैशेषिक दर्शन बताता है। साथ ही निःसन्देह ज्ञान की अपनी विशिष्ट शाखा में विशेषज्ञ भी आप हैं ही।
फिर भी मेरा अनुरोध है कि आप भी अपनी विशेषज्ञता के आत्मविश्वास के अतिरेक और अपनी अवमानना की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न आत्मसम्मान के दम्भ के द्वन्द्व से उभर कर सहजता की साधना करने का प्रयास करें।
मैं स्वयं भी कम से कम एक दशक से इसी सहजता की साधना में लगा हूँ। हर बार चूकते ही फेल होता रहता हूँ। साधना अभी जारी है। उसका अन्त अभी नहीं हो सका। विनम्रतापूर्वक अनुरोध करना लगभग सीख लिया।
ज़िन्दगी अक्सर हमारे साथ लुकाछिपी खेलती है। वह हमें चुपचाप सिखाती-पढ़ाती नदी के प्रवाह की तरह बढ़ती जाती है। कभी वह हमें प्रेरित और पुरस्कृत-सम्मानित करती है, तो कभी हताश और दण्डित करती है।
यह बिल्कुल मुमकिन है कि कभी भी किसी मामले में मेरा मत गलत हो और सामने वाले की सोच सही हो। अपनी बात ज़बरन थोपना अनुचित और जनवाद विरोधी है। ऐसा करना उसकी समझ, उसकी प्रतिबद्धता, उसके श्रम और उसके सम्मान के विरुद्ध है। अगर वह अड़ता है, तो उसे उसकी वाली कर लेने देना ही न्याय है। ऐसी स्थिति में परिणाम की प्रतीक्षा की जानी चाहिए।
यह जानते-समझते भी कि सामने वाले का मनोविश्लेषण उसकी समझ की सीमा साफ समझा रहा। तो भी उसकी भलाई करने का पूरे ईमान के साथ बार-बार प्रयास करता हूँ। कुछ गिने-चुने मामलों में वह मेरी बात समझ जाता है और आगे विकसित होता चला जाता है। परन्तु अधिकतर मामलों में वह मनमानी ही करता है। हानि होती है। फिर भी उसे सहन करने और फिर से उसे दुबारा समझाने पर आमादा रहता हूँ।
और एक मोड़ वह भी आता है, जब वह किसी तरह से न ही मेरी भावना को समझता है और न तो हर कोशिश के बाद भी अपनी भलाई के रास्ते पर आगे चलने की मेरी सलाह मानता है। वह पहले ही अपना अलग रास्ता चुन चुका होता है। अब वह अपने रास्ते पर ही बढ़ना चाहता है और बढ़ता चला जाता है। अगणित तथ्यों के प्रकाश में अन्ततः उसके बारे में मेरा भी मोह और भ्रम दोनों ही टूटता भी है। और थक-हार कर उसे छोड़ कर दूसरे नये-पुराने और लोगों की सेवा का फैसला लेेना पड़ता है।
अगर हमें पलायन नहीं करना है और दुनिया को बदलने की कोशिश में हस्तक्षेप करना है, तो इसके अलावा कोई विकल्प नहीं। हाँ, मैं और आप दोनों ही सात अरब में से मात्र एक हैं, एकमात्र नहीं। इस सत्य का बोध और इसे जीना दोनों हमें बेहतर बनाने और बेहतर कर ले पाने में मददगार और ज़रूरी है।
शायद मैं अपनी समझ आप तक पहुँचा सका। कृपया बताइयेगा।
यह मेरी अभिव्यक्ति की परीक्षा भी है। मेरे उस्ताद ने मेरे प्रशिक्षण-काल के दौरान मुझे दो डिग्रियाँ दी हैं। उनका कथन है - "डॉक्टर, तुम अव्यवहारिक और मूर्ख हो।"
ढेर सारा प्यार - आपका गिरिजेश (पुनर्प्रस्तुति) 2.8.19.

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