Sunday 6 September 2015

स्वामी जी बालेन्दु - सत्य, मान्यता अथवा अंधविश्वास क्या है ?


आज मैं मान्यताओं और अंधविश्वास तथा सत्य और वास्तविकता के ऊपर कुछ लिखना चाहता हूँ | विज्ञान हमें वह वास्तविकता दिखाता है जो साबित करी जा सकती है | परन्तु आप किसी मान्यता और अंधविश्वास को साबित नहीं कर सकते | मान्यताएं समय, स्थान और परिस्तिथी के अनुसार बदलती रहती हैं | कई बार स्थान बदलने पर एक दुसरे से नितांत विपरीत मान्यताएं भी प्रचलन में पायीं जातीं हैं क्यों कि इनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता इसीलिये ये वास्तविकता नहीं मान्यताएं हैं |
असल में अंधविश्वास व्यक्ति को मानसिक विश्राम व सुविधा देता है | मनुष्य की प्रवृत्ति ऐसी है कि वो वही विश्वास करना चाहता है जो उसके अनुकूल और सुविधाजनक हो, ये कोई आवश्यक नहीं कि वो सत्य भी हो | वास्तविकता जो कि निश्चित रूप से सत्य है, असुविधाजनक भी हो सकती है | तभी झूठ का अस्तित्व भी है क्यों कि अक्सर लोग झूठ पर विश्वास करते हैं और झूठ पर तो आपको हमेशा अंधविश्वास ही करना पड़ेगा, क्यों कि यदि आँख खोल ली तो आपको पछतावा होगा |
सत्य पर विश्वास करना कोई जरूरी नहीं, सत्य तो सत्य है आप विश्वास करो या न करो | वास्तविकता तो वास्तविकता ही रहेगी आपके विश्वास करने या न करने से कोई फर्क नहीं पड़ता | प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं और सत्य को विश्वास की आवश्यकता नहीं | जैसे कि अग्नि प्रत्यक्ष दिखाई देती है और उसकी सत्यता ये है कि वो जलाती है आप चाहे विश्वास करो या न करो वो तो जलाएगी ही|
अन्धविश्वासी स्वयं पर विश्वास नहीं करते बल्कि हमेशा ऐसा सुना है, लिखा है, पढ़ा है, फलाने ने कहा है या मान्यता है और साथ ही कि हम तो मानते हैं | असल में वो जानते नहीं है बल्कि मानते हैं | सही बात तो ये है कि जिसका अस्तित्व ही नहीं है उसको जाना तो जा ही नहीं सकता, केवल माना जा सकता है, आँख बंद करके मान लो बस, सवाल पूछने का अधिकार नहीं है तुम्हें और यदि सवाल पूछने भी हैं तो केवल मान्यता के बारे में ही पूछना परन्तु शक करने की गुंजाइश नहीं है | धर्म यही तो कहता है कि जो शास्त्रों में लिखा है उसे मानो, जानने की कोशिश मत करो और शक मत करो यदि सवाल भी पूछने हैं तो केवल शास्त्रों से सम्बंधित ही पूछो |
जहाँ भी आपको विश्वास करने का दुराग्रह किया जाये तो सावधान हो जाना और शक भी करना कि कहीं आपकी आँखों पर विश्वास की पट्टी बांधकर धोखा तो नहीं दिया जा रहा, याद रखना धोखा वही देते हैं जिन पर आपने विश्वास किया है | धर्म, ईश्वर, शास्त्र, ज्योतिष, परलोक, अलौकिक चिकित्साएँ, मान्यताएं ये सभी विश्वास का आग्रह करती हैं और वो भी अंधे विश्वास का, शक न करना और उस पर भी तुर्रा ये कि यदि शक किया तो ये काम नहीं करेंगी |
विज्ञान कभी आकर आपसे नहीं कहेगा कि मुझे मानो, वो तो आपको मानना पड़ेगा ही, और कोई दूसरा रास्ता ही नहीं है | एक महत्वपूर्ण बात और भी आपने इन अन्धविश्वासी लोगों से सुनी होगी कि इनके टोने टोटके, मान्यताएं उनपर ही लागू होते हैं जो इनपर विश्वास करते या मानते हैं, सब पर नहीं | देखो कितना अच्छा रास्ता है बच निकलने का, तुम्हारे ऊपर ये लागू नहीं हो रहा या असर नहीं हो रहा क्यों कि तुम मानते नहीं हो | तो फिर झगड़ा ही क्या है मानना छोड़ दो सारी परेशानी खुद ब खुद ख़त्म हो जाएगी |
हम प्रायः देखते हैं कि धार्मिक और नास्तिक हर समय भगवान का अस्तित्व होने अथवा न होने को साबित करने के संघर्ष में लगे हैं | क्या आपने कभी प्रसिद्ध वैज्ञानिकों को किन्हीं तर्कों या इन सब बहसों में पड़ते देखा है ? परमात्मा को आप अपनी इन्द्रियों से नहीं जान सकते | परन्तु दुर्भाग्यवश नास्तिक अपनी सारी ऊर्जा ये साबित करने में ही लगा देते हैं कि भगवान का अस्तित्व नहीं है | कितना ही अच्छा होता कि वो समाज के धरातल पर आकर देखते कि आखिर समस्या क्या है और उनको समझते कि आखिर क्यों चाहिए लोगों को धर्म और भगवान | व्यक्ति धर्म पर विश्वास करता है क्यों कि उसे कुछ चाहिए या किसी समस्या से ग्रस्त हैं अथवा भयभीत हैं | यदि आप यही राग अलापते रहेंगे कि भगवान का कोई अस्तित्व नहीं है इससे उनका क्या भला होगा ? आपको लोगों से जुड़ना होगा और उनकी समस्याओं को समझना पड़ेगा |
धार्मिक लोग आधुनिक बनने के प्रयास में धर्म और विज्ञानं को मिलाने की कोशिश करते हैं क्योंकि धर्म के बिना तो रहा जा सकता है परन्तु विज्ञान के बिना नहीं|
सारे धर्म सत्य को ही स्थापित करने में जुटे हैं और स्वयं को सत्य बता रहे हैं ईश्वर की अवधारना के सहित और रहित कोई फर्क नहीं पड़ता | सचाई तो ये है कि एडवोकेसी तो असत्य की होती है सत्य तो सत्य है और जितने धर्म हैं सब एडवोकेसी में ही लगे हैं | परन्तु आग को मानो या न मानो वो तो जलायेगी ही और आग को जान सकते हो तुम मानने की जरूरत नहीं |
स्वामी बालेन्दु 
वृन्दावन 21June 2012
About Swami
Author, Speaker, Counselor, Blogger and former Guru, 
"No Religion Please"
Please read before subscribing or befriending:
If you are looking for a guru, religious advice or a spiritual master, if you are a member of a sect or if you are searching for enlightenment, you will be disappointed. On top of that, you will feel bad when you read my words against this all.
So please don’t even connect if you have any such expectation. I am a normal, married, working man who likes to write down his opinion, even if it is the opposite of what you expect from me.
I am not a Hindu. I question the complete concept of religion. I am not an atheist either. I am just me and I only believe in love.
I work to support our children charity organization and I believe that this is one of the most wonderful ways to give love to others.
If you now still feel like subscribing or befriending me, go ahead, I am looking forward to meet you!
I am writing my Autobiography here http://www.jaisiyaram.com/blog/my-life/
I come from a very strong religious background but I do not consider myself anymore belonging to any religion and I believe the concept of religion is wrong. Maybe many people here would not like my words but I feel in past and present time, religion often had the effect of poison: only killing and dividing people.
That's why I ask why can we not leave all religion and just become Human? I don't want to be Hindu or Muslim or Christian, I just want to be Human. That's what God has created. Human is made by God and religion is made by man. And I believe God is not Hindu nor Muslim nor Christian.
God doesn't have a religion. So why I should be forced to believe in any particular religion? Because of my thoughts for this topic, many religious people may not like me. That's okay, I accept it because I believe my God likes me and doesn't have any religion, just like me.
I have written about religion, God and Gurus and many other topics daily on my blog: http://www.jaisiyaram.com/blog/religion
Many times people get confused by my name or getup and think, if I am not a Guru, why do I have a 'Swami' in front of my name? I wrote a blog entry about that back in 2009 that can give you an answer to this question. Check it out here: 
http://www.jaisiyaram.com/…/3039-what-is-a-swami-and-why-is…
Instead of devoting myself to religion, I devote my life to help poor children. We run a Charity school providing food and education to those who really need it.
हमारे छोटे से प्रायमरी स्कूल में 150 बच्चे हैं, जिसमें कि सवर्ण और अनुसूचित सभी जाति के बच्चों का अनुपात लगभग बराबर है | सभी बच्चों को युनिफोर्म, भोजन, किताबें, शिक्षा व चिकित्सा पूर्णरूपेण मुफ्त उपलब्ध कराया जाता है | शिक्षकों की तनख्वाह योग्यतानुसार तथा समान स्तर के शहर के अन्य स्कूलों से लगभग 50 % अधिक है तथा शिक्षक भी भोजन आश्रम में ही करते हैं | सन 2007 से स्कूल हमारी प्राइवेट बिल्डिंग में है और स्कूल के सभी क्लास रूम एयर कंडीशंड हैं, और हमको सरकार से किसी भी प्रकार की सहायता प्राप्त नहीं होती है |
स्कूल और बच्चों के खर्च का लगभग 40 % प्रायोजकों के दान से मिलता है और बाकी का 60 % हम अपनी कमाई में से योगदान करते हैं, तथा मैं और मेरा परिवार इस स्कूल के लिए अवैतनिक कार्य भी करते हैं | मेरा और मेरे परिवार की कमाई का साधन वो व्यापार है जो हम यहाँ पर, अपनी यात्राओं में तथा ऑनलाइन वेबसाईट के माध्यम से करते हैं |
हमारे यहाँ बच्चों के प्रवेश की योग्यता केवल उनके परिवार की आर्थिक स्तिथी पर निर्भर करती है, हम उन्हीं बच्चों को प्रवेश देते हैं जिनके माँ बाप प्राइवेट स्कूलों की फीस नहीं दे सकते | अभी पिछले दिनों एक परिवार कार से आया अपने दो बच्चों के प्रवेश के लिए परन्तु हमने उन्हें मना कर दिया और कहा कि आप अपने बच्चों को किसी और स्कूल में दाखिला कराओ क्यों कि हमारे स्कूल में जगह सीमित है और ये गरीबों के लिए है वो प्रवेश देने पर कुछ दान भी देना चाहते थे परन्तु हमने उनको मना कर दिया |
इस वर्ष जो बच्चे कक्षा पांच पास कर के निकले हैं हमने उनके अभिभावकों से कहा कि हम इन बच्चों की आगे की पढ़ाई का पूरा खर्च तब तक देंगे जब तक ये पढ़ना चाहें | इसके लिए जब हमने सरकारी स्कूल जिसमें कि मैं भी पढ़ा हूँ संपर्क किया तो उन्होंने कहा कि जो बच्चे सवर्ण नहीं हैं, उनकी फीस माफ़ हो जाएगी परन्तु जो सवर्ण हैं, उनका खर्चा आपको देना पड़ेगा | मुझे बड़ा अजीब लगा कि इन गरीब सवर्णों का केवल इतना ही दोष है कि ये सवर्ण परिवार में पैदा हुए, परन्तु हम जानते हैं कि उनके परिवार की आर्थिक स्तिथी इस लायक नहीं हैं कि वो अपने बच्चों के लिए किसी अच्छे स्कूल का खर्च वहन कर सकें | खैर फिर हम लोगों ने तय किया कि हम इन बच्चों को अगले महीने से एक दूसरे अच्छे प्राइवेट स्कूल में पढ़ाएंगे और सवर्ण तथा अन्य सभी बच्चों की फीस तथा शिक्षा सम्बन्धी सभी खर्च भी देंगे क्यों कि इस प्राइवेट स्कूल में शिक्षा का स्तर सरकारी स्कूल से कहीं बेहतर है |
मेरी बेटी अभी बहुत छोटी है परन्तु मेरा व मेरी पत्नी का निर्णय है कि हमारी बेटी जब स्कूल जाने लायक हो तो इसी स्कूल में जाये न कि किसी बहुत महंगे इंटरनेशनल स्कूल में |शिक्षा मेरे लिए व्यवसाय नहीं है |
In our small primary school there are 150 children. There is approximately the same amount of lower-caste children as higher-caste children. We provide all children uniforms, food, books, education and health check-ups completely for free. Compared to other schools of the same level in Vrindavan the salary of our teachers, according to their qualification, is about 50% higher. Additionally the teachers also eat at the Ashram. Since 2007 we have our own school in our private building. All rooms are air-conditioned. We don’t receive any financial help from the government.
About 40% of the expenses for school and children are covered by donations of our sponsors and we are thankful to all our friends, sponsors and donors all over the world for their support. The remaining 60% are contributed by our own earning. My family and I work for this school without getting paid. My family’s and my source of income is the business which is done at the Ashram, while travelling or online through our website.
The decision to admit a child in our school depends on the family’s financial situation. We only take in those children whose parents cannot afford to send them to a school with a decent standard of education.
Last week a family came by car to have their son and their daughter admitted at our school. We refused and told them to have their children admitted somewhere else. We have limited place in our school which is reserved for the poor. They even wanted to give a donation in exchange for having their children admitted. We politely told them that this was not an option.
This year some of our children have finished the fifth grade and thus graduated from our school. We told their parents that we would like to support their education as long as they wish to keep on learning. We contacted the government school where I also learned and were told that those of our children who are from lower castes don’t have to pay fees. We would however have to pay the fees of those who are from higher castes. I felt very strange. These children’s only fault is that they were born in a higher caste. We know that their family’s situation is not in a way that they could afford education in a higher school.
Anyway, we then decided that we will send these children to a private school and we will provide fees and expenses for books and more because the standard of education there is simply much better.
My daughter is very small now but my wife and I have decided already that in future, when she will be old enough, we will send her to our own school and not to any expensive, international school.
Education is not a business for me.
(साभार http://www.jaisiyaram.com/blog/my-life/)

हम सब दाभोलकर ! सुभाष गताडे


अंधश्रद्धा के खिलाफ संघर्षरत एक संग्रामी की शहादत - 



‘‘जिन्दगी जीने के दो ही तरीके मुमकिन हैं। पहला यही कि कोई भी चमत्कार नहीं। दूसरा, सबकुछ चमत्कार ही है।’’
- अलबर्ट आइनस्टाइन

लब्जों की यह खासियत समझी जाती है कि वे पूरी चिकित्सकीय निर्लिप्तता के साथ ग्राही/ग्रहणकर्ता के पास पहुंचते हैं। यह ग्राही पर निर्भर करता है कि वह उनके मायने ढंूढने की कोशिश करे। बीस अगस्त की अलसुबह पुणे की सड़क पर अंधश्रद्धा विरोधी आन्दोलन के अग्रणी कार्यकर्ता डा नरेन्द्र दाभोलकर की हुई सुनियोजित हत्या की ख़बर से उपजे दुख एवं सदमे से उबरना उन तमाम लोगों के लिए अभीभी मुश्किल जान पड़ रहा है, जो अपने अपने स्तर पर प्रगति एवं न्याय के संघर्ष में मुब्तिला हैं।

पुणे के निवासियों के एक बड़े हिस्से के लिए मुला मुठा नदी के किनारे बना आंेकारेश्वर मंदिर वह जगह हुआ करती रही है जहां लोग अपने अन्तिम संस्कार के लिए ले लाए जाते रहे हैं। इसे विचित्रा संयोग कहा जाएगा कि उसी मन्दिर के ऊपर बने पूल से अल सुबह गुजरते हुए डा नरेन्द्र दाभोलकर ने अपनी झंझावाती जिन्दगी की चन्द आखरी सांसें लीं। एक जुम्बिश ठहर गयी, एक जुस्तजू अधबीच थम गयी। मोटरसाइकिल पर सवार हत्यारे नौजवानों द्वारा दागी गयी चार गोलियों में से दो उनके सिर के पिछले हिस्से में लगी थी और वह वहीं खून से लथपथ गिर गए थे।

अपनी मृत्यु के एक दिन पहले शाम के वक्त मराठी भाषा के सहयाद्री टीवी चैनल पर उपस्थित होकर वह जातिपंचायतों की भूमिका पर अपनी राय प्रगट कर रहे थे। उस वक्त किसे यह गुमान हो सकता था कि उन्हें‘सजीव’ अर्थात लाइव सुनने का यह आखरी अवसर होनेवाला है। यह पैनल चर्चा नासिक जिले की एक विचलित करनेवाली घटना की पृष्ठभूमि में आयोजित की गयी थी, जहां किसी कुम्हारकर नामक व्यक्ति द्वारा अपनी जाति पंचायत के आदेश पर अपनी बेटी का गला घोंटने की घटना सामने आयी थी। वजह थी उसका अपनी जाति से बाहर जाकर किसी युवक से प्रेमविवाह। चर्चा में हिस्सेदारी करते हुए डा दाभोलकर बता रहे थे कि किस तरह उन्होंने हाल के दिनों में अन्तरजातीय विवाह को बढ़ावा देने के लिए सम्मेलन का आयोजन किया था और इसी मसले पर घोषणापत्र भी तैयार किया था।

एक बहुआयामी व्यक्ति - प्रशिक्षण से डाक्टरी चिकित्सक, अपनी रूचि के हिसाब से देखें तो लेखक-सम्पादक एवं वक्ता और एक आवश्यकता की वजह से एक आन्दोलनकारी, यह कहना अनुचित नहीं होगा कि पूरे मुल्क के तर्कशील आन्दोलन के लिए वह एक अद्भुत मिसाल थे और अपने संगठन एवं उसकी 200 से अधिक शाखाओं के जरिए सूबा महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं गोवा में जनजागृति के काम में लगे थे। बहुत कम लोग जानते थे कि अपने स्कूल-कालेज के दिनों में वह जानेमाने कब्बडी के खिलाड़ी थे, जिन्होंने भारतीय टीम के लिए मेडल भी जीते थे। हालांकि उन्होंने अपने सामाजिक जीवन की शुरूआत डाक्टरी प्रैक्टिस से की थी, मगर जल्द ही वह डा बाबा आढाव द्वारा संचालित ‘एक गांव, एक जलाशय (पाणवठा)’ नामक मुहिम से जुड़ गए थे। विगत दो दशक से अधिक समय से वह अंधश्रद्धा के खिलाफ मुहिम में मुब्तिला थे।

डा दाभोलकर की प्रचण्ड लोकप्रियता का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके मौत की ख़बर सुनते ही महाराष्ट्र के तमाम हिस्सों में स्वतःस्फूर्त प्रदर्शन हुए, और उनके गृहनगर सातारा में तो जुलूस में शामिल हजारों की तादाद ने जिन्दगी के सत्तरवें बसन्त की तरफ बढ़ रहे अपने नगर के इस प्रिय एवं सम्मानित व्यक्ति को अपनी आदरांजलि दे दी। 21 अगस्त को पुणे शहर में सभी पार्टियों के संयुक्त आवाहन पर बन्द का आयोजन किया गया।

राजनेताओं से लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं तक सभी ने डाॅक्टर दाभोलकर को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की है। उन्हें किस हद तक विरोध का सामना करना पड़ता था इस बात का अन्दाज़ा इस तरह लगाया जा सकता है कि विगत अठारह साल से महाराष्ट्र विधानसभा के सामने एक बिल लम्बित पड़ा रहा है जिसका फोकस जादूटोना करनेवाले या काला जादू करनेवाली ताकतों पर रोक लगाना है। रूढिवादी हिस्से के विरोध को देखते हुए इस बिल में आस्था क्या है या अंधआस्था किसे कहेंगे इसको परिभाषित करने से बचा गया था और सूबे में व्यापक पैमाने पर व्यवहार में रहनेवाली अंधश्रद्धाओं को निशाने पर रखा गया था। ऐसी गतिविधियां संज्ञेय एवं गैरजमानती अपराध के तौर पर दर्ज हों, ऐसे अपराधों की जांच के लिए या उन पर निगरानी रखने के लिए जांच अधिकारी नियुक्त करने की बात भी इसमें की गयी थी।

‘महाराष्ट्र प्रीवेन्शन एण्ड इरेडिकेशन आफ हयूमन सैक्रिफाइस एण्ड अदर इनहयूमन इविल प्रैक्टिसेस एण्ड ब्लैक मैजिक’ शीर्षक इस बिल का हिन्दु अतिवादी संगठनों ने लगातार विरोध किया है, पिछले दो साल से वारकरी समुदाय के लोगों ने भी विरोध के सुर में सुर मिलाया है। और इन्हीं का हवाला देते हुए इस अन्तराल में सूबे में सत्तासीन सरकारों ने इस बिल को पारित नहीं होने दिया है। आप इसे डा दाभोलकर की हत्या से उपजे जनाक्रोश का नतीजा कह सकते हैं या सरकार द्वारा अपनी झेंप मिटाने के लिए की गयी कार्रवाई कह सकते हैं कि कि इस दुखद घटना के महज एक दिन बाद महाराष्ट्र सरकार के कैबिनेट में इस बिल को लेकर एक अध्यादेश लाने का निर्णय लिया गया है।

निःस्सन्देह उनकी हत्या के पीछे एक सुनियोजित साजिश की बू आती है। आखिर किसने ऐसे शख्स की हत्या की होगी जिसने महाराष्ट्र की समाजसुधारकों की - ज्योतिबा फुले, महादेव गोविन्द रानडे या गोपाल हरि आगरकर - विस्मृत हो चली परम्परा को नवजीवन देने की कोशिश की थी ?

कई सारी सम्भावनाएं हैं। यह सही है कि उनके कोई निजी दुश्मन नहीं थे मगर अंधश्रद्धा के खिलाफ उनके अनवरत संघर्ष ने ऐसे तमाम लोगों को उनके खिलाफ खड़ा किया था, जिनको उन्होंने बेपर्द किया था। तयशुदा बात है कि ऐसे लोग कारस्तानियों में लगे होंगे। राजनीति में सक्रिय यथास्थितिवादी शक्तियों के लिए भी उनके काम से परेशानी थी। पुलिस ने कहा कि वह इन आरोपों की भी पड़ताल करेगी कि इसके पीछे सनातन संस्था और हिन्दू जनजागृति समिति जैसी अतिवादी संस्थाओं का हाथ तो नहीं है, जिसके सदस्य महाराष्ट्र एवं गोवा में आतंकी घटनाओं में शामिल पाए गए हैं। इस बात को रेखांकित करना ही होगा कि कई भाषाओं में प्रकाशित अपने अख़बार ‘सनातन प्रभात’ के जरिए इन संस्थाओं ने डा दाभोलकर के खिलाफ जबरदस्त मुहिम चला रखी थी, इतनाही नहीं उन्होंने दाभोलकर के ऐसे फोटो भी प्रकाशित किए थे, जिसे लाल रंग से क्रास किया गया था, जिसमें उनकी सांकेतिक समाप्ति की तरफ इशारा था।

डा दाभोलकर को दी अपनी श्रद्धांजलि में लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक आनन्द तेलतुम्बडे लिखते हैं कि((http://www.countercurrents.org/teltumbde230813.htm)
‘..दाभोलकर की हत्या के बाद भी सनातन संस्था ने उनके प्रति अपनी घृणा के भाव को छिपाया नहीं बल्कि अगले ही दिन जबकि पूरा राज्य दुख एवं सदमे में था, उन्होंने अपने मुखपत्रा में लिखा कि यह ईश्वर की कृपा थी कि दाभोलकर की मृत्यु ऐसे हुई। गीता को उदधृत करते हुए लिखा गया कि जो जनमा है, उसकी मृत्यु निश्चित है, जन्म एवं मृत्यु हरेक की नियति के हिसाब से होते हैं। हरेक को अपने कर्म का फल मिलता है। बिस्तर पर पड़े पड़े बीमारी से मरने के बजाय, डा दाभोलकर की जो मृत्यु हुई वह ईश्वर की ही कृपा थी।’..इतनाही नहीं इस हत्या से अपने सम्बन्ध से इन्कार करने के लिए बुलायी गयी प्रेस कान्फेरेन्स में उन्हें यह कहने में भी संकोच नहीं हुआ कि वह दाभोलकर की लाल रंग से क्राॅस की गयी तस्वीर की तरह कई अन्यों की तस्वीरें भी प्रकाशित करेंगे। कहने का तात्पर्य कि जो दाभोलकर की राह चलेगा उन्हें वह नष्ट करेंगे।’

ऐसा नहीं था कि डा दाभोलकर को इस बात का अन्दाजा नहीं था कि ऐसी ताकतें किस हद तक जा सकती हैं। उनके परिवार के सदस्यों के मुताबिक उन्हें अक्सर धमकियां मिलती थीं, लेकिन उन्होंने पुलिस सुरक्षा लेने से हमेशा इन्कार किया। उनके बेटे हामिद ने कहा कि ‘‘वे कहते थे कि उनका संघर्ष अज्ञान की समाप्ति के लिए है और उससे लड़ने के लिए उन्हें हथियारों की जरूरत नहीं है।’’ उनके भाई ने अश्रुपूरित नयनों से बताया कि जब हम लोग उनसे पुलिस सुरक्षा लेने का आग्रह करते थे, तो वह कहते थे कि ‘अगर मैंने सुरक्षा ली तो वे लोग मेरे साथियों पर हमला करेंगे। और यह मैं कभी बरदाश्त नहंीं कर सकता। जो होना है मेरे साथ हो।’’

विभिन्न बाबाओं के खिलाफ एवं साध्वियों के खिलाफ भी उन्होंने ‘महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति’ के बैनरतले आन्दोलन चलाया था। एक किशोरी के साथ कथित बलात्कार के आरोपों के चलते इन दिनों सूर्खियां बटोर रहे आसाराम बापू ने पिछले दिनों होली के मौके पर नागपुर में अपने शिष्यों के साथ होली के कार्यक्रम का आयोजन किया था। काफी समय से सूखा झेल रहे महाराष्ट्र में इस कार्यक्रम के लिए लाखों लीटर पीने के पानी के टैंकरों का इन्तजाम किया गया था। समिति के बैनरतले डा दाभोलकर ने इस कार्यक्रम को चुनौती दी और अन्ततः यह कार्यक्रम नहीं हो सका। चर्चित निर्मल बाबा के खिलाफ भी डा दाभोलकर ने पिछले दिनों अपना मोर्चा खोला था। यू टयूब पर आप चाहें तो डा दाभोलकर के भाषण को सुन सकते हैं निर्मल बाबा: शोध आणि बोध। यह वही निर्मल बाबा हैं जिनका कार्यक्रम एक साथ 40 विभिन्न चैनलों पर चलता है जहां लोगों को उनकी समस्याओं के समाधान के नाम पर ईश्वरीय कृपा की सौगात दी जाती है। उनकी समागम बैठकों में 2000 रूपए के टिकट भी लगते हैं।

वर्ष 2008 में डा दाभोलकर एवं अभिनेता एवं समाजकर्मी डा श्रीराम लागू ने ज्योतिषियों के लिए एक प्रश्नमालिका तैयार की और कहा कि अगर उन्होंने तर्कशीलता की परीक्षा पास की तो उन्हें पुरस्कार मिल सकता है। अभी तक इस पर दांवा ठोकने के लिए कोई आगे नहीं आया। वर्ष 2000 में अपने संगठन की पहल पर उन्होंने राज्य के सैकड़ो महिलाओं की रैली अहमदनगर जिले के शनि शिंगणापुर मन्दिर तक निकाली जिसमें महिलाओं के लिए प्रवेश वर्जित था। न केवल रूढिवादी तत्वों ने बल्कि शिवसेना एवं भाजपा के कार्यकर्ताओं ने परम्परा एवं आस्था की दुहाई देते हुए महिलाओं के प्रवेश को रोकना चाहा, उनकी गिरफ्तारियां भी हुईं और फिर मामला मुंबई की उच्च अदालत पहुंचा और सुनने में आया है कि मामला पूरा होने के करीब है।



अपने एक आलेख ‘ रैशनेलिटी मिशन फार सक्सेस इन लाइफ’ में जिसमें ‘उनका मकसद आवश्यक बदलाव के लिए लोगों को प्रेरित करना है’ उन्होंने लिखा था:

'परम्पराओं, रस्मोरिवाज और मन को विस्मित कर देनेवाली प्रक्रियाओं से बनी युगों पुरानी अंधश्रद्धाओं की पूर्ति के लिए पैसा, श्रम और व्यक्ति एवं समाज का समय भी लगता है। आधुनिक समाज ऐसे मूल्यवान संसाधनों को बरबाद नहीं कर सकता। दरअसल अंधश्रद्धाएं इस बात को सुनिश्चित करती हैं कि गरीब एवं वंचित लोग अपने हालात में यथावत बने रहें और उन्हें अपने विपन्न करनेवाले हालात से बाहर आने का मौका तक न मिले। आइए हम प्रतिज्ञा लें कि हम ऐसी किसी अंधश्रद्धा को स्थान नहीं देगें और अपने बहुमूल्य संसाधनों को बरबाद नहीं करेंगे। उत्सवों पर करदाताओं का पैसा बरबाद करनेवाली, कुम्भमेला से लेकर मंदिरों/मस्जिदों/गिरजाघरों के रखरखाव के लिए पैसा व्यय करनेवाली सरकारों का हम विरोध करेंगे और यह मांग करेंगे कि पानी, उर्जा, कम्युनिकेशन, यातायात, स्वास्थ्यसेवा,प्रायमरी शिक्षा और अन्य कल्याणकारी एवं विकाससम्बन्धी गतिविधियों के लिए वह इस फण्ड का आवण्टन करें।'

उनके जीवन की एक अन्य कम उल्लेखित उपलब्धि रही है, विगत अठारह साल से उन्होंने किया ‘साधना’नामक साप्ताहिक का सम्पादन, जिसने अपनी स्थापना के 65 साल हाल ही में पूरे किए। जानकार बताते हैं कि जब उन्होंने सम्पादक का जिम्म सम्भाला तो सानेगुरूजी जैसे स्वतंत्राता सेनानी एवं समाजसुधारक द्वारा स्थापित यह पत्रिका काफी कठिन दौर से गुजर रही थी, मगर उनके सम्पादन ने इस परिदृश्य को बदल दिया और आज भी यह पत्रिका तमाम परिवर्तनकामी ताकतों के विचारों के लिए मंच प्रदान करती है।

ठीक ही कहा गया है कि डा दाभोलकर की असामयिक मौत देश के तर्कवादी आन्दोलन के लिए गहरा झटका है। देश में दक्षिणपंथी ताकतों के उभार के चलते पहले से ही तमाम चुनौतियों का सामना कर रहे इस आन्दोलन ने अपने एक सेनानी को खोया है। मगर अतिवादी ताकतों के हाथ उनकी मौत दरअसल उन सभी के लिए एक झटका कही जा सकती है जो देश में एक प्रगतिशील बदलाव लाने की उम्मीद रखते हैं। अब यह देखना होगा कि उनकी मृत्यु से उपजे प्रचण्ड दुख एवं गुस्से को ऐसी तमाम ताकतें मिल कर किस तरह एक नयी संकल्पशक्ति में तब्दील कर पाती हैं ताकि अज्ञान, अतार्किकता एवं प्रतिक्रिया की जिन ताकतों के खिलाफ लड़ने में डा दाभोलकर ने मृत्यु का वरण किया, वह मशाल आगे भी जलती रहे।

प्रतिक्रियावादी तत्व भले ही डा दाभोलकर को मारने में सफल हुए हों, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस तरह से उनकी हत्या हुई है उसने तमाम नए लोगों को भी दिमागी गुलामी के खिलाफ जारी इस व्यापक मुहिम से जोड़ा भी है। यह अकारण नहीं कि महाराष्ट्र के विभिन्न स्थानों पर हुई रैलियों में तमाम बैनरों, पोस्टरों में एक छोटेसे पोस्टर ने तमाम लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था जिस पर लिखा था ‘आम्ही सगले दाभोलकर’ (हम सब दाभोलकर)।

जादू टोना विरोधी विधेयक में यह माना जाएगा अपराध
भूत भगाने के नाम पर किसी को मारना या पीटना, पर किसी तरह का मंत्र पढ़ने पर पाबन्दी नहीं होगी।
चमत्कार के नाम पर दूसरों को धोखा देना या पैसा लेना
किसी की जिन्दगी को खतरे में डाल कर अघोरी तरीके का इस्तेमाल करना
भानामती, करणी, जारणमरण, गुप्तधन के नाम से अमानवीय काम करना या नरबलि देना
दैवी शक्ति का दावा होने के नाम पर डर फैलाना
पिछले जन्म में पत्नी, प्रेमिका या प्रेमी होने का दावा कर या बच्चा होने का आश्वासन देकर संबंध बनाना
उंगली से आपरेशन का दावा करना
गर्भवती महिलाओं के लिंग परिवर्तन का दावा करना
भूत पिशाच का आवाहन करते हुए डर फैलाना
कुत्ता, बिच्छू, सांप काटने पर दवा देने से मना करके मंत्रा द्वारा ठीक करने का दावा करना
मतिमंद व्यक्ति में अलौकिक शक्ति का दावा कर उस व्यक्ति का इस्तेमाल धंधे या व्यवसाय के लिए करना

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सुभाष गाताडे

जाने माने लेखक और प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता , अंग्रेजी में दो किताबें और हिन्दी में एक किताब प्रकाशित. कुछ अनुवाद भी. हिंदी, अंग्रेजी के अलावा मराठी में भी लेखन. 'न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव' से सम्बद्ध.
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समयांतर के सितम्बर-२०१३ अंक से साभार
(http://jantakapaksh.blogspot.se/2013/09/blog-post_3.html)

सन्दर्भ महाभारत का : प्रश्न अनिवार्यता का : उत्तर उपलब्धि का



प्रिय मित्र, मेरे 18.8.14. के लेख 'कृष्ण का व्यक्तित्व और कृतित्व : एक मूल्यांकन"(http://young-azamgarh.blogspot.in/2015/04/blog-post_7.html) को पढ़ कर महाभारत के भीषण संग्राम के परिणामस्वरूप तत्कालीन और परवर्ती काल में भारतीय समाज पर पड़े दुष्प्रभाव के कारण गान्धारी के प्रश्न और कृष्ण के उत्तर से असन्तुष्ट आदरणीय Sudarshan Goyal सर को क्षोभ है. उनके शब्द हैं – 
Sudarshan Goyal - “बहुत ही लंबा लेख है, कठिन भाषा है समझने की लिए कई बार पढ़ना होगा. मैं श्री कृष्ण से ही ज़्यादा प्रभावित हूँ. पर थोड़ा निराश भी हूँ. युद्ध के बाद गंधारी ने श्री कृष्ण से कहा : अगर तुम चाहते तो युद्ध को रुकवा सकते थे. श्री कृष्ण ने कहा था : हाँ माता, मैं रुकवा सकता था. मगर इस युद्ध का होना अनिवार्य था. ऐसा श्री कृष्ण ने क्यों समझा? सारी scientific and technological achievements, सारी कलाएँ नष्ट हो गयी, बुराई के साथ अच्छाई भी स्वाहा हो गयी. अन्याय पर न्याय की विजय करवा कर net gain क्या रहा? इस बात से मैं निराश हूँ. भगवान बुद्ध ने कुच्छ अमृत की बूँदें दीं. मगर जो नहीं रहा, उसे अमृत भी कैसे लौटा सकता था. हम विद्वत्ता से मूर्खता मैं आ गये, बलवान से कमज़ोर हो गये, सभ्य से असभ्य हो गये, धनवान से निर्धन हो गये, वग़ैरा वग़ैरा.”

विद्वान् मित्र Sanjay Jothe जी ने कृष्ण के व्यक्तित्व को पोंगापण्डितों द्वारा आभामण्डित करने के षड्यन्त्र का सुन्दर विश्लेषण करते हुए अपना लेख लिखा. उनके इस लेख का लिंक है -https://www.facebook.com/sanjay.jothe/posts/10206841704348729

आदरणीय सुदर्शन गोयल सर के क्षोभ ने और मेरे अनुरोध ने उन से आज एक और विश्लेषण को लिपिबद्ध करवा लिया. उसका लिंक है - https://www.facebook.com/sanjay.jothe/posts/10206845364360227

उनका दूसरा लेख प्रश्न की गम्भीरता को स्वीकार कर पूरे ईमान से उत्तर के महत्व को समझता-समझाता तो है. परन्तु आँखों में सीधे घूर रहे प्रश्न को उत्तर की सम्भावनाओं की ओर इंगित करके तत्काल इति करने को विवश है. अतएव वह’ न तो लेखक को और न ही पाठक को तृप्त कर पाता है. ऐसे में पूरी विनम्रता के साथ एक प्रयास मैं भी कर रहा हूँ. कहना कठिन है कि इसकी उपलब्धि विफल नहीं होगी.

वैज्ञानिक दृष्टिकोण व्यक्ति को व्यवस्था के उत्पाद के रूप में देखता है. विराट व्यक्तित्व भी परिवेश की चुनौतियों के चलते ही गढ़े जाते हैं और उनकी सफलता तभी लोकमान्य होती है, जब वे अपने देश-काल के सम्मुख उपस्थित विभिन्न अन्तर्विरोधों में से प्रधान अन्तर्विरोध के यक्ष-प्रश्न का समाधान प्रस्तुत कर ले जाते हैं. यही इतिहास और साहित्य दोनों के मूल्यांकन का मूलभूत पैमाना है. महाभारत मिथक साहित्य माना जाता है. उसकी ऐतिहासिकता आशंकाओं एवं आपत्तियों से घिरी है. भले ही हम इस महाकाव्य को मिथक मानते हैं, तो भी कृष्ण द्वैपायन व्यास के अस्तित्व को नकारना नामुमकिन है. वह महाकवि भी अपने महाकाव्य की विराटता को उकेर देने में सफल तभी हो सका, जब वह सूक्ष्मता के साथ अपने समय और समाज की जटिलता एवं व्यापकता को देख-समझ रहा था. कम से कम महाभारतकार का मूल्यांकन करते समय विवाद किसी तरह की भ्रान्ति नहीं फैला सकते हैं. विश्लेषण की सर्वस्वीकृत द्वन्द्वात्मक पद्धति से टटोलने का प्रयास आरम्भ करने के लिये यह देखना श्रेयस्कर होगा कि महाभारत के महानायक कृष्ण का काल-खण्ड क्या था और उनके सम्मुख चुनौतियाँ क्या थीं.

महाभारत-काल भारतीय सामन्तवादी समाज-व्यवस्था के उत्कर्ष का काल है. वर्गीय समाज में राज-सत्ता भी वर्गीय हितों के अनुरूप ही होती है और शासक वर्गों का ही प्रतिनिधित्व और उनके हितों की ही सेवा करती है. शासक वर्गों के निहित स्वार्थों के अनुरूप ही विधि की रचना की जाती है और उसे आभामण्डित करके लोक का समर्थन और मान्यता हासिल की जाती है. कोई भी राज-सत्ता केवल अपने राजस्व के दम पर ही खड़ी रह सकती है और राजस्व के स्रोत का घेरा बढ़ाने की महत्वाकांक्षा या उसके स्रोत को यथावत बनाये रखने की विवशता के चलते ही दो या दो से अधिक सत्ताओं के बीच छोटे-बड़े युद्ध लड़े जाते हैं. सामन्तवाद के काल में शिल्प का विकास तो हुआ है. परन्तु राजस्व एवं राजकीय सेना का मूल स्रोत भूमि ही रही है. प्रत्येक बड़ा सामन्त अपने अधीनस्थ सामन्तों से कर लेता है और युद्ध-काल में सैनिक भी.

महाभारत काल में कुरुवंश का सम्राट धृतराष्ट्र है. सम्राट के ज्येष्ठ पुत्र के ही युवराज होने की परम्परा के चलते उसका अधिकार सुयोधन के पक्ष में सहज ही है. पाण्डवों की राज-सत्ता पर अपने अधिकार की माँग इस परम्परा का उल्लंघन करती है. इस रूप में यह माँग अनुचित है. महाभारत के युद्ध का मूल कारण यही माँग है. इस माँग को स्वरित करने स्वयं कृष्ण हस्तिनापुर की राज्य-सभा तक जाते हैं. मथुरा और द्वारका दो राज्यों का स्वामित्व उन के पास है. चाहते तो वह अपने अनन्य मित्र और रिश्तेदार अर्जुन को एक इलाका उपहार में वैसे ही दे दे सकते थे, जैसे सुयोधन ने कर्ण को अंगदेश की सत्ता दी थी. परन्तु सुयोधन ने कर्ण को कर-मुक्त नहीं किया था. अंगदेश की सत्ता द्वारा हस्तिनापुर को राजस्व देना उस उपहार में निहित था. कृष्ण के सम्मुख भी यही प्रश्न था. वह पाण्डवों को अपने राज्य का कोई अंश देना ही नहीं चाहते थे. और न ही उनको यदुवंश से कई गुना सशक्त कुरुवंश की शक्ति सहन करना स्वीकार्य था. किसी और को सन्देशवाहक बना कर भेजने से कृष्ण का मनोरथ विफल भी हो सकता था. इस सम्भावना को निर्मूल कर देने और युद्ध को अनिवार्य बना देने की परिस्थिति रचने में पूरी सफलता के लिये वह यह दायित्व स्वयं लेते हैं. यदुवंशी कृष्ण को हस्तिनापुर अभी भी अपने समकक्ष मानने और अपेक्षित सम्मान देने को तैयार न था. उनका अपमान सुनिश्चित था. उनकी तात्कालिक सफलता इस अपमान के बिना अधूरी रहती. शिशुपाल की हत्या का प्रसंग इसे पुष्ट करता है.

कृष्ण की महत्वाकांक्षा हस्तिनापुर के विनाश के बिना पूरी होना सम्भव नहीं थी. उसके लिये उनको सचेत तौर पर प्रयास करना पड़ा. पाण्डवों की पाँच गाँवों के राज्य की माँग मूलतः राजस्व के स्वतन्त्र अधिकार की माँग थी. राजस्व में भाग देना असम्भव था. युद्ध से इतर इस माँग की पूर्ति के लिये कोई भी तरीका असम्भव था. युद्ध अनिवार्य था. अतएव गान्धारी का प्रश्न परिपक्व प्रश्न नहीं था. और कृष्ण का उत्तर भी सांत्वना मात्र था. 

इस सन्दर्भ में ब्राह्मणों के पक्ष में स्थापित परम्परागत शक्ति-संतुलन को बदलने के लिये और क्षत्रियों के पक्ष में नया शक्ति केन्द्र स्थापित करने के लिये वशिष्ठ और विश्वामित्र के टकराव से आरम्भ होने वाले ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच लम्बे समय तक भारत-भूमि पर जारी वर्गीय अन्तर्विरोध को स्मृतियों एवं पुराणों की रचना के संघर्ष और यज्ञ में देवों को बलि देने की परम्परा के विरुद्ध कृष्ण को ही ईश्वर के अवतार के रूप में स्वीकृति देने के साथ ही प्रवाहण की 'निराकार ब्रह्म' की परिकल्पना और गार्गी-याज्ञवल्क्य सम्वाद से बुद्ध-महावीर और पुष्यमित्रशुंग तक के द्वन्द्वों और संघर्षों में देखा जा सकता है.

युद्ध व्यक्तियों की महत्वाकांक्षाओं का परिणाम नहीं होता. व्यक्ति निमित्त तो बन जाते हैं. सतह पर उनकी महत्वाकांक्षा भी युद्ध के सहज कारण के रूप में दिखती है. परन्तु मूल कारण व्यक्ति में नहीं व्यवस्था की विसंगतियों में निहित होते हैं. और उनका परिणाम भी व्यक्तियों की कामना के अनुरूप ही होगा - यह कदापि सुनिश्चित नहीं किया जा सकता. बहुधा जीवन की गति व्यक्तिगत कल्पनाओं से परे नितान्त भिन्न भवितव्य की रचना करती है. युद्ध जितना बड़ा होता है, विनाश भी उसी के अनुरूप व्यापक होता है और उसका प्रभाव भी उतना ही कालजयी एवं त्रासद होता है. युद्ध के पश्चात् पुनर्निर्माण का प्रयास किया तो जाता है. परन्तु अतीत को दुबारा जी सकना मनुष्य के वश से बाहर है, अतीत व्यक्ति या समाज को केवल अपना ‘जन्म-चिह्न’ दे कर वर्तमान को अपनी समस्याओं के समाधान के लिये प्रेरित कर सकता है. और भारतीय समाज भी महाभारत के सर्वनाशी विध्वंस के बाद एक ‘ब्लैक एरा’ से गुज़रने के लिये बाध्य हुआ. 

प्रत्येक विराट युद्ध की ही तरह महाभारत की समाप्ति के बाद भी मानवता की विकास-यात्रा में तरह-तरह के अवरोध तो आये, परन्तु फिर भी जीवन आगे बढ़ता गया. और चूँकि समाज की विकास-यात्रा जारी रही, इसलिये उसके अनुरूप ही ज्ञान, विज्ञान, कला, साहित्य, संस्कृति, शिल्प और वाणिज्य का भी विकास होता गया. उस विकास को सिरे से पूरी तरह नकारना अनुचित होगा. सामन्तवाद का काल समूची धरती पर सहस्त्रों वर्षों तक यथावत चलता रहा है. उस पूरे काल में सभी समाजों में जीवन-पद्धति और उत्पादन-प्रणाली में छिटपुट इक्का-दुक्का छोटे-मोटे परिमाण के स्तर पर बदलावों की ही सम्भावना बन सकी है.

एक ही समाजव्यवस्था की अगली पीढ़ियों में भी उत्पादन-शैली और जीवन-पद्धति कम-ओ-बेश यथावत बनी रहती है और इस कारण से ही उनके द्वारा चिन्तन और अनुसन्धान के स्तर पर जीवन के किसी भी क्षेत्र में कोई गुणात्मक छलांग सम्भव नहीं हो पाती. और चूँकि महाभारत के रण के बाद भी भारत भूमि में सामन्तवाद की समाज-व्यवस्था टूटी नहीं, इसलिये अगली सैकड़ों पीढ़ियों के विशेषज्ञों द्वारा सापेक्षतः किसी मौलिक अनुसन्धान की सम्भावना भी उतनी प्रबल नहीं हो सकी. जैसा कि पूँजीवादी समाज-व्यवस्था के मात्र विगत कुछ सौ वर्षों के दौरान हो गया. चूँकि पूँजीवाद के युग में ज़मीन उत्पादन का मुख्य स्रोत नहीं रह गयी. उसकी जगह कल-कारखानों ने ले ली. इसलिये ही व्यापक अनुसन्धान तभी सम्भव हो सके, जब नयी समाज-व्यवस्था को नये मूल्यों-मान्यताओं और नये उत्पादन के साधनों की ज़रूरत आन पड़ी. विज्ञान के वर्तमान युग का आरम्भ करने वाले इन अनुसन्धानों की पृष्ठभूमि भी यूरोप के पुनर्जागरण काल और उसके बाद ही सम्भव हो सकी. और उसके पीछे भारत सहित सभी उपनिवेशों की अमानुषिक लूट की अकूत सम्पत्ति थी. बर्बर शोषण और उत्पीड़न के बल पर संचित की गयी इस सम्पत्ति के बिना विज्ञान की उपलब्धियों का उपनिवेशवादी उद्योग-जगत कितना उपयोग कर पाता – इस सम्भावना पर भी विभिन्न विद्वानों के सशक्त तर्क और मत हैं.
– ढेर सारे प्यार के साथ आपका गिरिजेश (6.9.15.)

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Sanjay Jothe - महाभारत का युद्ध और कृष्ण की उपलब्धि




कृष्ण पर बात करते हुए महाभारत की विभीषिका से जुडा एक भयानक प्रश्न उभरता है. इस सन्दर्भ में आदरणीय Girijesh Tiwari जी के मित्र श्री सुदर्शन जी ने एकप्रश्न उठाया है. प्रश्न मुझसे किया गया है सो उत्तर देने का प्रयास कर रहा हूँ.

महाभारत युद्ध करवाकर कृष्ण को या भारत को क्या मिल गया ? अर्जुन भागकर सन्यासी हुआ ही जा रहा था. उसे बहला फुसलाकर ऐसा सर्वनाशी युद्ध कराकर किसको क्या मिला? खासकर तब जब कि यह सिद्ध हो चुका है कि महाभारत के बाद भारत कभी अपने पैरों पर खडा नहीं हो सका है. न सामरिक आर्थिक रूप से न धर्म दर्शन और विज्ञान के क्षेत्र में ही.

धर्म दर्शन की ही बात करें तो कृष्ण ने जिन दार्शनिक अनुशासनों का वर्णन या उल्लेख किया है उनके परे जाकर उनके बाद कोई मौलिक खोज हो ही नहीं पा रही है. अभी भी जो षड्दर्शन ज्ञात हैं उनमे से सर्वप्रमुख सांख्य, योग, मीमांसा आदि दर्शन कृष्ण के जमाने में मौजूद हैं, और कृष्ण स्वयं ही वेदान्त के हिस्से बन जाते हैं. इस अर्थ में उनके बाद नए और मौलिक दर्शन बहुत ही कम आये हैं. कृष्ण की एक अज्ञात इतिहास में कोई अन्य तस्वीर हो सकती है लेकिन ज्ञात इतिहास से इतना ही जाहिर होता है कि पूरा भारतीय धर्म दर्शन, विज्ञान, नैतिकता इत्यादि ठीक वहीं की वहीं जम गयी है जहां कृष्ण ने महाभारत का यद्ध ख़त्म किया था.

उसके बाद की भारत की कहानी मौलिकता के अभाव की और गुलामी की कहानी है. बीच में बुद्ध (ज्ञात इतिहास के अनुसार) महावीर और अन्य लोग आते हैं लेकिन आज की मुख्यधारा के समाज मनोविज्ञान में उनका अस्तित्व नगण्य है. पूरा भक्ति आन्दोलन भी कृष्ण और उनके कथित आदि रूप राम या विष्णु से ही प्रेरित है. वैष्णवी भक्ति उस पर छाई हुई है. कबीर इत्यादी की विद्रोही प्रस्तावनाओं को भी वैष्णवी भक्ति की खोल में दबाकर मार दिया गया है. कोई नया विमर्श वहां भी नहीं उभर सका है. जो उभरा भी वो पुराने खोल में दबाकर घोंट दिया गया है.

इसलिए सुदर्शन जी द्वारा उठाया गया ये प्रश्न असल में भारत की पूरी आध्यात्मिकता और दार्शनिकता पर बहुत ही भारी पड़ता है. ये ऐसा प्रश्न से जिससे बचने में ही भलाई समझी जाती है.

इसका कोई सरल सा उत्तर हो भी नहीं सकता . प्रश्न जितना सरल होता है उत्तर उतना कठिन होने को बाध्य होता है. ये प्रश्न इतना सरल जीवंत और इतना अस्तित्वगत है कि कोई भी एक उत्तर इसके साथ न्याय नही कर सकता .

फिर भी ऐसा लगता है कि चूँकि कृष्ण पूर्व और कृष्ण पश्चात का इतिहास मिटा दिया गया है इसलिए इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना असंभव है. जो समाज कृष्णों को मिटा दे वहां प्रश्नों की क्या हैसियत ? अगर पोगा पंडितों ने कृष्ण को व्यवसाय न बनाया होता तो एक ईमानदार इतिहास की संभावना बन सकती थी और उसमे से कोई उत्तर निकाला जा सकता था. लेकिन वह हो न सका. कृष्ण खुद इस पूरे घमासान में विक्टिम की तरह नजर आते हैं, निदा फाजली की एक गजल है- "मैं देवता की तरह कैद अपने मंदिर में" "बस एक वक्त का खंजर मेरी तलाश में है". कृष्ण भी इसी तरह कैद हैं. पौराणिक इतिहास की धुंध में लहरा रहे वक्त के खंजर से उनके सत्व की ह्त्या की गयी है. हालाँकि उन्हें एक ऐतिहासिक पुरुष मानने के लिए साक्ष्य मौजूद नहीं हैं फिर भी मान लें कि अगर वे ऐतिहासिक हैं तो उनके खिलाफ षड्यंत्र ठीक उसी कोटि के हैं जिस कोटि के बुद्ध के खिलाफ रचे गए हैं.

इस प्रश्न का उत्तर इसलिए भी कठिन है क्योंकि हम नहीं जानते कि इस युद्ध के द्वारा कृष्ण क्या बचाना चाहते थे. अगर उन्होंने वह सब बचा लिया है जो आज हमारे सामने है तो निश्चित ही कृष्ण समझदार साबित नहीं होते. अगर उन्होंने ऐसा कुछ बचा लिया था जिसे हम नहीं पहचान सके हैं तो हम नासमझ साबित होते हैं. फिर इतिहास की धुंध में कृष्ण अकेले नहीं हैं. इसलिए यह प्रश्न बहुत जटिल बन जाता है.

बहुत स्वाभाविक से प्रेक्षणों पर उत्तर निर्मित किया जाए तो एक संभावित उत्तर यही बनता है कि महाभारत के युद्ध के सन्दर्भ में कृष्ण का निर्णय और प्रयास एकदम व्यर्थ गया, शायद ये आत्मघाती निर्णय था. न केवल पांडव कुल या कौरव कुल सहित उनके शुभचिंतकों का बल्कि खुद यदुवंश का नाश भी इसी महाभारत से जुडा हुआ है. हिन्दुओं में कृष्ण के बाद जिस सर्वविनाशी कल्कि की धारणा है उसकी शायद जरूरत ही नहीं है. कृष्ण ही पर्याप्त सर्वनाश करके जा चुके हैं.

लेकिन इसका अर्थ ये नहीं है कि महाभारत के युद्ध की सफलता या असफलता से ही हमें कृष्ण का मूल्यांकन करना चाहिए. ये सही मार्ग नहीं है. युद्ध हमेशा विवशता का विषय होते हैं स्वेच्छा का नहीं. हमें उन बातों पर फोकस करना चाहिए जहां कृष्ण अपनी स्वतंत्रता से और प्रसन्नतापूर्वक प्रवेश कर रहे हैं. उस अर्थ में देखेंगे तो महाभारत के कलंक से उन्हें बचाया जा सकता है. हालाँकि अन्य और भी अनेक कलंक हैं जो और उनके मस्तक पर लगे हुए हैं, उनकी बात भी की जानी चाहिए... वो फिर कभी.

https://www.facebook.com/sanjay.jothe/posts/10206845364360227

Sanjay Jothe - विद्रोही कृष्ण के व्यक्तित्व का सत्य और उसके चतुर्दिक आभामण्डल का षड्यन्त्र



(महीनों पहले यह लेख लिखा था, ऐसे लेख छापने में अखबारों, पत्रिकाओं को डर लगता है. कोई छापता नहीं सो यहाँ दे रहा हूँ)
https://www.facebook.com/sanjay.jothe/posts/10206841704348729
कृष्ण को नजरअंदाज करना मुश्किल है. वे बार बार बुलाते हैं. उनमे ऐसा बहुत कुछ है जो भविष्य का है. लेकिन वे आज तक अपने पूरे रूप में खिलकर नहीं आ सके हैं. इसको समझना चाहिए. जो लोग भी कृष्ण को प्रेम करते हैं उन्हें कृष्ण को इस नयी दृष्टि से जरुर देखना चाहिए. 
कृष्ण को देखने या दिखाने का जिस भाँती का पारम्परिक आग्रह इस देश में इस समाज में बना हुआ है वह बहुत भयानक सच्चाई की तरफ इशारा करता है. कृष्ण जैसे व्यक्तित्व को रूढ़िवादी फ्रेम में रखकर उनके असल चमत्कार की ह्त्या कर देना इस समाज की विशेषता है. दुर्भाग्य यह भी है कि यह काम कृष्ण तक ही नहीं रुक गया है. भारतीय इतिहास में जितने भी महानायक है सभी को हर संभव अर्थ में सीमित और खंडित किया गया है ताकि वे धर्म के व्यापार के लिए फायदेमंद बने रहें.

अन्य लोगों की बात न करके सिर्फ कृष्ण को भी एक केस स्टडी की तरह लिया जाए तो पता चलता है कि हम हज़ारों साल से किस दुर्भाग्य में जी रहे हैं. कृष्ण के जीवन में बहुत सारे पहलू हैं जो एकदम नयी मनुष्यता, स्वतन्त्रता और मौलिक क्रान्ति की तरफ ले जाते हैं. सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ने और उनके परे जाकर मनुष्य की गरिमा को स्वीकार करने में कृष्ण सबसे आगे नजर आते हैं. वे न केवल पारम्परिक अर्थ के सामाजिक चलन को तोड़ते हैं बल्कि सबसे भयानक और विवादास्पद माने गए लैंगिक अनुशासन के आग्रह को भी तोड़कर निकल जाते हैं. इस तरह किसी भी अर्थ में पुरानी और दकियानूसी धारणाओं को वे उन्ही की जमीन पर खड़े होकर ललकारते रहे हैं.

गीता के कृष्ण और भागवत या गीत गोविन्द के कृष्ण में जो अंतर बनाया गया है उसे देखकर लगता ही नहीं है कि ये एक ही व्यक्ति है. अधिकाँश लोगों को इस भाँती कंडीशन किया गया है कि वे गीता के कृष्ण का सम्मान करें और भागवत और गीत गोविन्द के रसिक बिहारी से दूर रहें. इसलिए दूर रहें कि समाज में अगर प्रेम की प्रेरणा बलवती हो गयी तो अमीर गरीब के विभाजन का क्या होगा? स्त्री पुरुष के विभाजन का क्या होगा? वर्ण और जाति का क्या होगा? ये बहुत गौर करने लायक बात है. धर्म का जो स्वरुप हम देखते हैं उसमे कृष्ण के अखंड रूप को झेलने या स्वीकार करने की ज़रा भी हिम्मत नहीं है. उनकी पूजा जरुर करेंगे लेकिन उनकी सुनेंगे नहीं.

कृष्ण के व्यक्तित्व को तोड़कर और काटकर उन टुकड़ों में चुनाव किया जाता रहा है. कुछ लोग एकदम बाल गोपाल को ही फुद्काते रहते हैं, उसे किशोर या जवान नहीं होने देते. कुछ लोग प्रौढ़ हो चुके कृष्ण की परिक्रमा कर रहे हैं और अधिकाँश लोग उन्हें मनुष्य की बजाय इश्वर मानकर उनसे हो सकने वाले सारे लाभ पर पूर्ण विराम लगाकर बैठे हैं. आपके सर्वश्रेष्ठ मनुष्यों को अगर इश्वर का अवतार कह दिया जाए तो उनके नाम पर मंदिर, चन्दा और धर्म का धंधा खूब फलेगा फूलेगा लेकिन लोगों में कृष्ण की तरह दुस्साहसी, शूरवीर और क्रांतिकारी होने का स्कोप ही ख़त्म हो जाएगा. एक तरफ धर्म का ढांचा मजबूत होता जाएगा और दूसरी तरफ लोगों में नए जीवन और नयी स्वतंत्रता के सपनों का गर्भपात हो जाएगा. यह अवतारवाद की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है. इसके बाहर निकालकर अगर कृष्ण को एक इंसान की तरह देखें तो बहुत तरह की उम्मीद जगाई जा सकती है.

यह एक स्थापित तथ्य है कि धर्म की लूट मचाने वाला वर्ग अपने महापुरुष को कभी इंसान नहीं बनने देगा, वो उसे हमेशा आकाश की तरफ धकेलता जाएगा जबतक कि वो अवतार ही न बन जाए. अवतार बनते ही उसकी मनुष्य होने की या मनुष्य के काम आ सकने की सारी संभावना ख़त्म हो जाती है. और सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि फिर ऐसे अवतार या ईश्वर की शिक्षाएं आप तक सीधे सीधे नहीं आ सकती, न आपकी प्रार्थना उसतक सीधे पहुँच सकती हैं. उन्हें किसी पंडित पुरोहित के माध्यम से ही आना या जाना होगा. और यही सारा खेल है. इसी कारण इस देश में धर्म एक ऐसी चीज है जिसमे आज की जिन्दगी के सवालों का जवाब देने की ताकत ही नहीं बची है. अक्सर यही होता है कि अतीत में जो उत्तर दिए जा चुके हैं उनके संगत नए सवाल ढूंढकर लाते रहिये और एक पाखण्ड के झूले में झूलते रहिये.

कृष्ण जैसे व्यक्ति के साथ अगर ये सब हो सकता है तो यह अपने आपमें एक घबरा देने वाला तथ्य है. कृष्ण जिस तरह से प्रयोगवादी हैं जिस तरह से प्रेम के सम्मान और समर्थन में छाती ठोककर खड़े हैं वह अन्य किसी भी महापुरुष से भिन्न है. अन्य महापुरुषों ने प्रेम या मैत्री के सम्मान में प्रवचन दिए हैं. लेकिन कृष्ण उन थोड़े से लोगों में हैं जो सिर्फ बोलते नहीं हैं करके भी दिखाते हैं. स्त्री पुरुष संबंधों में उनकी राय हम सब जानते हैं. वे न सिर्फ अपने प्रेम के लिए समाज से भिड जाते हैं बल्कि अपनी बहन सुभद्रा के प्रेमी अर्जुन को भी उकसाते हैं वह उसका अपहरण कर उससे विवाह कर ले. वे स्त्री के प्रेम और उस प्रेम की सारी संभावनाओं के समर्थन में सदा से खड़े हैं. वे अन्य बहुत अर्थों में पारम्परिक रूढ़ियों को तोड़ने का भी साहस दिखाते हैं.

इन बातों से कहीं आगे जाकर उनका सबसे बड़ा और मौलिक साहस ये है कि वे ब्रह्मचर्य और लैंगिक अनुशासन के भयानक बोझ को एकदम उतारकर फेंक रहे हैं. वे गृहस्थों के लिए धर्म और संस्कृति की एक नयी दृष्टि दे रहे हैं. हालाँकि यह बहुत समय तक शुद्ध नहीं रह पाती है और जल्दी ही स्वयं कृष्ण के नाम पर नैतिकता और अंधविश्वासपूर्ण मान्यताओं से भरा एक नया साहित्य तैयार हो जाता है. कृष्ण को इस तरह लगभग मिटा ही दिया गया है. उनका सिर्फ उतना भर हिस्सा “धर्म के म्यूजियम” में रखा गया है जितने से संगठित धर्म को और पोंगा पंडितों को फायदा हो सके.

पोंगा पंडितों ने सिर्फ बुद्ध की ही ह्त्या नहीं की है. बहुत गौर से देखिये, उन्होंने कृष्ण के साथ और भी भयानक बर्बरता दिखाई है. कृष्ण जैसे महाक्रान्तिकारी और एक मानवतावादी के मुंह से ऐसी बातें कहलवा ली गईं हैं जो उनके जीवन और आचरण से ज़रा भी मेल नहीं खाती हैं. जो व्यक्ति प्रेम को और मैत्री को इतना सम्मान देता है उसके मुंह से वर्ण व्यवस्था की प्रशंसा करवा लेना – ये चमत्कार है. ये बात सोचकर ही कष्ट होता है कि कृष्ण जैसा व्यक्ति इस तरह की मूर्खताओं के समर्थन में खड़ा हो सकता है. लेकिन इस देश में चुंकी इतिहास लिखा नहीं जाता इसलिए कोई भी महापुरुष हो, उसका जीवन चरित्र और शिक्षाएं हमेशा पोंगा पंडित वर्ग की दया पर निर्भर होती हैं. अगर उस महापुरुष की शिक्षा से धर्म के नाम पर कर्मकांड चल सकेगा, चंदे और दक्षिणा का धंधा चल सकेगा तो ही उस महापुरुष की शिक्षा का प्रचार हो सकेगा. अन्यथा उसे पुराण कथाओं की धुंध में घसीट के ऐसी जगह बाँध दिया जाएगा कि हजारों साल तक उसका पता भी नहीं चलेगा.

गौतम बुद्ध और तीर्थंकर महावीर सहित जैनों के तेईस अन्य तीर्थंकरों को देखिये, उन्होंने कर्मकांडों को एकदम नकार ही दिया था. नतीजा साफ़ है, धर्म का व्यवसाय करने वालों ने इन सबको मिटा डाला. कृष्ण फिर भी बचे हुए हैं, वे किसी की दया से नहीं बचे हैं. वे बचे हैं तो इसका कारण ये है कि वे इतने बहुआयामी और प्रचंड रूप से जीवंत हैं कि कर्मकांडी षड्यंत्रकारी उन्हें आज तक पूरी चबा कर निगल नहीं सके हैं. कृष्ण अपनी ही पाषाण मूर्ती को तोड़कर बार बार बाहर निकल आते हैं.

कृष्ण, शिव, बुद्ध, नानक, कबीर और गोरख जैसे अनेक क्रान्तिदृष्टा इस देश में हुए हैं. लेकिन उनको योजनापूर्वक मिटाया गया है. कृष्ण के साथ भी यह खेल चलता रहा है. और आज भी चल रहा है. एक ज़िंदा षड्यंत्र है जो आज भी चल रहा है. कृष्ण का व्यक्तित्व इतना बड़ा और ज्वलंत है कि हजारों साल बाद आज तक उसकी आग को बुझाने के लिए हर साल बड़े बड़े आयोजन करने होते हैं.

आजकल कृष्ण के नाम पर जो त्यौहार या कर्मकांड हैं वे प्रेम और मैत्री की स्वतन्त्रता को नहीं बढाते हैं, वहां भी यौन शुचिता, नैतिकता, ब्रह्मचर्य और भेदभाव जैसी बकवास चरणामृत की तरह बांटी जाती है. यहाँ तक की राधा कृष्ण के ठोस और शारीरिक प्रेम को भी दिव्यता और अलंकारों की धुंध में छिपा दिया गया है. उनके इस प्रेम को भी दिव्य बनाकर नष्ट कर दिया गया है. उसकी व्याख्या भी ऐसी “आत्मा परमात्मा” के प्रेम वाले अर्थ में कर दी गयी है कि उसमे इंसानी प्रेम की कोई गुंजाइश ही नहीं है. लोगों को लगता है कि वे भगवान् हैं तो उन्हें प्रेम करने की छूट है हम ठहरे दीन हीन इंसान हम प्रेम कैसे कर सकते हैं. यह सबसे बड़ा हमला है जो कृष्ण पर आज तक कभी हुआ है. और ये हर साल हर त्यौहार पर होता है. कृष्ण के आचरण की या शिक्षा की व्याख्या ऐसी की गयी है कि उसमे कृष्ण की पूरी क्रान्ति की ह्त्या ही हो गयी है. आज भी यह रुक नहीं रहा है. आज भी कोई भी पोंगा पंडित हो वो अपने किसी भी तरह के दर्शन को मान्यता दिलवाने के लिए सबसे पहले कृष्ण की गीता पर भाष्य जरुर देगा. ये एक मजबूरी है. इस तरह वो न सिर्फ अपनी योग्यता का बखान करते हैं बल्कि अपनी समझ के हिसाब से कृष्ण के व्यक्तित्व को काट पीटकर छोटा करता जाता हैं.

ये विरोधाभासी लगेगा लेकिन इप देख सकते हैं. कृष्ण के नाम पर जितने संप्रदाय हैं उनमे उंच नीच सहित स्त्री पुरुष संबंध और उन संबंधों में स्त्री की स्वतन्त्रता को बहुत बहुत अर्थों में सीमित किया गया है. कृष्ण के नाम पर ब्रह्मचर्य की पारम्परिक धारणा को मजबूत किया जा रहा है.यह बड़ी गजब की बात है.

कृष्ण के जन्म दिवस के अवसर पर उम्मीद करें कि इस देश में कृष्ण को समझने का वातावरण बन सके और कृष्ण पोंगा पंडितों की कैद से आजाद हो सकें.

Friday 4 September 2015

"यह सबसे अच्छा दौर है क्योंकि यह सबसे बुरा दौर है !


प्रिय मित्र, अगर यह मानवता के दुश्मनों के लिये सबसे अच्छा दौर है, तो यह मानवता के लिये भी सबसे अच्छा दौर है. 
अगर यह हमारे विरोधियों के लिये सबसे अच्छा दौर है, तो यह हमारे लिये भी सबसे अच्छा दौर है. 
अगर यह उनके प्रहार का दौर है, तो यह हमारे पलटवार का दौर है. 
अगर यह उनके लिये उत्पीड़न का दौर है, तो यह हमारे लिये प्रतिवाद का दौर है. 
अगर यह उनके हत्यारों की गोलियों का दौर है, तो यह हमारी छातियों पर गोलियाँ झेलने का दौर है. 
अगर यह उनके लिये हत्याओं का दौर है, तो यह हमारी शहादत का दौर है. 
अगर यह उनके लिये फासिज़्म का दौर है, तो यह हमारे लिये जनवाद का दौर है. 
अगर यह उनके लिये अन्धविश्वास की मूर्खता के प्रचार का दौर है, तो यह हमारे लिये वैज्ञानिक दृष्टिकोण समझाने और उसके साथ अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करने का दौर है. अगर यह उनके लिये हमारी हड्डियों में से खून चूस कर अपनी तिज़ोरी भरने का दौर है, तो यह हमारे लिये शोषण-मुक्त समाज के सपने को रूपायित करने के लिये अपनी कूबत भर खटने का दौर है. 
अगर यह ग्लोबल विलेज का दौर है, तो यह समूची दुनिया के जन-गण की मुक्ति के गीत गाने का दौर है. 
अगर यह उनकी झपसटई का दौर है, तो यह हमारे ईमान का दौर है. 
अगर यह झूठ की हुकूमत का दौर है, तो यह सच के विद्रोह का दौर है. 
अगर यह वित्तीय नवउपनिवेशवाद का दौर है, तो यह ही इन्कलाब का भी दौर है. 
जो उनके लिये अच्छा है, वह उनके लिये ही बुरा भी है और जो हमारे लिये बुरा है, वह ही हमारे लिये अच्छा भी है. 
मानवता के इतिहास में अतीत में भी ऐसे दौर बार-बार आते-जाते रहे हैं. 
हर बार हमारे दिलेर पुरखों ने रणक्षेत्र में अपने शौर्य का प्रदर्शन किया है और इतिहास में अपना नाम अपने गरम खून से दर्ज़ कराया है. 
वह उनका दौर था, आज का दौर हमारा दौर है. 
हमें गर्व है कि हमारी ज़िन्दगी में हमारी ज़िद की परीक्षा का यह दौर आया है.
आज का दौर चार्ल्स डिकेन्स के इस कथन को याद करने का दौर है और अपने धैर्य और शौर्य के प्रदर्शन का दौर है. 
ढेर सारे प्यार के साथ और 
अन्तिम साँस तक जूझने के संकल्प के साथ ― आपका गिरिजेश (2.9.15.)
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"वह सबसे अच्छा दौर था, वह सबसे बुरा दौर था, वह बुद्धिमत्ता का दौर था, वह मूर्खता का दौर था, वह विश्वास का युग था, वह अविश्वास का युग था, वह प्रकाश का मौसम था, वह अन्धेरे का मौसम था, वह आशा का वसन्त था, वह निराशा की सर्दी थी। " ― चार्ल्स डिकेन्स

 IT IS THE BEST OF TIMES, IT IS THE WORST OF TIMES 
Charles Dickens ― 
“It was the best of times, it was the worst of times, it was the age of wisdom, it was the age of foolishness, it was the epoch of belief, it was the epoch of incredulity, it was the season of light, it was the season of darkness, it was the spring of hope, it was the winter of despair.” (A Tale of Two Cities)


___ लानत है ज़िन्दगी तुझ पर ! ___

शुक्रिया ज़िन्दगी ! जो तूने मुझे सेवा का संकल्प करने को प्रेरित किया. 
मगर लानत है ज़िन्दगी तुझ पर, जो तूने सेवा करने के चक्कर में मुझे भिखमंगा बना दिया. 
इन्सानियत को प्यार करने और दरिद्रनारायण की सेवा करने के चक्कर में तूने मुझसे मेरा सब कुछ छीन लिया.
हर पल दिल को कचोटने और कसकने वाली तड़प को अकेले-अकेले चुपचाप झेलने को मुझे मजबूर कर दिया. 

मेरा ज़ुर्म केवल झूठ और झपसटई से नफ़रत है.
और सच के लिये सम्मान और झूठ के लिये नफ़रत भी तूने ही मुझ में बोया.
सच के साथ खड़े होने और मानवता की सेवा करने के पुरस्कार और दण्ड दोनों ही मुझे भरपूर मयस्सर हुए. 
जाने कब तक भिखमंगे की यह भूमिका निभानी पड़ेगी मुझे,
जाने कब इस फन्दे की जकड़ से आज़ाद हो सकूँगा... 
कुछ भी तो पता नहीं !

लोगों की सीमाएँ हैं. उनसे मुझे कोई शिकायत भी नहीं है. 
फख्र है कि मैं वह नहीं करने को बज़िद रहा, जो लोग चाहते थे करवाना मुझ से... 
और नतीज़ा वही, जो हर विद्रोही का पुरस्कार है ! क़दम-क़दम पर ज़लालत !

लानत है ज़िन्दगी, तुझ पर जो ऐसे अनुपम काम के लिये मुझे चुना ! 
मेरा काम मुझे तृप्ति और प्रशंसा के साथ हर क़दम पर अधिकतम अपमान, उपहास, अवहेलना और अवसाद ही दे सका. 
सम्मान की भूख तो रही नहीं. पर अपमान अभी भी कसकता तो है ही. 
इसीलिये लानत है तुझ पर ज़िन्दगी ! 

हालाँकि आज भी मेरा आत्म-संघर्ष जारी है. 
आज भी मैं इन्सान की ज़िल्लत के मुखालिफ़ जारी ज़द्दोजहद में पूरी शिद्दत से जूझ रहा हूँ. आज भी शानदार इन्सान गढ़ने का मेरा काम लगातार जारी है. 
आज भी मैं अपने काम से संतुष्ट भी हूँ और मुझे अपनी सफलता पर गर्व भी है. 

विश्वास की हत्या करने वाले मुट्ठी भर लोगों को शुक्रिया ! 
एक से बढ़ कर एक सारे बहादुर दोस्तों को ढेर सारा प्यार ! 
मगर फिर भी 
लानत है ज़िन्दगी तुझ पर ! 
— तुम्हारा गिरिजेश (31.8.15.)