Sunday 6 September 2015

Sanjay Jothe - विद्रोही कृष्ण के व्यक्तित्व का सत्य और उसके चतुर्दिक आभामण्डल का षड्यन्त्र



(महीनों पहले यह लेख लिखा था, ऐसे लेख छापने में अखबारों, पत्रिकाओं को डर लगता है. कोई छापता नहीं सो यहाँ दे रहा हूँ)
https://www.facebook.com/sanjay.jothe/posts/10206841704348729
कृष्ण को नजरअंदाज करना मुश्किल है. वे बार बार बुलाते हैं. उनमे ऐसा बहुत कुछ है जो भविष्य का है. लेकिन वे आज तक अपने पूरे रूप में खिलकर नहीं आ सके हैं. इसको समझना चाहिए. जो लोग भी कृष्ण को प्रेम करते हैं उन्हें कृष्ण को इस नयी दृष्टि से जरुर देखना चाहिए. 
कृष्ण को देखने या दिखाने का जिस भाँती का पारम्परिक आग्रह इस देश में इस समाज में बना हुआ है वह बहुत भयानक सच्चाई की तरफ इशारा करता है. कृष्ण जैसे व्यक्तित्व को रूढ़िवादी फ्रेम में रखकर उनके असल चमत्कार की ह्त्या कर देना इस समाज की विशेषता है. दुर्भाग्य यह भी है कि यह काम कृष्ण तक ही नहीं रुक गया है. भारतीय इतिहास में जितने भी महानायक है सभी को हर संभव अर्थ में सीमित और खंडित किया गया है ताकि वे धर्म के व्यापार के लिए फायदेमंद बने रहें.

अन्य लोगों की बात न करके सिर्फ कृष्ण को भी एक केस स्टडी की तरह लिया जाए तो पता चलता है कि हम हज़ारों साल से किस दुर्भाग्य में जी रहे हैं. कृष्ण के जीवन में बहुत सारे पहलू हैं जो एकदम नयी मनुष्यता, स्वतन्त्रता और मौलिक क्रान्ति की तरफ ले जाते हैं. सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ने और उनके परे जाकर मनुष्य की गरिमा को स्वीकार करने में कृष्ण सबसे आगे नजर आते हैं. वे न केवल पारम्परिक अर्थ के सामाजिक चलन को तोड़ते हैं बल्कि सबसे भयानक और विवादास्पद माने गए लैंगिक अनुशासन के आग्रह को भी तोड़कर निकल जाते हैं. इस तरह किसी भी अर्थ में पुरानी और दकियानूसी धारणाओं को वे उन्ही की जमीन पर खड़े होकर ललकारते रहे हैं.

गीता के कृष्ण और भागवत या गीत गोविन्द के कृष्ण में जो अंतर बनाया गया है उसे देखकर लगता ही नहीं है कि ये एक ही व्यक्ति है. अधिकाँश लोगों को इस भाँती कंडीशन किया गया है कि वे गीता के कृष्ण का सम्मान करें और भागवत और गीत गोविन्द के रसिक बिहारी से दूर रहें. इसलिए दूर रहें कि समाज में अगर प्रेम की प्रेरणा बलवती हो गयी तो अमीर गरीब के विभाजन का क्या होगा? स्त्री पुरुष के विभाजन का क्या होगा? वर्ण और जाति का क्या होगा? ये बहुत गौर करने लायक बात है. धर्म का जो स्वरुप हम देखते हैं उसमे कृष्ण के अखंड रूप को झेलने या स्वीकार करने की ज़रा भी हिम्मत नहीं है. उनकी पूजा जरुर करेंगे लेकिन उनकी सुनेंगे नहीं.

कृष्ण के व्यक्तित्व को तोड़कर और काटकर उन टुकड़ों में चुनाव किया जाता रहा है. कुछ लोग एकदम बाल गोपाल को ही फुद्काते रहते हैं, उसे किशोर या जवान नहीं होने देते. कुछ लोग प्रौढ़ हो चुके कृष्ण की परिक्रमा कर रहे हैं और अधिकाँश लोग उन्हें मनुष्य की बजाय इश्वर मानकर उनसे हो सकने वाले सारे लाभ पर पूर्ण विराम लगाकर बैठे हैं. आपके सर्वश्रेष्ठ मनुष्यों को अगर इश्वर का अवतार कह दिया जाए तो उनके नाम पर मंदिर, चन्दा और धर्म का धंधा खूब फलेगा फूलेगा लेकिन लोगों में कृष्ण की तरह दुस्साहसी, शूरवीर और क्रांतिकारी होने का स्कोप ही ख़त्म हो जाएगा. एक तरफ धर्म का ढांचा मजबूत होता जाएगा और दूसरी तरफ लोगों में नए जीवन और नयी स्वतंत्रता के सपनों का गर्भपात हो जाएगा. यह अवतारवाद की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है. इसके बाहर निकालकर अगर कृष्ण को एक इंसान की तरह देखें तो बहुत तरह की उम्मीद जगाई जा सकती है.

यह एक स्थापित तथ्य है कि धर्म की लूट मचाने वाला वर्ग अपने महापुरुष को कभी इंसान नहीं बनने देगा, वो उसे हमेशा आकाश की तरफ धकेलता जाएगा जबतक कि वो अवतार ही न बन जाए. अवतार बनते ही उसकी मनुष्य होने की या मनुष्य के काम आ सकने की सारी संभावना ख़त्म हो जाती है. और सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि फिर ऐसे अवतार या ईश्वर की शिक्षाएं आप तक सीधे सीधे नहीं आ सकती, न आपकी प्रार्थना उसतक सीधे पहुँच सकती हैं. उन्हें किसी पंडित पुरोहित के माध्यम से ही आना या जाना होगा. और यही सारा खेल है. इसी कारण इस देश में धर्म एक ऐसी चीज है जिसमे आज की जिन्दगी के सवालों का जवाब देने की ताकत ही नहीं बची है. अक्सर यही होता है कि अतीत में जो उत्तर दिए जा चुके हैं उनके संगत नए सवाल ढूंढकर लाते रहिये और एक पाखण्ड के झूले में झूलते रहिये.

कृष्ण जैसे व्यक्ति के साथ अगर ये सब हो सकता है तो यह अपने आपमें एक घबरा देने वाला तथ्य है. कृष्ण जिस तरह से प्रयोगवादी हैं जिस तरह से प्रेम के सम्मान और समर्थन में छाती ठोककर खड़े हैं वह अन्य किसी भी महापुरुष से भिन्न है. अन्य महापुरुषों ने प्रेम या मैत्री के सम्मान में प्रवचन दिए हैं. लेकिन कृष्ण उन थोड़े से लोगों में हैं जो सिर्फ बोलते नहीं हैं करके भी दिखाते हैं. स्त्री पुरुष संबंधों में उनकी राय हम सब जानते हैं. वे न सिर्फ अपने प्रेम के लिए समाज से भिड जाते हैं बल्कि अपनी बहन सुभद्रा के प्रेमी अर्जुन को भी उकसाते हैं वह उसका अपहरण कर उससे विवाह कर ले. वे स्त्री के प्रेम और उस प्रेम की सारी संभावनाओं के समर्थन में सदा से खड़े हैं. वे अन्य बहुत अर्थों में पारम्परिक रूढ़ियों को तोड़ने का भी साहस दिखाते हैं.

इन बातों से कहीं आगे जाकर उनका सबसे बड़ा और मौलिक साहस ये है कि वे ब्रह्मचर्य और लैंगिक अनुशासन के भयानक बोझ को एकदम उतारकर फेंक रहे हैं. वे गृहस्थों के लिए धर्म और संस्कृति की एक नयी दृष्टि दे रहे हैं. हालाँकि यह बहुत समय तक शुद्ध नहीं रह पाती है और जल्दी ही स्वयं कृष्ण के नाम पर नैतिकता और अंधविश्वासपूर्ण मान्यताओं से भरा एक नया साहित्य तैयार हो जाता है. कृष्ण को इस तरह लगभग मिटा ही दिया गया है. उनका सिर्फ उतना भर हिस्सा “धर्म के म्यूजियम” में रखा गया है जितने से संगठित धर्म को और पोंगा पंडितों को फायदा हो सके.

पोंगा पंडितों ने सिर्फ बुद्ध की ही ह्त्या नहीं की है. बहुत गौर से देखिये, उन्होंने कृष्ण के साथ और भी भयानक बर्बरता दिखाई है. कृष्ण जैसे महाक्रान्तिकारी और एक मानवतावादी के मुंह से ऐसी बातें कहलवा ली गईं हैं जो उनके जीवन और आचरण से ज़रा भी मेल नहीं खाती हैं. जो व्यक्ति प्रेम को और मैत्री को इतना सम्मान देता है उसके मुंह से वर्ण व्यवस्था की प्रशंसा करवा लेना – ये चमत्कार है. ये बात सोचकर ही कष्ट होता है कि कृष्ण जैसा व्यक्ति इस तरह की मूर्खताओं के समर्थन में खड़ा हो सकता है. लेकिन इस देश में चुंकी इतिहास लिखा नहीं जाता इसलिए कोई भी महापुरुष हो, उसका जीवन चरित्र और शिक्षाएं हमेशा पोंगा पंडित वर्ग की दया पर निर्भर होती हैं. अगर उस महापुरुष की शिक्षा से धर्म के नाम पर कर्मकांड चल सकेगा, चंदे और दक्षिणा का धंधा चल सकेगा तो ही उस महापुरुष की शिक्षा का प्रचार हो सकेगा. अन्यथा उसे पुराण कथाओं की धुंध में घसीट के ऐसी जगह बाँध दिया जाएगा कि हजारों साल तक उसका पता भी नहीं चलेगा.

गौतम बुद्ध और तीर्थंकर महावीर सहित जैनों के तेईस अन्य तीर्थंकरों को देखिये, उन्होंने कर्मकांडों को एकदम नकार ही दिया था. नतीजा साफ़ है, धर्म का व्यवसाय करने वालों ने इन सबको मिटा डाला. कृष्ण फिर भी बचे हुए हैं, वे किसी की दया से नहीं बचे हैं. वे बचे हैं तो इसका कारण ये है कि वे इतने बहुआयामी और प्रचंड रूप से जीवंत हैं कि कर्मकांडी षड्यंत्रकारी उन्हें आज तक पूरी चबा कर निगल नहीं सके हैं. कृष्ण अपनी ही पाषाण मूर्ती को तोड़कर बार बार बाहर निकल आते हैं.

कृष्ण, शिव, बुद्ध, नानक, कबीर और गोरख जैसे अनेक क्रान्तिदृष्टा इस देश में हुए हैं. लेकिन उनको योजनापूर्वक मिटाया गया है. कृष्ण के साथ भी यह खेल चलता रहा है. और आज भी चल रहा है. एक ज़िंदा षड्यंत्र है जो आज भी चल रहा है. कृष्ण का व्यक्तित्व इतना बड़ा और ज्वलंत है कि हजारों साल बाद आज तक उसकी आग को बुझाने के लिए हर साल बड़े बड़े आयोजन करने होते हैं.

आजकल कृष्ण के नाम पर जो त्यौहार या कर्मकांड हैं वे प्रेम और मैत्री की स्वतन्त्रता को नहीं बढाते हैं, वहां भी यौन शुचिता, नैतिकता, ब्रह्मचर्य और भेदभाव जैसी बकवास चरणामृत की तरह बांटी जाती है. यहाँ तक की राधा कृष्ण के ठोस और शारीरिक प्रेम को भी दिव्यता और अलंकारों की धुंध में छिपा दिया गया है. उनके इस प्रेम को भी दिव्य बनाकर नष्ट कर दिया गया है. उसकी व्याख्या भी ऐसी “आत्मा परमात्मा” के प्रेम वाले अर्थ में कर दी गयी है कि उसमे इंसानी प्रेम की कोई गुंजाइश ही नहीं है. लोगों को लगता है कि वे भगवान् हैं तो उन्हें प्रेम करने की छूट है हम ठहरे दीन हीन इंसान हम प्रेम कैसे कर सकते हैं. यह सबसे बड़ा हमला है जो कृष्ण पर आज तक कभी हुआ है. और ये हर साल हर त्यौहार पर होता है. कृष्ण के आचरण की या शिक्षा की व्याख्या ऐसी की गयी है कि उसमे कृष्ण की पूरी क्रान्ति की ह्त्या ही हो गयी है. आज भी यह रुक नहीं रहा है. आज भी कोई भी पोंगा पंडित हो वो अपने किसी भी तरह के दर्शन को मान्यता दिलवाने के लिए सबसे पहले कृष्ण की गीता पर भाष्य जरुर देगा. ये एक मजबूरी है. इस तरह वो न सिर्फ अपनी योग्यता का बखान करते हैं बल्कि अपनी समझ के हिसाब से कृष्ण के व्यक्तित्व को काट पीटकर छोटा करता जाता हैं.

ये विरोधाभासी लगेगा लेकिन इप देख सकते हैं. कृष्ण के नाम पर जितने संप्रदाय हैं उनमे उंच नीच सहित स्त्री पुरुष संबंध और उन संबंधों में स्त्री की स्वतन्त्रता को बहुत बहुत अर्थों में सीमित किया गया है. कृष्ण के नाम पर ब्रह्मचर्य की पारम्परिक धारणा को मजबूत किया जा रहा है.यह बड़ी गजब की बात है.

कृष्ण के जन्म दिवस के अवसर पर उम्मीद करें कि इस देश में कृष्ण को समझने का वातावरण बन सके और कृष्ण पोंगा पंडितों की कैद से आजाद हो सकें.

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