Sunday 6 September 2015

Sanjay Jothe - महाभारत का युद्ध और कृष्ण की उपलब्धि




कृष्ण पर बात करते हुए महाभारत की विभीषिका से जुडा एक भयानक प्रश्न उभरता है. इस सन्दर्भ में आदरणीय Girijesh Tiwari जी के मित्र श्री सुदर्शन जी ने एकप्रश्न उठाया है. प्रश्न मुझसे किया गया है सो उत्तर देने का प्रयास कर रहा हूँ.

महाभारत युद्ध करवाकर कृष्ण को या भारत को क्या मिल गया ? अर्जुन भागकर सन्यासी हुआ ही जा रहा था. उसे बहला फुसलाकर ऐसा सर्वनाशी युद्ध कराकर किसको क्या मिला? खासकर तब जब कि यह सिद्ध हो चुका है कि महाभारत के बाद भारत कभी अपने पैरों पर खडा नहीं हो सका है. न सामरिक आर्थिक रूप से न धर्म दर्शन और विज्ञान के क्षेत्र में ही.

धर्म दर्शन की ही बात करें तो कृष्ण ने जिन दार्शनिक अनुशासनों का वर्णन या उल्लेख किया है उनके परे जाकर उनके बाद कोई मौलिक खोज हो ही नहीं पा रही है. अभी भी जो षड्दर्शन ज्ञात हैं उनमे से सर्वप्रमुख सांख्य, योग, मीमांसा आदि दर्शन कृष्ण के जमाने में मौजूद हैं, और कृष्ण स्वयं ही वेदान्त के हिस्से बन जाते हैं. इस अर्थ में उनके बाद नए और मौलिक दर्शन बहुत ही कम आये हैं. कृष्ण की एक अज्ञात इतिहास में कोई अन्य तस्वीर हो सकती है लेकिन ज्ञात इतिहास से इतना ही जाहिर होता है कि पूरा भारतीय धर्म दर्शन, विज्ञान, नैतिकता इत्यादि ठीक वहीं की वहीं जम गयी है जहां कृष्ण ने महाभारत का यद्ध ख़त्म किया था.

उसके बाद की भारत की कहानी मौलिकता के अभाव की और गुलामी की कहानी है. बीच में बुद्ध (ज्ञात इतिहास के अनुसार) महावीर और अन्य लोग आते हैं लेकिन आज की मुख्यधारा के समाज मनोविज्ञान में उनका अस्तित्व नगण्य है. पूरा भक्ति आन्दोलन भी कृष्ण और उनके कथित आदि रूप राम या विष्णु से ही प्रेरित है. वैष्णवी भक्ति उस पर छाई हुई है. कबीर इत्यादी की विद्रोही प्रस्तावनाओं को भी वैष्णवी भक्ति की खोल में दबाकर मार दिया गया है. कोई नया विमर्श वहां भी नहीं उभर सका है. जो उभरा भी वो पुराने खोल में दबाकर घोंट दिया गया है.

इसलिए सुदर्शन जी द्वारा उठाया गया ये प्रश्न असल में भारत की पूरी आध्यात्मिकता और दार्शनिकता पर बहुत ही भारी पड़ता है. ये ऐसा प्रश्न से जिससे बचने में ही भलाई समझी जाती है.

इसका कोई सरल सा उत्तर हो भी नहीं सकता . प्रश्न जितना सरल होता है उत्तर उतना कठिन होने को बाध्य होता है. ये प्रश्न इतना सरल जीवंत और इतना अस्तित्वगत है कि कोई भी एक उत्तर इसके साथ न्याय नही कर सकता .

फिर भी ऐसा लगता है कि चूँकि कृष्ण पूर्व और कृष्ण पश्चात का इतिहास मिटा दिया गया है इसलिए इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना असंभव है. जो समाज कृष्णों को मिटा दे वहां प्रश्नों की क्या हैसियत ? अगर पोगा पंडितों ने कृष्ण को व्यवसाय न बनाया होता तो एक ईमानदार इतिहास की संभावना बन सकती थी और उसमे से कोई उत्तर निकाला जा सकता था. लेकिन वह हो न सका. कृष्ण खुद इस पूरे घमासान में विक्टिम की तरह नजर आते हैं, निदा फाजली की एक गजल है- "मैं देवता की तरह कैद अपने मंदिर में" "बस एक वक्त का खंजर मेरी तलाश में है". कृष्ण भी इसी तरह कैद हैं. पौराणिक इतिहास की धुंध में लहरा रहे वक्त के खंजर से उनके सत्व की ह्त्या की गयी है. हालाँकि उन्हें एक ऐतिहासिक पुरुष मानने के लिए साक्ष्य मौजूद नहीं हैं फिर भी मान लें कि अगर वे ऐतिहासिक हैं तो उनके खिलाफ षड्यंत्र ठीक उसी कोटि के हैं जिस कोटि के बुद्ध के खिलाफ रचे गए हैं.

इस प्रश्न का उत्तर इसलिए भी कठिन है क्योंकि हम नहीं जानते कि इस युद्ध के द्वारा कृष्ण क्या बचाना चाहते थे. अगर उन्होंने वह सब बचा लिया है जो आज हमारे सामने है तो निश्चित ही कृष्ण समझदार साबित नहीं होते. अगर उन्होंने ऐसा कुछ बचा लिया था जिसे हम नहीं पहचान सके हैं तो हम नासमझ साबित होते हैं. फिर इतिहास की धुंध में कृष्ण अकेले नहीं हैं. इसलिए यह प्रश्न बहुत जटिल बन जाता है.

बहुत स्वाभाविक से प्रेक्षणों पर उत्तर निर्मित किया जाए तो एक संभावित उत्तर यही बनता है कि महाभारत के युद्ध के सन्दर्भ में कृष्ण का निर्णय और प्रयास एकदम व्यर्थ गया, शायद ये आत्मघाती निर्णय था. न केवल पांडव कुल या कौरव कुल सहित उनके शुभचिंतकों का बल्कि खुद यदुवंश का नाश भी इसी महाभारत से जुडा हुआ है. हिन्दुओं में कृष्ण के बाद जिस सर्वविनाशी कल्कि की धारणा है उसकी शायद जरूरत ही नहीं है. कृष्ण ही पर्याप्त सर्वनाश करके जा चुके हैं.

लेकिन इसका अर्थ ये नहीं है कि महाभारत के युद्ध की सफलता या असफलता से ही हमें कृष्ण का मूल्यांकन करना चाहिए. ये सही मार्ग नहीं है. युद्ध हमेशा विवशता का विषय होते हैं स्वेच्छा का नहीं. हमें उन बातों पर फोकस करना चाहिए जहां कृष्ण अपनी स्वतंत्रता से और प्रसन्नतापूर्वक प्रवेश कर रहे हैं. उस अर्थ में देखेंगे तो महाभारत के कलंक से उन्हें बचाया जा सकता है. हालाँकि अन्य और भी अनेक कलंक हैं जो और उनके मस्तक पर लगे हुए हैं, उनकी बात भी की जानी चाहिए... वो फिर कभी.

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