Sunday 6 September 2015

सन्दर्भ महाभारत का : प्रश्न अनिवार्यता का : उत्तर उपलब्धि का



प्रिय मित्र, मेरे 18.8.14. के लेख 'कृष्ण का व्यक्तित्व और कृतित्व : एक मूल्यांकन"(http://young-azamgarh.blogspot.in/2015/04/blog-post_7.html) को पढ़ कर महाभारत के भीषण संग्राम के परिणामस्वरूप तत्कालीन और परवर्ती काल में भारतीय समाज पर पड़े दुष्प्रभाव के कारण गान्धारी के प्रश्न और कृष्ण के उत्तर से असन्तुष्ट आदरणीय Sudarshan Goyal सर को क्षोभ है. उनके शब्द हैं – 
Sudarshan Goyal - “बहुत ही लंबा लेख है, कठिन भाषा है समझने की लिए कई बार पढ़ना होगा. मैं श्री कृष्ण से ही ज़्यादा प्रभावित हूँ. पर थोड़ा निराश भी हूँ. युद्ध के बाद गंधारी ने श्री कृष्ण से कहा : अगर तुम चाहते तो युद्ध को रुकवा सकते थे. श्री कृष्ण ने कहा था : हाँ माता, मैं रुकवा सकता था. मगर इस युद्ध का होना अनिवार्य था. ऐसा श्री कृष्ण ने क्यों समझा? सारी scientific and technological achievements, सारी कलाएँ नष्ट हो गयी, बुराई के साथ अच्छाई भी स्वाहा हो गयी. अन्याय पर न्याय की विजय करवा कर net gain क्या रहा? इस बात से मैं निराश हूँ. भगवान बुद्ध ने कुच्छ अमृत की बूँदें दीं. मगर जो नहीं रहा, उसे अमृत भी कैसे लौटा सकता था. हम विद्वत्ता से मूर्खता मैं आ गये, बलवान से कमज़ोर हो गये, सभ्य से असभ्य हो गये, धनवान से निर्धन हो गये, वग़ैरा वग़ैरा.”

विद्वान् मित्र Sanjay Jothe जी ने कृष्ण के व्यक्तित्व को पोंगापण्डितों द्वारा आभामण्डित करने के षड्यन्त्र का सुन्दर विश्लेषण करते हुए अपना लेख लिखा. उनके इस लेख का लिंक है -https://www.facebook.com/sanjay.jothe/posts/10206841704348729

आदरणीय सुदर्शन गोयल सर के क्षोभ ने और मेरे अनुरोध ने उन से आज एक और विश्लेषण को लिपिबद्ध करवा लिया. उसका लिंक है - https://www.facebook.com/sanjay.jothe/posts/10206845364360227

उनका दूसरा लेख प्रश्न की गम्भीरता को स्वीकार कर पूरे ईमान से उत्तर के महत्व को समझता-समझाता तो है. परन्तु आँखों में सीधे घूर रहे प्रश्न को उत्तर की सम्भावनाओं की ओर इंगित करके तत्काल इति करने को विवश है. अतएव वह’ न तो लेखक को और न ही पाठक को तृप्त कर पाता है. ऐसे में पूरी विनम्रता के साथ एक प्रयास मैं भी कर रहा हूँ. कहना कठिन है कि इसकी उपलब्धि विफल नहीं होगी.

वैज्ञानिक दृष्टिकोण व्यक्ति को व्यवस्था के उत्पाद के रूप में देखता है. विराट व्यक्तित्व भी परिवेश की चुनौतियों के चलते ही गढ़े जाते हैं और उनकी सफलता तभी लोकमान्य होती है, जब वे अपने देश-काल के सम्मुख उपस्थित विभिन्न अन्तर्विरोधों में से प्रधान अन्तर्विरोध के यक्ष-प्रश्न का समाधान प्रस्तुत कर ले जाते हैं. यही इतिहास और साहित्य दोनों के मूल्यांकन का मूलभूत पैमाना है. महाभारत मिथक साहित्य माना जाता है. उसकी ऐतिहासिकता आशंकाओं एवं आपत्तियों से घिरी है. भले ही हम इस महाकाव्य को मिथक मानते हैं, तो भी कृष्ण द्वैपायन व्यास के अस्तित्व को नकारना नामुमकिन है. वह महाकवि भी अपने महाकाव्य की विराटता को उकेर देने में सफल तभी हो सका, जब वह सूक्ष्मता के साथ अपने समय और समाज की जटिलता एवं व्यापकता को देख-समझ रहा था. कम से कम महाभारतकार का मूल्यांकन करते समय विवाद किसी तरह की भ्रान्ति नहीं फैला सकते हैं. विश्लेषण की सर्वस्वीकृत द्वन्द्वात्मक पद्धति से टटोलने का प्रयास आरम्भ करने के लिये यह देखना श्रेयस्कर होगा कि महाभारत के महानायक कृष्ण का काल-खण्ड क्या था और उनके सम्मुख चुनौतियाँ क्या थीं.

महाभारत-काल भारतीय सामन्तवादी समाज-व्यवस्था के उत्कर्ष का काल है. वर्गीय समाज में राज-सत्ता भी वर्गीय हितों के अनुरूप ही होती है और शासक वर्गों का ही प्रतिनिधित्व और उनके हितों की ही सेवा करती है. शासक वर्गों के निहित स्वार्थों के अनुरूप ही विधि की रचना की जाती है और उसे आभामण्डित करके लोक का समर्थन और मान्यता हासिल की जाती है. कोई भी राज-सत्ता केवल अपने राजस्व के दम पर ही खड़ी रह सकती है और राजस्व के स्रोत का घेरा बढ़ाने की महत्वाकांक्षा या उसके स्रोत को यथावत बनाये रखने की विवशता के चलते ही दो या दो से अधिक सत्ताओं के बीच छोटे-बड़े युद्ध लड़े जाते हैं. सामन्तवाद के काल में शिल्प का विकास तो हुआ है. परन्तु राजस्व एवं राजकीय सेना का मूल स्रोत भूमि ही रही है. प्रत्येक बड़ा सामन्त अपने अधीनस्थ सामन्तों से कर लेता है और युद्ध-काल में सैनिक भी.

महाभारत काल में कुरुवंश का सम्राट धृतराष्ट्र है. सम्राट के ज्येष्ठ पुत्र के ही युवराज होने की परम्परा के चलते उसका अधिकार सुयोधन के पक्ष में सहज ही है. पाण्डवों की राज-सत्ता पर अपने अधिकार की माँग इस परम्परा का उल्लंघन करती है. इस रूप में यह माँग अनुचित है. महाभारत के युद्ध का मूल कारण यही माँग है. इस माँग को स्वरित करने स्वयं कृष्ण हस्तिनापुर की राज्य-सभा तक जाते हैं. मथुरा और द्वारका दो राज्यों का स्वामित्व उन के पास है. चाहते तो वह अपने अनन्य मित्र और रिश्तेदार अर्जुन को एक इलाका उपहार में वैसे ही दे दे सकते थे, जैसे सुयोधन ने कर्ण को अंगदेश की सत्ता दी थी. परन्तु सुयोधन ने कर्ण को कर-मुक्त नहीं किया था. अंगदेश की सत्ता द्वारा हस्तिनापुर को राजस्व देना उस उपहार में निहित था. कृष्ण के सम्मुख भी यही प्रश्न था. वह पाण्डवों को अपने राज्य का कोई अंश देना ही नहीं चाहते थे. और न ही उनको यदुवंश से कई गुना सशक्त कुरुवंश की शक्ति सहन करना स्वीकार्य था. किसी और को सन्देशवाहक बना कर भेजने से कृष्ण का मनोरथ विफल भी हो सकता था. इस सम्भावना को निर्मूल कर देने और युद्ध को अनिवार्य बना देने की परिस्थिति रचने में पूरी सफलता के लिये वह यह दायित्व स्वयं लेते हैं. यदुवंशी कृष्ण को हस्तिनापुर अभी भी अपने समकक्ष मानने और अपेक्षित सम्मान देने को तैयार न था. उनका अपमान सुनिश्चित था. उनकी तात्कालिक सफलता इस अपमान के बिना अधूरी रहती. शिशुपाल की हत्या का प्रसंग इसे पुष्ट करता है.

कृष्ण की महत्वाकांक्षा हस्तिनापुर के विनाश के बिना पूरी होना सम्भव नहीं थी. उसके लिये उनको सचेत तौर पर प्रयास करना पड़ा. पाण्डवों की पाँच गाँवों के राज्य की माँग मूलतः राजस्व के स्वतन्त्र अधिकार की माँग थी. राजस्व में भाग देना असम्भव था. युद्ध से इतर इस माँग की पूर्ति के लिये कोई भी तरीका असम्भव था. युद्ध अनिवार्य था. अतएव गान्धारी का प्रश्न परिपक्व प्रश्न नहीं था. और कृष्ण का उत्तर भी सांत्वना मात्र था. 

इस सन्दर्भ में ब्राह्मणों के पक्ष में स्थापित परम्परागत शक्ति-संतुलन को बदलने के लिये और क्षत्रियों के पक्ष में नया शक्ति केन्द्र स्थापित करने के लिये वशिष्ठ और विश्वामित्र के टकराव से आरम्भ होने वाले ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच लम्बे समय तक भारत-भूमि पर जारी वर्गीय अन्तर्विरोध को स्मृतियों एवं पुराणों की रचना के संघर्ष और यज्ञ में देवों को बलि देने की परम्परा के विरुद्ध कृष्ण को ही ईश्वर के अवतार के रूप में स्वीकृति देने के साथ ही प्रवाहण की 'निराकार ब्रह्म' की परिकल्पना और गार्गी-याज्ञवल्क्य सम्वाद से बुद्ध-महावीर और पुष्यमित्रशुंग तक के द्वन्द्वों और संघर्षों में देखा जा सकता है.

युद्ध व्यक्तियों की महत्वाकांक्षाओं का परिणाम नहीं होता. व्यक्ति निमित्त तो बन जाते हैं. सतह पर उनकी महत्वाकांक्षा भी युद्ध के सहज कारण के रूप में दिखती है. परन्तु मूल कारण व्यक्ति में नहीं व्यवस्था की विसंगतियों में निहित होते हैं. और उनका परिणाम भी व्यक्तियों की कामना के अनुरूप ही होगा - यह कदापि सुनिश्चित नहीं किया जा सकता. बहुधा जीवन की गति व्यक्तिगत कल्पनाओं से परे नितान्त भिन्न भवितव्य की रचना करती है. युद्ध जितना बड़ा होता है, विनाश भी उसी के अनुरूप व्यापक होता है और उसका प्रभाव भी उतना ही कालजयी एवं त्रासद होता है. युद्ध के पश्चात् पुनर्निर्माण का प्रयास किया तो जाता है. परन्तु अतीत को दुबारा जी सकना मनुष्य के वश से बाहर है, अतीत व्यक्ति या समाज को केवल अपना ‘जन्म-चिह्न’ दे कर वर्तमान को अपनी समस्याओं के समाधान के लिये प्रेरित कर सकता है. और भारतीय समाज भी महाभारत के सर्वनाशी विध्वंस के बाद एक ‘ब्लैक एरा’ से गुज़रने के लिये बाध्य हुआ. 

प्रत्येक विराट युद्ध की ही तरह महाभारत की समाप्ति के बाद भी मानवता की विकास-यात्रा में तरह-तरह के अवरोध तो आये, परन्तु फिर भी जीवन आगे बढ़ता गया. और चूँकि समाज की विकास-यात्रा जारी रही, इसलिये उसके अनुरूप ही ज्ञान, विज्ञान, कला, साहित्य, संस्कृति, शिल्प और वाणिज्य का भी विकास होता गया. उस विकास को सिरे से पूरी तरह नकारना अनुचित होगा. सामन्तवाद का काल समूची धरती पर सहस्त्रों वर्षों तक यथावत चलता रहा है. उस पूरे काल में सभी समाजों में जीवन-पद्धति और उत्पादन-प्रणाली में छिटपुट इक्का-दुक्का छोटे-मोटे परिमाण के स्तर पर बदलावों की ही सम्भावना बन सकी है.

एक ही समाजव्यवस्था की अगली पीढ़ियों में भी उत्पादन-शैली और जीवन-पद्धति कम-ओ-बेश यथावत बनी रहती है और इस कारण से ही उनके द्वारा चिन्तन और अनुसन्धान के स्तर पर जीवन के किसी भी क्षेत्र में कोई गुणात्मक छलांग सम्भव नहीं हो पाती. और चूँकि महाभारत के रण के बाद भी भारत भूमि में सामन्तवाद की समाज-व्यवस्था टूटी नहीं, इसलिये अगली सैकड़ों पीढ़ियों के विशेषज्ञों द्वारा सापेक्षतः किसी मौलिक अनुसन्धान की सम्भावना भी उतनी प्रबल नहीं हो सकी. जैसा कि पूँजीवादी समाज-व्यवस्था के मात्र विगत कुछ सौ वर्षों के दौरान हो गया. चूँकि पूँजीवाद के युग में ज़मीन उत्पादन का मुख्य स्रोत नहीं रह गयी. उसकी जगह कल-कारखानों ने ले ली. इसलिये ही व्यापक अनुसन्धान तभी सम्भव हो सके, जब नयी समाज-व्यवस्था को नये मूल्यों-मान्यताओं और नये उत्पादन के साधनों की ज़रूरत आन पड़ी. विज्ञान के वर्तमान युग का आरम्भ करने वाले इन अनुसन्धानों की पृष्ठभूमि भी यूरोप के पुनर्जागरण काल और उसके बाद ही सम्भव हो सकी. और उसके पीछे भारत सहित सभी उपनिवेशों की अमानुषिक लूट की अकूत सम्पत्ति थी. बर्बर शोषण और उत्पीड़न के बल पर संचित की गयी इस सम्पत्ति के बिना विज्ञान की उपलब्धियों का उपनिवेशवादी उद्योग-जगत कितना उपयोग कर पाता – इस सम्भावना पर भी विभिन्न विद्वानों के सशक्त तर्क और मत हैं.
– ढेर सारे प्यार के साथ आपका गिरिजेश (6.9.15.)

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