Friday 29 March 2013

नक्सलवाद का विरोध क्यों? - गिरिजेश



प्रिय मित्र, हमारे नक्सलवाद का विरोध करने वाले अधिकतर मित्र नक्सलवाद से क्या समझ रहे हैं!
वे समझ रहे हैं कि शोषण, दमन और उत्पीडन का विरोध सही है. मगर खुद हथियार उठा कर संघर्ष गलत है. क्योंकि हथियार की लड़ाई में सुरक्षा देने वाले सेना और पुलिस के सिपाही मारे जाते हैं. मगर अमीरों के पक्ष में नीतियाँ बनाने वाले पोलिटीसियन बच जाते हैं - यह तो सच है.

और जब सवाल सुरक्षा का आता है, तो पूछना पड़ता है कि सुरक्षा देने वाले फौज़ी क्या हमें सुरक्षा देते हैं? क्या वे उन्हीं पोलिटीसियन्स की सेवा नहीं कर रहे होते हैं? जब वे निहत्थे आंदोलनकारियों पर कहर बरपाते हैं, तो वे सुरक्षा दे रहे होते हैं. मगर किसको? न्याय माँगने गये लोगों को या अन्याय के लिये ज़िम्मेदार तन्त्र को?

क्या इस तन्त्र में वास्तविक न्याय मिलना सम्भव है? क्या इस जनविरोधी तन्त्र में सब का विकास सम्भव है? क्योंकि विकास का वास्तविक अर्थ है सब का विकास. नहीं न! तो इस व्यवस्था मे क्रान्ति के पक्ष में लगातार बात चलाने से ही सबका विकास होगा. क्रान्ति का अर्थ है - वैचारिक स्तर का विकास. 'मैं' की जगह 'हम' का बोध विकसित करना. क्योंकि 'हम' के बोध के बाद व्यक्तिवाद की जगह सामूहिकता की भावना आ जाती है.

मगर इस व्यवस्था में मुट्ठी भर लोग अकेले-अकेले अपने विकास के चक्कर में सब लोगों का विकास रोकते रहते हैं. और इसी के चलते सारा झगड़ा है. इस झगड़े का निपटारा सरकार फ़ोर्स से करती है, तो नक्सली भी हथियार से करते हैं. मगर वे भी तो केवल जंगलों के भीतर ही कर पा रहे हैं. और अगर जंगलों में भी खनिज-सम्पदा को पूँजीपतियों के हवाले करने का काम नहीं होता, तो क्या सरकार भी वहाँ अपनी सेना इस तरह से नक्सलवादियों से लड़ने के लिये भेजती? और तब अगर आदिवासियों के सामने अपने जंगल को सरकारी कब्ज़े से बचाने की चिन्ता नहीं होती, तो उस हालत में क्या नक्सलवादियों को इतना भी जन-समर्थन मिल पाता? नहीं न!

नक्सलवादी धारा बचकानी आतुरता का शिकार है. अतिवाद की इसी कमी को गहराई से समझने की ज़रूरत है. देश वैसे ही न तो सोच सकता है और न ही सोच पा रहा है, जैसे हमारे बन्दूकधारी साथी चाहते हैं और सोच रहे हैं. देश तो पहले भी लड़ा है और आज भी लड़ ही रहा है और आगे आने वाले दिनों में आर-पार की लड़ाई भी लड़ेगा ही. मगर अपनी पूरी तैयारी के बाद. और उसकी तैयारी में अभी समय शेष है.

लड़ाई में आतुरता से नहीं धैर्य से काम लेना होता है. क्रांतिकारियों की आतुरता क्रान्ति के शत्रु को ही लाभ पहुँचाती है. इस अतिवाद को रंग-रोगन से और चमकाने का और मीडिया के प्रचार-तन्त्र के दम पर दुष्प्रचार करने का सत्ता-प्रतिष्ठान के सेवक 'बुद्धिजीवी' और व्यवस्था के ‘चाकर’ मौका पा जाते हैं और फिर परिणामस्वरूप सत्ता और व्यवस्था आम लोगों में क्रांतिकारियों के बारे में तरह-तरह से दहशत और भ्रम फैलाती है.

और फिर क्रान्ति का फोटोस्टेट नहीं होता. चीन में जो नवजनवादी क्रान्ति लड़ी गयी, वह रूस जैसी नहीं थी और भारत में जो लड़ी जायेगी, वह चीन जैसी नहीं हो सकती. परिस्थिति और परिवेश के अन्तर को समझना ज़रूरी है. अब व्यवस्था और भी अधिक जटिल और संश्लिष्ट हो चुकी है. वह और भी केंद्रीकृत और सबल हो चुकी है. आतंकवादी सैन्यवादी कार्यदिशा और जनदिशा के अन्तर को समझना ज़रूरी है. क्रान्ति जनता करती है. मात्र मुट्ठी भर क्रान्तिकारी मुक्ति के देवदूत नहीं हो सकते. अगर हो सकते होते, तो सड़सठ से अब तक नवजनवादी क्रान्ति की मंज़िल मानने वाले सफल हो चुके होते.

तथाकथित सामंतवाद अब मात्र खण्डहर के तौर पर जान बूझ कर तन्त्र द्वारा रिजर्वेशन और जातिवाद के सहारे बचाया गया है और ब्राह्मणवाद के विरुद्ध नव-दलितवाद को खड़ा करके जन-सामान्य की एकजुटता के रास्ते की खाई को और भी बढ़ाया जा रहा है. और कहावत है ''खण्डहर ढहे, न बुढिया मरे". इस खण्डहर को ढहाने के लिये सांस्कृतिक क्रान्तियों की अगणित श्रृंखलाएँ चलानी पड़ेंगी. अभी तो इनके पीछे ही छिप कर पूँजी मासूम जन के श्रम का शिकार कर रही है.

इसीलिये आतंकवादी-सैन्यवादी कार्यदिशा सही नहीं है. क्रान्तिकारी विचारों के प्रचार-प्रसार के दौरान इस ढहते हुए सामंतवाद के नकली दुश्मन से लड़ने के बजाय असली दुश्मन यानि कि देशी-विदेशी पूँजी का पर्दाफाश किया जाना अधिक लाभकार होगा.

मुख्य समाज के लोग इस व्यवस्था के भीतर जीने वाले लोग हैं. वे नक्सली तरीके से लड़ नहीं सकते. इसलिये ही भगत सिंह का जनदिशा का रास्ता क्रान्ति का सही रास्ता है. इसमें केवल बम-पिस्तौल नहीं, बल्कि बौद्धिक और सामूहिक प्रयास किया जाता है. सब लोगों को साथ लेकर लम्बे समय तक की लड़ाई की तैयारी करनी होती है.

क्रान्ति के नाम पर चल रहा अन्ना, अरविन्द और रामदेव का तरीका तो सफल होता नहीं दिख पा रहा है. और फिर अन्ना और अरविन्द के बीच भी मतभेद पैदा हुआ क्योंकि अन्ना केवल आन्दोलन के ज़रिये ही लड़ना चाहते थे. जबकि अरविन्द को संसद का रास्ता पसन्द आया. उनके बीच मतभेद की वही रेखा है, जो सी.पी.आई., सी.पी.एम. और नक्सल आन्दोलन के बीच है.
फिर भी चूँकि दोनों को ही व्यवस्था के घेरे के भीतर ही लड़ना है, इसलिये दोनों अपने मतभेद के बावज़ूद एक दूसरे का साथ देते रहेंगे.

जबकि असली लड़ाई तो इस व्यवस्था से ही है. और इस व्यवस्था से लड़ने में इन्कलाबी तभी सफल हो सकते हैं, जब व्यवस्था की शक्ति को अपने अखाड़े के अन्दर घुसा ले जायें. उनके अखाड़े में जा कर तो हम उनके जाल में फँसते ही रहे हैं.
और संसद भी उनका ही अखाड़ा है.

क्या अन्ना नहीं जानते कि उनके ही इलाके के ढाई लाख किसानों ने पूँजी के जाल में फँस कर आत्महत्या की है? फिर भी क्या वजह है कि कभी भी तो वह इस पर नहीं बोल सके?
क्या अरविन्द नहीं जानते कि जिन्दल के चलते आदिवासियों का नरमेध हो रहा है. फिर भी वह जिन्दल से पुरस्कार लेते हैं. क्यों? सोचिए. सच सामने है.

युवाओं को ही दुनिया बदलने के इस काम के लिये हर तरह से तैयार करना होगा. मुझे तो यही समझ में आता है. फिर वे जैसा चाहेंगे, करेंगे. या तो वे भी घूसखोर अफसर बन जायेंगे या भगत सिंह की तरह लोगों को जगाने का काम आगे बढायेंगे. हम लोग इसी तरीके से क्रान्तिकारी शक्तियों को जोड़ने, सिखाने और विकसित करने में यकीन करते हैं.

इसके साथ ही हम सब को मिल जुल कर यह कोशिश करनी ही होगी कि अधिकतम मतभेद और न्यूनतम बिन्दुओं पर सहमति होने पर भी देश के सभी जनवादी और प्रगतिशील संगठनों के तौर पर और संगठनों से अलग रह कर व्यक्तिगत स्तर पर सक्रिय साथियों के बीच एकजुटता का कोई ढीला-ढाला ही सही एक आधार बन सके. तभी भारतीय क्रान्ति का दशकों पुराना सपना साकार हो सकेगा.

आपका क्या सोचना है!




8 comments:

  1. ME AAP SE SAHMAT HOO PURI TARAH
    RAM SHARMA

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  2. aap ki bahut si baten theek hain par sari nahin. abhi ek bar aapka lekh padha hai, ismen chook kahan hai yah sham tak vistrit pratikriya dete hue bata sakoonga

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  3. mehanatkash jantako kaise krantisanmukh kiya jay?

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  4. mehanatkash jantako kaise krantisanmukh kiya jay?

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  5. गिरिजेश जी नक्सलवाद और माओवाद एक ज्वलंत उदहारण नेपाल है. जहाँ सरकार ने माओवाद के करता धर्ता प्रचंड की बातें मानकर उन्हें समाज में लौटने और सरकार में सामिल होने का मुआका दिया. इसका पूरा परिणाम आपके सामने है. हर ६ महीने में वह सरकार बदल दी जाती है. हर दुसरे दिन प्रचंड खड़ा होकर धमकी देता है. यहाँ तक अब माओवादियों के प्रेशर में भारत को अपना दुसमन और चीन को अपना दोस्त मानने लगी है.

    अब बात रही नक्सल आन्दोलन से जो सिलिगुरी के नाक्साल्बदी से सुरु होकर भारत के बिभिन्न भागो में पहुंची. पहले पहले तो यह गांव और गांव वालों के अधिकारों की रक्षा के लिए सुरु हुयी नक्सल क्रांति आज अपहरण और फिरौती का बिज़नस बन कर रह गया है. हमें इसे और समझाने की आवश्यकता है. इसमें जोर आज़माइश करने की जरुरत नहीं बल्कि सिक्षा और रोजगार देने की ज्यादा जरुरत है . आन्दोलन और क्रांति को मै गलत नहीं मानता पर दिशाहीन क्रांति ठीक नहीं है. चार पांच आदमी हम मारे और १०-१२ आदमी सरकार मारे - क्या यही है क्रांति का उद्देश्य. अब तो राजनितिक पार्टिया भी इनको अपने वोट बैंक बढाने के लिए इस्तेमाल कर रही है. यदि आप संगठित हैं, असलियत में चाहते है की क्रांति आवे तो चुनाव लड़िये जीतिए और संसद /बिधन सभा में जाकर अपनी आवाज उठाईये . ये संभव भी है क्योंकि बहुत से सामाजिक कार्यक्र्तावों का मानना है की नक्सालियों के पास काफी जनसमर्थन है. अब चुनाव में यह स्पस्ट हो जाएगा की ये जनसमर्थन है तो कितना है यदि नहीं है तो क्यों नहीं है.

    इस लेख को दिल पर ना ले. समाज के कुरीतियों को तोड़ने के लिए क्रांति /आन्दोलन जरुरी है पर दिशाहीन आन्दोलन / क्रांति इसी समाज के विनाश का कारण भी बनती है.

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  6. एक बात और यदि किसी भी परेशानी की वजह से हम हथियार उठा लें तब तो हर दूसरा आदमी बन्दूक लेकर मारने दौड़ेगा. क्योंकि सरकार के काम और लालफितासाही की वजह से सारे लोग परेशां हैं. सभी के परेशानियों का हल बन्दूक कदापि नहीं हो सकता. फिर तो जंगलराज होगा. बड़ा छोटे को मारेगा. क्या देशभक्तों और हमने ऐसे देश की कल्पना की थी ? हाँ पूंजीवादी भी आर्थिक दरिद्रता को खतम करने में असमर्थ है सो हमें गावं गावं जंगल जंगल सारे लोगो के लिए सोचना और समझाना होगा. तभी इन्कलाब आएगी....................

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  7. गीरीरेज सर साददर प्रणाम -- पहली बार आपका ब्लॉग पड़ा है , मुझे आपके विचार बहोत अच्छे लगे है और मै 24 वर्ष का सीविल सर्विस का विधार्थी हु .मुझे लगता हे देश में क्रांति लाने के लिए सभी को एक साथ कदम बड़ाने होंगे , लेकिन युवा लोगो को अच्छे क्षेत्र में आना होगा सीविल , कार्पोरेट , राजनीती , मीडीया , टीचर , चिकित्सा , वकील और भी बहोत सरे क्षेत्र बस शर्त यह हे की सभी अपना काम पूरी जिम्मेदार , सूझ - बुझ , साहस और इमानदारी से करे , में जो कम करना चाहता हु वो इतना आसन नहीं हे जगह जगह भ्र्स्ताचारी भेडीया है ........लेकिन इनसे डरने की जरूरत नहीं हे क्योकि जब जब आप अच्छा काम करने जाते हे तो ईश्वर आपके साथ हो जाता है .............बड़े अफ़सोस की बात है की आज मानव ,मानव की पीड़ा को नहीं समझ पा रहा है , लेकिन मुझे पूरा विश्वाश है की मै अपने देश की देख रेख बहोत अच्छे से करूँगा......और बदलाव होगा क्योकि ये में करूँगा , हम सब मिलकर करेंगे /

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