Monday 7 April 2014

मेहनत जारी रहे....!


प्रिय मित्र, ज़िन्दगी बार-बार हमारी परीक्षा लेती रहती है. इन सभी परीक्षाओं में हमारे सामने दो ही संभावनाएँ रहती हैं. या तो हम मेहनत और लगन से अपना काम करते हैं और सफल हो जाते हैं या फिर इसके विपरीत करने से असफल. अपने काम में सफलता पाने के लिये हमको सतत श्रम करना होता है. धीरे-धीरे और लगातार किया गया हमारा श्रम हमारी कार्य-क्षमता को बढ़ाता जाता है. और उसी का नतीज़ा होता है कि हम अपने प्रतिद्वन्द्वियों से कहीं आगे निकल जाते हैं. और फिर अन्तत: परिणाम हमारे अनुकूल आ जाता है. हम सफल हो जाते हैं. 

परन्तु यह सफलता अक्सर हमारे अन्दर के दम्भ को बढ़ा देती है. दम्भ के बढ़ते चले जाने के कारण हमको अपनी प्रशंसा करने वाले प्रिय लगने लगते हैं और आलोचना करने वाले अप्रिय. इन प्रशंसकों के बीच कुछ स्वार्थी चाटुकार भी होते हैं. ये चाटुकार हमारी सफलता की प्रशंसा करके अपने स्वार्थों को हमारे ज़रिये साधने के चक्कर में रहते हैं. उनसे हमको सजग रहना होगा. वरना ये अपना काम निकाल कर धीरे-से दूरी बनाने लगते हैं. और हम अचानक उत्पन्न हुई इस दूरी का वास्तविक कारण न जान पाने के कारण अत्यन्त ही व्याकुल हो जाते हैं. हम यह सोचने लगते हैं कि हमसे कहाँ और क्या गलती हो गयी कि इतना अधिक प्यार करने वाला यह इन्सान हमसे अचानक इतना अधिक दूर हो गया. 

अधिकतर मामलों में हम अपनी प्रशंसा सुन कर आत्म-मुग्ध हो जाते हैं. और इस भ्रम के द्वारा सफलता अक्सर हमारे लिये दिवा-स्वप्नों को जन्म देती है. हम दिवा-स्वप्नों में खोये रहने के कारण आगे और अधिक श्रम करने से कतराने लगते हैं. इस तरह सफलता से पैदा हुए दम्भ का हमारे भविष्य की कार्य-क्षमता पर बहुत ही बुरा असर होता है. सफलता हमें जहाँ अनन्य बनाती है, वहीं हमें अकेलेपन का शिकार भी बना देती है. इससे अपने साथ के लोगों के बीच हमारे लिये कोई जगह नहीं बच पाती है और जो अलगाव पैदा होता है, उसकी वजह से हम और भी अधिक भ्रम में जीना शुरू कर देते हैं. 

कुल मिला कर सफलता का एक बुरा परिणाम यह भी होता है कि एक ही बार सफलता मिलते ही हम अपने अगले अभियान के लिये पहले जितनी अधिक मेहनत से आगे अब अपनी तैयारी नहीं कर पाते हैं. इस प्रकार सफलता हमारी श्रम-सामर्थ्य को बढ़ाने की जगह घटा देती है. कई बार यह देखा गया है कि अर्धवार्षिक परीक्षा में अधिक अंक प्राप्त करने वाले अपने दम्भ, मोह और आलस्य का शिकार हो जाते हैं और वार्षिक परीक्षा में अपने से पीछे रहने वाले अन्य छात्रों की तुलना में बदतर परिणाम पा जाते हैं.

सफलता की कामना करने वाले प्रत्येक युवा को इस बात पर ध्यान देना होगा. अगर आपको सतत सफलता का सुख चाहिए तो आपको अपनी कड़ी आलोचना करने वाले अपने उस्ताद और अन्य शुभचिन्तकों की बातों को ध्यान से सुनना-गुनना-धुनना होगा. आपको आत्म-प्रवंचना से बचने के लिये आत्म-मंथन, आत्म-मूल्यांकन, आत्म-विश्लेषण और आत्म-आलोचना करते हुए सतत अपने अन्दर और अधिक आत्मविश्वास विकसित करने का प्रयास करना होगा. और इसके लिये आलस्य छोड़ कर और अधिक श्रम करते रहना होगा. मात्रात्मक और गुणात्मक दोनों रूपों में और अधिक मेहनत के साथ विकास करने का सतत प्रयास करते रहने से ही हम अगली सफलता का सुख प्राप्त कर सकते हैं. 

महाकवि तुलसी दास का यह कथन याद रखिए :
"गुरु के बचन प्रतीति न जेहीं, सपनेहुँ सुगम न सिधि-सुख तेहीं."
और एक यह बात भी 
"आलस्यं हि मनुष्याणाम् शरीरस्थो महान रिपु:"

मेरा आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया अपने आप को अन्दर से खोखला कर देने वाले अपने इस प्रबल शत्रु से इस पक्ष पर भी सतत सजग रहिएगा.....
आज बस इतना ही...
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश (3.4.14. 11a.m.)

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