Wednesday 14 August 2013

कहानी - भड़-भड़ बाजा - गिरिजेश


प्रिय मित्र, आज आइए एक कहानी सुनिए। एक होता है भड़-भड़ बाजा। गली-मुहल्ले के कोमल-किशोर बच्चे किसी सड़क के आवारा कुत्ते को या किसी धोबी के छुट्टा टहलते हुए गधे को बड़े प्यार से पकड़ लेते हैं और उसकी पूँछ में एक खाली कनस्तर एक रस्सी से बाँध कर ज़ोर से हिला देते हैं। वह कनस्तर हिलाते ही ज़ोर-ज़ोर से भड़भडाता है। उसकी आवाज़ सुन कर और उससे परेशान होकर वह कुत्ता या गधा ज़ोर से भागता है। जैसे-जैसे वह भागता जाता है, वैसे-वैसे उसके पीछे बँधा कनस्तर और भी भड़भडाता जाता है। इस बेहूदी आवाज़ के पीछा करते रहने से बेतहाशा तंग होकर बेचारा मासूम गधा पूरी ताकत लगा कर लगातार भागता चला जाता है। भागते-भागते वह बेदम होकर फेंचकुर फेंकता हुआ आख़िरकार रुक जाता है। और उसके रुकते ही कनस्तर की आवाज़ भी, जो उसे लगातार परेशान करती रही थी, थम जाती है। 

हममें से अधिकतर की यही कहानी है। हमारे परिजन और 'शुभचिंतक' भी अपने अधूरे सपनों और अपनी नाकाम कामनाओं को हमारे तरुणाई तक पहुँचते ही हमारे पीछे उसी खाली कनस्तर की तरह बाँध कर अबोध बच्चों की तरह ही लगातार बजाते रहते हैं। उनको हमारे अपने खुद के सपनों और महत्वाकांक्षाओं की रंचमात्र भी परवाह नहीं होती। वे हमसे केवल अपनी माँगों को साम-दाम-दण्ड-भेद के सहारे किसी भी कीमत पर पूरा करवाना चाहते हैं। इसके लिये वे किसी भी हद त़क उतर कर हमको तब तक हर मुमकिन तरीके से मनोवैज्ञानिक ब्लैकमेल करते रहते हैं, जब तक हम फेंचकुर फेंकने वाले गधे की तरह आखिरकार आख़िरी हद तक परेशान होकर ठहर नहीं जाते। 

उनके द्वारा इस तरह बेहूदे और शातिर तरीके से लगातार पीछा किये जाने से परेशान रहने के चक्कर में हमारी तरुणाई के शानदार और सुनहरे वर्ष एक के बाद एक लगातार बर्बाद होते चले जाते हैं। अनवरत तनावग्रस्त मनोदशा में अपने हिस्से के काम को और भी बदतर तरीके से करते हुए हम सफलता के सुख से और भी वंचित होते चले जाते हैं। ऐसी हालत में तनाव और नाकामी से परेशान होकर हम तरह-तरह की दवाओं और नशों का सहारा लेने की ओर भागते हैं। मगर डूबते को तिनके का सहारा भी राहत नहीं दे पाता। तब कुछ लोग खूब-खूब परेशान होकर आख़िरकार पागल हो जाते हैं और कुछ थक-हार कर आत्महत्या करने तक जा पहुँचते हैं। 

मगर कुछ मुट्ठी भर तरुण/तरुणी थोड़ी सूझ-बूझ और बहादुरी से काम लेते हैं और दो-टूक शब्दों में अपने चालाक 'शुभचिन्तक' परिजनों से विनम्रता किन्तु दृढ़तापूर्वक प्रतिवाद करते हैं। वे उनको स्पष्ट तौर पर बता देते हैं कि वे उनको पूरा सम्मान और स्नेह देते तो हैं। मगर वे अब बच्चे नहीं हैं और उनको उनके अपने तरीके से जीने का और अपनी ज़िन्दगी का हर फैसला ख़ुद से लेने का अधिकार है और इस अधिकार को वे किसी भी कीमत पर किसी और के हाथों में गिरवी नहीं रखेंगे। अपनी आज़ादी को वे अपने सभी स्नेह-सिक्त सम्बन्धों से बढ़ कर प्यार करते हैं। और उसके लिये कोई भी कीमत चुकाने के लिये हर-हमेशा तैयार रहते हैं। अन्जाम चाहे जो भी हो, वे किसी भी कीमत पर किसी से भी इस मामले में समझौता नहीं करते, तो नहीं करते। 

और फिर धैर्य के साथ प्रतीक्षा करते रहने के बाद एक दिन वह दिन भी आता है, जब पिछली पीढ़ी के पिछड़े हुए परिजन नयी पीढी के फैसलों के सामने अपना घुटना टेक देते हैं, हार मान लेते हैं, पूरी तरह से समर्पण कर देते हैं और ठहरे हुए सम्बन्ध नयी ज़मीन पर और भी अधिक सम्मान और समानता के आधार पर और भी मज़बूत होकर निखर उठते हैं।

मेरा विनम्र अनुरोध है कि कृपया इस कहानी को पढ़ कर सोचिये कि कहीं आपके साथ भी तो ऐसा ही नहीं हो रहा है! और अगर हाँ, तो फिर आप क्या करना चाहते हैं? घुट-घुट कर जीना और हरदम परेशान रहना या फिर अपनी आज़ादी के हक़ में थोड़ा कठोर फैसला लेना और हर तरह के तनाव से मुक्त हो जाना और पूरी सहजता से पूरे सुकून से ज़िन्दगी की जंग में एक के बाद एक सफलता हासिल करते जाना ! 
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश

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