Wednesday 7 August 2013

सवाल सम्बन्ध का :- गिरिजेश


सवाल सम्बन्ध का :-
प्रिय मित्र, अपने कविहृदय मित्र अशोक कुमार पाण्डेय जी के वक्तव्य में "....जहाँ वैचारिक एकता नहीं है, वहां दोस्ती का कोई सम्बन्ध सिर्फ छलावा है." इसे पढ़ कर मुझे भी हार्दिक दुःख ही हो रहा है. मार्क्स के शब्दों "आने-पाई" के सम्बन्धों पर टिकी यह अमानुषिक व्यवस्था मनुष्य और मनुष्य के बीच के सभी तरह के गरिमामय सम्बन्धों को लगातार तोड़ती जा रही है. यह हर कदम पर हमारा अमानवीयकरण करती जा रही है. 

दशकों तक हर तरह से बचाने की कोशिश करने के बावज़ूद मेरे तो सभी के सभी भावनात्मक सम्बन्ध बहुत जल्दी-जल्दी टूट चुके, रक्त-सम्बन्ध बहुत पहले ही पीछे रह गये, बचे-खुचे स्नेह-सम्बन्ध भी एक के बाद एक करके लगातार बिखरते ही जा रहे हैं, मेरे प्रति मैत्री और अविश्वास - दोनों ही तरह के विचार अनेक लोगों के मन में एक साथ पनपते रहे हैं. और तो और मैंने ही नहीं, हममें से अनेक साथियों ने वैचारिक एकता के नाम पर भी जितना ढोंग झेला है, उसके चलते मन बुरी तरह खट्टा हो चुका है. 

इस विडम्बना के चलते मेरे भीतर से जहाँ एक ओर एक स्वर उठता है - "TRUST NONE !", वहीं दूसरी ओर समझ में आता है कि ऐसा करके कहीं हम व्यवस्था के दुष्चक्र के शिकार तो नहीं हो रहे हैं, जिसकी मंशा ही हमें एक दूसरे से दूर कर के हर एक को हर तरह से अलगाव में डाल कर सतत तनावग्रस्त और अवसादग्रस्त कर देने की है. ताकि उसके भष्टाचार, अत्याचार और शोषण के विरोध का स्वर और भी कमज़ोर होता चला जाये. 

ऐसे में कम से कम मुझे तो लगता है कि व्यवस्था विरोधी संघर्ष के लिये नये-नये साथियों को जोड़ते समय हमें थोड़ी सतर्कता और थोड़े सन्देह के साथ अपने नये सम्बन्धों की शुरुवात करते हुए अपने सभी भावनात्मक सम्बन्धों को वैचारिक धरातल तक उठाने की कोशिश करनी होगी. परन्तु कम से कम एकजुटता के धरातल पर ही सही सम्बन्धों का निर्वाह करने के प्रयास में हमसे अनेक मुद्दों पर मतभेद रखने वाले मित्रों की वैचारिक प्रतिबद्धता का सम्मान भी करते रहना होगा. इस कोशिश में अपने निकट आने वाले हर 'दो-पाये' पर हमें न्यूनतम विश्वास तो करना ही होगा, कम से कम तब तक, जब तक वह अपनी कुटिल करतूत को जग-जाहिर करके पूरी तरह जनविरोधी साबित न हो जाये. 

और ऐसा होने पर पूरी तरह से निर्मम होकर उससे सम्बन्ध-विच्छेद भी करना ही पड़ेगा, उसका पर्दाफाश भी करना ही पड़ेगा और किसी दूसरे नये मानवीय सम्बन्ध के लिये उसकी जगह खाली ही करनी पड़ेगी, चाहे हमें उससे कितना ही मोह क्यों न हो. क्योंकि उसका साथ तो हमें हरदम ही और भी नकारात्मक भावनाओं की हताशा में डुबाता ही रहेगा. कम से कम उसके दूर हो जाने पर पीड़ा चाहे जितनी हो, कुछ न कुछ नये लोगों से आगे और सम्पर्क और सम्बन्ध के लिये और भी रचनात्मक और सकारात्मक प्रयास करने की सम्भावना प्रबल होती जानी है.

तभी हम सभी एकजुट हो कर इस जनविरोधी व्यवस्था के विरुद्ध और भी सशक्त प्रतिवाद और प्रतिरोध का स्वर मुखरित कर सकेंगे. और "दुनिया के मेहनतकशों" को एक करने के सपने को साकार करने की दिशा में अपने स्तर पर छोटा-सा ही सही मगर सही दिशा में एक और कदम बढ़ाने का हार्दिक आनन्द हम सब को मयस्सर हो सकेगा. 
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश

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