Friday 9 January 2015

____उत्सवधर्मिता और हमारे जीवन-मूल्य___



नव-वर्ष पर विशेष !
____उत्सवधर्मिता और हमारे जीवन-मूल्य___
प्रिय मित्र, मुझे आज दो जगहों पर भावी भारत के नागरिकों से बात करने का मौका मिला. उनसे मैंने दो सवाल किये. एक कि हम नया साल क्यों मनाते हैं और दूसरा कि नये साल से आप अपने लिये और अपनों के लिये क्या चाहते हैं.

नया साल उत्सवधर्मी लोगों के मनोरंजन का एक अवसर है. वैसे ही जैसे दशहरा, दीवाली, ईद, बड़ा दिन या जन्मदिन. इसके माध्यम से लोगों को अपने दैनिक जीवन-क्रम की एकरसता को तोड़ने का एक बहाना और एक मौका मिल जाता है. मनोरंजन से मन में जमा हुआ कूड़ा-कचड़ा उसी तरह साफ़ हो जाता है, जैसे गन्दे कपड़े को साबुन लगा कर साफ़ कर लेने से वह दुबारा पहनने लायक बन जाता है. उत्सव और मनोरंजन के बाद हमारा मन दुबारा नये सिरे से दैनन्दिन के अपने कामों में और उत्साह से लगने को खुद को तैयार करता है.

मगर इसका मुख्य पक्ष एक और भी है. यह तो स्पष्ट और सामने दिखाई देने वाला कारक है. मुख्य पक्ष है आत्मावलोकन और आत्म-मूल्यांकन का. नये साल में हर आदमी पिछले साल की अपनी उपलब्धियों और विफलताओं की समीक्षा करता है. वह सोचता है कि जो भी सफलता या विफलता उसे गत वर्ष तक मिली, वह क्यों, कैसे, कब और किसके चलते मिली. वह अपने तात्कालिक और समग्र अतीत का सार-संकलन करता है.

नव-वर्ष के अवसर पर हर व्यक्ति अगले साल के लिये अपने लिये लक्ष्य निर्धारित करता है. उस लक्ष्य तक पहुँचने के प्रयास में सहायक पक्षों के विषय में वह विचार करता है. और अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये वह अपनी कार्य-योजना बनाता है.

हम कुछ निश्चित जीवन-मूल्यों के मानदण्ड के साथ जीवन जीना पसन्द करते हैं. इन मूल्यों और मान्यताओं में से एक है — सच बोलने और नुकसान उठाने की हिम्मत या झूठ और झपसटई का सहारा लेने की विवशता. मैंने जिन बच्चों से बात की. उन्होंने स्पष्टतः स्वीकार किया कि वे झूठ बोलते हैं. वे यह जानते हैं कि सच बोलना अच्छी बात है. मगर फिर भी झूठ बोलते है. आगे सच बोलने के सवाल पर भी उन्होंने ईमानदारी से अपना मत दिया कि वे आगे भी झूठ बोलना जारी रखेंगे.

कुछ मुट्ठी भर अपवादों को छोड़ दें, तो हमारे समाज में बच्चों को आम तौर पर सामान्य माता-पिता, शिक्षकों और दोस्तों द्वारा सचेत या अचेत तौर पर झूठ बोलने के लिये ही प्रशिक्षित किया जाता है. कामना भले ही इसके विपरीत की जाये. परन्तु केवल कामना करने से कोई कैसे किसी जीवन-मूल्य का अनुकरण कर सकता है.उसके लिये प्रेरक तत्व भी होने चाहिए होते हैं. और हमारे समाज में प्रेरक तत्व सत्यवादिता के सद्गुण के विपरीत झूठ बोलने के दुर्गुण के लिये कदम-कदम पर व्यापक रूप से उपलब्ध हैं.

यदि हम ख़ुद अपनेआप से यह सवाल करें कि क्या हम झूठ बोलते हैं, और यदि हाँ में उत्तर आता है, तो अगला सवाल करें कि हम झूठ क्यों बोलते हैं. और फिर और अगला सवाल कि क्या हम नववर्ष के अवसर पर यह फैसला कर सकते हैं कि आगे से जीवन में सच ही बोलेंगे, चाहे जो भी हो जाये या झूठ बोल कर लाभ लेने के चक्कर में अपनी लालच को रोक नहीं सकेंगे, तो हम अपने आप को अपना उत्तर ईमानदारी से दे सकते हैं.

आइए, नववर्ष के अवसर पर यह याद करने की कोशिश करें कि हमने पिछले साल या उसके भी पहले कब और क्यों झूठ बोला था और कब और क्यों सच बोला था और उससे हमें क्या लाभ या हानि मिली थी, तो हमें अपना निर्णय करने में सुविधा होगी.

आइए, नववर्ष के अवसर पर ख़ुद ही अपने आप को और बेहतर जीवन की शुभकामना दें और अपने से अपनेआप के नाम अत्यन्त व्यक्तिगत और गोपनीय ही सही मगर पूरी ईमानदारी से एक लम्बा पत्र लिखें.

आइए, संक्रमण से गुज़रती दुनिया और मोदिवादियों की सरकार वाले अपने देश में अपने और अपने प्रियजनों — अपने परिजनों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी के बारे में गम्भीरता से विचार करें और अपने लिये और अपने साथी-दोस्तों के लिये कुछ लक्ष्य निर्धारित करें.

आज एक बच्चे ने यह गीत सुनाया —
" गाँधी बाबा जात रहलैं पूजा के करनवाँ, 
रहिया में छिपल रहलैं पापी दुसमनवाँ, 
पहिली गोली फायर कइलें, दुसरी निसनवाँ,
तिसरी में मारि दिहलैं गाँधी जी क जनवाँ,
रेडियो में ख़बर भइल पूरे हिन्दुस्तनवाँ.
कौन पापी मारि दिहलें गाँधी जी क जनवाँ..."

और मुझे इस परम्परागत गीत को गाने वाले उस बच्चे के साथ ही उपस्थित सभी बच्चों को बताना पड़ा कि आज गाँधी के देश में ही गाँधी के हत्यारे की पाँच मूर्तियाँ बन कर तैयार हैं. आज देश में उसके समर्थकों की सरकार है और जल्दी ही हम को देखने को या सुनने को मिलेगा कि हमारे देश में कोई एक ऐसा भी चौराहा है जिस पर गाँधी जी और उनके हत्यारे दोनों की मूर्तियाँ आमने-सामने लगी हैं.

मुझे सहज भाव से यह कटु सत्य — यह सर्वविदित तथ्य आपसे भी ज़ोर देकर बताना पड़ रहा है कि हमारा देश आज अन्धहिन्दुत्ववादी भगवा-गिरोह की खुली साज़िश के चलते साम्प्रदायिकता के उन्माद और अन्धदेशभक्ति के उबाल के कभी भी और कहीं भी हो सकने वाले विस्फोट की सम्भावना के जिस भीषण फ़ासिस्ट दौर से गुज़र रहा है उसमें यह बिलकुल मुमकिन है कि दुबारा कभी भी कहीं भी कोई और गाँधी मारा जा सकता है.

आज का दौर वह विलक्षण दौर है जब हमें गाँधी, मार्क्स और अम्बेदकर के बीच के विवादों को एक ओर छोड़ कर अपने समाज में अपने बलिदानी पुरखों की शानदार परम्परा से मिले सभी जनपक्षधर और गौरवशाली जीवन-मूल्यों की विरासत की रक्षा के लिये ख़ुद अपनी हत्या करवाने के लिये मन बनाने और तैयार रहने की सम्भावना से रू-ब-रू होना पड़ रहा है.

तभी हम यह निर्णय भी कर सकते हैं कि "चाहे कुछ भी हो जाये, झूठ नहीं बोलूँगा."
सोचिए, समझिए और वह करने का मन बनाइए जो आपको सही और उचित लगे.
मैं तो अपना फैसला कर चुका हूँ —
"चाँप के खाओ, जम के लड़ो; 
सड़ के नहीं, लड़ के मरो."

नया वर्ष अगले वैश्विक जन-ज्वार की कामना के नाम 
इन्कलाब ज़िन्दाबाद ! 
साम्प्रदायिक नफ़रत मुर्दाबाद !!
ढेर सारा प्यार और ढेर सारी उम्मीद के साथ 
— आपका गिरिजेश (1.1.15. शाम 7.30)

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