Thursday 11 December 2014

___ “TRUST NONE, BELIEVE EVERYONE !” ___

प्रिय मित्र,
आज एक बात कहने का साहस कर रहा हूँ. कई दिनों तक कई तरह से सोचने और और ख़ूब अच्छी तरह से विचार करने के बाद आज आपसे कहने की ज़ुर्रत कर पा रहा हूँ. यह जानते हुए भी कि आपको 'अच्छा' नहीं भी लग सकता है — कह रहा हूँ क्योंकि जानबूझ कर न कहना और भी बेईमानी लग रहा है.

हर आदमी अपनी प्राथमिकता और अवस्थिति स्वयं ही निर्धारित करता है और अपने ही चयन के अनुरूप आचरण करता है — चाहे वह छोटा बच्चा हो या तथाकथित परिपक्वता की उम्र तक पहुँचा हुआ हो, चाहे उससे उसे सुख मिले या दुःख, चाहे उसमें उसका हित हो या अहित, चाहे उसके चलते दूसरों का हित हो या अहित.

अगर वह थोड़ा समझदार है, तो भी वह तब तक अपनी अवस्थिति से तनिक भी हटने को तैयार नहीं होता, जब तक उसे अपने किये का परिणाम न मिल जाये. और अगर वह कम समझ रखता है, तब तो परिणाम सामने आने के बाद भी अपनी गति और दिशा नहीं बदल पाता. कई बार वह ख़ुद को बदलना ही नहीं चाहता. कई बार वह चाहता तो है मगर बदल नहीं पाता. उसकी आदतें और तौर-तरीक़े उसकी चाहत पर हर बार भारी पड़ते हैं.

गीता का यह श्लोक हमको अपनी सहायता करने की सलाह देता है. मगर क्या हम इस सलाह को लागू करते हैं. नहीं न !
“उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ ६.५ ॥”
{अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपना पतन न करे; क्योंकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है । (६.५)


Let a man lift himself by his own Self alone, and let him not lower himself; for, this Self alone is the friend of oneself, and this Self is the enemy of oneself. (6.5)}

स्पष्तः यह तथ्य सामने आता है कि ‘स्व’ के विरुद्ध संघर्ष की चर्चा व्यास से माओ तक सभी करते हैं. मगर समस्या तब भी वैसी ही थी, जैसी अभी है. इन्सान अभी भी दूसरों को ही नहीं, ख़ुद अपने आप को भी धोखा देने से बाज़ नहीं आ रहा.

जानते तो हम सभी हैं कि अकेले न तो तृप्ति मिल सकती है और न मुक्ति. छोटे-बड़े हर काम के लिये हमको अपने आस-पास के लोगों की मदद पर निर्भर करना पड़ता है. और लोग हैं कि कथनी-करनी का अन्तर पूरा-पूरा बनाये रखते हैं. लोग जैसा कहते हैं, करते उसके ख़िलाफ़ ही हैं. सब पर यकीन करने वाला मन बार-बार ख़ुद को ठगा हुआ महसूस करता है. और फिर भी अगली बार ठगे जाने के लिये लोगों पर फिर से एक बार और यकीन करना शुरू करता है.

और फिर यह सूत्र सामने आता है — 
“TRUST NONE, BELIEVE EVERYONE !”
ये दोनों विचार देखने में तो परस्पर विरोधी लगते हैं. मगर वास्तव में ये दोनों ही परस्पर पूरक हैं. चूँकि हर काम में दूसरों से मदद लेनी ही पड़ती है, इसलिये सब पर यकीन भी करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं होता; और चूँकि लोगों की कृपा से अभी तक हर बार विफल होना पड़ा है, इसलिये एक-एक से सजग भी रहना ही पड़ता है. वस्तुतः ख़ुद अपने-आप पर भी विश्वास करने का साहस नहीं होता क्योंकि यह निश्चित नहीं होता कि अन्तिम फैसलाकून घड़ी में अपना ही शरीर और मन साथ देगा या दगा दे जायेगा.

जीवन की यह कैसी विडम्बना है !
ढेर सारे प्यार के साथ — आपका गिरिजेश (17.11.14.)

No comments:

Post a Comment