Thursday 11 December 2014

__ “क्यों” __ – पंकज सिंह

अपने सारे छूट क्यों रहे,
सपने सारे टूट क्यों रहे;
छूट रहे जब सारे अपने,
बचा रहा मैं अब भी क्यों !

इसने तोड़ा, उसने तोड़ा,
जिसने जैसे चाहा छोड़ा;
जिसने जब भी चाहा तोड़ा,
टूट-फूट कर बिखर गया हूँ;
फिर भी ज़िन्दा हूँ मैं क्यों !

क्या अब भी देखेंगी सपने,
सोते-जगते मेरी आँखें;
अगर अभी भी देखूँ सपने,
ये भी क्या सच हो पायेंगे;
या वैसे ही खो जायेंगे !

ओ मेरे अपनों, क्यों रूठे !
ओ मेरे सपनों, क्यों टूटे !
अब तक तो चुप रहता आया,
मगर देर हो जानी है अब....

बहुत प्यार करता हूँ तुमको,
मेरे अपनों, अब भी मुझको;
एक बार तो माफ़ी दे दो,
फिर जो मन चाहेगा करना....

जब मैं ज़िन्दा नहीं रहूँगा,
तब तुम जैसे चाहो जीना;
मस्ती करना, खुश रह लेना,
और धमाल मचाते रहना....

अपनों के हाथों को कस कर,
हर दम ही तुम जकड़े रहना;
और अगर मिल गये गैर तो,
उनको गले लगाते रहना....

याद भले मुझको मत करना,
हर दम आगे बढ़ते रहना;
रंग-बिरंगे इस जीवन के,
रंगों में झिलमिल तुम करना;
जीवन भर मुस्काते रहना....

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