Sunday 14 December 2014

____ आख़िर क्या करें हम ? ____


"हार मान कर घर बैठ जायें 
या औरों की तरह बिकाऊ बन जायें !"
प्रिय मित्र, 
कल शाम एक मित्र ने एक संस्मरण सुनाया. 
संस्मरण प्रेरक था.
मेरा मनोबल बढ़ गया. 
आप को भी सुना रहा हूँ. 
शायद आपको भी प्रेरित कर सके.

कभी किसी जगह बहस जारी थी. 
एक पक्ष यथास्थितिवादी था.
दूसरा पक्ष परिवर्तनकामी था.

पहला बोला —
इस देश में कुछ भी नहीं बदल सकता.
इस देश के लोग इसी तरह जीते रहे हैं.
इस देश की जनता स्वार्थी है.
इस देश की जनता ऐसे ही नेताओं को चुनती रही है.
इस देश को ऐसे ही नेता ठगते-लूटते रहेंगे.
इस देश की जनता इसी तरह बर्दाश्त करती रही है.
इस देश की जनता आगे भी इसी तरह बर्दाश्त करती रहेगी.

दूसरा बोला —
हमारे बूते में जितना है, 
व्यवस्था बदलने के लिये प्रयास कर रहे हैं.
अगर हमारे बूते में होता, 
तो अब तक व्यवस्था बदल चुके होते.
अगर अभी तक व्यवस्था वैसे ही चल रही है,
तो इसका सीधे-सीधे एक ही मतलब है.
इसका मतलब है कि अभी हमारा बूता कम है.
अभी व्यवस्था बदल देने भर को हमारी कूबत नहीं है.

अभी तक व्यवस्था नहीं बदल सकी, 
तो ऐसे में हमें क्या करना है !
हमारे सामने तीन विकल्प हैं —

पहला विकल्प है कि 
औरों की तरह 
हम भी झुक जायें और बिक जायें.
बिक कर हम भी सुविधाभोगी बन जायें
बिकाऊ लोगों को व्यवस्था सारी सुविधाएँ मुहैया कर देती है.
.
दूसरा विकल्प है कि 
औरों की तरह 
हम भी थक जायें और हार मान लें.
हार मान कर घर बैठ जायें और 
हमेशा लोगों को उनके पिछड़ेपन के लिये कोसते रहें.

तीसरा विकल्प है कि 
हम अपनी मुट्ठियाँ कस कर भींच लें.
हम और अधिक लोगों से दोस्ती करने की कोशिश करें.
हम और अधिक शिद्दत से अपने क़दम बढायें. 
हम और अधिक ज़िद के साथ क़दम-दर-क़दम आगे बढ़ते जायें. 
हम और अधिक मेहनत से अपना काम आगे बढ़ाते रहें.
हम इस उम्मीद के साथ जूझते रहें कि 
कभी तो हमारे भी बूते में दुनिया बदलने का काम होगा.
कभी तो हमारा भी बूता इतना बढ़ सकेगा कि 
हम भी व्यवस्था बदलने में निर्णायक भागीदारी कर सकें.

हम तो पूरी शिद्दत से 
इस व्यवस्था से जूझने का 
मन बना कर ही घर से निकले हैं.
हमारा दो टूक फैसला है कि 
जब तक हम इस व्यवस्था को पूरी तरह बदल नहीं लेते, 
तब तक न तो हार मानेंगे और 
न ही बिकने को तैयार होंगे.
हम इस आदमखोर व्यवस्था से आजीवन लड़ते रहेंगे. 
हमारे और व्यवस्था के बीच 
जीवन-मरण का यह संघर्ष 
हर-हमेशा जारी रहेगा.
या तो तुम नहीं या फिर हम नहीं.
आर-पार का फ़ैसला इससे कम पर नहीं होने का.

प्रिय मित्र, 
आपके भी सामने यही तीन विकल्प हैं.
आपको इनमें से कौन-सा विकल्प चुनना है.
कृपया विचार कीजिए.
अगर आमरण लड़ने का मन बना सकें, 
तो व्यवस्था-परिवर्तन के इस संघर्ष में अपनी भूमिका चुनिए.
अपने दोस्तों के साथ पीठ से पीठ और कन्धे से कन्धा सटा कर खड़े रहिए.
हम सभी एक साथ मिल कर 
मुट्ठी भर जनविरोधी लुटेरों से 
मानवता की मुक्ति के लिये जूझेंगे.
अन्तिम विजय हमारी होगी.
इन्कलाब ज़िन्दाबाद !
ढेर सारे प्यार के साथ 
— आपका गिरिजेश

 (14.12.14.)

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