Thursday 11 December 2014

__भारतीय इतिहास के शिखर-पुरुष चाणक्य हैं मेरे आदर्श__


प्रिय मित्र,
ज़िन्दगी ज़हर है !
मगर है तो !
ज़हर ही नहीं, जंग भी है !
इतना अधीर मत होइए.
भरोसा रखिए ख़ुद पर और दोस्ती पर !
चलिए न, जो भी चाल आपकी कूबत में है.
चलिए और मुझे अपने तरीके से चलने दीजिए.
शायद अभी भी कुछ कर सकूँ.

पूरी दुनिया में पूँजी का राज है.
पूँजी स्वभाव से ही दोमुँही है !
जो भी कहती है, करती है ठीक उलटा.
दोहरी जुबान का मीठा ज़हर !
मधुर मुस्कान के पीछे जानलेवा साज़िश !
मुखौटे के छेदों के पीछे से घूरती निर्मम हत्यारे की शातिर आँखे !
दोहरी फ़ितरत वाले हैं पूँजी के पुजारी !
मुनाफ़ा ही है उनका ख़ुदा !
इसीलिये तो दोगले हैं धनपशु !
पूँजी का घिनौना चरित्र मुखौटों के पीछे छिपाये नहीं छिपता.
पूँजी की पूरी दुनिया ही दोगली होती है.

शातिर से डरना,
शातिर से भागना,
शातिर को शह देना है.
शातिर का शिकार करने का मन बनाना दिलेरी है.
शातिर का शिकार मासूमियत की बेवकूफ़ी के बस का है क्या !
नहीं न !
जूझना ही होगा !

और इन्कलाबी हाथ-पैर में पत्थर बाँध कर समुद्र में नहीं कूदते.
जूझना है,
क्योंकि लक्ष्य पवित्र है.
अगर केवल लक्ष्य पवित्र है,
तो भी चलेगा !
साधन नहीं भी होगा, तो भी चलेगा !
मन कलुषित तो नहीं,
मंशा दोहरे दोगले लोगों से मानवता को मुक्त कराने की तो है,
साथ जो भी दे, जितना भी दे, जब भी दे...
साधन जो भी मिलेगा, जितना मिलेगा, जब भी मिलेगा,
भागूँगा नहीं,
लडूँगा ही उससे !

न्याय की देवी अन्धी है.
न्याय की आस लिये अदालत नहीं जाऊँगा.
हाथ-पैर दिमाग ही से लडूँगा.
शिकार को 'शातिर' कह कर छोडूँगा नहीं.
उसको परास्त करना है,
तो उससे अधिक चालाकी चाहिए.
भारतीय इतिहास के शिखर-पुरुष चाणक्य हैं मेरे आदर्श.

जब भी मौका मिला,
कुछ लोगों की धुलाई भी करता ही रहा हूँ.
आगे भी मौका मिलेगा ही,
आगे भी धुलाई करूँगा ही.
तब तक घात लगा कर धीरे-धीरे ही चल सकता हूँ.

कभी गुहार लगाऊँ,
तो मदद कीजियेगा.
अगर मेरी कोशिश तनिक भी सफल हो सकी,
तो मुझे नहीं,
उसका श्रेय आपको ही मिलेगा.

ढेर सारा प्यार 

– अब तक की तरह ही अभी भी आपका ही गिरिजेश (1.12.14)

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