Monday 10 September 2012

डॉ.नारमन बैथ्यून चीन में





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कहानी का संक्षिप्त परिचयः- 

एक मशहूर डॉक्टर नारमन बैथ्यून कैनेडियन कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। 1936 में, जब जर्मन और इटालवी फ़ासिस्ट लुटेरों ने स्पेन पर आक्रमण किया, उस समय उन्होंने मोर्चे पर जाकर फ़ासिस्ट विरोधी स्पेनी जनता की खि़दमत में काम किया। वे क्रान्ति में भाग लेने चीन गये थे। उन्हीं की तरह भारत से डा. कोटनीस भी चीनी क्रान्ति में भाग लेने गये थे। नारमन बैथ्यून एक विश्व-प्रसिद्ध चेस्ट-सर्जन थे। 1937 में जब चीन में जापानी-आक्रमण-विरोधी युद्ध छिड़ा, तो कैडेनियन कम्युनिस्ट पार्टी और अमेरिकी कम्युनिस्ट पार्टी ने उन्हें चीन भेजा। 1938 के शुरू में वे कैनेडियनों और अमेरिकियों का एक चिकित्सा दल लेकर चीन के मुक्त क्षेत्र में आ पहुँचे। उसी वर्ष वसन्त में वे येनान पहुँचे, जहाँ चीनी जनता के महान नेता अध्यक्ष माओ ने उनसे मुलाकात की। कुछ ही समय बाद वे दुश्मन के पृष्ठ भाग में स्थित आधार-क्षेत्र में चले गये और शानशी-छाहाड़-हपे सीमान्त फौजी क्षेत्र के मेडिकल सलाहकार नियुक्त किये गये। जहाँ उन्होंने लगभग दो साल तक कार्य किया। 

युद्ध के कठिन वर्षों में उन्होंने स्थानीय जनता और सेना के दु:ख-सुख में समान रूप से भाग लिया और चीनी जनता के मुक्ति-कार्य को अपना खुद का कार्य समझा। अन्तर्राष्ट्रवाद और कम्युनिज़्म की उच्च भावना लिये, बेहद उत्साह और निःस्वार्थ भावना से काम करके उन्होंने चीनी जनता के मुक्ति-कार्य में भारी योगदान किया है। एक दिन घायल सिपाहियों का आपरेशन करते समय उनके खून में ज़हर फैल गया। काफ़ी इलाज के बावजूद भी, दुर्भाग्यवश, 12 नवम्बर, 1939 को हपे प्रान्त की थाङश्येन काउन्टी के ह्वाङशखओ गाँव में उनका देहान्त हो गया। उनकी आत्म-बलिदान की भावना, काम के प्रति उत्साह और ज़िम्मेदारी की भावना - ये सभी हमारे सामने एक आदर्श उपस्थित करते हैं। 

21 दिसम्बर, 1939 को अध्यक्ष माओ ने ‘‘नारमन बैथ्यून की स्मृति में’’ नामक एक शानदार लेख लिखा, जिसमें उन्होंने चीनी जनता से यह आह्वान किया कि वह कामरेड बैथ्यून से सीखे। 1940 में, उनकी स्मृति में शानशी-छाहाड़-हपे फौजी क्षेत्र ने ‘आदर्श अस्पताल’ का नाम बदल कर ‘बैथ्यून अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति अस्पताल’ रख दिया। इस अस्पताल की बुनियाद खुद कामरेड बैथ्यून ने रखी थी। महान अन्तर्राष्ट्रवादी योद्धा कामरेड बैथ्यून ने चीन की कोटि-कोटि जनता के हृदय में अपना घर बना लिया है। 

नारमन बैथ्यून की कहानीः- 
1938 के शुरू में, महान अन्तर्राष्ट्रवादी योद्धा नारमन बैथ्यून सात समुद्र पार कर के चीन आ पहुँचे। उन्हें जापानी आक्रमण विरोधी युद्ध में चीन की मदद करने के लिये कैनेडियन कम्युनिस्ट पार्टी और अमेरिकी कम्युनिस्ट पार्टी ने भेजा था। 

अत्यन्त कष्टप्रद यात्रा के बाद, मार्च के अन्त में कामरेड बैथ्यून चीनी क्रान्ति के पवित्र स्थल - येनान पहुँचे। चारों ओर क्रान्तिकारी ओजस्विता का वातावरण छाया हुआ था। उन्होंने प्रभावित होकर कहा: ‘‘यहाँ येनान में आखिरकार मुझे एक नये चीन की झलक मिल गयी है।’’ येनान पहुँचने के कुछ ही समय बाद चीनी जनता के महान नेता अध्यक्ष माओ ने उनसे मुलाकात की और उनसे सहृदयता के साथ बातचीत की। रात गहरी हो चुकी थी। अध्यक्ष माओ से मिल कर उन्हें इतनी प्रसन्नता हुई कि उनकी आँखों से नींद गायब हो गयी। 

उन्होंने अपनी डायरी में लिखा: ‘‘मैं अब समझ गया हूँ कि अध्यक्ष माओ अपने सम्पर्क में आने वाले हर व्यक्ति पर गहरी छाप क्यों छोड़ते हैं। वे एक महान पुरुष हैं, वे दुनिया के महानतम पुरुषों में से एक हैं।’’ आठवीं राह सेना की वर्दी पहनकर और अध्यक्ष माओ की आशाएँ अपने दिल में सँजोये वे सबसे अग्रिम मोर्चे - शानशी-छाहाड़-हपे सीमान्त क्षेत्र - की ओर जाने के लिये तैयार हो गये। पार्टी ने उनके लिये एक अंगरक्षक और एक अर्दली भेजा। उन्होंने द्रवित होकर कहा: ‘‘मोर्चे पर अधिक जवानों की ज़रूरत है। मैं तो बस इस छोटू को अपने साथ ले जाऊँगा।’’

कामरेड बैथ्यून पीली नदी के घाट पर आ गये। दवा की पेटी साथ लिये, उमड़ती नदी में नाव पर सवार होकर वे सीमान्त क्षेत्र की तरफ बढ़ने लगे। पहाड़ों और नदियों को पार करते हुए दो महीने के बाद वे 17 जून को सीमान्त क्षेत्र पहुँचे, जहाँ की सेना और जनता ने उनका भव्य स्वागत किया। कमरे में प्रवेश करते ही उन्होंने पूछा: ‘‘घायल सिपाही कहाँ हैं?’’ दूसरे साथियों ने उनसे कुछ दिनों तक विश्राम करने के लिये कहा, लेकिन वे मुस्कुराते हुए बोले, ‘‘मैं काम करने आया हूँ, न कि आराम करने। कृपया मुझे तुरन्त घायलों के पास ले चलें!’’

दूसरे दिन तड़के ही कामरेड बैथ्यून सुङयेनखओ गाँव में स्थित फौजी क्षेत्र के पृष्ठ भागीय अस्पताल गये। वहाँ उन्होंने घायल जवानों की जाँच की तथा आपरेशन रूम का निरीक्षण किया। अस्पताल के उपकरण अच्छे नहीं थे और दवाओं की कमी थी। लेकिन वे यह देखकर अत्यन्त प्रभावित हुए कि परिश्रमी मेडिकल कर्मचारी चिकित्सा-उपकरण और दवाएँ खुद ही तैयार करते हैं। उन्होंने द्रवित होकर कहा, ‘‘चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने आठवीं राह सेना को बढ़िया हथियार तो नहीं, लेकिन लम्बे अभियान के दौरान तप कर कुन्दन बने क्रान्तिकारी जवान ज़रूर दिये हैं। जब क्रान्ति के ऐसे लाल हमारे साथ हैं, तो हमें किस चीज की जरूरत हो सकती है!’’

कामरेड बैथ्यून पूरी लगन से काम में जुट गये। उन्होंने पहले ही हफ़्ते में 520 घायलों की जाँच की। उन्होंने एक महीने के अन्दर-अन्दर 147 घायल जवानों का आपरेशन किया, जो शीघ्र्र स्वस्थ हो गये और मोर्चे पर लौट गये। फौजी क्षेत्र के कमाण्डर ने कामरेड बैथ्यून को अध्यक्ष माओ का वह निर्देश सुनाया, जिसमें उन्हें फौजी क्षेत्र का मेडिकल-सलाहकार नियुक्त करने और 100 युवान मासिक भत्ता देने की हिदायत दी थी। उसी रात उन्होंने अध्यक्ष माओ को एक पत्र लिखा और यह इच्छा प्रकट की कि वे स्थानीय जनता और सेना के सुख-दुःख में बराबर के भागीदार बनना चाहते हैं। उन्होंने अपना भत्ता घायलों के पोषाहार के लिये अस्पताल के नाम कर दिया।

रात गहरी हो चली थी, लेकिन कामरेड बैथ्यून अपने काम में निमग्न थे। चिकित्सा सेवा बेहतर बनाने के लिये वे बड़ी लगन से एक ‘आदर्श अस्पताल’ की योजना तैयार कर रहे थे। सुङयेनखओ गाँव के मन्दिर में सरगरमियाँ शुरू हो गईं। मामूली से क्लिनिक को एक औपचारिक अस्पताल का रूप देने के लिये कामरेड बैथ्यून के सुझाव पर एक ‘पाँच सप्ताह आन्दोलन’ चलाया गया, जिसमें गाँव वासियों और सैनिकों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। कामरेड बैथ्यून और भी अधिक व्यस्त रहने लगे। घायलों का इलाज करने के अलावा उन्होंने पलंग और टूटी हड्डी जोड़ने में काम आने वाले फ्रेम आदि के ख़ाके बना कर बढ़ई की मदद से उनको तैयार कराया। वे कभी चिकित्सा-उपकरण बनाने में लोहार की भी मदद करते। जब कोई उनसे पूछता, ‘‘क्या आप मज़दूर भी रह चुके हैं?’’ तो वे मुस्कुराते हुए जवाब देते: ‘‘एक अच्छे सर्जन को लोहार, बढ़ई, दर्ज़ी और नाई सबका काम सीखना चाहिए!’’ 

रोगाणुनाशक और घाव के इलाज़ के सम्बन्ध में उन्होंने मेडिकल कर्मचारियों के सामने सिलसिलेवार लेक्चर भी दिये। राष्ट्रोद्धार महिला संघ की सदस्याएँ भी अस्पताल के लिये रज़ाई और गद्दे बनाने और कपडे़-लत्तों की धुलाई करने के काम में बढ़-चढ़ कर हाथ बँटाने लगीं। रास्ते का एक पत्थर टूट जाने से एक गढ़ा बन गया था, जिससे घायलों को लाते-ले जाते समय गिर जाने का डर था। यह देखकर कामरेड बैथ्यून ने दूसरे कामरेडों की मदद से वहाँ एक पत्थर लगा कर गढ़ा पाट दिया। ‘आदर्श अस्पताल’ का निर्माण पूरा होने पर एक उद्घाटन समारोह का आयोजन हुआ, जिसमें फौजी क्षेत्र के नेताओं, सीमान्त क्षेत्र की सरकार के प्रतिनिधियों और दो हजार से ज़्यादा लोगों ने भाग लिया। समारोह में कामरेड बैथ्यून ने अन्तर्राष्ट्रवाद की भावना से ओतप्रोत एक भाषण दिया। समारोह के बाद कामरेड बैथ्यून लोगों को अस्पताल दिखाने ले गये। साफ सुथरे अस्पताल में हर चीज़ करीने से रखी हुई थी। हालाँकि उन्हीं पुरानी चीजांे को एक नया रूप दिया गया था, फिर भी एक अस्पताल की ज़रूरत की सभी चीजें यहाँ मौजूद थी। सितम्बर के उत्तरार्द्ध में जापानी आक्रमणकारियों ने लगभग तीस हज़ार से ज़्यादा पैदल, घुड़सवार और तोपची सैनिकों को गठित किया और वायु सेना व यन्त्रीकृत दस्ते की सहायता से दस रास्तों से सीमान्त क्षेत्र के केन्द्रस्थल पर आक्रमण कर दिया। 

पार्टी के आदेश पर ‘आदर्श अस्पताल’ का स्थानान्तरण शुरू कर दिया गया। यहाँ से जाते समय हृदय में ज़ुदाई की चुभन लिये कामरेड बैथ्यून मुड़-मुड़ कर अस्पताल की ओर देखते, जिसे उन्होंने अपना ख़ून-पसीना एक कर के बनाया-सँवारा था, उन्होंने कुछ कुद्ध होकर कहा: ‘‘नरक में जायें ये बदमाश फ़ासिस्ट डाकू! वे तो एक घाटी तक को अनछुआ नहीं छोड़ते!’’ रास्ते में कामरेड बैथ्यून ने देखा कि दुश्मन की सफ़ाया मुहिम के बावजूद जन-समुदाय का हौसला बुलन्द है। उन्होंने प्रभावित होकर दुभाषिये से कहा: ‘‘मुझे यकीन है कि विजय चीनी जनता की ही होगी!’’ खूँख़्वार दुश्मन सुङयेनखओ के अन्दर आ धमके। खाली गाँव और खाली मकानों के सिवाय उनके हाथ कुछ भी न लगा, लेकिन उन्होंने उनको भी नहीं बख़्शा। हमारी सेना सामने से आते हुए दुश्मन से कन्नी काट कर उसके पृष्ठ भाग में चली गई और शफनखओ नामक स्थान पर उसने दुश्मन पर हमला बोल कर उसे छठी का दूध याद दिला दिया। ‘सफाया मुहिम’ के विरुद्ध लड़ाई में हमारी विजय हुई। रास्ते भर हथियारों से लदी गाड़ियों और बन्दियों की कतारें नज़र आती रहीं। कामरेड बैथ्यून ने प्रसन्न-चित्त होकर कहा: ‘‘फ़ासिस्टों का इसी तरह सफ़ाया करना चाहिए। जवानों से कहें कि वे इसी और विजयें प्राप्त करें!’’ 

कामरेड बैथ्यून ने ‘दीर्घकालीन युद्ध के बारे में’ नामक अध्यक्ष माओ की रचना का गहन अध्ययन किया। इससे प्रेरित होकर उन्होंने कहा: ‘‘ठीक! यह एक बिलकुल अलग परिस्थिति में चलाया गया दीर्घकालीन लोकयुद्ध है। अब मोर्चे और पृष्ठ भाग में कोई फ़र्क नहीं रहा। जहाँ घायल सिपाही होंगे, हम भी वहीं चलेंगे!’’ साल के अन्त में, कामरेड बैथ्यून एक चिकित्सा-दल को लेकर याङच्याच्वाङ गाँव की ओर चले। रास्ते में इतना ज़ोर का बर्फीला-तूफ़ान उठा कि आँखे खोलना मुश्किल हो गया। कामरेड बैथ्यून की दाढ़ी पर बर्फ की पपड़ी जम गई। उन्होंने मजाक में कहा: ‘‘देखो, मैं बिना मेकअप के ही क्रिसमस का बाबा बन गया हूँ!’’ सब लोग ठहाका मार कर हँसने लगे। वे कई ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों को पार करते हुए आगे बढ़ते गये। 

याङच्याच्वाङ गाँव पहुँचते ही कामरेड बैथ्यून ने तुरन्त काम में जुट जाने का अनुरोध किया। याङच्याच्वाङ गाँव में कामरेड बैथ्यून ने स्थानीय क्लिनिक को ‘स्पेशल सर्जरी अस्पताल’ में बदल दिया। यह अस्पाताल छापामार युद्ध की विशेषताओं के अनुरूप था, क्योंकि इसके लिये किसानों के घरों को वार्ड और उनके पलंगों को रोग शय्या के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। जन-साधारण के घर-घर मे फैले इस अस्पताल को दुश्मन कभी बर्बाद नहीं कर सका। और अधिक मेडिकल कर्मचारियों को ट्रेनिंग देने के लिये कामरेड बैथ्यून ने ‘प्रैक्टिकल सप्ताह आन्दोलन’ चलाया, जिसमें फौजी क्षेत्र के स्वास्थ्य विभाग के कार्यकत्र्ताओं ने भाग लिया। उन्होंने विद्यार्थियों को सैद्धान्तिक और व्याहारिक ज्ञान की शिक्षा दी। विद्यार्थी गु्रपों में आते और उनसे सीखते। कामरेड बैथ्यून एक कर्मनिष्ठ, धैर्यवान और ओजस्वी व्यक्ति थे। वे सिद्धान्त को व्यावहार के साथ मिलाकर पढ़ाया करते, जिनसे उनके लेक्चर आकर्षक और सरल होते। विश्राम के दौरान कामरेड बैथ्यून विद्यार्थियों को लौकी पर उस्तरा फेरना सिखाते, ताकि मनुष्य की खोपड़ी का आपरेशन करते समय वे नश्तर का अच्छी तरह प्रयोग कर सकें। 

विद्यार्थियों के स्तर को ऊँचा करने की ख़ातिर एक बार उन्होंने उनसे कहा कि वे आंशिक रूप से सुन्न करने के बजाय उनके पूरे जिस्म को सुन्न कर पैर की अंगुली के फोड़े का आपरेशन करें। काफी झिझक के बाद विद्याथियों को उनकी बात माननी पड़ी। आपरेशन ख़त्म होने के बाद कामरेड बैथ्यून खड़े हो गये और मुस्कुराते हुए कहने लगे: ‘‘देखा आप लोगों ने, सुन्न और आपरेशन करने के काम को साथ-साथ करने से सुन्न करने का समय कम किया जा सकता है। इस तरह घायलों को कम पीड़ा पहुँचती है!’’ लगन से डाक्टरी का अध्ययन करते रहने की उनकी भावना से सभी लोग प्रभावित हुए। ‘प्रैक्टिल सप्ताह’ जल्दी ही समाप्त हो गया। विद्यार्थियों का कामरेड बैथ्यून से ज़ुदा होने का मन नहीं था। कामरेड बैथ्यून के अच्छे अध्यापन की बदौलत उन लोगों ने बहुत कुछ सीख लिया था। विद्यार्थियों ने कहा: ‘‘इन सात दिनों में हमने जितनी चीजे़ं सीख ली हैं, वे हम सात महीने के अरसे में किताबें रट-रटकर भी नहीं सीख सकते थे।’’ 

कामरेड बैथ्यून की सलाह पर एक चलता-फिरता चिकित्सा-दल कायम किया गया। लड़ाई के कठिन वातावरण में भी वे दुर्गम पहाड़ी रास्तों को पार करते हुए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते और घायलों की तीमारदारी करते। छापामार युद्ध की विशेषताओं के अनुसार कामरेड बैथ्यून ने दवा और चिकित्सा-उपकरण ढोने के तरीके में सुधार करने की बात सोची। एक दिन उन्हें एक किसान एक गधे को हाँकता हुआ आता दिखाई दिया। गधे की पीठ पर खाद से भरे दो टोकरे लटक रहे थे। कामरेड बैथ्यून देखते ही खुशी से उछल पड़े: ‘‘यही तो तरीका है, जिसकी मुझे तलाश थी।’’ टोकरे की नकल पर उन्होंने एक मेहराबनुमा सन्दूक तैयार किया, जिसमें आपरेशन और मरहम-पट्टी के लिये आवश्यक सभी चीजे़ं रखी जा सकती थीं। ढक्कन हटा देने पर यह सन्दूक एक टेबुल जैसा बन जाता था और बन्द कर देने पर इसे एक बोझे की तरह लादा जा सकता था। उनकी सूझ-बूझ की सभी लोग सराहना करने लगे। अपनी जान की तनिक भी परवाह न कर के कामरेड बैथ्यून चलता-फिरता चिकित्सा-दल ले कर मोर्चे पर चले गये, जहाँ उन्हें अक्सर गोलाबारी की हालत में काम करना पड़ता था। 

फरवरी 1939 में मध्य हपे में घमासान युद्ध छिड़ने का समाचार मिला। कामरेड बैथ्यून ने वहाँ जाने की माँग की। स्वीकृति मिलते ही उन्होंने एक ‘पूर्वी अभियान चिकित्सा-दल’ कायम किया, जो मोर्चे की तरफ़ कूच कर गया। मध्य हपे के मैदानी इलाके में डाक्टर बैथ्यून के नाम की धूम मच गयी। अप्रैल के महीने की एक अन्धेरी रात को लड़ाई शुरू हो गयी। कामरेड बैथ्यून तुरन्त चिकित्सा-दल लेकर बनच्याथुन गाँव चले गये, जो मोर्चे से सिर्फ साढ़े तीन किलोमीटर की दूरी पर था। उन्होंने एक मन्दिर के अहाते में झटपट एक आपरेशन रूम खड़ा कर दिया। दुश्मन के विमान सिर पर मँडराते, चारों तरफ मशीनगनें गरजतीं और हथगोलों के फटने से वातावरण गूँज उठता, लेकिन कामरेड बैथ्यून पूरी लगन से घायलों की जान बचाने में व्यस्त रहते। वे दो दिन-दो रात से अपने काम में जुटे हुए थे। एक बम मन्दिर के निकट आकर गिरा। धडा़म की आवाज़ के साथ मन्दिर की पिछली दीवार ढह गई। साथियों ने कामरेड बैथ्यून को छिप जाने की सलाह दी, लेकिन उन्होंने दृढ़ता के साथ कहा: ‘‘क्रान्ति में और फ़ासिस्टों का मुकाबला करने में किसी को निजी सुरक्षा की परवाह नहीं करनी चाहिए। एक कम्युनिस्ट को पहले अपने लिये नहीं सोचना चाहिए। रात हो चुकी थी। कामरेड बैथ्यून अब भी आपरेशन रूम थे और उन्होंने बड़ी देर से आराम नहीं किया था। अर्दली की आँखों से परेशानी झाँक रही थी, जो उनके भोजन को बार-बार गरम कर रहा था। इस लड़ाई में दुश्मन पर जोरदार धावा बोलते समय कम्पनी कमाण्डर श्वी के पेट में गहरा घाव हो गया था। असह्य दर्द का घूँट पीते हुए कमाण्डर श्वी लड़ाई में अन्तिम विजय तक डटे रहे। कमाण्डर श्वी को स्चट्रेचर पर आपरेशन रूम में लाया गया। आपरेशन करते समय जब डाक्टर बैथ्यून को यह पता चला कि श्वी की अँतड़ियों में दस जगह छेद हो गये हैं, तो उनकी सराहना करते हुए वे कहने लगे: ‘‘ये सचमुच एक वीर जवान हैं। ऐसे वीरों की सेवा करते हुए मैं अपने आप को धन्य समझता हूँ। यह मेरे लिये खुशी और गौरव की बात है!’’ लड़ाई विजयपूर्वक समाप्त हो गई। घायलों का इलाज कराने के लिये कामरेड बैथ्यून तीन दिन-तीन रात लगातार काम किया। समय पर इलाज़ करने की वजह से 85 प्रतिशत घायल मौत के मुँह से बचा लिये गये। उन्होंने प्रसन्न होकर कहा: ‘‘समय ही हमारे भाइयों की जान है!’’ 

ख़ुद कामरेड बैथ्यून कमाण्डर श्वी और दूसरे कई सख़्त घायलों को पृष्ठ भाग के अस्पताल तक पहुँचाने गये। रास्ते भर वे घायलों से उनका हालचाल पूछते रहे। घायलों से यह जवाब सुन कर कि वे सब ठीक हैं, वे गदगद होकर कहते: ‘‘जब तुम कहोगे कि तुम ठीक हो, तो मेरे लिये फ़िक्र करने की कोई बात नहीं।’’ अस्पताल पहुँचने के बाद कामरेड बैथ्यून ने कम्पनी कमाडर श्वी के लिये एक टेकनी तैयार कर दी। उन्होंने दूसरे डाक्टरों से कहा: ‘‘पेट में चोट लगने से रोगी को साँस लेने में तकलीफ़ होती है। यह टेकनी इनके लिये आरामदेह होगी।’’ हर रोज़ कामरेड बैथ्यून श्वी के लिये चारों वक्त का खाना खुद ही बनाया करते थे। रसोइयाँ जब यह काम अपने हाथ में लेना चाहता, तो डा. बैथ्यून कहतेः ‘‘मैं अपने मरीज़ का हाल अच्छी तरह जानता हूँ। मरीज़ के लिये इलाज़ ही सब कुछ नहीं है, उसके लिये उचित भोजन का होना भी ज़रूरी है। इससे जल्दी स्वस्थ होने में मदद मिलती है।’’ वे खुद भोजन कमाडर श्वी तक पहुँचाते और चम्मच से खिलाते हुए कहते: ‘‘लो भाई खाओ, जब स्वस्थ हो जाओगे, तो दुश्मन का और तबीयत से सफ़ाया कर सकोगे!’’ यह सब देखकर कमाण्डर श्वी की आँखो में आँसू छलक जाते और भाव विह्वल होने के कारण उनके मुँह से एक शब्द भी नहीं निकलता। कामरेड बैथ्यून द्वारा बारीकी से किये गये इलाज़ और तीमारदारी की बदौलत श्वी जल्दी ही भले-चंगे हो गये और वे मोर्चे पर लौट जाने के लिये तैयार हो गये। विदाई के समय उनकी आँखें डबडबा आयीं। उन्होंने डा. बैथ्यून से कहा, ‘‘डाक्टर मैं मोर्चे पर जाकर और अधिक दुश्मनों को मौत के घाट उतारूँगा!’’

एक बार एक घायल सिपाही का आपरेशन करना था, जिसके लिये भारी मात्रा में खून की ज़रूरत थी। सभी कामरेड खून देने के लिये तैयार हो गये। लेकिन कामरेड बैथ्यून ने कहा: ‘‘तुम लोगों ने कुछ ही दिन पहले तो अपना खून दिया था, अब मेरी बारी है। मेरा खून 0 गु्रप का है, जो हर एक मरीज़ के लिए उपयुक्त है।’’ उन्होंने अपनी कमीज़ की आस्तीन ऊपर चढ़ाई, तो कामरेडों ने चिन्तित होकर कहा: ‘‘नहीं, नहीं, आपकी उम्र...’’ कामरेड बैथ्यून ने कहा: ‘‘जब हमारे जवान देश और जनता के लिये अपना खून बहा सकते हैं, अपनी जान तक न्योछावर कर सकते हैं, तो क्या मैं थोड़ा खून भी नहीं दे सकता?’’ कामरेड बैथ्यून घायल सिपाही के बराबर में लेट गये और कहने लगे - ‘‘घायल को बचाना है, अब देर मत करो!’’ इस तरह सर्वहारा अन्तर्राष्ट्रवादी योद्धा, कैनेडियन जनता के सपूत कामरेड नारमन बैथ्यून का खून चीनी योद्धा की नाड़ियों में बहने लगा, जिसकी बदौलत घायल जवान की जान बच गई। यह बात शीघ्र ही चारों तरफ़ फैल गई। देखते ही देखते खून देने के लिये स्वयंसेवकों का एक दल तैयार हो गया। कामरेड बैथ्यून ने प्रभावित होकर कहा: ‘‘जन-समुदाय हमारा रक्त-बैंक है। सर्जरी के इतिहास में ऐसी कोई मिसाल नहीं!’’ 

अप्रैल के उत्तरार्द्ध में जब कामरेड बैथ्यून को पता चला कि आठवीं राह सेना के दर्जनों घायल जवान दुश्मन की नाकेबन्दी लाइन के निकट सकुङ गाँव के निकट छिपे हुए हैं, तो उन्होंने वहाँ जा कर उनकी तीमारदारी करने की माँग की। चूँकि वह एक ख़तरनाक स्थान था और दुश्मन किसी भी क्षण आ सकते थे, इसलिये नेताओं ने उन्हें समझाने की कोशिश की, मगर वे नहीं माने। अतः यह तय हुआ कि चिकित्सा-दल रात को रवाना होगा और एक फौजी यूनिट उसकी रक्षा करेगी। चिकित्सा-दल सकुशल सकुङ गाँव पहुँच गया। कामरेड बैथ्यून दिन भर व्यस्त रहे, लेकिन काम इतना था कि ख़त्म होने का नाम ही न लेता था। रात को आकस्मिक हमले से बचने के लिये वे सब बिना कपड़े उतारे ही सो गये और उन्होंने घोडों की जीन तक नहीं उतारी, ताकि किसी भी क्षण वहाँ से दूसरी जगह के लिये रवाना हो सकें। दूसरे दिन सुबह-सवेरे गाँव के पश्चिमी छोर पर एक गाँव वाले से दुश्मनों का एक गिरोह आ टकराया। एक ने पूछा: ‘‘सकुङ गाँव किस ओर है?’’ गाँव वाले ने बड़ी समझदारी से काम लिया। उसने उत्तर-पश्चिम की ओर इशारा करते हुए उत्तर दिया: ‘‘उस तरफ!’’ दुश्मन को गुमराह करने के बाद वह भागा-भागा गाँव में आया और चिकित्सा-दल को इस घटना की सूचना दे दी। दस-पन्द्रह मिनट के अन्दर-अन्दर चिकित्सा-दल गाँव के बाहर पहुँच गया और घायल जवानों को भी जन-समुदाय ने सुरक्षित स्थान में छिपा दिया। कामरेड बैथ्यून ने भावुकता से कहा: ‘‘आठवीं राह सेना जन-सागर में मछली की तरह है। ऐसी सेना का दुनिया में कोई मुकाबला नहीं।’’ 

कामरेड बैथ्यून ने मध्य हपे के मैदानी इलाके में चार महीनों तक काम किया। वहाँ की सेना और जनता के दिलों पर उन्होंने एक गहरी छाप छोड़ दी। शानशी-छाहाड़-हपे सीमान्त क्षेत्र की पार्टी कमेटी ने उन्हें पार्टी कांग्रेस में प्रेक्षक के रूप में भाग लेने का निमन्त्रण दिया। वे निमन्त्रण स्वीकार कर खुशी-खुशी पश्चिमी हपे के लिये रवाना हो गये। एक दिन शाम के समय चिकित्सा-दल शत्रु अधिकृत क्षेत्र छिङफङत्येन के नज़दीक एक गाँव में पहुँचा। वे उसी रात नाकेबन्दी लाइन को पार करने वाले थे कि कामरेड बैथ्यून को एक किसान दिखाई दिया, जिसकी छाती में मवाद भरा था। उन्होंने साथियों से रुकने के लिये कहा और उसका आपरेशन करने का निर्णय किया। यह गाँव पेफिङ-हानखओ रेलवे लाइन के बहुत नज़दीक था, जहाँ दुश्मन ने कड़ी नाकेबन्दी कर रखी थी। सुरक्षा के लिये अनुरक्षक यूनिट ने स्थानीय भूमिगत पार्टी संगठन की सहायता से इस स्थान की नाकेबन्दी कर दी। आपरेशन करने में सिर्फ बीस मिनट लगे। किसान बेहद एहसानमन्द हो गया। जन-समुदाय के अनुरक्षण में चिकित्सा-दल ने दुश्मन की नाकेबन्दी को सकुशल पार कर लिया। पहली जुलाई को कामरेड बैथ्यून ने सीमान्त क्षेत्र की पार्टी कांगे्रस में भाग लिया। सभा में उन्होंने उल्लसित होकर कहा: ‘‘...अपका युद्ध न्यायपूर्ण है। आप अकेले नहीं है। सारी दुनिया की जनता आप लोगों के साथ है..’’ कुछ ही समय बाद, कामरेड बैथ्यून शनपेई गाँव चले गये, जहाँ उन्होंने रात-दिन मेहनत कर ‘छापामार युद्ध में डिविजनल फ़ील्ड अस्पताल का संगठन और तकनीक’ नामक पुस्तिका लिखी। यह अध्यक्ष माओ की रणनीतिक विचारधारा के आधार पर रणभूमि में चिकित्सा-उपचार के अनुभवों का निचोड़ था। 

हालाँकि युद्ध की स्थिति में उन्हें अक्सर जगह बदलनी पड़ती थी, लेकिन फिर भी कामरेड बैथ्यून घायल ज़वानों का ही इलाज़ नहीं, बल्कि आम लोगों का भी इलाज़ करते थे। लोग उन्हें बड़े प्यार से ‘हमारे डॉ. बैथ्यून’ कहा करते थे। एक दिन कामरेड बैथ्यून होच्याच्वाङ गये। गाँव की सीमा पर उन्हें एक किसान मिला। उसकी बाँह बुरी तरह सूजी हुई थी और वह दर्द के मारे बेहद परेशान था। डॉ. बैथ्यून आगे बढ़े और उसे सीधे क्लीनिक ले गये। आपरेशन करने के बाद कामरेड बैथ्यून ने किसान से कहा: ‘‘जरा गाँव वालों को बता देना कि मैं आठवीं राह सेना का डाक्टर हूँ। अगर कोई बीमार हो, तो उसे यहाँ आने के लिये कहना।’’ दो दिन के बाद कामरेड बैथ्यून पट्टी बदलने के लिये खुद उस किसान के घर गये। उसने अत्यन्त प्रभावित होकर कहा: ‘‘डाक्टर, मैं आपका किस तरह शुक्रिया अदा कँरू?’’ कामरेड बैथ्यून ने उसकी बात काटते हुये कहा: ‘‘तुम्हें मेरा नहीं, आठवीं राह सेना का शुक्रिया करना चाहिए!’’ भला-चंगा होने के बाद वह किसान कामरेड बैथ्यून के लिये अण्डों और खजूर का उपहार लेकर आया। पहले तो उन्होंने लेने से इन्कार कर दिया, लेकिन किसान के बार-बार आग्रह करने पर उन्हें कुछ रख लेना पड़ा। बाद में उन्होंने ये चीज़ें घायल जवानों के लिये भेज दीं। 

एक दिन यह सुनकर कि पच्चीस किलोमिटर की दूरी पर एक गाँव में एक घायल जवान मृत्यु-शय्या पर पड़ा है, कामरेड बैथ्यून तत्काल घोडे़ पर सवार होकर पूरी रफ़्तार से उस गाँव की तरफ़ चल पडे़। शाम को कहीं जाकर आपरेशन समाप्त हुआ। जैसे ही उन्हें ख़्याल आया कि और भी कई घायल जवान आपरेशन का इन्तेज़ार कर रहे हैं, वे झट से घोड़े पर सवार होकर वापस चले गये। नेतृत्वकारी कार्यकर्ता कामरेड बैथ्यून की सेहत का बहुत खयाल रखते थे। एक बार उन्होंने खास तौर से डा. बैथ्यून के लिये मुर्गी का शोरबा बनाने का आर्डर दिया। लेकिन जब अर्दली शोरबा लाया, तो वे उसे घायल जवानों तक पहुँचाने चल दिये। अर्दली के चेहरे से परेशानी झलकने लगी। यह देखकर कामरेड बैथ्यून ने कहा: ‘‘मैं एक कम्युनिस्ट योद्धा हूँ, मुझे विशेष सुविधाएँ नहीं मिलनी चाहिए!’’ गहरी रात को कामरेड बैथ्यून अक्सर हाथ में लालटेन लेकर वार्ड का निरीक्षण करने जाते और यह देखते कि घायल जवान मीठी नींद तो सो रहे हैं, कहीं उनके कम्बल नीचे तो नहीं खिसक गये! 

उन कठिन दिनों में कामरेड बैथ्यून भी आठवीं राह सेना के दूसरे जवानों की तरह सुई-धागा हमेशा अपने पास रखते थे और अपने कपड़ों की मरम्मत भी खुद ही करते थे। एक सिपाही भला-चंगा होने के बाद अपनी यूनिट लौटने वाला था। उसने पुआल का बना एक जोड़ा जूता कामरेड बैथ्यून को भेंट किया। ‘‘कितना बहुमूल्य उपहार है!’’ यह कहते हुए कामरेड बैथ्यून ने उसे खुशी-खुशी पहिन लिया। कामरेड बैथ्यून ने एक बार कैनेडा हो आने का निर्णय किया। उनका मकसद चीनी जनता के महान जापानी आक्रमण विरोधी युद्ध का दुनिया के सामने प्रचार करना और फण्ड, दवाओं और चिकित्सा-उपकरणों के लिये अपील करना था। कामरेड बैथ्यून ने 20 अक्टूबर 1939 को रवाना होने का निश्चय किया। लेकिन ठीक इसी समय पश्विमी हपे के पहाड़ी इलाकों में जापानी आक्रमणकारियों ने बडे़ पैमाने पर ‘शीतकालीन सफाया मुहिम’ छेड़ दी। डॉ. बैथ्यून ने तुरन्त अपनी यात्रा स्थगित कर दी और झटपट चिकित्सा-दल को लेकर लाएय्वान ग्वोय्येनलिङ मोर्चे पर चले गये, जहाँ घमासान लड़ाई हो रही थी। उन्हें सुनच्या गाँव के नज़दीक ही, जो मोर्चे से चार किलोमीटर की दूरी पर था, कुछ घायल जवान मिल गये, जिन्हें मोर्चे से लाया गया था। डॉ. बैथ्यून और दूसरे कामरेड बिना कुछ खाये-पिये ही झटपट एक छोटे से मन्दिर में आपरेशन रूम तैयार करने लगे। दूसरे दिन दोपहर बाद कामरेड बैथ्यून अपने काम में पूरी तरह व्यस्त थे। इतने में एक सन्तरी ने आ कर सूचना दी कि सामने के पहाड़ पर दुश्मन देखे गये हैं। कामरेड बैथ्यून ने शान्त स्वर में पूछा: ‘‘और कितने घायलों का आपरेशन करना बाकी है?’’ जवाब मिला: ‘‘दस ’’। उन्होंने दृढ़ आवाज़ में कहा: ‘‘तुरन्त दो आपरेशन टेबुल और तैयार करो, हम जल्दी से जल्दी आपरेशन का काम समाप्त करने की कोशिश करेंगे।’’ तीनों आपरेशन-टेबुलों पर बड़ी तेज़ी से काम हो रहा था।

कुछ ही समय बाद सन्तरी ने सूचना दी कि दुश्मन पहाड़ से नीचे उत्तर आये हैं। कामरेड बैथ्यून ने सुनी अनसुनी कर दी और अपने काम में लगे रहे। अचानक नीचे घाटी से गोली चलने की आवाज़ें आने लगीं। सन्तरी ने आकर बताया: ‘‘गार्ड रेजीमेण्ट और दुश्मन के बीच भिड़न्त हो गयी है!’’ जब दुभाषिये ने कामरेड बैथ्यून से तत्काल वहाँ से चले जाने के लिये कहा, तो उन्होंने दृढ़ता से कहा: ‘‘एक फौजी डॉक्टर का यह कर्तव्य है कि वह हमेशा घायल जवानों के साथ रहे। इसी बीच अगर वह मृत्यु का शिकार हो भी जाये, तो यह एक गौरवमयी मृत्यु होगी!’’ बीस मिनट बाद आखिरी घायल जवान को, जिसकी टाँग में चोट लगी थी, अन्दर लाया गया। गोली चलने की आवाज़ें और करीब हो गयीं। सन्तरी दौड़ा आया और बुलन्द आवाज़ में इस संकट की सूचना दी कि दुश्मन गाँव के अन्दर घुसने वाले हैं। एक डॉक्टर ने कामरेड बैथ्यून की बाँह खींचते हुए कहा: ‘‘लाइये, मैं आपकी जगह काम करूँ। आपको फ़ौरन यहाँ से चले जाना चाहिए।’’ अपनी बाँह छुड़ाते हुए डॉ. बैथ्यून ने निश्चेतक से कहा: ‘‘आंशिक रूप से सुन्न करो!’’ घायल जवान ने उनसे निवेदन किया: ‘‘डॉक्टर, मेरे घाव की चिन्ता मत कीजिए, आप तुरन्त यहाँ से चले जायें!’’ कामरेड बैथ्यून तेज़ी से आपरेशन कर रहे थे कि अचानक उनके मुँह से एक ‘‘आह’’ निकली। सबकी नज़रें उनके बायें हाथ की दूसरी अंगुली पर पड़ीं, जिससे खून बह रहा था। ‘‘कोई बात नहीं, ज़रा नश्तर लग गया है!’’ यह कहते हुए उन्होंने अपनी अंगुली टिंक्चर आयोडीन में डुबो दी और फिर अपने काम में लग गये। 

मशीनगन चलने की आवाजें और भी नज़दीक आती जा रही थीं। अन्तिम टाँका लगाने पर लम्बी साँस खींचते हुए उन्होंने कहा: ‘‘अब ले चलो इसे!’’ वह खुद भी घोड़े पर सवार होकर पहाड़ से नीचे उतरने लगे। रास्ते में कामरेडों ने कहा कि आज हम बाल-बाल बच गये। लेकिन कामरेड बैथ्यून कहने लगे: ‘‘आज हम लोगों ने एक बहुत बड़ी विजय हासिल की। आठवीं राह सेना के जवान गोलियों की बौछार से नहीं डरते। वे हल्का घाव लगने पर मोर्चे से नहीं हटते। मैं आठवीं राह सेना का मेडिकल सलाहकार हूँ, मुझे भी ऐसा होना चाहिए।’’ एक रात का सफ़र तय करने बाद वे कानहोचिङ के पृष्ठ भागीय अस्पताल में पहुँचे। कामरेड बैथ्यून की अंगुली सूज गयी थी, अतः कामरेडों ने उन्हें विश्राम करने के लिये कहा। लेकिन उन्होंने कहा: ‘‘बहुत-बहुत शुक्रिया, मगर इतने घायल जवानों के आपरेशन बाकी हैं, मैं खाली कैसे बैठ सकता हूँ?’’ इस तरह वे और दो दिन तक काम में व्यस्त रहे। दुर्भाग्यवश एक बार विसर्प रोग से पीड़ित एक घायल जवान का आपरेशन करते समय उनकी अंगुली में विष फैल गया। कुछ ही दिनों में अंगुली में पीप पड़ गई और बुखार 103.1 डिग्री तक जा पहुँचा। सभी कामरेड चिन्तित थे। ‘‘घबराने की कोई बात नहीं,’’ वे कहते, ‘‘दो अंगुलियाँ बाकी बचने पर भी मैं अपना काम कर सकूँगा।’’ अर्धनिद्रा की हालत में कामरेड बैथ्यून को तोपों का गर्जन सुनाई दिया। वे जान गये कि लड़ाई छिड़ गयी है। वे तेज़ी से कमरे से बाहर निकल आये और मोर्चे पर जाने के लिये ज़िद करने लगे। जब कामरेडों ने उन्हें रोका, तो वे कुछ कुद्ध होकर कहने लगे: ‘‘यह भी कोई घाव है? मुझे तो एक मशीनगन की भाँति प्रयोग किया जाना चाहिए!’’ नेतागण और दूसरे कामरेड डॉ. बैथ्यून को रोक न सके। 

चिकित्सा-दल फिर एक बार बर्फ़ानी बारिश में मोर्चे की तरफ़ चल पड़ा। कामरेड बैथ्यून घोड़े पर सवार हो गये। लेकिन कमज़ोरी के कारण कभी वे खुद को सम्भाल नहीं पाते और कभी उन्हें सारी ज़मीन घूमती नजर आती। गोलाबारी की आवाज़ करीब आती जा रही थी। रास्ते में उन्हें ह्वाङथुलिङ मोर्चे से लाये गये घायल जवान मिले। कामरेड बैथ्यून आगे बढ़े और भारी दिल से कहने लगे: ‘‘माफ़ कीजिएगा, देर हो गई!’’ वाङच्याथाए पहुँचते-पहुँचते, जहाँ रेजीमेन्ट चिकित्सा दल तैनात था, कामरेड बैथ्यून की बीमारी और भी गम्भीर हो गयी। उनके बदन में ज़हर फैलता जा रहा था और उनकी कोहनी के पास एक फोड़ा निकल आया था। फिर भी उन्होंने घायलों को, विशेषकर जिनके सिर में, छाती में या पेट में चोट लगी हो, इलाज़ के लिये अपने पास लाने का आग्रह किया। उन्होंने कामरेडों से कहा कि अगर मैं सो जाऊँ, तो भी मुझे जगा देना। बेहद कमज़ोरी की हालत में भी उन्होंने लगातार सोलह घण्टे तक काम किया। कामरेडों के बार-बार आग्रह करने पर भी उन्होंने आराम करने से इन्कार कर दिया। उनकी इस ओजस्वी भावना को देख कर लोगों की आँखों में आँसू भर आये। नौ नवम्बर को कामरेड बैथ्यून की हालत और बिगड़ गयी। बुखार 104 डिग्री तक पहुँच गया। ठीक इसी समय दुश्मन ने वाङच्याथाए पर फिर आक्रमण कर दिया। नेताओं ने वहाँ से फ़ौरन हटने का निर्णय किया। वे कामरेड बैथ्यून से मिलने आये और उनसे पृष्ठ भागीय अस्पताल में जा कर इलाज़ करवाने का बार-बार आग्रह किया। बड़ी मुश्किल से वे वहाँ जाने के लिये सहमत हो गये। रास्ते भर कामरेड बैथ्यून को कँपकँपी छूटती रही और कई बार उलटी भी हुई। लेकिन फिर भी वे मोर्चे की ओर देखते रहते और कह उठते: ‘‘मुझे सबसे बड़ी चिन्ता उन जवानों की है, जो मोर्चे पर अपना खून बहा रहे हैं। काश कि मुझ में कुछ शक्ति बाकी रह जाती, तो मैं वहीं उनकी सेवा करने में लगा रहता!’’ 

दस नवम्बर को वे थाङश्येन काउन्टी ह्वाङशखओ गाँव पहुँचे। कामरेड बैथ्यून की हालत बिगड़ती जा रही थी। जब सैनिक क्षेत्र कमान को इसकी सूचना मिली तो उन्होंने तत्काल एक फौरी आदेश दिया: ‘‘हर कीमत पर कामरेड बैथ्यून की जान बचाओ।’’ सैनिक क्षेत्र कमान विशेष तौर पर भेजे गये चिकित्सक डॉ. कामरेड बैथ्यून को बचाने के लिये रातों-रात आ पहुँचे। जब गाँव वालों को पता चला कि कामरेड बैथ्यून सख़्त बीमार हैं, तो वे ख़ैर-ख़बर जानने के लिये आँगन में एकत्रित हो गये। रात हो गयी, पर अपनी जगह से कोई न हिला। उस गाँव से गुज़रते समय जब एक सैन्य दल को पता चला कि कामरेड बैथ्यून बीमारी की हालत में वहाँ हैं, तो वे भी उन्हें देखने आ गये। अफसर और जवान - सभी खिड़की के पास जमा हो गये। कामरेड बैथ्यून की शोचनीय अवस्था देखकर उनकी आँखों से बरबस आँसू टपक पडे़। डॉक्टर का हाथ थामते हुए उन्होंने कहा: ‘‘देखिए, इलाज़ में कोई भी कसर बाकी न रखिए। हम आपकी मदद करेंगे। हमारी विजय का समाचार सुनकर वे अवश्य खुशी से फूले न समायेंगे।" डाक्टरों ने सभी सम्भव तरीके अपनाये, पर कामरेड बैथ्यून की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। डाक्टरों ने बाँह काट देने की सलाह दी, लेकिन कामरेड बैथ्यून ने सिर हिलाते हुए कहा: ‘‘मुझे आप लोगों पर पूरा-पूरा भरोसा है। अब इलाज़ करने से कोई फ़ायदा नहीं, क्योंकि अब सिर्फ़ बाँह का सवाल नहीं, सारे खून में ज़हर फैल चुका है। अब कोई उपाय नहीं।’’ 

11 नवम्बर की रात को कामरेड बैथ्यून ने बड़ी मुश्किल से बैठ कर फौजी क्षेत्र कमान के नाम एक चिठ्ठी लिखी: ‘‘कृपया कैनेडियन कम्युनिस्ट पार्टी और अमेरिकी जनता तक यह ख़बर पहुँचा दें कि मैं यहाँ राज़ी-खुशी हूँ। मुझे बस खेद इस बात का है कि मैं और अधिक योगदान करने में असमर्थ हूँ... पिछले दो वर्ष मेरे जीवन के सबसे हर्षपूर्ण और अर्थपूर्ण वर्ष रहे हैं...’’ रात गहरी हो चली थी। चारों तरफ बैठे हुए कामरेडों को देखते हुए कामरेड बैथ्यून ने द्रवित होकर कहा: ‘‘अध्यक्ष माओ को मेरा धन्यवाद कह देना, मैं उनका और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का आभारी हूँ, जिन्होंने मुझे शिक्षा दी। मुझे पूरा विश्वास है कि चीनी जनता अवश्य मुक्त होकर रहेगी। अफ़सोस कि मैं अपनी आँखों से नये चीन को जन्मते नहीं देख सकूँगा!’’ एक डॉक्टर का हाथ पकड़ कर उन्होंने रुक-रुक कर कहा: ‘‘एक चिकित्सा-दल संगठित करना, मोर्चे पर जाना और घायलों की सेवा करना..’’ गीली आँखों से डाक्टरों ने बताया कि हर चीज़ का बन्दोबस्त हो चुका है। आप इत्मीनान से आराम करें। अपना सिर ऊपर उठाते हुए उन्होंने दृढ़ आवाज़ में ये अन्तिम शब्द कहे: ‘‘लड़ते जाओ! प्रशस्त मार्ग पर चलते रहो! क्रान्ति के कार्य को आगे बढ़ाते जाओ!’’ 12 नवम्बर 1939 को तड़के महान अन्तर्राष्ट्रवादी योद्धा कामरेड नारमन बैथ्यून ने चीन के मुक्ति-कार्य के लिये अपना अमूल्य जीवन न्योछावर कर दिया। जब उनकी मृत्यु की ख़बर मोर्चे पर पहुँची, तो सिपाहियों ने बुलन्द आवाज़ में यह नारा लगाया: ‘‘हम डाक्टर बैथ्यून का बदला लेकर रहेंगे!’’ और दुश्मन के अड्डों पर ज़बरदस्त धावा बोल दिया। 21 दिसम्बर 1939 को अध्यक्ष माओ ने एक शानदार लेख ‘नारमन बैथ्यून की स्मृति में’ लिखा, जिसमें चीनी जनता से यह आह्वान किया गया कि वह कामरेड बैथ्यून से सीखे। 1940 में शानशी-छाहाड़-हपे फौजी क्षेत्र में कामरेड बैथ्यून द्वारा निर्मित ‘आर्दश अस्पताल’ का नाम बदल कर ‘बैथ्यून अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति अस्पताल’ रखा गया। 1952 के बसन्त में कामरेड बैथ्यून की भस्मी को शच्याच्वाङ शहर में ‘‘उत्तर चीन शहीद समाधि’’ ले जाया गया। महान अन्तर्राष्ट्रवादी योद्धा कामरेड बैथ्यून सारी दुनिया के लाखों-करोड़ों लोगों के दिलों में हमेशा ज़िन्दा रहेंगे!

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