Wednesday 12 September 2012

लेनिन की कहानी - गिरिजेश


         

विश्व-क्रान्ति के इतिहास में महान लेनिन ने प्रथम समाजवादी राज्य की स्थापना की और धरती के छठवें हिस्से से शोषक वर्गों की सत्ता समाप्त की। सर्वहारा वर्ग की विचारधारा - मार्क्सवाद को एक नयी ऊँचाई तक ले गये, जिससे द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का नाम मार्क्सवाद-लेनिनवाद पड़ गया।
जन्म - 22 अप्रैल 1870, वोल्गा नदी के किनारे सिम्बीस्र्क नगर में, मृत्यु - 21 जनवरी 1924 को गोर्की में, बचपन का नाम ब्लादिमिर इल्यीच उल्यानोव, तीन भाई-तीन बहन, भाइयों में ब्लादिमिर दूसरा, पिता स्कूल इन्स्पेक्टर, गृहशिक्षा के बाद 9 वर्ष की आयु में सिम्बीस्र्क हाईस्कूल में प्रवेश, मेधावी छात्र, स्कूल की अन्तिम परीक्षा में स्वर्ण पदक, पाठ्येतर प्रतिबन्धित क्रान्तिकारी ग्रन्थों के अध्ययन में रुचि। रूस के सम्राट-जार के शासन के विरुद्ध आतंकवादी क्रान्तिकारी संगठन ‘नरोद्नाया वोल्या’ (जनइच्छा) सक्रिय था। 1881 में जार अलेक्जेंडर द्वितीय का क्रान्तिकारियों द्वारा बम से वध, 12 जनवरी 1886 को पिता की मृत्यु, बड़ा भाई अलेक्सान्द्र जार की हत्या के षडयन्त्र के आरोप में पीटर्सबर्गं में गिरफ़्तार और 8 मई 1887 को फाँसी। उसी वर्ष अगस्त में कजान यूनिवर्सिटी में कानून के अध्ययन के लिये प्रवेश, 16 वर्ष की अवस्था में कार्ल माक्र्स की ‘पूँजी’ का अध्ययन, दिसम्बर 1887 में तानाशाही विरोधी छात्रों की सभा और प्रदर्शन में भाग लेने के कारण गिरफ़्तारी - सिपाही ने पूछा, ‘‘नौजवान, तुम दीवार से सिर टकराकर क्यों आफत मोल ले रहे हो?’’ सत्रह वर्ष के ब्लादिमिर ने कहा, ‘‘दीवार है, लेकिन नोना लगी हुई, जरा-सा धक्का देते ही धराशायी हो जायेगी।’’ 
विश्वविद्यालय से निष्कासन, कोकुश्किनों गाँव में अपनी बहन अन्ना के साथ एक वर्ष के लिये नज़रबन्द, 1888 में कजान वापस, समारा नामक नगर में मार्क्सवादी संगठनों में सक्रिय, कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र का रूसी भाषा में अनुवाद और हस्तलिखित प्रति का वितरण, 1891 में चार वर्ष के कानून के पाठ्क्रम को एक ही वर्ष में पीटर्सबर्ग विश्वविद्यालय में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया। मार्च 1892 से समारा में वकालत शुरू, 1894 में राजधानी पीटर्सबर्ग में मज़दूर मुहल्लों में संगठन बनाते समय नादेज्दा क्रुप्स्काया से मुलाकात, जो मज़दूरों की रात्रि-पाठशाला में पढ़ाती थीं और बाद में लेनिन की पत्नी बनीं। 1894 में बाबुश्किन नामक मज़दूर के घर मज़दूरों की माँगों के बारे में पहला पर्चा लिखा, अगले वर्ष बन्दरगाह के मज़दूरों के आन्दोलन के समर्थन में पर्चा लिखा। 1893 में पीटर्सबर्ग में उनका लेख ‘‘बाज़ार का तथाकथित प्रश्न’’ मार्क्सवादी अध्ययन-चक्रों में पढ़ा गया।
नरोद्निक किसानवादी थे। लेनिन को नरोद्निकों के विरुद्ध विचार-संघर्ष चलाना पड़ा, तो उन्होंने ‘‘जनता के मित्र क्या हैं और वे सामाजिक जनवादियों से कैसे लड़ते हैं?’’ नामक पुस्तिका लिखी। उन्होंने बताया कि उदार नरोद्निकों का असली रूप कुलकों अर्थात् धनी किसानों के हितों का समर्थन करना है।
1895 में क्रान्तिकारियों के प्रतिनिधि के रूप में स्विट्जरलैण्ड जाकर ‘‘मज़दूर उद्धारक गुट’’ नामक संगठन के नेता और रूस में मार्क्सवाद का प्रचार शुरू करने वाले प्लेखानोव नाम के क्रान्तिकारी से मुलाकात की। कानूनी मार्क्सवादियों के विरुद्ध भी लेख लिखा, जो फैशन के लिए मार्क्सवाद की चर्चा करते हुए अपनी चमड़ी की हिफ़ाज़त के चक्कर में रहते थे। वास्तव में ये पूँजीवादी बहुरुपिये ही थे।
पहली विदेशयात्रा के पाँच माह के दौरान पेरिस में मार्क्स के दामाद पाल लेफार्ग से मुलाकात की, किन्तु मार्क्स के साथी फ्रेडरिक एंगेल्स की मृत्यु हो गयी और उनसे मिल न सके। रूस वापस आकर राजधानी के विभिन्न मार्क्सवादी गुटों में एकता स्थापित कर ‘मज़दूर वर्ग की मुक्ति संघर्ष लीग’ नामक संगठन बनाया। 20 दिसम्बर 1895 को गिरफ़्तार, 14 महीने तक जेल, जेल से पुस्तकों की पंक्तियों के बीच में दूध की अदृश्य स्याही से लिखे गुप्त सन्देशों को बाहर भेजते, जो गर्म करने पर दिखायी देता था। जेल में सामाजिक जनवादी पार्टी के कार्यक्रम का प्रारूप लिखा। तत्पश्चात् साइबेरिया में तीन वर्ष के लिये निर्वासित, पहले दो महीने क्रास्नोयास्र्क नामक कस्बे में और फिर शुशेन्स्कोए गाँव में, जो ‘शुशा’ नदी के किनारे रेलवे स्टेशन से 300 मील दूर स्तेपी (खुले मैदान) के बीच था। बाद में निर्वासित होकर क्रुप्स्काया भी अपनी माँ के साथ शुशेन्स्कोए गाँव में आ गयीं। लेनिन और क्रुप्स्काया की कोई सन्तान नहीं थी। तीन वर्षों के निर्वासन-काल में उन्होंने तीस पुस्तकें लिखीं। जिनमें ‘‘रूस में पूँजीवाद का विकास’’, रूसी सामाजिक जनवादियों के कर्तव्य’’ और ‘‘हमारी पार्टी के क्रार्यक्रम का मसौदा’’ प्रमुख हैं।
     
जनवरी 1900 में निर्वासन-काल समाप्त होने पर महानगरों में रहने की अनुमति न मिलने पर राजधानी के पास ‘‘प्सकोफ’’ में रहना शुरू किया। देश में क्रान्तिकारी अख़बार निकालना जारशाही पुलिस के कारण असम्भव था। अतः जर्मनी के म्यूनिख शहर से 11 दिसम्बर 1900 को ‘इस्क्रा’ (चिन्गारी) नामक पत्र का अंक निकला। दिसम्बर 1901 से ब्लादिमिर इल्यीच ‘लेनिन’ नाम से लिखने लगे। 1902 में लेनिन की पुस्तक ‘‘क्या करें?’’ प्रकाशित हुई। इसमें पार्टी-निर्माण के लिये आवश्यक कदमों तथा अर्थवाद का विरोध करके राजनीतिक संघर्ष पर जोर देने के बारे में बताया है। 18 माह म्यूनिख में रहने के बाद प्लेखानोव का विरोध होने पर भी पुलिस की नज़रों में आ जाने के कारण ‘इस्क्रा’ को लेकर लेनिन लन्दन आये। 1903 में ‘‘गाँव के गरीबों से’’ नामक पुस्तक और ‘इस्क्रा’ का प्रकाशन दोनों जेनेवा में किया। उसी वर्ष रूसी सामाजिक जनवादी मज़दूर पार्टी की दूसरी बैठक बेल्जियम की राजधानी ‘ब्रसेल्स’ में शुरू तो हुई, मगर पुलिस से बचने के लिये लन्दन जाना पड़ा। पहली कांग्रेस लेनिन के साइबेरिया-निर्वासन के समय मार्च 1898 में ‘‘मिन्स्क’’ में हो चुकी थी। किन्तु विभिन्न गुटों के बीच एकता स्थापित करने में असफल रही थी। तीन सप्ताह से अधिक चली कांग्रेस (महाअधिवेशन) में लेनिन ने 120 बार भाषण दिया। संघर्ष क्रान्तिकारी तथा सुधारवादी कार्य-दिशाओं के बीच था। प्लेखानोव के साथ मतभेद सम्बन्ध-विच्छेद तक गया।
लेनिन के नेतृत्व में क्रान्तिकारी पक्ष का नाम ‘‘बोल्शेविक’’ (बहुमत वाला) और पराजित पक्ष का नाम ‘‘मेन्शेविक’’ (अल्पमत वाला) पड़ा। अक्टूबर, 1903 में रूसी सामाजिक-जनवादी लीग की दूसरी कांग्रेस में मार्तोव, त्रात्स्की आदि मेन्शेविकों का बहुमत था और लेनिन तथा बोल्शेविकों ने इसका बहिष्कार किया। नवम्बर 1903 में ‘इस्क्रा’ के सम्पादक-मण्डल से लेनिन का इस्तीफा। जनवरी 1904 में ‘‘एक कदम आगे, दो कदम पीछे’’ पुस्तक जेनेवा से प्रकाशित की और बोल्शेविक और मेन्शेविक नीतियों का अन्तर समझाया। मेन्शेविक सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व एवं केन्द्रीय पार्टी के अनुशासन के विरोधी थे और निम्न मध्यम वर्ग को पार्टी में प्रोत्साहन देते थे। जुलाई में लेनिन ने अलग से बोल्शेविकों की कान्फ्रेन्स बुलायी। दिसम्बर में ‘‘व्पेयोर्द’’ (अग्रगामी) नामक नया अख़बार आरम्भ किया। 1904 में रूस-जापान-युद्ध में पराजित जारशाही और भी संकटग्रस्त हो गयी। रविवार 9 जनवरी 1905 को ‘गेपन’ नामक पादरी के नेतृत्व में एक लाख से अधिक मज़दूरों का प्रदर्शन जार के शिशिर-प्रसाद के सामने हुआ। इस जुलूस में प्रार्थना-पत्र और ईसा मसीह की तस्वीरें लिये औरतें और बच्चे भी थे। निहत्थी जनता पर जार ने ऐसी गोलीबारी की कि एक हजार से अधिक मज़दूर मारे गये और पाँच हजार से अधिक घायल हुए। यह दिन 'खूनी रविवार' के नाम से कुख्यात हुआ। रूस की पहली क्रान्ति शुरू हो गयी। असन्तोष भड़का। जगह-जगह जुलूस निकाले गये और हड़तालें होने लगीं। जनवरी में ही साढ़े चार लाख मज़दूरों ने हड़तालों में भाग लिया।
वसन्त तक मध्य एशिया, वोल्गा और जार्जिया में किसान-विद्रोह, जून में पोतेम्किन युद्धपोत पर विद्रोह से क्रान्ति में सैनिकों की भागीदारी शुरू। पोलैण्ड, लाटिविया, और साइबेरिया तक विद्रोह फैल गया। घबराकर जार ने ‘द्यूमा’ (संसद) का अधिवेशन बुलाया। बोल्शेविकों ने चुनाव का बहिष्कार किया। अक्टूबर में राष्ट्रव्यापी हड़ताल, दिसम्बर में मास्को के मज़दूरों ने 9 दिन तक जारशाही सेना का सशस्त्र मुकाबला किया।
क्रान्ति के अनुभवों का सार-संकलन करते हुए अप्रैल 1905 में लन्दन में तीसरी कांग्रेस बुलायी गयी। मेन्शेविकों ने इसका बहिष्कार किया। लेनिन ने मई में पार्टी के मुख-पत्र ‘‘प्रोलेतारी’’ (सर्वहारा) का प्रकाशन शुरू किया। मेन्शेविकों के विरुद्ध ‘‘जनवादी क्रान्ति में सामाजिक जनवाद की कार्यनीतियाँ’’ नामक पुस्तक जुलाई में प्रकाशित की। अप्रैल 1906 में स्वीडन की राजधानी स्टाकहोम में चैथी पार्टी-कांग्रेस में मेन्शेविकों को बहुमत। 20 नवम्बर को स्वदेश वापस।
1907 की जनवरी तक 100 से अधिक लेख तथा पुस्तिकाएँ लिखीं। 1907 मई में लन्दन में पार्टी की पाँचवी कांग्रेस में लेनिन के पक्ष की जीत हुई। मेन्शेविकों के अवसरवाद का पर्दाफाश हो गया। अगस्त में जर्मनी के स्टुटगार्ड नगर में हुई दूसरे ‘अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर-संघ’ (इण्टरनेशनल) की कांग्रेस में अवसरवादियों के विरुद्ध संघर्ष। इस कांग्रेस में दो भारतीय प्रतिनिधि अपने तिरंगे झण्डे के साथ मादाम कामा और सरदार सिंह राणा थे। फिनलैण्ड में कुछ दिन रहने के बाद दिसम्बर में वापस जेनेवा। 1908 में मार्क्सवाद के दार्शनिक विरोधियों के जवाब में ‘‘अनुभव सिद्ध आलोचना और भौतिकवाद’’ नामक पुस्तक लिखी, जो मई 1909 में प्रकाशित हुई।
1908 के अन्त में पेरिस में पाँचवी पार्टी-कान्फ्रेन्स, 1910 में दूसरे इण्टरनेशनल की कोपेनहेगेन (डेनमार्क) कांग्रेस में अवसरवादियों का विरोध और ‘‘रबोचेया गजेत’’ (मजदूर गजट) और ‘‘ज्वेज्दा’’ (तारा) नामक कानूनी पत्रिका का प्रकाशन। हड़तालों का सिलसिला फिर शरू - 1911 में एक लाख से अधिक मजदूरों की हड़ताल में भागीदारी। पेरिस के पास लौंगजूम्यों में पार्टी-स्कूल खोला। 1912 में चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग में छठवाँ पार्टी-सम्मेलन, मेन्शेविकों को निकाल दिया गया। 5 मई 1912 को स्तालिन की देखरेख में दैनिक पत्र ‘‘प्रावदा’’ (सत्य) का प्रथम अंक निकला। 14 अप्रैल को साइबेरिया के लेना क्षेत्र की सोने की खानों के मजदूरों पर जारशाही पुलिस की गोलीबारी के विरोध में सारे रूस में जुलूस और हड़तालें, पहली मई की हड़ताल में 4 लाख मजदूर शामिल, ‘प्रावदा’ दो साल में आठ बार सरकार द्वारा बन्द किया गया। जुलाई में लेनिन अगले दो वर्षों के लिये क्राको (पोलैण्ड) आये। चैथी द्यूमा के चुनाव में बोल्शेविकों को छः स्थानों पर विजय। 1914 के पहले छः महीनों में 15 लाख मजदूरों ने हड़ताल की। 
अगस्त 1914 में प्रथम साम्राज्यवादी विश्व-युद्ध शरू। पोलैण्ड के पोरोनिनों नामक गाँव में लेनिन को रूसी होने के कारण आस्ट्रिया की पुलिस ने गिरफ्तार किया, किन्तु जार विरोधी होने के कारण 10 दिन में छोड़ दिया, तो स्विटजरलैण्ड चले गये। पहले राजधानी बर्न, फिर ज्चूरिख में अप्रैल 1917 में रूस लौटने तक निवास किया।
प्रथम विश्व-युद्ध में इंग्लैण्ड, फ्रांस और रूस एक गुट में थे, और दूसरे में थे जर्मनी और आस्ट्रिया, जो उपनिवेशों का फिर से बँटवारा करना चाहते थे। लेनिन ने विश्व-युद्ध को दुनिया के बाजार की लूट-खसोट का पूँजीवादी-साम्राज्यवादी युद्ध कहा। 1914 के सितम्बर में साम्राज्यवादी युद्ध पर केन्द्रीय कमेटी का ‘‘युद्ध और रूसी सामाजिक जनवादी’’ नामक घोषणापत्र तथा ‘‘युद्ध पर निबन्ध’’ लिखा और आह्वान किया - ‘‘साम्राज्यवादी युद्ध को पूँजीपतियों और जमीदारों के विरुद्ध युद्ध में बदल दो!’’ पूँजीवादी पितृभूमि की रक्षा के नारे के विरुद्ध नारा दिया - ‘‘अपनी साम्राज्यवादी सरकार को हराओ!’’

1914 में ‘सोशल डेमोक्रेट’ का प्रकाशन। छः बोल्शेविक संसद-सदस्यों में से एक पुलिस का जासूस और शेष पाँच नवम्बर 1914 में गिरफ्तार कर लिये गये। 1914-15 ‘‘संयुक्त राज्य अमेरिका में कृषि’’ नामक पुस्तक, 1915 में ‘‘कम्युनिस्ट’’ 1916 में ‘‘समाजवादी जनवादी पत्रिका’’ का प्रकाशन, तथा जून 1916 में ‘‘साम्राज्यवाद - पूँजीवाद की चरम अवस्था’’ नामक पुस्तक लिखा और बताया कि एक देश में भी समाजवादी क्रान्ति का होना सम्भव है। 

युद्ध से जर्जर रूस 1917 में असन्तुष्ट था। जुलूस एवं हड़तालें जारी थीं।  27 फरवरी को पेत्रोग्राद की फौजों ने मजदूरों पर गोली चलाने से इन्कार कर दिया और साठ हजार सैनिक भी विद्रोह में शामिल हो गये। मजदूरों और सिपाहियों ने जार के मन्त्रियों और जनरलों को गिरफ्तार कर लिया और क्रान्तिकारियों को जेलों से रिहा कर दिया। रूस में फरवरी की पूँजीवादी-जनवादी क्रान्ति विजयी हुई। सत्ता केरेन्स्की के नेतृत्व में ‘‘अस्थायी क्रान्तिकारी सरकार’’ के हाथ में आ गयी।
2 मार्च को ‘‘ज्यूरिख’’ में लेनिन को क्रान्ति की सफलता का समाचार मिला। 9 अप्रैल को एक जर्मन रेल से बर्न से चलकर स्वीडन के स्टाकहोम नगर में और वहाँ से फिनलैड होते हुए 16 अप्रैल को बेलो-ओस्त्रोव स्टेशन पर पहुँचे, तो स्तालिन के नेतृत्व में मजदूरों ने कन्धे पर उठाकर उनका भव्य स्वागत किया। 16 अप्रैल को पेत्रोग्राद पहुँचे। स्टेशन के बाहर हाते में एक बख्तरबन्द मोटर पर चढ़कर ‘‘समाजवादी क्रान्ति-जिन्दाबाद!’’ का नारा दिया।  17 अप्रैल को क्रान्ति के नेताओं की बैठक में ‘अप्रैल थीसिस’ प्रस्तुत की और बताया कि क्रान्ति प्रथम मंजिल से दूसरी मंजिल में संक्रमण कर रही है। प्रथम पूँजीवादी-जनवादी मंजिल में सर्वहारा की अपर्याप्त वर्ग-चेतना तथा संगठन के कारण सत्ता पूँजीपतियों के हाथ में चली गयी। अब अगली समाजवादी मंजिल में सत्ता सर्वहारा और गरीब किसानों के हाथ में आयेगी, और नारा दिया - ‘‘सारी सत्ता सोवियतों (पंचायतों) को दो!’’ अब लेनिन के प्रस्ताव पर बोल्शेविक पार्टी का नाम कम्युनिस्ट पार्टी कर दिया गया।  23 जून को कांग्रेस के अधिवेशन के समय जुलूस की तैयारी थी। किन्तु 22 जून को ही विरोधियों के दबाव में जुलूस रोकना पड़ा। समय से कुछ ही घण्टे पहले जुलूस को रातों-रात रोक दिया गया। एक जुलाई को पाँच लाख मजदूर और सिपाही बोल्शेविकों के झण्डे के नीचे जुलूस में निकले। 16 और 17 जुलाई को फिर जुलूस निकले। 17 जुलाई को ‘‘प्रावदा’’ के सम्पादकीय कार्यालय पर हमला करके तहस-नहस करने वाली अस्थायी सरकार ने लेनिन की गिरफ्तार पर भारी ईनाम घोषित किया। लेनिन छिपते-बचते रहे।  24 जुलाई को अपनी दाढ़ी-मूँछ साफ कर दीं और एक झील के किनारे झोपड़ी में रहने लगे। इस बीच उन्होंने 60 लेख लिखे। अगस्त-सितम्बर में ‘राज्य-सत्ता और क्रान्ति’ नामक प्रसिद्ध पुस्तक लिखी। 27 सितम्बर को ‘‘बोल्शेविकों को सत्ता अपने हाथ में लेनी होगी’’ और ‘‘मार्क्सवाद और विद्रोह’’ नामक लेख लिखे।
महाक्रान्तिः- 
12 अक्टूबर को केन्द्रीय कमेटी को पत्र लिखा - ‘‘देरी का अर्थ है मृत्यु’’। 20 अक्टूबर को वापस राजधानी, 6 नवम्बर को कामेनेव और जिनोवियेव नामक गद्दारों की कृपा से विद्रोह की तैयारी की खबर पाकर अस्थायी सरकार ने क्रान्ति के मुख्यालय ‘स्मोल्नी’ पर हमला किया, किन्तु क्रान्तिकारियों ने उन्हें मार भगाया। अस्थायी सरकार ने बोल्शेविक अखबार ‘रबोची पुत’ (मजदूर-पथ) को बन्द करना चाहा, मगर वह फिर भी निकला। विद्रोह शुरू हो गया। 6 नवम्बर को लेनिन स्मोल्नी पहुँचे। इसी रात शिशिर-प्रसाद पर धावा करके क्रान्तिकारियों ने अस्थायी सरकार के मंत्रियों को गिरफ्तार कर लिया। किन्तु उसका मुखिया केरेन्सकी भाग निकला। 7 नवम्बर को सारा पेत्रोग्राद विद्रोही सर्वहारा के हाथ में था। महान सर्वहारा समाजवादी क्रान्ति विजयिनी हो चुकी थी। सोवियत सरकार का गठन हुआ। सामाजवादी सरकार ने तत्काल युद्ध बन्द करने का पहला आदेश दिया और दूसरा आदेश दे कर बिना किसी मुआवजे के सारी जमीन का राष्ट्रीयकरण करके किसानों को खेतों का स्वामित्व दे दिया गया। पूँजीवादी राज्य की सारी मशीनरी ध्वस्त कर दी गयी। क्रान्ति-विरोधी संविधान-सभा को भंग कर दिया गया। जातीय उत्पीड़न, नारी असमानता तथा ईसाई गिरिजाघरों के विशेषाधिकारों को समाप्त कर दिया गया। उत्पादन और वितरण का नियन्त्रण मजदूरों के हाथ में आ गया। बैंकों, रेलों व उद्योगों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।  
28 जनवरी 1918 को लेनिन ने मजदूर-किसान लाल-सेना के गठन का आदेश दिया। 18 फरवरी 1918 को जर्मनों ने सोवियत-संघ पर हमला कर दिया, 23 फरवरी 1918 को जर्मनों को लाल सेना ने परास्त कर दिया। इसी दिन ‘लाल सेना’ का जन्म दिन माना जाता रहा। इसके बाद मार्च के अन्त में जर्मनी के साथ अपमानजनक ब्रेस्त-लितोव्स्क शान्ति-सन्धि हुई। अब मास्को को नयी राजधानी और क्रेमलिन को सरकार का मुख्यालय बनाया गया। राष्ट्रीयताओं को अलग होने तक आत्मनिर्णय का अधिकार दिया गया। जिससे जारशाही रूस के दो उपनिवेश फिनलैण्ड और यूक्रेन स्वतन्त्र राज्य बन गये। 1918 के मई-जून के अकाल के दौरान दक्षिण रूस से खाद्य-आपूर्ति की गयी। 30 अगस्त 1918 को मास्को के बसमन्नी मुहल्ले के कमकरों की सभा में भाषण के बाद अपनी मोटर की ओर जाते समय फैन्नी कप्लान नामक समाजवादी क्रान्तिकारी आतंकवादी महिला ने लेनिन को दो गोलियाँ मारीं। एक माह तक मौत से जूझने के पश्चात् स्वास्थ्य-लाभ हुआ। नवम्बर 1918 में राजशाही का अन्त हो गया, तो सोवियत-संघ को जर्मन खतरे से मुक्ति मिली। 1918 के दिसम्बर में ‘‘सर्वहारा क्रान्ति और गद्दार काउत्स्की’’ पुस्तक प्रकाशित हुई।
2-6 मार्च 1918 को मास्को में तीस देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों की तीसरे कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल की पहली कांग्रेस क्रेमलिन में हुई। 1918 में यूक्रेन में क्रान्ति हुई और वह वापस सोवियत जनतन्त्र में शामिल हो गया। जमीन के कब्जे को लेकर गाँव-गाँव में तीखा वर्ग-संघर्ष हुआ। धनी कुलक किसानों और मठाधीशों के विरोध को कुचलना पड़ा। अमेरिका, फ्रांस, इंग्लैण्ड, जापान आदि 14 पूँजीवादी साम्राज्यवादी देशों की सेनाओं ने मिलकर 1919 की गर्मियों और शरद में जारशाही जनरलों - कोलचक, देनिकिन, यूदनिच की सहायता से तीन चैथाई रूस पर कब्जा कर लिया, तो लेनिन ने अनिवार्य सैनिक सेवा का नियम लागू किया। अप्रैल 1920 में पोलैण्ड के रेंगल ने हमला किया। 1920 के अन्त तक सभी विदेशी सेनाओं को परास्त करके भगा दिया गया। 1920 के जून में ‘‘उग्रवादी कम्युनिज्म एक बचकाना मर्ज’’ पुस्तक में लेनिन ने अतिवामपंथी खतरे से सजग किया। मार्च 1922 पार्टी की 11 वीं कांग्रेस में लेनिन की अन्तिम भागीदारी। 

आजीवन संघर्ष, कठोर परिश्रम, सतत अभाव और भारी काम का दबाव स्वास्थ्य को चाटता चला गया। लेनिन के प्रस्ताव पर अब स्तालिन को पार्टी का महासचिव बना दिया गया। मई में लकवे का पहला हमला, शरीर का दाहिना भाग प्रभावित। नवम्बर में, इन्टरनेशनल की चौथी कांग्रेस में भागीदारी, 20 नवम्बर को मास्को सोवियत की बैठक में अन्तिम सार्वजनिक भाषण। 12 दिसम्बर को अन्तिम बार क्रेमलिन स्थित अपने कार्यालय में गये। स्वास्थ्य फिर टूट गया। पूर्ण विश्राम की चिकित्सकीय सलाह के चलते मास्को के निकट गोर्की नामक स्थान पर कुछ लेख बोल कर लिखवाये। अक्टूबर में अन्तिम बार मास्को आये। 21 जनवरी 1924 को गोर्की में सांय 6 बजकर 50 मिनट पर बेहोशी और अन्ततः दुनिया को बदल देने वाले ने दुनिया को अलविदा कह दिया। 23 जनवरी को लेनिन के शरीर को मास्को लाकर 27 जनवरी को मास्को के लाल चैक में संलेपित करके समाधि-गृह में रख दिया गया, जहाँ उन्हें श्रद्धांजलि देने वाले पंक्तिबद्ध होकर उनका दर्शन करते रहे हैं। गद्दारों, संशोधनवादियों तथा साम्राज्यवादियों के कुटिल षडयन्त्रों के चलते महान लेनिन का सोवियत-संघ अब टूट चुका है। किन्तु लेनिनवाद की वैज्ञानिक विचार-धारा की मशाल इतिहास बनाने वाले वीरों को सदा रास्ता दिखाती रहेगी। उसे बुझाना दुनिया के लुटेरों के बूते की बात नहीं।
मार्क्सवाद-लेनिनवाद! जिन्दाबाद - जिन्दाबाद !!

(राहुल सांकृत्यायन की कृति ‘लेनिन की जीवनी’ की संक्षिप्त प्रस्तुति)

आजादी के फूल - (लेनिन की कविता का अंश)
............पैरों से रौंदे हुए आजादी के फूल/ आज नष्ट हो गये हैं/ अंधेरे के स्वामी/रोशनी की दुनिया का खौफ देखकर/खुश हैं/ मगर उस फूल के फल ने/पनाह ली जन्म देने वाली मिट्टी में/माँ के गर्भ में/आँखों से ओझल गहरे रहस्य में/ विचित्र उस कण ने अपने को जिला रखा है। मिट्टी उसे ताकत देगी, मिट्टी उसे गर्मी देगी/ उगेगा वह एक नया जन्म लेकर/ एक नयी आजादी का बीज वह लयेगा/ फाड़ डालेगा बर्फ की चादर वह विशाल वृक्ष/ लाल पत्तों को फैलाकर वह उठेगा/ दुनिया को रोशन करेगा/ सारी दुनिया की जनता को / अपनी छाँह में इकट्ठा करेगा...............
    


2 comments:

  1. so why you not oppose terrorism???it is also anti human...you just use great comrade name to justified your anti human activity ....

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    1. please read this article and i am sure that you will get your answer. thanks for your comment and sharp question.
      http://young-azamgarh.blogspot.in/2013_03_01_archive.html
      नक्सलवाद का विरोध क्यों? - गिरिजेश

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