Friday 14 September 2012

भ्रष्टाचार विरोधी ‘आन्दोलन’ : कुछ तथ्य, कुछ सवाल -अशोक कुमार पाण्डेय



अशोक कुमार पाण्डेय का यह महत्वपूर्ण लेख अवश्य ही पढ़िए.
भ्रष्टाचार विरोधी ‘आन्दोलन’ : कुछ तथ्य, कुछ सवाल
(अन्ना आन्दोलन की शुरुआत में मैंने एक लेख लिखा था, आज जब अन्ना आन्दोलन अपने मूल रूप में बिखर चुका है, मैंने इस आलेख में अन्ना-रामदेव आंदोलनों का एक मूल्यांकन करने का प्रयास किया है. आलेख प्रिंट में आ चुका है, और अब यहाँ ब्लॉग के पाठकों के लिए )

पिछले दिनों एक चैनल पर बहस करते हुए नई दुनिया के सम्पादक श्रवण गर्ग ने एक मजेदार बात कही- ‘चौदह महीने पहले रामदेव राजनीतिक आन्दोलन की बात कर रहे थे और अन्ना सामाजिक आन्दोलन की, अब अन्ना राजनीतिक आन्दोलन की बात कर रहे हैं और रामदेव सामाजिक आन्दोलन की.’ पिछले दो सालों में जंतर-मंतर से रामलीला मैदान वाया बम्बई बहुत कुछ ऐसा हुआ है जो सिर्फ मजेदार नहीं. ‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन’ के बैनर तले सिविल सोसायटी के नाम पर शुरू हुआ एक ‘आन्दोलन’ जिस तरह से कदम दर कदम चलते हुए लगातार भटकाव, बिखराव और विभ्रम की दशा को प्राप्त हुआ है और इसे लेकर मीडिया, बुद्धिजीवियों और आम जनता में जो बहस छिड़ी वह हमारे समय की एक विलक्षण घटना है. लगभग इसी के समानांतर रामदेव के योगगुरु से ‘काला धन’ विरोधी क्रूसेडर बनने की हास्यास्पद कोशिश और सत्ता वर्ग के साथ उनके बनते-बिगड़ते रिश्ते भी हैं, और लगातार गहराता आर्थिक संकट भी, चुनाव वगैरह तो खैर होते रहते हैं और कुर्सी-कुर्सी का खेल भी. आज जब अन्ना की ‘टीम’ भंग हो चुकी है, आन्दोलन जैसा जो भी कुछ था वह बिखर चुका है, रामदेव एक स्पष्ट प्रहसन बन गए हैं और काला धन तथा भ्रष्टाचार अब भी अपनी पूरी क्रूरता और शक्ति के साथ हमारी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की जड़ों में शामिल हैं तो इस पूरे दौर की उपलब्धियों और विफलताओं का ‘क्या खोया, क्या पाया’ की नजर से देखा जाय.

काला धन या भ्रष्टाचार का मुद्दा नया नहीं है. आजादी के आरम्भिक सालों के सुरूर के उतरने के साथ ही जनता के सामने यह साफ़ होने लगा था कि यह आजादी दरअसल, गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेजों का सत्ताभिषेक है. आजादी की पूरी लड़ाई के दौरान अंग्रेजों के भक्त रहे राजे-महाराजे-सामंत-पूंजीपति आजादी के बाद भी सत्ता वर्ग में आसानी से शामिल हो गए और साथ ही एक ऐसा राजनीतिक वर्ग भी उपजा जिसके लिए राजनीति एक लाभकारी धंधा थी. संविधान निजी संपत्ति की मान्यता और उसकी रक्षा का आश्वासन देकर बराबरी की पूरी अवधारणा को अपने आरम्भ से ही नकार चुका था और नियंत्रण वाली पब्लिक सेक्टर अर्थव्यवस्था के ‘राजकीय पूंजीवाद’ को ‘समाजवाद’ का नाम देकर जिस तरह पूंजीपतियों को फलने-फूलने का अवसर दिया गया उसने भ्रम चाहे जितने पैदा किये हों लेकिन असल में वह देश के भीतर लगातार अमीर-गरीब की खाई को बढाती गयी. सत्ता के साथ अपनी नजदीकियों का फायदा उठाते हुए पूंजीपतियों ने कर बचाने की नई-नई तरकीबें निकालीं और इस तरह बचाया हुआ ‘काला धन’ देश के भीतर ही नहीं बाहर भी रखने की कई जुगतें हुईं, उसकी बंदरबांट से नेता, सरकारी अधिकारी और बिचौलिए लगातार और समृद्ध होते चले गए. नियंत्रण की पूरी व्यवस्था में काला धन इस तरह से लगातार बढ़ता गया और इसके प्रतिउत्पाद के रूप में गरीबी, बेरोज़गारी और एक बड़े जनसमूह की लगातार वंचना. प्रातिनिधिक लोकतंत्र की एक व्यक्ति एक वोट की ऊपरी तौर पर बराबर लगने वाली व्यवस्था भी भयावह सामाजिक-आर्थिक गैर-बराबरी के चलते लगातार धनाढ्य और प्रभावशाली लोगों के पक्ष में झुकती चली गयी. जाहिर था कि जनता के बीच असंतोष पनपता. वह पनपा भी और अलग-अलग रूपों में अलग-अलग जगह सामने आया. साठ के दशक के उत्तरार्ध में नक्सलवादी आन्दोलन और सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ आन्दोलन इसी असंतोष की दो प्रतिनिधि अभिव्यक्तियाँ थीं. दोनों ही आन्दोलन पूरी तरह से राजनीतिक आन्दोलन थे और दोनों का ही उद्देश्य सत्ता और व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन लाना था. नक्सलवादी आन्दोलन अपनी हिंसक अभिव्यक्ति के साथ लम्बे समय तक उपस्थित रहा और आज भी है. ‘नव जनवादी क्रान्ति’ के अपने अंतिम लक्ष्य के साथ इसका सीधा उद्देश्य शोषित-पीड़ित जन को सत्ता के शीर्ष पर पहुंचना और सर्वहारा का अनन्य शासन स्थापित करना था. आन्दोलन के विस्तार में जाने की न तो यहाँ ज़रुरत है और न ही स्थान, लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि अपने समय में इसने जनता के एक विशाल हिस्से को ही नहीं बुद्धिजीवियों और कलाकारों के एक बड़े हिस्से को भी आकर्षित किया और सत्ता के बर्बर दमन के बावजूद लम्बे समय तक प्रभावी रहा. अपने मूल में यह व्यवस्था विरोधी आन्दोलन था जिसमें संविधान का निषेध था. यह किसी एक पार्टी की सत्ता को तब्दील करने के लिए नहीं बल्कि पूंजीवादी सत्ता व्यवस्था को ही उखाड़ फेंकने के उद्देश्य से शुरू किया गया आन्दोलन था. सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन भी अपने प्रभाव में अखिल भारतीय था लेकिन यह व्यवस्था विरोधी आन्दोलन नहीं था. कांग्रेस की सत्ता से बेदखली के बाद जिस तरह की शासन-व्यवस्था के निर्माण का उद्देश्य लेकर यह चला था वह इसी संविधान के तहत आर्थिक नीतियों में परिवर्तन द्वारा एक अधिक समतामूलक समाज की स्थापना था. निजी सम्पति के निषेध या क्रांतिकारी भूमि सुधारों के लिए इसमें कोई जगह नहीं थी, फिर संघ से लेकर वाम के एक धड़े को साथ लेकर जो भानुमती का कुनबा बनाया गया था, उसने और ज्यादा भ्रम की स्थिति बना दी. लेकिन इन सबके बावजूद यह एक प्रभावी राजनीतिक जनांदोलन था, जिसने अपने समय में देश की जनता को आंदोलित किया और अंततः संवैधानिक चुनावों के ही माध्यम से कांग्रेस की सरकार को शिकस्त देने में कामयाब रहा. देखा जाय तो यह आन्दोलन भी शुरू भ्रष्टाचार, मंहगाई और काले धन जैसे मुद्दों पर ही हुआ था और इसीलिए जनता की उम्मीदें इसकी सत्ता में स्थापना के बाद इन सब की मुक्ति से जुड़ी थीं. लेकिन यहाँ यह भी गौर करना होगा कि पूरे संघर्ष को जाने-अनजाने में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था (जो उन चीजों के मूल में थी )के खिलाफ केन्द्रित करने की जगह एक पार्टी और एक नेता के खिलाफ आन्दोलन में तब्दील कर दिया गया, जो तत्कालीन परिस्थितियों में एक रणनीति के रूप में भले ठीक हो, लेकिन दीर्घकाल में हुआ यह कि ‘कांग्रेस विरोध’ ही इसका मूल नारा बन गया और जनसंघ जैसे घोषित रूप से दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियों के समर्थक इसकी सरकार का हिस्सा बने. एक स्वप्न के साथ शुरू हुए इस आन्दोलन का हश्र एक आपदा में हुआ और अपने तीन साल के शासनकाल में यह न केवल खंड-खंड हो गया बल्कि ठीक उसके बाद के चुनाव में कांग्रेस ‘गरीबी हटाओ’ जैसे नारे के साथ सत्ता में आने में सफल हुई. जनता का यह मोहभंग स्वाधीन भारत के इतिहास का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है. इस पड़ाव के आगे से देश में आर्थिक उदारवाद के सफ़र का काल शुरू होता है. इसके आर्थिक और वैश्विक कारणों के ज़िक्र से पहले यहाँ यह बता देना अधिक समीचीन है कि इसके लिए आवश्यक माहौल उपलब्ध कराने में इन आन्दोलनों की विफलता और सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन की कोख से निकले राजनेताओं के व्यवहार और लगभग तीन साल के शासन के प्रयोग दौरान अपनी घोषणाओं के विपरीत आचरण से उपजी निराशा से बने निष्क्रियता के माहौल का भी बड़ा योगदान रहा. जिस उत्साह और उर्जा के साथ सारा देश कांग्रेस के लम्बे शासन में राजकीय पूंजीवाद से उपजे गरीबी, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, गैर बराबरी के खिलाफ उठ खड़ा हुआ था वह इस आन्दोलन के हश्र को देखने के बाद एक नकारात्मक चुप्पी और विकल्पहीनता के स्वीकार में बदल गयी. जो नेता और जो सरकार देश की सारी समस्याओं की और जो कुछ बुरा है उसका प्रतीक बन गयीं थी उनका तीन साल बाद ही बहुमत से सत्ता में आना इसकी तस्दीक करता है. 1984 में इंदिरा गांधी की मृत्यु और उसके बाद सिखों के खिलाफ भयावह और शर्मनाक दंगों के बावजूद राजीव गांधी का प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आना नियंत्रण वाली राजकीय पूंजीवाद की पब्लिक सेक्टर अर्थव्यवस्था से खुली अर्थव्यवस्था की और संक्रमण के लिए बेहद अनुकूल था. विपक्ष की लगभग अनुपस्थिति, देश में आन्दोलनों के बिखराव, संसदीय वामपंथ के विभ्रम, समाजवादी आन्दोलन का अनंत टुकड़ों में बंटना व विचार के स्तर भयंकर भटकाव का शिकार होना, यह सब वे अनुकूल स्थितियां हैं जिनमें राजकीय पूंजीवाद की विफलताओं को ‘समाजवाद’ की विफलता बताकर नई आर्थिक नीतियों का रास्ता साफ़ किया गया. ईक्कीसवीं सदी के स्वप्न के नाम पर जो नीतियाँ लागू की गयीं वे असल में भविष्य में लागू होने वाली नई आर्थिक नीतियों की ही पूर्वपीठिका थीं.

नब्बे के दशक में सोवियत संघ के बिखराव और अमेरिका के एक ध्रुवीय व्यवस्था के रूप में उभार के साथ यह प्रक्रिया स्वाभाविक रूप से तेज़ हुई और देश में ‘उदारवाद’ के नाम से ‘वाशिंगटन आम राय’ के रूप में जाने जाने वाली ‘संरचनात्मक संयोजन’ की नीतियाँ बेरोकटोक लागू हुईं. जैसा कि मैंने पहले कहा, पब्लिक सेक्टर की नीतियों की विफलता को ‘समाजवाद’ की विफलता बता कर प्रचारित किया गया और सोवियत संघ के बिखरने से इसे जोड़कर समाजवाद को अतीत की कोई चीज बताने में सारा मीडिया, राजनीतिक वर्ग और इसके समर्थक बुद्धिजीवियों ने रात-दिन एक कर दिए. नए-नए सामानों से भरा बाज़ार, अकल्पनीय तनख्वाहों वाली नौकरियां और आँखे चुंधिया देने वाली चमक-दमक के बीच इस ‘नई आर्थिक नीति’ के निजीकरण-उदारीकरण को हर मर्ज के नुस्खे की तरह पेश किया गया. विकास की एक नई अवधारणा पेश की गयी जिसमें पूंजीपतियों के लाभ में बढ़ोत्तरी को ही विकास का इकलौता सूचक मान लिया गया और कहा गया कि इसमें से ही कुछ बूंदे टपक कर ग़रीबों तक पहुंचेंगी और उनका भी उद्धार होगा. जनता के पैसे से खड़ी की गयी पब्लिक सेक्टर की अकूत सम्पदा औने-पौने भाव में पूंजीपतियों को सौंप दी गयी, विदेशी पूंजी के लिए उनकी शर्तों पर दरवाजे खोल दिए गए, देश भर में जमीनों की लूट शुरू हुई जिसमें किसानों की जमीनों को सस्ते मुआवजे के बदले सरकारों ने कब्जा कर पूंजीपतियों को सौंप दीं, उन्हें मुनाफे की सहूलियत के लिए श्रम कानूनों के नाखून उखाड़ लिए गए, पूंजीपतियों को करों में छूट दी गयी और बेशुमार सब्सीडियाँ बांटी गयीं जबकि जनता को दी जाने वाली तमाम सब्सीडियाँ ख़त्म कर दी गयीं, स्वास्थ्य-शिक्षा जैसे मदों पर होने वाले खर्च में कटौती की गयी, खनिजों की लूट के लिए आदिवासियों को विस्थापित किया गया, कृषि के क्षेत्र में भी आयात प्रतिबंधों को ख़त्म कर विदेशी पूंजी के लिए रास्ते खोले गए और समूची अर्थव्यवस्था को पूंजीपतियों के शोषण के लिए एक विशाल अभ्यारण्य में तब्दील कर दिया गया. सरकारें बदलीं लेकिन ये नीतियाँ बदस्तूर जारी रहीं. आरंभिक दौर में जनता ने खुशहाली की बड़े धीरज से प्रतीक्षा की. साथ ही, बेरोजगारी से बुरी तरह जूझ रही अर्थव्यवस्था में इन नई कंपनियों ने कुछ नए तरह के असुरक्षित किन्तु ऊँची तनख्वाहों वाले रोजगार भी पैदा किये जिसका लाभ शहरी मध्यवर्ग के एक हिस्से को मिले भी (यहाँ यह जिक्र भी ज़रूरी होगा कि ठीक इसी दौर में सुरक्षित रोजगारों में भारी कमी भी आई, सरकारी नौकरियों में भारी संख्या में कटौती हुई और ठेके पर नौकरियाँ देने का चलन भी शुरू हुआ). लेकिन समय जैसे-जैसे बीतता गया, यह तिलिस्म टूटना शुरू हुआ. विदर्भ में कपास के क्षेत्र में आयात प्रतिबन्ध कम किये जाने का फल यह हुआ कि भारी सब्सीडी पाने वाले अमेरिकी किसानों के सस्ते कपास ने भारतीय किसानों को बर्बाद कर दिया और तबसे शुरू हुआ आत्महत्या का सिलसिला बदस्तूर ज़ारी है. जमीनों की लूट और कृषि विरोधी नीतियों ने ग्रामीणों के बड़े हिस्से को छोटे तथा मध्यम किसान से भूमिहीन मजदूरों में तब्दील कर दिया और शहरों में भी बड़ा हिस्सा इस विकास की चकाचौंध के बीच लगातार बदहाली की ओर बढ़ा. फिर आई मंदी ने कोढ़ में खाज का काम किया और हिन्दुस्तान ही नहीं, दुनिया भर में पहले से ही बदहाल लोगों की ज़िन्दगी और बदहाल हुई. लेकिन पूंजीपतियों के प्रति प्रतिबद्ध सरकारों ने जहां इससे निबटने के लिए उन्हें फिर और अधिक सब्सीडी दी वहीँ बदहाल अवाम को देने के लिए उनके पास कुछ नहीं था.

ज़ाहिर है कि ऐसे में जनता का आक्रोश फूटता. दुनिया भर में यह हुआ. योरप के अनेक देशों में आन्दोलन हुए, सरकारें बदलीं, मिस्र सहित अर्ब देशों में में जो कुछ हुआ उसके पीछे भी इन नीतियों से आई तबाही से उपजे असंतोष की बड़ी भूमिका थी, याद रखिये कि ट्यूनीशिया के आंदोलन के दौरान वहां के अर्थशास्त्री स्ट्रास काह्न ने कहा था - ‘ट्यूनीशिया की जनता अब ‘विश्व अर्थव्यवस्था की आज्ञाकारी शिष्य बन कर और नहीं रह सकती। इस प्रक्रिया ने उसे भूखों मार दिया है।’. भारत में सेज के खिलाफ देश के तमाम हिस्सों में उभरे किसान आन्दोलन, पास्को के खिलाफ उडीसा में जारी आन्दोलन, आदिवासियों का लगातार प्रतिरोध, छात्रों-मजदूरों के आन्दोलन तेज़ी से उभरे. इसी दौर में माओवादी हिंसक आन्दोलन की धार भी और तीखी हुई. लगातार वंचना की ओर धकेले जा रहे आदिवासियों का सहयोग पा यह आन्दोलन झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे इलाकों में विस्तारित हुआ और चाहे वह केंद्र की सरकार हो या राज्यों की सरकारें, सभी ने इनके प्रति दमनकारी रुख अपनाया.

संसाधनों की इस लूट, सब्सिडी और करों में छूट की रेवड़ियों और पब्लिक सेक्टर की बंदरबांट में जाहिर था कि सत्ताधारी वर्ग, देशी-विदेशी पूंजीपति और दलालों के बीच अपने-अपने हिस्से की लूट मचती, नियमों से खिलवाड़ कर लाभ को अधिकतम करने की जुगत भिड़ाई जाती और पूंजी के प्रचालन के लिए सीमाहीन हो गयी दुनिया में पूंजी उस हिस्से में पहुंचाई जाती जहां वह सबसे सुरक्षित और सबसे लाभदाई हो. ज़ाहिर है, राजकीय पूंजीवाद में अगर भ्रष्टाचार की गुंजाइश एक रूप में उपलब्ध थी तो इस नई मुक्त अर्थव्यवस्था वाले पूंजीवाद में इसके लिए और अधिक अवसर उपलब्ध थे. इनका भरपूर लाभ उठाया गया, वहीं दूसरी ओर कस्टम-लाइसेंस राज की अभ्यस्त सरकारी मशीनरी का भ्रष्टाचार और काम करने का अंदाज तेज गति से भागते पूंजीपतियों और इसकी चाकरी से अमीर हुए नव-धनाढ्य वर्ग के लिए खटकने वाली एक बड़ी चीज थी. इसके बरक्स अपने बेईमान मालिकों की ‘पूरी ईमानदारी’ से सेवा करने वाले निजी क्षेत्र के ‘एक्जीक्यूटिव्स’ को माडल की तरह पेश किया गया और राजनीति के नकार के लिए राजनीतिक कार्यकर्ताओं की जगह कारपोरेट पूंजी से समाज सेवा करने वाले एन जी ओ कर्मियों को. ये अपनी वेश भूषा, भाषा और ऊपर से दिखने वाली हर चीज में लगभग राजनीतिक कार्यकर्ताओं जैसे ही थे, बस फर्क इतना कि ये कारपोरेटों के एजेंडे को पूरी ईमानदारी से पालित करते हुए पूंजीवाद के घिनौने चेहरे पर रूमानी नकाब लगाने का काम कर रहे थे. इस मुद्दे पर विस्तार से बात फिर कभी. अभी थोड़ा उन राजनीतिक परिस्थितियों पर जो इस परिदृश्य का ज़रूरी हिस्सा बनती हैं.

अस्सी के दशक के बाद से ही ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ आन्दोलन का इकलौता बड़ा प्रभाव सामाजिक न्याय के मसले का राजनीति के क्षेत्र में बढ़ता दखल था. आंबेडकरवादी राजनीति के विस्तार के साथ इसे जोड़ कर देखें तो नब्बे का दशक बीतते-बीतते एलीट सवर्ण जातियां राजनीति में अपना प्रभुत्व खो रही थीं. वी पी सिंह के जमाने में लागू मंडल कमीशन की रिपोर्ट्स के दौरान हुए आरक्षण विरोधी आन्दोलन सवर्ण जातियों के अंतिम हताश प्रयास थे. उसके तुरत बाद से हम देखते हैं कि उत्तर भारत के राज्यों में भी (दक्षिण के राज्यों में पहले ही पेरियार-आंबेडकरवादी आन्दोलन बड़ी ताकत से उभर चुके थे तथा वामपंथी आन्दोलन ने भी ब्राह्मणवाद पर तीखा प्रहार किया था) राजनीति में पिछड़ी और दलित जातियों के नेताओं का प्रभाव बढ़ा. आप देखेंगे कि उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार सहित अनेक राज्यों में न केवल मुख्यमंत्री बल्कि विरोधी दल के नेता भी अधिकाँश गैर सवर्ण जातियों से ही हैं. ज़ाहिर है, लम्बे समय से सत्ता में रहे सवर्ण समाज में इससे खलबली मचती. मीडिया, जहां आज भी सवर्णों की बहुसंख्या है, इस अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम बन कर सामने आया. इन नेताओं को उनके अकुलीन बोली-व्यवहार, रूप-रंग, भाषा ज्ञान, अंग्रेजी के उच्चारण जैसी चीजों के बहाने मजाक का पात्र ही नहीं बनाया गया बल्कि जान-बूझकर उन्हें बार-बार अपमानित किया गया. साथ ही सत्ता में आया यह तबका आया तो जनसंघर्षों से था, लेकिन कालान्तर में पूंजीवादी संसदीय राजनीति की आवश्यक बुराइयों से मुक्त न रह सका. पूँजी के तेज बहाव में इनके भी पैर फिसले. लेकिन मीडिया ने जिस भाषा और जिस अंदाज में इनके किस्से बयान किये और जिस तरह इन्हें बेईमानी के प्रतीक के रूप में स्थापित किया वह खोई हुई सवर्ण सत्ता की टीस से उपजी तल्खी थी. यह कारपोरेट सेक्टर में काम करने वाले तथा एन जी ओ में ‘समाजसेवा’ का धंधा करने वाले उनके भाई-बंधुओं के लिए भी बेहद सुकूनदेह थी और जाहिर है कि इन दो दशकों में बना उनका सहजबोध इसी से संचालित था, जिसमें राजनीति को पूरी तरह से खारिज कर ‘सब चोर हैं’ का नकारवादी उद्घोष गूंजा. इस नए मध्यवर्ग को जो विचारधारा अपने सबसे करीब लगी वह थी आर एस एस की. सवर्ण जातियों तथा पूंजीपतियों की प्रिय भाजपा मंडल के दौर में बाबरी मस्जिद विध्वंस के साथ देशभक्ति के नए नारों के साथ इस दौर में मजबूत होकर ही नहीं उभरी बल्कि राजीव गांधी के बाद ‘तीसरे मोर्चे’ के विफल प्रयोगों के बाद उन्हीं पूर्व समाजवादी दलों की बैसाखी के सहारे सत्ता में भी आई. जार्ज फर्नांडीज से लेकर नीतीश कुमार जैसे ‘समाजवादियों’ का भाजपा से यह गठबंधन ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ की सबसे त्रासद परिणिति था. ज़ाहिर है, दक्षिणपंथी नारों के शोर में एक तरफ पूंजी का खेल सबसे वीभत्स रूप में जरी रहा तो दूसरी तरफ अराजनीतिकरण की प्रक्रिया. समाज का यह अराजनीतिकरण सत्ता वर्ग तथा पूंजीपतियों के लिए एक शुभ चीज थी जिसके बरक्स वे अपना एजेंडा बेरोकटोक लागू कर सकते थे. यूनियनों पर प्रतिबन्ध लगे, छात्र संघ बर्खास्त किये गए और कलाम साहब तथा मनमोहन सिंह जैसे विशुद्ध अराजनीतिक लोगों को सत्ता के शीर्ष पर बिठाया गया. जनता से कटे इन जीनियसों की देखरेख में जल-जंगल-जमीन की लूट बेरोकटोक जारी रही और आज भी है. भाजपा की सत्ता से पहली बेदखली के पीछे जनता का ‘शाइनिंग इंडिया’ से जागा वही असंतोष था और कम्यूनिस्ट पार्टियों के समर्थन पर टिकी यू पी ए सरकार चाहकर भी उन नीतियों को उस जोश से लागू न कर सकी. भाजपा ने अपनी हार कभी स्वीकार नहीं की थी और बड़ी मुश्किल से पांच साल की प्रतीक्षा के बाद जब दूसरी हार हुई तो उसके खेमे में एक तरफ बौखलाहट और दूसरी तरफ निराशा पसर गयी. इस बार कांग्रेस को कम्यूनिस्टों का सहारा नहीं लेना पड़ा और आंशिक बहुमत तथा बिना रीढ़ वाले लोलुप सहयोगियों की ओर से आश्वस्त सरकार ने पूरे दम-ख़म के साथ ‘आर्थिक सुधार’ का अगला-पिछ्ला हिसाब बराबर करना शुरू किया. जाहिर है कि उतनी ही जल्दी इसके दुष्प्रभाव सामने आने लगे. वैश्विक मंदी और उसके असर का ज़िक्र पहले ही किया गया है. जनता का यह असंतोष विपक्ष के लिए मौके की तरह उभरा. 

यह वह पृष्ठभूमि है जिसमें अन्ना और रामदेव के आन्दोलन को देखा जाना चाहिए. नई आर्थिक नीतियों के कुप्रभाव से त्रस्त जनता के सामने अखबारों और चौबीस घंटे चलने वाले समाचार चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज की तरह पसरे नेताओं और सरकारी अधिकारियों/कर्मचारियों के भ्रष्टाचार (जी हाँ, विज्ञापनदाता पूंजीपतियों के बारे में एक शब्द भी आप तब तक नहीं सुन सकते जब तक वह सत्यम जैसी स्थिति में पहुँच जाए) के किस्से इस आग में घी डालने वाले साबित हुए. ऐसे माहौल में जब अन्ना लोकपाल का पुराना जिन्न (लोकपाल बिल का मामला काफ़ी पुराना है। ज़ाहिर तौर पर सरकारें इसे लागू करने से बचती रहीं क्यूंकि इसका दायरा प्रधानमंत्री, मंत्रियों और संसद सदस्यों को सीधे घेरे में लेने वाला था। लोकपाल बिल का पहला मसौदा चौथी लोकसभा में 1969 में रखा गया था। बिल लोकसभा में पास भी हो गया था और फिर इसे राज्यसभा में पेश किया गया लेकिन इस बीच लोकसभा भंग हो जाने के कारण यह बिल पास नहीं हो सका। उसके बाद 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998, 2001, 2005 और 2008 में इसे पुनः पेश किया गया लेकिन अलग-अलग कारणों से इसका हश्र महिला आरक्षण विधेयक जैसा ही हुआ। इन 42 सालों में अनेक दलों की सरकारें आईं- गईं लेकिन लोकपाल बिल को लेकर सभी के बीच एक आम असहमति बनी रही। यू पी ए की वर्तमान सरकार ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में लोकपाल विधेयक को लागू कराने की घोषणा की थी। सरकार बनने के बाद जो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी की अध्यक्षता में जो राष्ट्रीय सलाहकार समिति बनी थी उसके सामने यह विधेयक चर्चा के लिये रखा भी गया था। इस दौरान देश भर के तमाम बुद्धिजीवी, कानूनविद और सामाजिक कार्यकर्ता इसे लेकर अपने-अपने तरीके से दबाव बना रहे थे। दबाव का एक प्रमुख बिन्दु यह था कि राजनैतिक लोगों के अलावा अन्य क्षेत्रों के लोगों को भी इस विधेयक की निर्मात्री समिति में रखा जाय। और इन दबावों का असर भी दिख रहा था।) नयी बोतल में लिए केजरीवाल और दूसरे एन जी ओ पंथी ‘सामाजिक कार्यकर्ताओं’ के साथ सामने आये तो ज़ाहिर है कि उसे जन समर्थन मिलना था. नई आर्थिक नीतियों के खिलाफ खड़े होने वाले आन्दोलनों को पूरी तरह से नजरअंदाज करने वाले मीडिया (उदाहरण के लिए अभी बिलकुल हाल में नौ अगस्त को इन नीतियों और इनसे उपजे भ्रष्टाचार के खिलाफ आइसा तथा अन्य वाम संगठनों ने जो जुलूस निकाला उसमें देश भर से आये हजारों लोग थे, इसे आगे बढ़ने से रोका गया, लाठीचार्ज हुआ, कई लोग घायल हुए, लेकिन किसी अखबार या चैनल पर इसकी कोई खबर नहीं आई) का इस ‘आन्दोलन’ को भरपूर समर्थन मिला. वैसे इस आंदोलन में जिस तरह के लोग शामिल हुए वह भी चौंकाने वाला है। पहले अनशन के दौरान अण्णा के मंच के पीछे बिल्कुल आर एस एस की तर्ज़ पर किसी हिंदू देवी सी छवि वाली भारत माता थीं तो मंच पर आर एस एस के राम माधव, हिन्दू पुनरुत्थान के नये प्रवक्ता रामदेव और नवधनिक वर्ग के पंचसितारा ‘संत’ रविशंकर लगातार रहे। उच्चमध्यवर्गीय युवाओं की जो टोलियां आईं थीं उनमें बड़ी संख्या ‘यूथ फार इक्वेलिटी’ जैसे ‘आंदोलनों’ में भागीदारी करने वालों की थी। वैसे इस आन्दोलन के असली कर्ता-धर्ता अरविन्द केजरीवाल और किरण बेदी ‘यूथ फार इक्वेलिटी’ के आयोजनों में मुख्यवक्ता की तरह शिरकत कर आरक्षण के विरोध में भाषण दे चुके हैं. आश्चर्यजनक नहीं है कि एक तरफ आरक्षण का विरोध करने वाले रविशंकर मंच पर थे तो दूसरी तरफ़ तमाम युवाओं की पीठ पर ‘आरक्षण और भ्रष्टाचार लोकतंत्र के दुश्मन हैं’ जैसे पोस्टर लगाये हुए थे। इसके अलावा बाराबंकी के किसान अमिताभ बच्चन, आई पी एल के 'संत' ललित मोदी तमाम मल्टीनेशनल्स के कर्ता-धर्ता सहित अनेक 'जनपक्षधर' लोग थे। साफ़ है कि इन ‘ईमानदार’ लोगों को लोकपाल से डर नहीं लगता. पूंजीपति वर्ग के लिये भी सरकारी तंत्र केन्द्रित यह ‘भ्रष्टाचार विरोध’ बहुत भाता है। यह उनके व्यापार के लिये नियंत्रणो को और कम करने में सहायक होता है और साथ ही उनके अनैतिक कर्मों से और उन आर्थिक नीतियों तथा नीतिगत भ्रष्टाचारों से ध्यान हटाये रखता है, जिसके तहत इस वर्ग को सत्ता और सरकारों से बेतहाशा रियायतें और लाभ मिलते हैं। इन्हीं के द्वारा संचालित मीडिया का इस ‘आन्दोलन’ को ही ‘जनता’ की इकलौती आवाज में तब्दील कर देना इस रौशनी में आसानी से समझा जा सकता है. सोशल मीडिया, ब्लॉग आदि पर यह सब कुछ थोड़ा क्रूड तरीके से होता है, कारण कि यहाँ जहरीली बातों को सैद्धांतिक और दार्शनिक शब्दावली में पेश करना सीख चुके शातिर पत्रकारों और ‘समाज सेवियों’ की जगह उनके पीछे चलने वाले युवा कार्यकर्ता होते हैं, तो इस आन्दोलन के पीछे के बैनर ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ (देखा जाना चाहिए कि ये सारे नाम ही अंग्रेजी में नहीं हैं बल्कि अन्ना हजारे के आन्दोलन का जो नेतृत्वकारी निकाय था उसका नाम ‘टीम अन्ना’ बतर्ज ‘टीम इंडिया’ भी अंग्रेजी में ही रखा गया) के फेसबुक पेज पर लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह आदि के बारे में घृणित जातिवादी, नस्ली तथा जेंडर घृणा से भरपूर पोस्ट तथा टिप्पणिया भरी पड़ी थीं. इनमें ‘जल-जंगल-जमीन’ जैसे मुद्दे पर कहीं कोई बात नहीं थी, नई आर्थिक नीतियों से कोई शिकायत नहीं थी, पूंजीपतियों की लूट से कोई गुरेज न था, मीडिया के बिक जाने पर एक शब्द न था. यह सब इस ‘टीम’ की असली ताक़त का बयान करता है. नेता के रूप में अन्ना का चयन एक सोची-समझी रणनीति थी, जिसमें उनके गँवई व्यक्तित्व, सेना की पृष्ठभूमि, ईमानदार छवि को एक नए उद्धारक के रूप में पेश किया गया. यह मीडिया का बनाया नया गांधी था जो मोदी की प्रसंशा करता था, राज ठाकरे के उत्तर भारतीयों पर हिंसक हमलों के साथ था, अपने गाँव में किसी ह्रदय परिवर्तन द्वारा नहीं बल्कि पेड़ से बाँध कर पिटाई द्वारा लोगों को सुधारता था और मंच से अपने कसीदे पढता था.

ज़ाहिर है, शुरूआती दौर में मिस्र सहित अरब देशों में हुए सफल आन्दोलनों से उत्साहित जनता मीडिया के लाइव प्रसारण के प्रभाव में कुछ उम्मीद लिए और कुछ इतिहास का हिस्सा बन जाने की अपनी दमित आकांक्षा के प्रभाव में वहां पहुंची. यह कहना बेईमानी होगा कि इसमें ईमानदार युवाओं की भागीदारी नहीं थी. आरंभिक दौर में व्यवस्था से उकताए अनेक युवा ‘भ्रष्टाचार’ के खिलाफ इस आन्दोलन में जोश-ओ-खरोश के साथ शामिल हुए ही. ऐसा माहौल बनाया गया कि जैसे लोकपाल उन सभी बीमारियों को दूर कर देगा जिन्हें इस नई आर्थिक व्यवस्था ने पैदा किया है – भूख, गरीबी, बेरोज़गारी, मंहगाई, पीने का पानी, रहने को घर...क्या था जो इस जादू की छड़ी की जद से बाहर था? जो बचा-खुचा था वह रामदेव विदेशों से काला धन वापस लाकर दे देने वाले थे. संघ गिरोह से बड़े करीबी से सम्बद्ध और उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश सहित अनेक राज्यों में मुफ्त में मिली जमीनों पर करोड़ों का धंधा खडा करने वाले रामदेव की प्रबल राजनीतिक आकांक्षाएं जोर मार रही थीं और उन्हें यह अपनी सम्पति को बचाने के लिए ही नहीं बल्कि अपने शरणदाता दल को बचाने के लिए भी ज़रूरी लग रहा था. इस पर बात थोड़ा आगे.

यह आन्दोलन भाजपा तथा संघ के लिए भी एक अवसर की तरह आया. लगातार दो हार झेल चुकी और आपसी खींचतान के चलते और कमजोर हो रही भाजपा और इसके माईबाप संघ ने अपनी पूरी ताकत इसके पीछे झोंक दी. आप देखेंगे कि इस आन्दोलन के समर्थकों का जो प्रोफाइल है वह वही है जो भाजपा के पारंपरिक समर्थकों का है – सवर्ण शहरी मध्यवर्गीय जन. अन्ना से पुराने संबंध, उनका दक्षिणपंथी झुकाव, टीम के सदस्य अपने विश्वस्त ‘कवि’ का सहयोग और मीडिया में जबरदस्त घुसपैठ के भरोसे ‘भ्रष्टाचार विरोध’ को ‘कांग्रेस विरोध’ में तब्दील कर भाजपा अन्ना के माध्यम से वह करने में सफल रही जो ताबूत घोटाले से लेकर येदियुरप्पा तक के दागों के बरक्स उसके लिए सीधे कर पाना कतई संभव न था. संघी गोएबल्स का पूरा भूमिगत प्रचार तंत्र अंतरजाल से मीडिया तक में सक्रिय हो गया और मीडिया का रचा यह आन्दोलन रातोंरात राष्ट्रीय लगने लगा. और इसी के साथ बढ़ी इसके सदस्यों की महात्वाकांक्षायें, उनका आपसी टकराव और बड़बोलापन. कभी सीधे जनांदोलनों में हिस्सा न लेने वाले इन ‘सामाजिक कार्यकर्ताओं’ को जनसमर्थन के भ्रम ने सच में भ्रमित कर दिया. खैर, इस बीच उत्तराखंड से लेकर और कई जगहों पर भाजपा ने इनका प्रयोग करने की पूरी कोशिश की और विधानसभा चुनावों में इसका फायदा मिला भी, लेकिन जब अति-आत्म उत्साह से भरे अन्ना ने बम्बई का रुख किया तो शिवसेना के प्रबल विरोध के कारण वहां उनका समर्थन कर पाना संभव न था. साथ ही जहां दिल्ली के लिए अन्ना बिलकुल नया नाम थे और वहां के लोगों ने उन्हें वैसे ही जाना जैसा मीडिया ने बताया, महाराष्ट्र की जनता उन्हें बखूबी जानती थी. नतीजा जिस भीड़ के दम पर वह इसे ‘देश की जनता’ की आवाज बता रहे थे, वह नदारद थी. जिस मीडिया ने उन्हें इतना बड़ा बनाया था, पहला सवाल वहीँ से आया और भीड़ के भरोसे बड़ा बना यह आन्दोलन इसी पल से बिखरने लगा. इसकी अंतिम परिणिति दिल्ली के रामलीला मैदान में हुई और अंततः यह आन्दोलन बिखर गया तथा एक ‘राजनीतिक’ विकल्प की बात की जाने लगी. ज़ाहिर है कि अब भाजपा या संघ को भी इसकी ज़रुरत नहीं थी, बल्कि राजनीतिक दल बनने के बाद तो इसकी भूमिका भाजपा को फ़ायदा पहुंचाने वाले विश्वस्त समूह की जगह उसका वोट काटने वाले की हो जानी थी, तो लाजिम था कि इस घोषणा के तुरत बाद ‘कमल सन्देश’ में प्रभात झा इसकी लानत-मलामत करते.

आखिर दो साल से कम समय में ऐसा क्या हुआ कि यह आन्दोलन बिखर गया? ‘भ्रष्टाचार’ जैसे मुद्दे पर, जिस पर व्यापक समर्थन स्पष्ट है, खड़ा यह आन्दोलन इतनी जल्दी कहीं पहुंचे बिना ख़त्म कैसे हो गया? इसका एक कारण अन्ना तथा उनकी ‘टीम’ की अति-महात्वाकांक्षा, बड़बोलापन, आपसी टकराहट आदि है तो दूसरा और बड़ा कारण इस ‘आन्दोलन’ की वर्गीय प्रकृति में है. मीडिया के भरपूर समर्थन से ‘राष्ट्रीय’ दिखने वाला आन्दोलन, असल में शहरी मध्यवर्गीय वर्ग के ड्राइंगरूम तक सीमित रहा. ‘भ्रष्टाचार’ जैसे भावनात्मक और नैतिक अपील वाले मुद्दे को लेकर यह आन्दोलन गाँव तो छोडिये शहरी निम्न वर्ग तक भी नहीं पहुँच सका. कारण साफ़ था – तब इसे नई आर्थिक नीतियों के कोख से उपजी भूख, गरीबी, बेरोजगारी या किसानों की तबाही जैसे मुद्दे उठाने पड़ते जिसका इलाज लोकपाल को बताया जाना सिर्फ हास्यास्पद बन कर रह जाता. मजदूर बस्ती में जाने पर फैक्ट्रियों में जारी नारकीय शोषण की बात करनी होती जिससे मालिक पूंजीपति का समर्थन खो जाता, उन एन जी ओज की काली करतूतों पर बात करनी होती जिन्होंने कारपोरेट से प्राप्त लाखों-करोड़ों की रकम डकार ली है और फिर लोकपाल में दायरे में वे क्यों नहीं? का जवाब देना पड़ता. दलित बस्तियों में आरक्षण का सवाल उठता और अल्पसंख्यक समाज मोदी पर सवाले खड़े करता. ज़ाहिर है यह टीम इस ‘खेल’ के लिए नहीं बनी थी. इसकी वर्गीय तथा सामजिक संरचना ही ऐसी थी कि वह अपने सीमित दायरे में सिमटे रहने को अभिशप्त था. अब जब यह टीम चुनाव के मैदान में उतरेगी तो उसके पास इन सवालों के जवाब से बचने का कोई अवसर न होगा और ऐसे में उसका हश्र जगजाहिर है. हालांकि इन तथ्यों के सामने रखे जाने पर शुरुआत के अनशन तोड़ने के लिए दलित/अल्पसंख्यक बच्चियों के हाथों जूस पीने के उपक्रम हुए लेकिन अंतिम अनशन में राजनीतिक विकल्प देने की घोषणा के तुरत बाद उनकी जगह राष्ट्रवादी नारों के बीच एक पूर्व सेनाध्यक्ष के हाथों इस आधुनिक ‘गांधी’ का जूस पीना इस आन्दोलन की अंतिम परिणिति की व्यंजना रचता है. वैसे इस अनशन के पहले रामदेव के साथ अन्ना और टीम अन्ना का ‘लव-हेट’ वाला रिश्ता और संवाद भी बहुत कुछ कहते हैं.

रामदेव गाँव से आते हैं, पिछड़ी जाति के हैं और हरिद्वार से शुरू हुआ उनका योग का सफ़र कोई एक दशक से अधिक पुराना है. हालांकि राजनीतिक चिन्तक योगेन्द्र यादव उन्हें ‘योग के जनतांत्रीकरण’ का श्रेय देते हैं, लेकिन असल में इस जनतांत्रीकरण से अधिक उन्होंने योग तथा आयुर्वेद का धर्म के साथ घालमेल कर व्यवसायीकरण किया है. इस व्यवसायीकरण के लिए उन्हें शुरू से राजनीतिक नेताओं के संपर्क में रहना पड़ा और भाजपा ही नहीं कांग्रेस तथा कई समाजवादी नेताओं से उनके घनिष्ठ संबंध रहे हैं. याद दिला दूं कि जब उन पर अपने श्रमिकों को मानक से कम मजदूरी देने का सवाल उठा था तो कम्यूनिस्ट पार्टियों के अलावा किसी ने इसे तवज्जो नहीं दी और फिर जब उनकी दवाओं में मानव अंग और पशुओं की हड्डियाँ होने का आरोप लगा तब भी वृंदा करात का मजाक उड़ाने में ये लोग पीछे नहीं रहे. इसी सांठ-गाँठ के भरोसे उन्हें कई प्रदेशों में जमीनें और तमाम रियायतें मिलीं जिसके दम पर उन्होंने करोड़ों रुपयों का आर्थिक साम्राज्य खड़ा किया. ज़ाहिर है इस प्रक्रिया में शिष्यों के साथ-साथ देश भर में डीलरों, वितरकों आदि की एक लम्बी श्रृंखला बनी. योग का यह पूरा व्यापार नवउदारवादी माहौल की अनिश्चितता से उपजे तनाव और दबाव का जीवन जीते मध्यवर्ग के लिए एक राहतदेह आकर्षण था. मधुमेह, उच्चरक्तचाप और ऐसे ही जीवनशैली आधारित रोगों के, जिनका जन्मदाता यह नया मुनाफे के पीछे गिरता-पड़ता-भागता बाज़ार और इसकी बारह-चौदह घंटे वाली असुरक्षित नौकरियाँ थीं, इलाज के दावे के साथ मैदान में आये रामदेव के योग शिविरों में भारी भीड़ का उमड़ना स्वाभाविक ही था. देखा जाय तो यह दौर ‘आर्ट आफ लिविंग’ वाले रवि शंकर से लेकर समोसा खिला कर कृपा बरसाने वाले निर्मल बाबाओं के लगातार उभरते जाने का है. कालान्तर में व्यापार के इस खेल में राजनीति रामदेव को एक सुरक्षित पनाहगाह लगी और महात्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए एक बेहतर जगह भी. उन पर जिस तरह लगातार आरोप लग रहे थे उसमें यह स्पष्ट था कि बिना राजनीतिक संरक्षण के वह लम्बे समय तक इसे निरापद रूप से ज़ारी नहीं कर सकते थे. उन्होंने इसके लिए ‘काले धन’ का मुद्दा चुना, वह भी देश के भीतर का नहीं बल्कि देश के बाहर रखा काला धन. यहाँ यह याद कर लेना उचित होगा कि पिछले चुनाव में लालकृष्ण आडवाणी यह मुद्दा उठा चुके थे. भारत के विदेशी बैंकों में जमा काले धन की मात्रा के बारे में पहला हालिया बहस ग्लोबल फाइनेंसियल इंटिग्रिटी स्टडी के खुलासे के बाद शुरू हुई. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के पूर्व अर्थशास्त्री डा देव कार और डेवन कार्टराइट द्वारा 2002-2006 के बीच किये गये इस अध्ययन की ‘ विकासशील देशों में अवैध वित्तीय बहिर्गमन’ शीर्षक रिपोर्ट ने ग़ैरक़ानूनी तरीकों, भ्रष्टाचार, आपराधिक कार्यवाहियों आदि द्वारा देश से बाहर गये धन के बारे में चौंकाने वाले तथ्य प्रस्तुत किये। इस अध्ययन के अनुसार 1948 से 2008 के बीच भारत से कुल 462 बिलियन डालर ( यानि बीस लाख करोड़ रुपये) का काला धन विदेशी बैंकों में पहुंचा है। अगर देखा जाय तो यह धनराशि भारत के वर्तमान सकल घरेलू उत्पाद की 40 फीसदी है और 2 जी स्पेक्ट्रम में सरकार को हुए कुल अनुमानित नुक्सान की बीस गुनी! इस अवैध धन के बाहर जाने की गति में औसतन 11.5 प्रतिशत की वृद्धि प्रतिवर्ष हुई है। यहाँ यह बता देना भी उचित होगा कि यह अनुमान रुपये की डालर के तुलना में अभी की क़ीमत के हिसाब से हैं। अगर इसमें इस तथ्य को शामिल कर लिया जाये कि प्रारंभिक वर्षों में रुपये की स्थिति बेहतर रही है तो यह राशि और अधिक बढ़ जाती है। डा कार का यह भी आकलन है कि वैसे तो काले धन का बाहर जाना आज़ादी के बाद से ही ज़ारी रहा है लेकिन नब्बे के दशक में लागू सुधारों के बाद इसकी गति और अधिक बढ़ गयी है। इस पूरी राशि का लगभग आधा हिस्सा 2000 से 2008 के बीच देश से बाहर गया है। नवंबर 2010 में पेश इस रिपोर्ट के अनुसार न केवल स्विटजरलैण्ड बल्कि ऐसे तकरीबन 70 देशों में यह काला धन जमा किया गया है। वैसे स्विटजरलैण्ड के बैंको के एक संगठन ‘स्विस बैंकिंग एसोसियेशन’ ने 2006 में पेश अपनी एक रिपोर्ट में स्विटजरलैण्ड के विभिन्न बैंकों में विदेशियों द्वारा रखे गये धन की जो सूचना दी थी वह भी इस ओर पर्याप्त इशारा करती है। इस रिपोर्ट के अनुसार स्विट्जरलैण्ड में धन जमा करने वालों में भारत का स्थान सबसे ऊपर है और भारतीय नागरिकों के 1,456 बिलियन डालर वहाँ जमा हैं। इसके बाद रूस, इंगलैण्ड, यूक्रेन और चीन का नंबर आता है। यहां यह बता देना ज़रूरी होगा कि इस रिपोर्ट के अनुसार स्विस बैंकों में भारतीयों द्वारा जमा की गयी राशि दुनिया के बाकी सभी देशों के नागरिकों द्वारा जमा की गयी कुल राशि से भी ज़्यादा है! स्विट्जरलैण्ड के बैंकों से भारतीयों का लगाव कितना है यह इस तथ्य से ही जाना जा सकता है कि भारत से हर साल लगभग अस्सी हज़ार लोग स्विट्जरलैण्ड जाते हैं और उसमें से 25 हज़ार लोग साल में एक से अधिक बार जाते हैं। अब स्विट्जरलैण्ड की ख़ूबसूरती ही इसकी इकलौती वज़ह तो नहीं हो सकती!

इस पूरी परिघटना का एक पक्ष और है। ये ‘टैक्स हैवेन्स’ विकासशील तथा ग़रीब देशों की पूंजी को विकसित पश्चिमी देशों में पहुंचाने का एक बड़ा और सुनियोजित षड़यंत्र हैं। इन देशों में जमा धन विकसित देशों में निवेश किया जाता है और पहले से ही पूंजी की कमी से जूझ रहे देश और ग़रीब होते जाते हैं। मार्च 2005 में ‘टैक्स जस्टिस नेटवर्क’ के एक शोध में पाया गया कि ऐसे ग़रीब और विकासशील देशों के रईसों की साढ़े ग्यारह ट्रिलियन डालर की व्यक्तिगत संपत्ति अमीर पश्चिमी देशों में निवेश के लिये उपयोग की गयी। इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए रेमंड बेकर ने अपनी हालिया प्रकाशित चर्चित किताब ‘ कैपिटलिज्म्स एचिलेज़ हील : डर्टी मनी एन्ड हाऊ टू रिन्यू द फ्री मार्केट सिस्टम’ में बताते हैं कि 1970 के मध्य से अब तक दुनिया भर में 5 ट्रिलियन डालर से अधिक की धनराशि इन गरीब देशों से पश्चिमी देशों में मारिशस, सिसली, मकाऊ, लिक्टेन्स्टीन सहित सत्तर से अधिक टैक्स हैवेन कहे जाने वाले देशों में जमा काले धन के रूप में पहुंच चुका है। इसी किताब में वह आगे लिखते हैं कि इन देशों में जमा काले धन के आधार पर कहा जा सकता है कि दुनिया की एक फीसदी आबादी के पास कुल भूमण्डलीय आबादी की संपत्ति का 57 फ़ीसदी है। अब अगर स्विस बैंक एसोसियेशन द्वारा दिये गये आंकड़ों के साथ इसे मिलाकर देखें तो इस बात का अंदाज़ लगाना मुश्किल नहीं है कि इसमें से भारतीयों का हिस्सा कितना है।

ज़ाहिर है कि काले धन का मुद्दा ज़ाहिर तौर पर महत्वपूर्ण है और एन डी ए का शासन हो या कि यू पी ए का, जैसा कि प्रकाश करात कहते हैं कि ‘ सभी इस समस्या की गंभीरता से परिचित हैं लेकिन सरकार इस धन को वापस लाने के लिये आवश्यक राजनैतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन नहीं कर रही है।’ ऐसे में रामदेव या किसी भी अन्य व्यक्ति का इस मुद्दे को उठाना, इस पर आन्दोलन खडा करना गलत तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन सीधी दिखने वाली इस बात में ढेर सारे पेंच हैं. पहला पेंच तो यही कि जबकि विदेशों में जमा काला धन पर बहुत सारी बात की जा रही है, देश के अन्दर मौजूद काले धन पर कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं. ज़ाहिर है कि यह मांग देश के भीतर उच्च मध्यवर्ग और पूंजीपतियों को नागवार गुजर सकती है. वैसे न्यूयार्क टाइम्स में 17 अगस्त को छपे एक लेख में मनु जोसेफ ने एक मजेदार बात बताई है, जब अन्ना ने लोकपाल के समर्थन में आन्दोलन किया तो फिल्म जगत के सितारे बड़ी संख्या में आये लेकिन जब रामदेव ने विदेशों से काले धन को वापस लाने की मांग की तो वे चुप रहे. साथ ही वह बताते हैं कि सरकार के प्रमुख आर्थिक सलाहकार कौशिक बासु ने घूस को कानूनी मान्यता दिए जाने की बात की तो देश के कारपोरेट जगत में सबसे ईमानदार माने जाने वाले इनफ़ोसिस प्रमुख एन आर नारायण मूर्ति ने इसे एक ‘शानदार विचार’ बताया! लोकपाल समर्थक किसी पूंजीपति ने इस प्रस्ताव का विरोध नहीं किया. वैसे प्रख्यात अर्थशास्त्री डा गिरीश मिश्र एक और मजेदार बात करते हैं. फेसबुक पर उन्होंने लिखा – “मान लीजिये यह सारी राशि भारत में आ जाए तो क्या होगा? मुद्रा की पूर्ति अचानक बढ़ जाने से मुद्रास्फीति में बेहद तेज़ी आएगी, जिससे चीजों के दाम आसमान पर पहुँच जायेंगे. अब इसके चलते जिन लोगों के हाथ में यह पैसा नहीं पहुंचेगा उनकी क्रयक्षमता और घट जायेगी.” अब जो सरकारें सड रहा अनाज ग़रीबों को मुफ्त देने में राजी नहीं उनसे यह उम्मीद कि यह सारा पैसा सबमें बाँट देंगी, एक शानदार खुशफहमी से अधिक क्या होगी?

दूसरी बात यह कि अपने अंतिम आन्दोलन में जिस तरह रामदेव ने गुजरात के नरेंद्र मोदी के साथ मंच ही शेयर नहीं किया बल्कि उनके सरकार के एक मंत्री पर लगे करोड़ों के भ्रष्टाचार के आरोपों को सिरे से खारिज किया, मुलायम सिंह यादव, मायावती, देश में आर्थिक सुधारों के पोस्टर ब्वाय रहे चन्द्र बाबू नायडू और भाजपा, सबको पाक-साफ बताते हुए सिर्फ कांग्रेस को कटघरे में खड़ा किया, उनके मंच पर एन सी आर टी के साम्प्रदायिकरण के कर्ता-धर्ता डा राजपूत, वेड प्रकाश वैदिक और देवेन्द्र शर्मा जैसे लोग उपस्थित हुए और जिस तरह अपने धन्यवाद में आर एस एस, आर्यसमाज तथा अन्य संगठनों को विशेष रूप से शामिल किया और इस पूरे मुद्दे को चुनावी जोड़-तोड़ में तब्दील कर दिया, यह स्पष्ट हो रहा है कि काले धन के बहाने निशाना और उद्देश्य कुछ और है. आर्थिक सुधारों में ही नहीं भ्रष्टाचार में भी कांग्रेस के बिलकुल बराबर के टक्कर की और कई बार उससे आगे निकल जाने वाली भाजपा की सत्ता में वापसी भर से कैसे ये सारे मुद्दे सुलझ जायेंगे, यह सवाल किसी भी जेनुइन व्यक्ति के सामने खड़ा होता ही है. यही वजह है संघ के खुले समर्थन के बावजूद रामदेव दिल्ली में थोड़े समय के लिए हंगामा खड़ा करने में तो कामयाब होते हैं, लेकिन व्यापक जनता के बीच को बड़ी हलचल पैदा करने में नहीं.

ज़ाहिर है कि ‘भ्रष्टाचार’ और ‘काला धन’ जैसे मुद्दे सीधे-सीधे अपील करते हैं. जब हम नई आर्थिक नीतियों की बातें करते हैं तो वे इतनी लोक-लुभावन तरीके से नहीं की जा सकतीं. एक टैक्टिस के रूप में इन मुद्दों पर आन्दोलन शुरू तो किया जा सकता है लेकिन इस समस्या की जड में उपस्थित नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के विकल्प की प्रस्तुति और उसे लागू करने वाली राजनीतिक व्यवस्था के निर्माण की लड़ाई ही इनके खिलाफ कोई फैसलाकुन लड़ाई हो सकती है. लेकिन ये दोनों आन्दोलन अपनी इच्छाशक्ति और अपने वर्गीय संरचना के कारण कहीं से भी इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए गंभीर नहीं दिखते और कुल मिलाकर भ्रष्टाचार विरोध के नारे के भीतर दरअसल पूंजीपतियों के एजेंडे को ही आगे बढाते हैं. यही वजह है कि ये दोनों आन्दोलन एक सीमा तक आगे बढ़ने के बाद भटक गए. यह भटकाव भी सत्ता व्यवस्था और पूंजीपति वर्ग के हित में है. लम्बे समय बाद सड़क पर उतरा मध्यवर्ग फिर एक हताशा से ग्रस्त है और यह दौर निर्मम नीतियों को बेरोकटोक लागू करने के लिए बिलकुल उचित है. अमेरिका के राष्ट्रपति से लेकर पूंजीपति अखबार तक सरकार को जो घेर रहे हैं वह किसी मंहगाई या भ्रष्टाचार की वजह से नहीं, उसके मूल में है आर्थिक सुधारों की गति बढाने का दबाव. पूरी उम्मीद है कि बहुत जल्द इस सब शोर-ओ-गुल के बीच खुदरा बाज़ार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को स्वीकृति दे दी जायेगी और ऐसे कई दूसरे फैसले कर लिए जायेंगे. इसके खिलाफ किसी बड़े आन्दोलन की कोई संभावना फिलहाल दिखाई नहीं दे रही.

इन आन्दोलनों ने लोकतंत्र की पूरी व्यवस्था को भी कटघरे में खड़ा किया है. संसद बनाम जनता की जो बहस सामने आई है, वह रुक कर विचार करने वाली है. यह केवल लोकपाल तक सीमित बात नहीं है. आज यह सोचना होगा कि जब पूरी संसद जनविरोधी फैसलों पर एकमत हो, जब वह अपने नागरिकों की न्यूनतम आवश्यकताओं से अधिक पूंजीपतियों के अधिकतम लाभ की चिंता में व्यस्त हो, जब वहां आम आदमी की आवाज न पहुँच सके तो फिर उसे प्रातिनिधिक कैसे कहा जाय? ऐसे में जनता के सामने क्या विकल्प बचते हैं जब संसद की ऊंची कुर्सियों तक उसकी आवाज़ पहुंचे ही नहीं? अन्ना-रामदेव आन्दोलन की वर्गीय प्रतिबद्धता के कारण उनके वर्ग मित्र मीडिया ने उनका पूरा साथ दिया और वे अपनी बात पहुंचाने में सफल रहे, लेकिन जनता के आन्दोलनों को तो इस मीडिया द्वारा भी पूरी तरह नजरअंदाज किया जाता है, तो फिर उनके पास अपनी आवाज़ पहुंचाने का तरीका क्या हो? जाहिर है, पूंजीपतियों के बिचौलियों की तरह काम कर रहे राजनेताओं को नियंत्रित करने वाला कोई भी क़ानून इस देश को उस आपदा से बाहर नहीं निकाल सकता और ऐसे किसी क़ानून की उनसे उम्मीद नहीं की जा सकती जो इसकी जड़ों पर प्रहार करने वाला हो तो जनता के पास चारा क्या बचता है?

ये सवाल मुश्किल हैं. इनके जवाब और ज्यादा मुश्किलात पैदा करने वाले. लेकिन इनसे जूझे बिना कोई रास्ता निकलने वाला भी नहीं. 

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