Monday 27 April 2015

तुमने मेरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा. - Niraj Jain March 7 ·


Yogendra Yadav Prashant Bhushan Arvind Kejriwal
.............. " ये फूल कोई मुझको विरासत में मिले हैं ??
..................तुमने मेरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा."
(बहुत प्रसव पीड़ा के बाद)
बौद्धिकता का भौतिक गुणधर्म शुष्कता है, लेकिन योगेन्द्र यादव की मौजूदगी उस आँचल की तरह है जहाँ विचार को माँ की गोद जैसा आश्रय मिलता है. स्वाधीन गणतांत्रिक भारत को योगेन्द्र की नजरों से समझना गर्भधारण कर मातृत्व को समझने जैसा ही रोमांचकारी है, बहीं दूसरी और प्रशांत भूषण हैं जो बाकायदा पूरी रिसर्च के साथ कमोबेश पांच सैकड़ा पीआईएल और अन्य दूसरे प्रकरणो के जरिये आजाद भारत की न्याय प्रक्रिया को अपनी तर्जनी पर सुदर्शन चक्र की भांति थामे जन हन्ता व्यवस्था का सतत संहार कर रहे हैं. ये शख्सियतें अपने सरोकारों से कोई समझोता किये बगैर बस तटस्थ भर हो जाएँ तो ऐसा कोई पुरस्कार नहीं जो धनपशुओं की ऊर्जा से चलने बाली सरकारें नाक रगड़ कर इनकी झोली में न डाल दे, मगर इनकी प्रतिबद्धताएं ही इनकी प्राण वायु हैं और इसलिए तमाम अपमानों के बाद भी इन्होने जो रास्ता चुना बह बही रास्ता है जो कभी गांधी, कभी सुभाष और कभी लोहिया चुनते आये हैं,
मगर हमें नहीं भूलना चाहिए की अवतारों से चमत्कृत भारतीय अचेतन में सब्जेक्टिव उपलब्धियां जन उभारों की प्रेरणाएँ नहीं बनती, आप किसी विधा के महारथी हो सकते हैं मगर जरूरी नहीं की आप भीड़ तंत्र के नियामक हो जाएँ, नेहरू और पटेल अनेक सन्दर्भों में गांधी से ज्यादा प्रतिभाशाली थे मगर निर्विवाद सत्य है की देश भर में स्वाधीनता की लहर गांधी ही जगा पाये , वरना कांग्रेस तो गांधी के पहिले भी थी और उनके बाद भी रही, आजाद भारत में गांधी की जगह को नेहरू ने भरा लेकिन नेहरू के बाद की कहानी आपको बताने की जरुरत नहीं, विचारधारा का दंभ भरने बाले भारत के दो समूह तभी थोड़ा बहुत स्वीकार्य हुए जब उन्हें उसी भारतीय अचेतन की परंपरा को समझने बाले नेतृत्व मिले, जबकि उनके पास अपने लाखों कार्यकर्ता थे, समृद्ध बौद्धिक जमातें थीं.
अगर पढ़ने,लिखने,बोलने से दुनिया बदल रही होती तो कबीर या मार्क्स या रजनीश ने उसे कब की बदल दी होती, दुनिया अगर बदली भी तो बेहद समयोचित ढंग से , मैं यह नहीं कह रहा कि इस बदलाव में इन विचारकों का श्रम निष्फल रहा मगर यह जरूर कह रहा हूँ कि इन विचारकों का श्रम जन-जन तक पहुंचाने बाला जनप्रिय नेतृत्व ही इनका पसीना जमीन में बो सका. हमने बचपन से सुना है कि "व्यक्ति ही संस्था है" , जरा बताईये कि कब यह साधारण वक्तव्य गलत साबित हुआ, भगवा पल्टन के पास किस चीज की कमी थी मगर उसे 50 साल लग गए अपनी स्वीकार्यता बनाने में, लेकिन 500 साल भी लग सकते थे अगर उसे अटल विहारी वाजपेयी न मिले होते, अटल के बाद भी मोदी के मिलने तक फिर 10 साल इंतजार करना पड़ा बो भी तब जब उसके पास के. एन. गोविंदाचार्य जैसा सर्वथा असंदिग्ध हिमालय मौजूद था, ज्योति बसु के बाद मजदुर क्रांति फटे बांस सी बजने लगी, अगर तमाम क्षत्रप अपनी सीमाओं में क्षत्रपति नहीं होते तो आज कांग्रेस इतिहास के पन्नो पर कैद हो गयी होती, क्या मायावती के बाद बसपा, मुलायम के बाद सपा , बाल ठाकरे के बाद सेना, नेहरू के बाद कांग्रेस का कोई ठोस बजूद आपकी समझ में आता है ? आज भी जब भी प्रकाश करात की छुट्टी होगी और येचुरी को कमान मिलेगी तब आप यह मत कहियेगा कि लोग बामपंथी होने लगे हैं, दरअसल लोग जैसे हैं बेसे ही हैं बैसे ही थे.....सवाल सिर्फ उस भरोसे का है जो नेतृत्व की ताकत से पैदा होता है, किसी हरामी विचारधारा के झंडे जनता की छाती में येन केन प्रकारेण गाढ़ देने से नहीं.
निश्चित ही योगेन्द्र और प्रशांत की नियत और संवेदनाएं अरविन्द की तुलना में हजारगुना असंदिग्ध हैं लेकिन क्या हजार योगेन्द्र-प्रशांत मिलकर भी बह जन-ज्वार पैदा कर सकते हैं जो लोकतंत्र खासकर भारतीय लोकतंत्र की अपरिहार्य आवश्यकता है . ओमपुरी, नसीर, इरफ़ान ; अमिताभ - सलमान-शाहरुख़ से अनंत प्रतिभाशाली हैं, न सिर्फ कला के तौर पर वरन संवेदनाओं के तल पर भी, लेकिन जनप्रियता में वे इनका मुकाबला कभी नहीं कर सकते..बिलकुल ठीक है की अरविन्द को ज्यादा उदार, लोकतान्त्रिक, सहिष्णु, होना चाहिए मगर क्या आप यह चाहेंगे की तिनका-तिनका जोड़ कर जो कुटिया उसने बनाई है उसे और उसके लक्ष्यों को बह किताबी सिद्धांतों के हबाले करके जीतनराम और मोदी पैदा करता रहे और खुद को नीतीश या आडवाणी बना ले. आप इतनी महानता की अपेक्षा उस आदमी से क्यों कर रहे हैं जिसके समर्थक महाभ्रष्ट, पाखंडी, हिंसक, और उन्मादी भारत में कुछ अलग और नया करने की उसकी छोटी सी कोशिश से ही पर्याप्त खुश हैं, हमें समझना होगा की पार्टी को हजारों योगेन्द्र और प्रशांत मिल सकते हैं मगर अरविन्द दूसरा नहीं मिल सकता , नहीं यह व्यक्तिपूजा नहीं है , यह आज तक के भारत की सार्वभौम हकीकत है. उदारता-व्यापकता-लोकतांत्रिकता अरविन्द को समझाने की बजाय हमारा दायित्व हो कि हम योगेन्द्र और प्रशांत को ये समझाएं कि उनकी भूमिकाएं फिल्म में नायक के अभिनय के लिए नहीं, पटकथा रचने के लिए हैं; और बिना पटकथा के नायक भी अपना अभिनय नहीं कर सकता.........................................@

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