Sunday 19 May 2013

नवदलितवाद का विष-वृक्ष - गिरिजेश



प्रिय मित्र, मेरा मत है कि जे.एन.यू. की विशेष सुविधाओं में जीते हुए और तरह-तरह के देशी-विदेशी स्रोतों से आने वाले फण्ड के दम पर तथाकथित नवदलितवादी विचारक समाज में विद्वेष का एक ऐसा विष-बीज बो रहे हैं. जिसके भरोसे देशी-विदेशी धनपशु अपना लूट-राज निर्विघ्न चलाते रहेंगे और व्यवस्था-परिवर्तन के लिये जनजागरण में जीवन खपाने वाले क्रांतिकारियों को आने वाले दिनों में इनके चलते जन-मन में घर कर चुकी और भी दुरूह विकृतियों और विसंगतियों से रू-ब-रू होना ही पड़ेगा. 

ये स्वनामधन्य 'विचारक' वर्तमान भारतीय समाज-व्यवस्था के हर तरह से उजागर पूँजी और श्रम के बीच के प्रधान अन्तर्विरोध को छिपा कर जातियों के बीच के गौड़ अन्तर्विरोध को और तीखा करने के प्रयास मे लगे हैं. ये सूरज को बादलों से ढकने के चक्कर में भूल गये हैं कि सच को झुठलाया ही नहीं जा सकता. क्या आज गाँव-गिराँव और गली-कस्बे में जीने वाला सामान्य इन्सान बिलकुल ही नहीं जानता कि छोटे-बड़े दूकानदार से लेकर कण्ट्रोल के ठेकेदार तक उसी की जेब काट रहे हैं? प्रधान जी से लेकर डाक्टर साहब और वकील साहब तक, दलाल जी से लेकर सिपाही और दरोगा जी, और चमचा जी से ले कर नेता जी तक, चपरासी जी से लेकर अधिकारी महोदय तक उसी के घूस से मौज कर रहे हैं? सब के सब सुविधाभोगी लुटेरे उसका ही खून पीने के चक्कर में रात-दिन एक किये रहते हैं?

महानगर की चकाचौंध में पहुँच कर ये 'पोथी-पाँड़े' अपने अधकचरे किताबी ज्ञान के दो-चार उद्धरणों को मूल सन्दर्भों से काट कर और किसी तरह रट-रटा कर अर्ध-सत्य या पूरी तरह से कपोल-कल्पित कहानियाँ गढ़ कर सारे समाज को बेवकूफ बनाने के चक्कर में परेशान हैं. ग्रामीण जनता की न्यूनतम एकजुटता को भी तोड़ने पर आमादा होकर शासक वर्गों के ये वेतन-भोगी चाकर हमारे वर्ग-बन्धुओं को परस्पर नफ़रत के ज़हर से और भी भर देने का कुत्सित और निन्दनीय कुकर्म करने में लगे हैं. मगर महानगर केवल मुट्ठी भर महानगर हैं, जे.एन.यू. केवल जे.एन.यू. है. समूचा देश और आम आदमी की जिन्दगी का रोज-रोज का सच इस सब से बहुत बड़ा है. 

वहाँ पहुँच कर ये बेचारे गाँव की जिन्दगी की ज़मीनी सच्चाई को भूल चुके हैं और दलित-पिछड़ा एकता का नारा देते हुए समझ ही नहीं सकते कि अहिरौटी और चमरौटी के बीच परम्परा से उत्पीड़ितों और बाबुआन के लठैतों का छत्तीस का भीषण विरोध रहा है. और वह विरोध और उससे पैदा हुई पुश्तैनी कटुता इनकी जातिवाद की एकता वाली मीठी गोली से इतनी आसानी से समाप्त होने नहीं जा रहा और इनकी थीसिस के अनुरूप इन दोनों पुरवों के निवासी ग्रामीणों के बीच एकता पैदा नहीं करने दे सकता. केवल और केवल मार्क्सवाद के पास ही वह वैचारिक भावभूमि और बोध के स्तर के विकास का विज्ञान है, जो समूची शोषित-पीड़ित मानवता के सभी वर्गों को एकजुट कर देता रहा है. 

प्रिय मित्र, 'जातिवाद बनाम मार्क्सवाद' की बहस नयी नहीं है. कल इस विषय पर इतना और सोचने का अवसर मिला. इसके लिये मैं नीलाक्षी की वाल पर चले लम्बे 'लिहो-लिहो' का आभारी हूँ. कृपया इस विषय पर अपनी सम्मति दें.

"मित्रों, आप सब से एक बार अपनी संकीर्ण जातिवादी अवस्थिति पर पुनर्विचार का निवेदन करना चाहूँगा. मेरी समझ है कि सत्ता द्वारा किया गया अगड़ा, पिछड़ा और अनुसूचित का विभाजन वर्ग नहीं है. यह जातियों का ही विभाजन है. जाति और वर्ग दोनों ही अलग हैं. वर्ग उत्पादन-सम्बन्धों के आधार पर परिभाषित होता है. वह अवरचना (इन्फ्रा-स्ट्रक्चर) की अवधारणा (कन्सेप्ट) है. जब कि जाति अधिरचना से जुड़ी अवधारणा है. दोनों को एक दूसरे के साथ गड्डमड्ड करने से ही यह भ्रामक वैचारिक अवस्थिति पैदा हुई है. 

मेरी समझ है कि अम्बेदकर की जातीय अपमान के विरुद्ध स्वाभिमान की लड़ाई अब केवल जातीय घृणा के प्रतिक्रियावादी चिन्तन तक सिमट गयी है. उसका यही हस्र होना ही था. उत्पादक और शोषक वर्गों के बीच का शोषण के विरुद्ध वर्ग-संघर्ष अगर क्रान्तिकारी दिशा में वर्गीय एकता पर लड़ा जायेगा, तो क्रान्तिकारी आन्दोलन का विकास होगा. अन्यथा इसे उत्पादन-सम्बन्धों की परिधि से बाहर जाकर केवल जातिगत आधार पर लड़ने का प्रयास उत्पादन-सम्बन्धों में बदलाव के बजाय परस्पर जातीय नफ़रत ही पैदा कर सकता था. और उसने ऐसा सफलतापूर्वक कर दिया है. 

"जातिवर्ग" जैसा कुछ नही होता. यह एक और भ्रामक शब्द है, जो संकीर्णता को सैद्धांतिक जामा पहनाने का प्रयास तो कर रहा है. मगर केवल एक मुगालता भर है. सांस्कृतिक पहिचान की लड़ाई तक ही सिमटे लोग जब खुद को क्रान्तिकारी कहने का प्रयास कर रहे हैं, तो आत्मप्रवंचना में उन्होंने इस शब्द का आविष्कार कर डाला है. 

दलित जातियों के द्वारा चलाया जा रहा सांस्कृतिक पहिचान का संघर्ष व्यवस्था की परिधि के भीतर केवल व्यवस्था को और मजबूत करता रहा है. वह इस शोषण पर टिकी जनविरोधी व्यवस्था के नये-नये पैरोकार तैयार कर रहा है. व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई को आगे बढाने के लिये तो वर्गीय एकजुटता की ज़मीन तैयार करनी होगी. जन को परस्पर लड़ाने के हथियार तो जनविरोधी सत्ता के हैं. आरक्षण भी उनमें से केवल एक ऐसा ही हथियार है. वह 'बाँटो और राज करो' के सिद्धान्त का नया फार्मूला मात्र है. 

जैसे ही हम अम्बेदकर की समझ को मार्क्स की समझ के साथ जोड़ने की कोशिश करते हैं, वैसे ही यह धूर्त व्यवस्था शासित वर्गों के बीच परम्परा से चली आ रही जातीय नफ़रत को और व्यापक पैमाने पर फ़ैलाने के लिये खुद को श्रेष्ठ साबित करने को बज़िद कर देने वाली दृष्टि में बाँध कर 'नवब्राह्मणवाद' के साथ एक ऐसा संयुक्त मोर्चा बनाती है, जिसके परिणाम स्वरूप मायावती और मुलायम का जातिवाद सत्ता तक तो पहुँच जाता है. मगर परिवर्तनकामी चेतना को अपने रास्ते से विचलित कर देता है. 

फ़ासिज़्म केवल आर.एस.एस. के हिन्दूवाद तक ही सीमित नहीं है, वह इसी 'श्रेष्ठताबोध' की घोषणा करने वाली प्रवृत्ति का नाम है. इस 'मैं' से विराट 'हम' तक की यात्रा केवल लिहो-लिहो कर के नहीं पूरी होनी है. इसे विचारों और विश्लेषण की ज़मीन पर खड़ा करना होगा. 

मार्क्सवाद इसी लिये विज्ञान है कि वह तर्क के लिये आधार देता है. तर्क करता है, तर्क सुनता भी है. सहमति के प्रयास करता है. इसके विपरीत केवल आक्षेप और आरोप केवल दूरी पैदा करता है. सामाजिक संरचना में आमूल बदलाव के लिये इस दूरी को पाटने का प्रयास करना होगा. मेरी समझ है कि क्रान्ति के विज्ञान को थोड़ा और गहराई से समझने का प्रयास किया जायेगा, तभी वर्तमान यथार्थ की जटिलता को सही तरीके से सूत्रबद्ध किया जा सकेगा.



"अब जो ये नया कार्ड हम इन्हें दे रहे हैं ‘मनुवाद बनाम अमनुवाद’ यह तुरुप का पत्ता है, जो ‘जुड़े को तोड़ना’ को कितनी ताकत दे रहा है, इसका हमें शायद अंदाजा नहीं है। .... अगर हमने यह पत्ता उनके पास रहने दिया तो आने वाले वक्त में होने वाली दुर्घटना अगर आपके साथ होती है तो आप अकेले होंगे और तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।" - इसी लेख से.

वक्त रहते - जनसत्ता, चौपाल - भरत तिवारी
कच्चा लालच, बदगुमानी, ओछी राजनीति और जुड़े को तोड़ना, ये हमारे वे दुश्मन हैं जो पीठ पीछे वार नहीं करते।

आज एक तरफ मनुवादी अपने गलत को सही सिद्ध करने के लिए कुछ भी करने पर उतारू हैं, तो दूसरी तरफ अमनुवादी भी उन्हें गलत सिद्ध करने के लिए वैसा ही कर रहे हैं। दिक्कत यह है कि देश का प्रगतिशील वर्ग दोनों की बातों से सहमत नहीं होता दिखता। उसे दोनों ही पक्षों में घृणा का स्वर सुनाई देता है। शायद इसलिए कि ये वे स्वर हैं, जिनके खिलाफ होकर ही वह प्रगति कर सका है या जात-पात आदि से ऊपर उठ सका है। उसकी दुविधा तब और बढ़ जाती है, जब उसे यह स्वर अपने बहुत करीब सुनाई देता है। ऐसी स्थिति में अगर वह मनुवाद का स्वर हो और वह न सुने तो उसे अमनुवादी ठहरा दिया जाता है और यदि विपरीत स्वर हो और वह अनसुना कर दे तो उसे मनु समर्थक कहा जाता है। 

इस बात पर ध्यान देना बहुत जरूरी है कि इन दोनों तरह के वादों से सरोकार नहीं रखना ही उसका प्रगति-पथ है, जिसे वह नहीं छोड़ना चाह रहा है। बीते कुछ वर्षों में इन स्वरों की मुखरता ने उसे पथ से विचलित भी किया है। सवाल है कि यह राष्ट्र के लिए कितना घातक हुआ? वह नागरिक जो सर्वधर्म समभाव की नीति पर गर्व से चल रहा था, जिसके लिए राष्ट्र ही धर्म था, जिसे सिर्फ तिरंगे से प्यार था, उसी ने लाल, हरा, नीला, पीला या काला झंडा हाथ में ले लिया, जिसका अब तक वह विरोधी रहा है।

कई दफा दिमाग को कोरा करके सोचने पर ही स्वस्थ निर्णय सामने आ पाता है। इन मुद्दों पर निष्पक्ष होकर गौर करना जरूरी है, सवालों की तह तक पहुंचना जरूरी है। कच्चा लालच, बदगुमानी, ओछी राजनीति और जुड़े को तोड़ना, ये हमारे वे दुश्मन हैं जो पीठ पीछे वार नहीं करते। गंभीर बात है कि ऐसा वार करने वालों की संख्या इतनी तेजी से बढ़ रही है कि हमारे सही और गलत को समझने की प्राकृतिक इंद्रियबोध-शक्ति उनके प्रभाव से कम होती जा रही है। ये सिद्धहस्त लोग अब इस स्तर के हो गए हैं कि वे बड़ी से बड़ी दुर्घटना को भी ठीक सांप्रदायिक लोगों की तरह जात-पात का जामा पहनाने लगे हैं। यहां यह बताने की जरूरत नहीं है कि ‘जुड़े को तोड़ना’ की नीति से फायदा किसे पहुंचता है।

कितने पत्ते हमने इन्हें दे दिए हैं खुद से खेलने के लिए! क्या आप जानते हैं कि ये वे लोग हैं, जो इंसान तो दूर, उसकी जाति को भी हिंदू, मुसलिम, सिख, ईसाई आदि की नजर से नहीं, बल्कि सिख बनाम मुसलिम, हिंदू बनाम मुसलिम, सिख बनाम हिंदू, गरीब बनाम अमीर, मराठा बनाम बिहार, दलित बनाम सवर्ण आदि की नजर से देखते हैं। अगर हम उनकी इस नजर को नहीं पहचानते तो किसी भी समस्या का समाधान नहीं निकलने वाला। अब जो ये नया कार्ड हम इन्हें दे रहे हैं ‘मनुवाद बनाम अमनुवाद’ यह तुरुप का पत्ता है, जो ‘जुड़े को तोड़ना’ को कितनी ताकत दे रहा है, इसका हमें शायद अंदाजा नहीं है। इसे खेल कर वे जघन्य अपराधों को भी हमारे सामने ऐसे रख रहे हैं कि वे हमें जघन्य न लगें। आम बातचीत को भी यों तोड़-मरोड़ कर सामने रख देते हैं कि हमारा आपसी सामंजस्य बिगड़ जाए।

जिस कृत्य से सारे समाज को क्षति पहुंचे, वह हमें अपनी क्षति नहीं लगे, तो सोचिए कि कैसी स्थिति होगी। कोई बात बगैर पूरा संदर्भ दिए अगर अनर्थ के रूप में सुनाई जाए तो क्या होता है? आज वक्त है कि हम इन राजनीतिक ‘वादों’ को दफन करें और एक होकर चलें। यह करना आसान नहीं होगा, क्योंकि इनकी जड़ें बहुत गहरी और कांटों से लैस हैं और उन्हें उखाड़ने में हमें पीड़ा होगी। लेकिन जान लें कि अगर हमने यह पत्ता उनके पास रहने दिया तो आने वाले वक्त में होने वाली दुर्घटना अगर आपके साथ होती है तो आप अकेले होंगे और तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।
भरत तिवारी, शेख सराय, नई दिल्ली

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