Friday 8 November 2013

अतिवादी वहाबी, इस्लामी जगत में मतभेद का स्रोत - ईरान हिन्दी रेडियो से


आजकल इस्लामी जगत को अत्यंत कठिन समय का सामना है। एक ओर उत्तरी अफ़्रीक़ा व मध्यपूर्व के अत्याचारग्रस्त क्षेत्र में इस्लामी जागरूकता की लहर ने वर्चस्ववादी एवं साम्राज्यवादी शक्तियों के अवैध हितों को ख़तरे में डाल दिया है और दूसरी ओर मुसलमानों के विभिन्न मतों व पंथों के बीच फूट डालने और मतभेद उत्पन्न करने के लिए पश्चिम की वर्चस्ववादी सरकारों एवं क्षेत्र के रुढ़ीवादी अधिकारियों के समर्थन से सलफ़ियों व तकफ़ीरियों की ओर से कुप्रयास किए जा रहे हैं। इस समय सीरिया, मुसलमानों के बीच पाए जाने वाले मतभेदों को भड़काने के मंच में परिवर्तित हो गया है। पश्चिमी सरकारें और उनके क्षेत्रीय घटक सीरिया में संकट उत्पन्न करने के पहले से निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति में विफलता के बाद इस बात का प्रयास कर रहे हैं कि तकफ़ीरी व सलफ़ी गुटों की सहायता से सीरिया में एक संपूर्ण युद्ध आरंभ कर दें। इस समय क्षेत्र में जिसे शीया-सुन्नी विवाद कहा जा रहा है वस्तुतः वह शीया व सुन्नी समुदायों के बीच विवाद नहीं है क्योंकि इन दोनों समुदायों के लोग काफ़ी समय से शांतिपूर्ण ढंग से एक दूसरे के साथ रहते आए हैं और उन्होंने कभी भी एक दूसरे का जनसंहार नहीं किया है। अलबत्ता दोनों पंथों के बीच मतभेद सदा ही रहे हैं किंतु ये धर्मगुरुओं के बीच और शांतिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किए जाते रहे हैं।
वास्तविक समस्या वहाबियत तथा अन्य मुसलमानों को काफ़िर समझने के विचार का प्रसार है कि जो न केवल शीया मुसलमानों बल्कि बहुत से सुन्नी पंथों को भी काफ़िर समझता है और उनका ख़ून बहाए जाने को वैध मानता है। तकफ़ीरियों का व्यवहार इस प्रकार का है कि वह सुन्नी समुदाय के दरिद्र वर्ग में सांप्रदायिकता व धर्मांधता बढ़ा देता है और मध्यमार्गी सुन्नी धर्मगुरुओं के लिए सक्रियता की संभावना नहीं छोड़ता। अमरीका और क्षेत्र के रुढ़िवादी शासकों को ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी द्वारा सच्चे इसलाम के पुनर्जागरण का सामना करना पड़ा। यह वह इस्लाम है जो देशी तानाशाही और विदेशी साम्राज्य से संघर्ष और स्वाधीनता की प्राप्ति का निमंत्रण देता है। इस्लामी क्रांति केवल एक शीया क्रांति नहीं है बल्कि यह केवल मुसलमानों ही के लिए नहीं अपितु समस्त मानवता के लिए स्वतंत्रता व न्याय का संदेश है। जब ईरान की इस्लामी क्रांति सफल हुई तो पूरे क्षेत्र में मानो भूकंप आ गया और सभी इस्लामी आंदोलन इस क्रांति से प्रभावित हो गए। इस बात ने पश्चिमी देशों को आतंकित कर दिया और उसी समय अमरीका के पूर्व विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर ने यह बात कही थी कि यदि क्षेत्र का एक देश इस्लामी क्रांति के कारण हाथ से निकल जाता है तो फिर यह क्रांति अन्य देशों तक भी पहुंच जाएगी।

इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद अमरीका, ज़ायोनी शासन और पश्चिमी सरकारों ने इस क्रांति से मुक़ाबले और इसे ईरान के भीतर ही सीमित रखने के मार्गों के बारे में सोचना आरंभ किया। उन्होंने विभिन्न प्रकार के राजनैतिक व आर्थिक दबावों और सद्दाम को ईरान पर सैनिक आक्रमण के लिए भड़काने के साथ ही इस्लामी गणतंत्र व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए इमाम ख़ुमैनी के स्वतंत्रता प्रेमी विचारों से वैचारिक एवं सांस्कृतिक संघर्ष का भी प्रयास आरंभ किया। इसके लिए अतिग्रहित फ़िलिस्तीन के हैफ़ा एवं तेल अवीव के साथ ही अमरीका व कई यूरोपीय देशों के विश्व विद्यालयों में ईरान की इस्लामी क्रांति के वैचारिक आयामों की पहचान के लिए पूर्वी मामलों के विशेषज्ञों को आमंत्रित करके सम्मेलन व गोष्ठियां आयोजित की गईं। इन सम्मेलनों व गोष्ठियों का लक्ष्य इस महान क्रांति की मुख्य बातों को पहचानना था। उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि ईरान की इस्लामी क्रांति की जड़ें, शिया एवं करबलाई विचारों से जुड़ी हुई हैं। इसी के साथ उन्हें यह भी पता चला कि वहाबियत नाम का एक पंथ है जो शिया मुसलमानों को काफ़िर मानता है। दूसरे शब्दों में अमरीका, यूरोप व इस्राईल में होने वाले इन सभी सम्मेलनों व गोष्ठियों का निष्कर्ष यह था कि जिस पंथ ने ईरान में, अत्याचार के विरुद्ध इस प्रकार की क्रांति की है उसका वहाबियत नामक एक शत्रु है और इस क्रांति का मुक़ाबला करने के लिए, ईरान को वहाबियत के घेरे में घेरना होगा। यह ऐसी स्थिति में था कि जब ईरान में कभी भी शीया और सुन्नी की कोई बात ही नहीं थी बल्कि एक ऐसी क्रांति की बात थी जिसने क्षेत्र के समीकरणों में मूल परिवर्तन कर दिया था। शाह की सरकार जो अमरीका की पिट्ठू और अतिग्रहणकारी इस्राईली शासन की समर्थक थी, अचानक ही उसका स्थान एक ऐसी सरकार ने ले लिया जो अत्याचारग्रस्तों विशेष कर फ़िलिस्तीनी जनता की समर्थक थी और पश्चिम के अनुसार इस सरकार को रोका जाना चाहिए था। यही कारण था कि ईरान से मुक़ाबला करने के लिए अमरीका के समर्थक विभिन्न देशों से शिया विरोधी प्रचार आरंभ हो गया।

इन प्रचारों के दो आयाम थे। प्रथम, ऐतिहासिक मतभेदों और फ़ार्स की खाड़ी को अरब खाड़ी का जाली नाम दे कर उत्पन्न किए जाने वाले विवादों को हवा देना और दूसरे शिया और सुन्नी मुसलमानों के धार्मिक मतभेदों को भड़काना। इन देशों ने अपने संचार माध्यमों और क्षेत्रीय नीतियों में ईरान और शियत से भय उत्पन्न करने या दूसरे शब्दों में ईरानोफ़ोबिया व शियाफ़ोबिया पर बल दिया। उनका कहना है कि ईरानी, शिया और फ़ार्स हैं तथा उनका अरब जगत व सुन्नियों से कोई संबंध नहीं है। इन झूठे प्रचारों के अनुसार ईरान चाहता है कि इस्लाम धर्म के नाम पर सुन्नी मुसलमानों को शिया बना दे। यह ऐसी स्थिति में है कि इस्लामी क्रांति एक सांस्कृतिक क्रांति है और इसका संदेश, अत्याचार से संघर्ष, न्याय प्रेम और एकता के संबंध में क़ुरआने मजीद और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की शिक्षाओं पर आधारित था। इस्लामी क्रांति को निर्यात करने का आशय, इस संदेश को पूरे संसार के मुसलमानों तथा न्याय प्रेमियों तक पहुंचाना था। इस्लामी क्रांति के नेताओं ने कभी भी शिया पंथ को फैलाने का प्रयास नहीं किया बल्कि वे सदैव ही मुसलमानों के बीच एकता व संवाद का निमंत्रण देते रहे हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में इस्लामी क्रांति की सफलता के आरंभिक वर्षों से ही तेहरान में शिया व सुन्नी धर्म गुरुओं की सम्मिलिति से सम्मेलन आयोजित होते हैं किंतु अमरीका व उसके क्षेत्रीय घटकों ने सदैव इस बात का प्रयास किया है कि इस्लामी क्रांति के तथ्यों और इस क्रांति के संदेश को उलट-पलट कर प्रस्तुत करें तथा इस्लामी क्रांति को एक शिया क्रांति व सुन्नी मुसलमानों के लिए ख़तरा दर्शाएं।

ईरान की इस्लामी क्रांति के वैचारिक आधारों से संघर्ष की अमरीका व उसके घटकों की इस नीति के परिप्रेक्ष्य में पाकिस्तान व अफ़ग़ानिस्तान में और फिर मध्य एशियाई देशों में वहाबी मदरसों की बाढ़ सी आ गई और वहाबी विचारों का पितामह इब्ने तैमिया के तकफ़ीरी विचारों के साथ दसियों हज़ार छात्रों का प्रशिक्षण किया गया। ये छात्र सबसे अधिक एक पाठ पढ़ते थे और वह यह था कि शिया को मारने से स्वर्ग प्राप्त होता है। यह योजना अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति जिमी कार्टर के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ज़ेबिग्नियू ब्रिजेन्स्की ने प्रस्तुत की थी और अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान उन्होंने इस योजना के क्रियान्वयन पर दृष्टि भी रखी थी। तालेबान गुट ने इस चरमपंथी विचार धारा के साथ और अमरीका, ब्रिटेन तथा पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंसियों की सहायता से नब्बे के दशक के मध्य में अफ़ग़ानिस्तान के नब्बे प्रतिशत से अधिक भाग पर नियंत्रण कर लिया और अफ़ग़ान संघर्षकर्ताओं को काबुल से निकाल बाहर किया।

अगस्त वर्ष 2006 में दक्षिणी लेबनान में इस्लामी प्रतिरोध संगठन की विजय के बाद अमरीका व उसके क्षेत्रीय घटकों ने व्यापक स्तर पर सलफ़ी व तकफ़ीरी विचारों का प्रचार आरंभ कर दिया। अतिग्रहणकारी ज़ायोनी शासन पर लेबनान के हिज़्बुल्लाह संगठन की आश्चर्यजनक विजय ने अमरीका, इस्राईल और अत्याचारी अरब रजवाड़ों को अत्यधिक भयभीत कर दिया था विशेष कर इस लिए कि हिज़्बुल्लाह के पीले झंडे और उसके नेता सैयद हसन नसरुल्लाह के चित्र सभी अरब देशों की राजधानियों और प्रमुख नगरों में दिखाई देने लगे थे। इस विजय ने क्षेत्र में हिज़्बुल्लाह की लोकप्रियता इतनी बढ़ा दी कि ट्यूनीशिया के प्रमुख सुन्नी नेता शैख़ राशिद अलग़नूशी ने सैयद हसन नसरुल्लाह से टेलीफ़ोन पर वार्ता करते हुए कहा कि आप मेरे नेता व इमाम हैं। अमरीका की तत्कालीन विदेशमंत्री कोन्डोलीज़ा राइस ने अक्तूबर वर्ष 2006 में क़ाहेरा की यात्रा की और मिस्र के विदेशमंत्री से भेंट करने के बजाए चार अरब देशों के उच्च सुरक्षा अधिकारियों से भेंट का आग्रह किया। मिस्र, जार्डन, सऊदी अरब और संयुक्त अरब इमारात के गुप्तचर व सुरक्षा विभाग के उच्चाधिकारी, वहाबियत के प्रसार, शिया व सुन्नी मतभेदों को भड़काने और हिज़्बुल्लाह के प्रभाव को रोकने के लिए एकत्रित हुए। उनकी इस बैठक में यह निर्णय किया गया कि अरब जगत में इस लहर को रोकने के लिए शिया और सुन्नी विवाद को भड़काया जाना चाहिए। उसी समय इस्राईल की तत्कालीन विदेशमंत्री ज़िपी ल्यूनी ने कहा था कि हमारे समक्ष केवल एक मार्ग है और वह यह है कि क्षेत्र में शिया व सुन्नी मतभेदों को भड़का दें। उसके बाद ज़ायोनी शासन के अधिकारियों विशेष कर गुप्तचर संस्था मोसाद के प्रमुख मेयर डागान ने बारंबार घोषणा की कि इस्राईल की सुरक्षा का एकमात्र मार्ग, शिया व सुन्नी मुसलमानों के आपसी मतभेदों को बढ़ाना और अरब जगत में सांप्रदायिक झड़पें आरंभ कराना है।

सीरिया में संकट उत्पन्न करना और इस देश की सरकार को गिराने का प्रयास भी वस्तुतः शिया व सुन्नी मुसलमानों को एक दूसरे के सामने ला खड़ा करने के कुप्रयासों का ही क्रम है। वहाबियों की दृष्टि में हर वह सुन्नी जो सलफ़ी एवं तकफ़ीरी विचारों का विरोधी हो, उसका ख़ून बहाना भी वैध है। अलबत्ता इन सभी षड्यंत्रों क पीछे अमरीका व उसके घटकों की गुप्तचर सेवाएं काम कर रही हैं जो मुसलमानों के बीच फूट डालने का काम करवा रही हैं। इराक़ में जो लोग शिया मुसलमानों की मस्जिद में विस्फोट करते हैं वे वही लोग हैं जो सुन्नियों की मस्जिदों में भी धमाके करते हैं क्योंकि कभी भी कोई सुन्नी उन लोगों का जनसंहार नहीं कर सकता जो मस्जिद में नमाज़ अदा कर रहे हों। जो व्यक्ति दोनों पंथों की मस्जिद में विस्फोट करता है वह एक एजेंट होता है जो दोनों को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर देता है। इसी आधार पर धार्मिक व जातीय आधारों पर क्षेत्रों के बंटवारे की बात कही जा रही है। पश्चिमी देश इस षड्यंत्र के माध्यम से मुसलमानों को एक लम्बे समय तक के लिए धार्मिक एवं जातीय विवादों में ग्रस्त करना, मध्यपूर्व के रणनैतिक क्षेत्र में अपने अवैध हितों को पूरा करना और ज़ायोनी शासन की सुरक्षा को सुनिश्चित बनाना चाहते हैं।

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