Sunday 24 November 2013

एक नयी शुरुवात : मित्र के आरोप का सार-संकलन - गिरिजेश

"तोड़ो बंधन, तोड़ो....
ये अन्याय के बन्धन...."
प्रिय मित्र, मेरा अनुरोध है कि आप भी मुक्त मन से एक बार फिर से मेरा मूल्यांकन कर लें. कहीं ऐसा न हो कि आपको भी मेरे बारे में बाद में अफ़सोस हो कि आपने मेरे जैसे ग़लत इन्सान को अपने इतना क़रीब आने दिया और मेरे बारे में पूरा सच न जानने के कारण तब तक भ्रम में रहे.

अब मेरे पास अपने लिये ये विशेषण भी हैं - 
"सबसे बड़ा अवसरवादी, जातिवादी, बहुत बड़ा दोगला " 

हर कमज़ोर इन्सान बहुत जल्दी पूर्वाग्रहग्रस्त हो जाता है और फिर तर्क देने के बजाय केवल गालियाँ देने के स्तर पर उतर आता है. कमज़ोर इन्सान गालियाँ देते समय यह भी भूल जाता है कि सामने वाले ने उसके लिये कब-कब, कैसे-कैसे और क्या-क्या किया, कितने मौकों पर उसके बारे में बहुत कुछ जानते हुए भी उसके अत्याचार के हद से बढ़ जाने पर भी सब कुछ सहन करते हुए उसके साथ अपने सम्बन्ध का निर्वाह करता गया. उसके अन्दर सच कहने का साहस नहीं होता. मगर सच तो सच है. वह तो अन्ततोगत्वा पूरी तरह से हर पर्दा फाड़ कर सामने आता ही है. और फिर इस तरह उसके 'सच' के पूरी तरह केवल 'गालियों' के रूप में सामने आते ही उसकी अभिनय भरी, लम्बी और नकली कहानी ख़त्म हो जाती है. 

मजबूत इन्सान तर्क और तथ्यों के सहारे धीरज से अपनी बात कहता है और फिर पूरा समय ले कर सार-संकलन कर लेता है. फिर भी हर इन्सान के लिये स्पेस बचा कर रखता है. वह हर-हमेशा एक नयी शुरुवात करने के लिये तैयार रहता है.

आज फिर ऐसी ही एक 'कहानी' पर कम से कम तब तक के लिये पूर्ण-विराम लग गया, जब तक सामने वाले को अपनी गलती का एहसास हो जाये और फिर से वहीँ से वह बात शुरू करने के लिये तैयार हो, जहाँ आ कर टूटी है और पूरी ईमानदारी से अपने पूर्वाग्रहयुक्त वक्तव्य के लिये स्पष्ट शब्दों में माफ़ी माँग कर अपनी पहल ले....

इस मोड़ पर पहुँच कर अब तक छटपटाता रहने वाला मेरा मन एक बार संतुष्ट है.
बहुत दिनों से जारी एक और त्रासदी का अन्त हो गया. 
बहुत दिनों से अन्दर बैठी एक और तथाकथित 'अपनेपन' की मारक पीड़ा से आज मुक्ति मिली. 
इस मुक्ति के लिये भी उस 'मित्र' का ही आभार व्यक्त करना चाहता हूँ...
आपसे अब तक मिले आपके स्नेह और सम्मान के लिये आपके प्रति आभारी हूँ. 
आपका गिरिजेश

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