Tuesday 31 March 2015

#_समाज_में_सक्रिय_धाराएँ_एवं_मानव_मन_की_विसंगतियाँ_


प्रिय मित्र, मानव-मन विचित्र है और मानव-जीवन विविधता पूर्ण. मानव-समाज पीढ़ियों से समाज में उपस्थित विविध धाराओं के प्रवर्तकों, अनुयायियों और समर्थकों के सतत सजग और सक्रिय चिन्तन, विश्लेषण और मार्गदर्शन के साथ कदम मिलाते दिन-प्रति दिन गतिमान है. इनमें से कुछ धाराएँ समाज की व्यवस्था को आगे ले जाना चाहती हैं, तो कुछ यथा-स्थिति को बनाये रखना चाहती हैं, वहीं कुछ ऐसी भी धाराएँ हैं जो न तो वर्तमान से संतुष्ट हैं और न ही वे भविष्य के बेहतर समाज-व्यवस्था की कल्पना ही कर सकती हैं. वे केवल अतीत को ही गरिमा-मण्डित कर के अपने दम्भ को तृप्त और तुष्ट कर लेती हैं.


ऐसी अलग-अलग धाराओं को अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है. जहाँ भविष्य के बेहतर समाज-व्यवस्था को स्थापित करने के स्वप्न साकार करने के प्रयास और प्रयोग करने वाली धारा का नाम प्रयोगधर्मी, परिवर्तनवादी, प्रगतिशील, वैज्ञानिक, तर्कसम्मत, वामपन्थी और क्रान्तिकारी है, वहीं यथास्थिति से संतुष्ट धारा को यथास्थितिवादी कहते हैं और तीसरी धारा को प्रतिगामी, प्रतिक्रियावादी, अतीतजीवी, साम्प्रदायिक, दक्षिणपन्थी, परम्परावादी और अन्धविश्वासी धारा कहते हैं.

इनमें प्रगतिशील धारा के लोग समाज की वेदना को दूर करने के लिये ज़िम्मेदार कारण इसी समाज-व्यवस्था के भीतर निहित मानते और जानते हैं. वे उन कारणों को दूर करके नया समाज गढ़ने का प्रयास करते रहते हैं. उनके इन प्रयासों और प्रयोगों से समाज का वर्तमान ढाँचा प्रभावित होता रहता है. इसलिये जिन वर्गों और शक्तियों का निहित लाभ इस व्यवस्था में न केवल पूरा होता रहता है, बल्कि जिनकी स्थिति और भी सुदृढ़ होती रहती है, वे सभी क्रान्तिकारी धारा के लोगों का विरोध हर तरह से करते हैं.

वे उनको कानूनी और गैरकानूनी - हर तरीके से मिटाने का षड्यन्त्र करते हैं. इस षड्यन्त्र में दोनों ही धाराओं के — यथास्थितिवादी और प्रतिक्रियावादी — दिमाग और ताकतें परस्पर संयुक्त हो कर जन-सामान्य का दमन, उत्पीड़न और शोषण करती हैं और प्रतिवाद या प्रतिरोध करने वालों को पुलिस, अदालत, गुण्डों और पत्रकारों की मदद से अलगाव में डालने के लिये उनके विरुद्ध कुत्सा-प्रचार करती हैं. परिवर्तनकामी लोगों को हर तरह से अपमानित करने की व्यवस्थावादी धाराओं की कायराना हरकत अन्तिम नीचतापूर्ण हथियार के तौर पर उनकी हत्या करने तक चली जाती है. ऐसे शहीदों के नाम स्वर्णाक्षरों में सम्मान के साथ इतिहास लिखता है. परन्तु जीवन भर उनको इस जनविरोधी तन्त्र के चलते अमानुषिक यन्त्रणा और मार्मिक त्रासदी में जीना पड़ता है.

यथास्थितिवादी धारा को वर्तमान व्यवस्था में कोई गड़बड़ी नहीं दिखती. अगर उत्पीड़न और शोषण से त्रस्त लोगों के आन्दोलनों के दबाव में उनके कुकर्मों की कुछ-कुछ सच्चाई सामने आने लगती है, तो वे सीमा-युद्ध करवा कर जनता का ध्यान बाँट देते हैं. इस तरह ही परम्परावादी धारा भी गरीबी, महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोज़गारी को समाज की समस्या ही नहीं मानती. वह इन सबको छिपाने के लिये केवल भक्त, सन्त, भाग्य और भगवान् को ही सामने लाती है. उनका स्पष्ट कथन है कि हिन्दुस्तान का दुश्मन पाकिस्तान है और पाकिस्तान का दुश्मन हिन्दुस्तान और दोनों का दोस्त दुनिया का दुश्मन अतिमहाबली अमेरिका है. वे गरीबों का नाम तो लेते हैं, मगर काम अमीरों की सेवा का ही करते हैं. वे स्वघोषित 'देशभक्त' होते हैं.

अब यथास्थितिवादी और प्रतिक्रियावादी धाराओं की आपसी एकता लूट के माल के बँटवारे में टूटती है. दोनों अपने लिये दूसरी से अधिक बड़े हिस्से के दावे करती हैं. दोनों ही जनता को बेवकूफ़ बनाने के लिये एक से बढ़ कर एक शिगूफे लगातार छोड़ती रहती हैं. दोनों ही कोशिश करती हैं कि वे चुनावी समर में विजेता बन सकें और कम से कम पाँच साल तक निर्विरोध लूट-पाट करती रह सकें. उनके बीच हर समय हर तरह के हथकण्डे और कुचक्र जारी रहते ही हैं.

उनके बीच एक दूसरे के नेताओं और अधिकारियों को अपने कब्ज़े में करने या उनको हटाने और बदलने की चाल शतरंज की चाल की तरह हर-हमेशा चलती ही रहती हैं. व्यवस्था के शिखर से ले कर गाँव-गिराँव के सबसे निचले धरातल तक उनके लोग उनके लिये तो काम करते ही हैं और अपने लिये भी और बेहतर हैसियत और अधिक दौलत बटोरते रहते हैं. वे भी आपस में एक दूसरे के खिलाफ़ तरह-तरह के हथकण्डे जारी रखती हैं.

व्यवस्था इन्ही दोनों के बीच पक्ष-विपक्ष का 'नागनाथ बनाम साँपनाथ' नामक संसदीय नाटक खेलती रहती है. जब भी यथास्थितिवादी लुटेरे मासूम मेहनतकश लोगों को इतना परेशान कर देते हैं कि अब वे पूरी तरह से अझेल हो जाते हैं, तो लोग बदलाव चाहते हैं. अब बदलाव के नाम पर या तो आन्दोलन होते हैं या चुनाव. और दोनों ही में से कोई भी खड़ा करने में या हो जाने की स्थिति में साम्प्रदायिक धारा मासूम लोगों को झूठे वायदों में फँसाती है, उनकी धार्मिक भावनाओं को भड़काती है, उनके बीच साम्प्रदायिक उन्माद पैदा करती है और उसे खूब योजनाबद्ध ढंग से फैलाती है. और अंततः दंगे करवा कर वोटों का ध्रुवीकरण मासूमों की लाशों पर खड़ा करती है और अपने खून सने हाथों से तथाकथित 'पवित्र संविधान' की शपथ लेकर देश लूटने और बेचने के लिये और देशी पूँजी की सेवा करने और विदेशी पूँजी को आमन्त्रित करने के लिये सत्ता-प्रतिष्ठान पर आरूढ़ करवा दी जाती है.

उनके बीच परस्पर सत्ताहस्तान्तरण के लिये होने वाले जनतन्त्र के चुनाव नामक उत्सव की तैयारी की कोशिश में जहाँ एक तरफ उनके ही आकाओं के कब्ज़े में साँस लेने वाला प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपनी पूरी ताकत से अपने आका का नमक का क़र्ज़ उतारने की कोशिश करता है, वहीं समान्तर मीडिया पर भी उनके अन्ध भक्त और वेतनभोगी प्रचारक और समाचार-कर्मी धुवांधार प्रचार करते हैं. और सबसे मज़ेदार खुला सच तो यह है कि उनके इस प्रचार में सच होता ही नहीं. उसमें अधिक से अधिक हिस्सा सफ़ेद झूठ का ही होता है.

अन्धविश्वास को बढ़ावा देने वाली साम्प्रदायिक धारा का ज़ोर अतीत की चीर-फाड़ करने में नहीं उसे यथावत पुनर्स्थापित करने में रहता है. उनके पास अपनी अवस्थिति के समर्थन के लिये कोई तर्क नहीं रहता. इसीलिये वे केवल आस्था के सहारे लोगों को प्रभावित करती हैं. उनकी शक्ति भावनाओं में निहित होती है. वे तर्क के नाम पर केवल भद्दी-भद्दी गालियाँ देते हैं और साथ ही अपने से भिन्न धाराओं के लोगों की भावनाओं को बेतहाशा आहत करने पर ख़ुद तो आमादा रहते हैं, मगर अपनी भावनाओं के आहत होने की लगातार धमकी भी देते हैं और अपनी आहत भावनाओं का रोना रोते हुए व्यवस्था के रक्षकों तक गुहार लगाते रहते हैं.

अब व्यवस्था तो उनके चाकरों की है ही, तो इस व्यवस्था का हर नौकर-चाकर उनके पीछे ही सलाम ठोंक कर खड़ा होने को मजबूर है. ऐसे में साफ़-सुथरा आम इन्सान उनकी गीदड़-धमकियों से आतंकित हो जाता है और पीछे हट जाता है. मगर जिद्दी लोग उनकी बन्दर-घुड़की के झाँसे में नहीं आते, वे अपना काम जारी रखते हैं. वे अपने लक्ष्य को अपने जीवन से अधिक महत्त्व देते हैं और किसी भी सम्भावना के लिये मन बनाकर तैयार रहते हैं. उनके लिये ही दुष्यन्त लिखते हैं —

"कुछ भी बन बस कायर मत बन,
ठोकर मार पटक मत माथा
तेरी राह रोकते पाहन।
कुछ भी बन बस कायर मत बन।

युद्ध देही कहे जब पामर,
दे न दुहाई पीठ फेर कर
या तो जीत प्रीति के बल पर
या तेरा पथ चूमे तस्कर
प्रति हिंसा भी दुर्बलता है
पर कायरता अधिक अपावन
कुछ भी बन बस कायर मत बन।

ले-दे कर जीना क्या जीना
कब तक गम के आँसू पीना
मानवता ने सींचा तुझ को
बहा युगों तक खून-पसीना
कुछ न करेगा किया करेगा
रे मनुष्य बस कातर क्रंदन
कुछ भी बन बस कायर मत बन।

तेरी रक्षा का ना मोल है
पर तेरा मानव अमोल है
यह मिटता है वह बनता है
यही सत्य कि सही तोल है
अर्पण कर सर्वस्व मनुज को
न कर दुष्ट को आत्मसमर्पण
कुछ भी बन बस कायर मत बन।"


इतिहास के रथ-चक्र को साज़िशों के सहारे पीछे नहीं घुमाया जा सकता है. वह आगे ही जाने के लिये गतिशील है. मानव-समाज अब दुबारा सामन्तशाही समाज-व्यवस्था में नहीं जी सकता और न ही वापस जंगल में रहने वाले आदिमानव की ज़िन्दगी जी जा सकती है. जैसे-जैसे विज्ञान का विकास होता जाता है, वैसे-वैसे तकनीक हमारे समाज की 'उत्पादन की शक्तियों' को मुक्त करती जाती है और वैसे-वैसे ही समाज-व्यवस्था को परिचालित करने वाले 'उत्पादन-सम्बन्ध' विकसित होते जाते हैं.

निरन्तर विकसित हो रहे समाज में विज्ञान द्वारा आविष्कृत, उत्पादन-तन्त्र द्वारा उत्पादित, प्रचार-तन्त्र द्वारा विज्ञापित और बाज़ार द्वारा वितरित तरह-तरह के नित-नूतन विकसित उत्पादों का हमारी पूरी जीवन-शैली पर अनवरत व्यापक और हर तरह से परिवर्तनकारी प्रभाव पड़ता ही है. ऐसे में जीवन की विविधता में सबसे महत्वपूर्ण है कि हम सभी अपने-अपने हिस्से के काम को पूरी ज़िम्मेदारी से आगे बढ़ायें. जब हम अपने दायित्व का निर्वाह करते हैं और उसमें दत्तचित्त हो जाते हैं, तो दूसरे लोगों के व्यक्तिगत मामलों में ताक-झाँक करने का समय ही हमारे पास नहीं बचता.

और फिर क्या हम किसी की भी निजी जिन्दगी में ताक-झाँक कर सकते हैं ! यह काम नितान्त अनुचित है और समाज में व्यापक तौर पर ऐसे हास्यास्पद और विकृत काम करने वालों का विरोध होता रहा है. सामान्य मनुष्य तो सामान्य मनुष्य ही है, महापुरुष भी मनुष्य ही होते रहे हैं. अपने व्यक्तित्व में मानवीय दुर्बलताओं के होने से कोई भी सहज व्यक्ति इनकार नहीं करता. सभी बड़े और कद्दावर लोगों ने तो अपनी ऐसी विसंगतियों का स्वयं ही अपनी आत्मकथा में विस्तार से वर्णन किया है. ईसामसीह के अनुयायी चर्च में 'पाप-स्वीकृति' करते आये हैं. ईमानदार क्रान्तिकारी कार्यकर्ता खुले मन से सार्वजनिक तौर पर अपनी कमजोरियों को स्वीकार ही नहीं करता, उनके कारणों की पड़ताल भी करता है और स्वस्थ मन से आत्मालोचना करता है और इस विधा के सहारे सतत ही अपना परिष्कार भी करता जाता है. और इतिहास भी महापुरुषों की इतिहास-निर्माण में भागीदारी और उनके सकारात्मक योगदान को याद करता है. वह महापुरुषों का मैला अपने सर पर उठा कर नहीं ढोता फिरता.

समाज में प्रचलित तरह-तरह की वर्जनाओं के बारे में अनावश्यक रूप से कुत्सित चर्चा स्वस्थ मन का कोई भी आदमी नहीं करता. मात्र मनोरोगी और कुण्ठित लोग ही सबसे अधिक वर्जनाओं का ढोल पीटते हैं. वे ही सबसे बढ़-चढ़ कर उपदेशों और सूक्तियों का प्रवचन-लेखन-प्रचार करते हैं. परन्तु अपनी ख़ुद की मानसिक विकृति को तृप्त करने के लिये वे जगह-जगह तरह-तरह से हथलपाकी करने से भी बाज़ नहीं आते. किसी भी ग्रुप में वे ही सबसे अधिक मसालेदार और चटपटे पोस्ट भी लगाते हैं. उनकी फालतू की पोस्ट पर गम्भीर और ज़िम्मेदार लोगों को भी ना चाहते हुए भी कुछ न कुछ चर्चा व्यर्थ ही सही मगर करनी तो पड़ती ही है. और अगर किसी तरह हर चर्चा में आमन्त्रित किये जाने पर भी उस चर्चा में भागीदारी करने से बचने की भी कोशिश की जाये, तो उसे कम से कम एक बार पढ़ना तो पड़ता ही है.

वे अपनी या अपने दूसरे साथियों-दोस्तों की समझ को सुधारने, विकसित करने या बदलने के लिये न तो ख़ुद ही लिखते हैं और न ही दूसरे लोगों की पोस्ट्स को शेयर करते हैं. वे तो केवल अपना 'टाइम पास' करने और दूसरे लोगों का समय बर्बाद करने का मन बना कर केवल लासा लगा कर तमाशा देखने और अपनी बात का बतंगड़ बनते देख कर मज़ा लेने के लिये ही ग्रुप के पटल पर अपेक्षाकृत कुछ अधिक ही सक्रिय रहते हैं. उनके ग्रुप में बने रहने से न केवल ग्रुप का माहौल खराब होता है, लोगों के बीच दुराग्रह फैलता है, परस्पर सन्देह का बीज पनपने लगता है, बल्कि किसी भी स्वस्थ और सार्थक चर्चा की रही-सही सम्भावना भी मर जाती है.

दुष्टों और काँटों के लिये दो ही उपाय हमारे बुजुर्गों ने सुझाये हैं. उनका शिकार बनते रहने से कहीं बेहतर है कि या तो चाणक्य की तरह कुश में मट्ठा डाल कर उनका समूल नाश कर दिया जाये, या उनको ग्रुप से अलग कर दिया जाये. कम से कम उनके होने की तुलना में उनको दूर कर देने से नकारात्मक सोच का प्रचार-प्रसार थम जाता है और फालतू बतकुच्चन पर समय नष्ट करने की जगह कुछ सार्थक चर्चा के लिये माहौल और समय उपलब्ध होने लगता है.

अपने इस लेख को मैं रहीम के इस दोहे से समाप्त करना चाहूँगा.
"कह रहीम कैसे निभै, केर-बेर को संग;
ते डोलत रस आपने, तिनके फाटत अंग."


ढेर सारे प्यार के साथ — आपका गिरिजेश (18.2.15. -12.45.A.M.)
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