Tuesday 31 March 2015

परिंदा किंशुक शिव — "मलंग आदम के लिये..."





मानो तुमने अपनी गठरी में... ज़िद रखी हो कोई...
और ज़िद की जिल्द के नीचे एक किताब से... तुम...
ज़िद की जिल्द को कुतरना आसान नहीं...
नाखूनों-सी खुरच पर और कठोर हो जाये जो...
उन्हें कुतरने से समझना सम्भव नहीं...

तुम अपनी जिल्द से...
बीते समय का सबसे बेशकीमती इत्र निकालते हो...
इत्र... वह रस...
जिसमें कुचली, मसली, हल्की, सीली, उधड़ी पंखुरियों के उत्सर्ग सहेज रखने की तासीर है...
तासीर है सहेजने की... विद्रूपता से परे... उनके ख़त्म होने के बाद भी...
मगर सौरभ...!
निश्चित ही सौरभ... जैसे किसी शव पर रखा फूल...
फूल के शव से उठता सौरभ... तुम्हारा इत्र...

फूल तो मसला जा चुका...
फूल तो कुचला जा चुका...
फूल तो देह था खो चुका...
तुमने सहेज रखा है, बिल्कुल अन्तिम तक जाकर...
हर फूल का सौरभ...

वह इत्र तुम छिड़कते हो...
प्रेम पर...
ईश्वर पर...
सुन्दरता के हर आभास पर...
कतरा भर...
अँजुरी भर...

विस्मित ईश्वर ही रोयेगा...
बाकी सारे नाक-भौंह सिकोडेंगे...
ईश्वर माने सत्व...
सत्व जानता है उस सौरभ का रहस्य...
फूल के शव से उठता सौरभ...
शौकिया तोड़े, मरोड़े, कुचले फूल का सौरभ...

आदम तुमने क्या सबसे अलग महसूसा है...
जो परिपक्व हो इस अनुसन्धान में...
बताओ...
कैसे कुचल पाते हो मरे को...
निकाल लाते हो गन्ध...
नाक ढापने पर भी मस्तिष्क पर जम जाये...
और नमकीन बूँदों से गला भर आये, रुँध जाये...

मैं तुम्हें सोचता हूँ...
तो पाता हूँ सदैव बनारस का कोई अपरिचित घाट...
घाट पर...
अमावस्या की कोई रात...
भभूत-तिलक...
हाथ में रूद्राक्ष...
शिवस्त्रोत जैसे मन्त्र में गालियों की आवाज़...
और भीतर कोई विराट शव...
सुलगता हुआ...
जिसके रक्त-मांस की पकती गन्ध नथुनों में आती है...

किसी ज़िद की जिल्द में ढँकी किताब से...
सुलगते प्रेम की वेदी...
हवन-सी गन्ध...
और हाथों में हर कुचले, मैले, उधड़े फूल का इत्र...

इत्र जिससे सराबोर करोगे अपने भीतर के शव का कोई हिस्सा...
और तर्पण करोगे उसे उस घाट से...
देखता हूँ...
वह तर्पण तुम्हारी रोशनाई-सा होकर..
शब्द बन जाता है...
और हर सत्व पर जम जाता है...
यूँ तुम्हारा शव...
इत्र-सा महकता है बहुत-सी आत्माओं पर...
तुम हौले-हौले सिद्ध हो रहे हो...
अपने तर्पण से...
हम हौले-हौले शव होते जा रहे हैं...
सुलगते तुम्हारे इत्र से... महक कर...

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