Monday 25 February 2013

तोड़ती पत्थर - सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"


Hanumant Sharma - "सूक्ष्म कथा : विनिमय
( २१ फर. महाप्राण निराला को याद करते हुए )
महाप्राण ने इलाहाबाद के पथ पर उस तोड़ती पत्थर को देखा तो करुणा से बोले तुम ज़रा छाँव में बैठकर मेरी कविता को सँवारो और मै पत्थर तोड़ता हूँ |
लाओ अपना गुरु हथौड़ा तनिक मुझे दो |
फिर महाप्राण की भुजाओं की मछलियाँ मचली और घन प्रहार में कोटि कोटि बेकल जन के दमित सित्कार का ऐसा गर्जन हुआ कि दिकदिगंत थर्रा उठा |
उधर श्रम क्लांत युवती ने पेड़ तले सुस्ताकर अपनी अनगढ़ लेकिन मीठी बोली में सदियों की सहमी सहमी धुकधुकियों का एक झरना जगा दिया |
जिसमे युग युग की पीड़ा ने डुबकी मारी और नया जनम लिया |
और इलाहाबाद के पथ पर इस तरह कलम और हथौड़े का संगम हुआ जिसने राजपथ को जनपथ कर दिया |||||

मित्र, महाप्राण निराला की इस कविता के अन्तर्निहित सन्देश की और आपका गंभीर संकेत विचारणीय है। मगर एक निवेदन करना चाहूंगा कि निराला ने इस कविता में नायिका के द्वारा तोड़ती पत्थर क्यों कहा - क्यों नहीं नायक के द्वारा तोड़ता पत्थर कहा - इस पर भी विचार करने का कष्ट करें और निराला को पत्थर तोड़ने के उस स्थल पर साक्षी भाव से खडा करके देखने का कष्ट करें, तो मुझे लगता है कि कविता अपने संकेतों और सम्वाद के माध्यम से कुछ और भी अन्तर्निहित महत्वपूर्ण, सूक्ष्म और संवेदनशील अर्थों की और संकेत करती दिखाई देगी।
मुझे निराला जितने प्रिय हैं। उतना और कोई नहीं। मेरी समझ में निराला की इस रचना के नायक स्वयं निराला ही हैं। इस कविता की नायिका को उन्होंने अपने अन्दर के इंसान की यंत्रणा के बारे में पाठक से अपने सम्वाद का माध्यम मात्र ही बनाया है। कविता की नायिका के व्यक्तित्व में उकेरा गया सम्पूर्ण नारी-सौन्दर्य निराला के स्वयं अपने व्यक्तित्व के अन्दर ही रूपायित सौन्दर्य-बोध है। और नायिका के संकेत भी निराला के पौरुष की कामनाओं के ही बिम्ब हैं। कवि अपनी रचना में अपने अन्दर के इंसान और अपने अधूरे सपनों को ही जीता है। निराला ने भी जीवन भर जो पीड़ा और अभाव झेला, वही इस कविता में मुखरित हो गया है।

वसन्त-पञ्चमी पर महाप्राण निराला को नमन

तोड़ती पत्थर - सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।

देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।

एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
"मैं तोड़ती पत्थर।"


Hanumant Sharma - "Girijesh Tiwari जी आपका आभार कि आपने बेहद ज़रुरी इशारा किया ....निराला की उस कविता का सन्देश और सौंदर्य अप्रतिम हैं ....उसकी व्याख्या आज भी अधूरी है ...हिन्दी कविता के नए सौंदर्यशास्त्र का सूत्रपात इस तरह से होता है ...श्रम का सौंदर्य और शोषण की कुरूपता दोनो यहाँ उपस्थित है ...उस कवित का पुनर्पाठ होना चहिये ...मेरा संकेत सिर्फ इतना है कि यदि बुद्धि और श्रम यदि आपस में रुपांतरित हो जाये तो क्या एक नये संघर्ष और सौंदर्य की स्रष्टि संभव है ....इस पर आपके मार्गदर्शन की प्रतीक्षा रहेगी ...
आपकी बात से कविता और साफ़ होती है ...मुझे भी यही लगता है कि हर रचना लेखक का अपना आत्म कथ्य होती है ...वह अपने पात्रो में स्वयं को आरोपित करता चलता है ....निराला के यहाँ तो यह एकदम साकार जान पड़ता है ....राम की शक्ति पूजा के राम स्वयम निराला है " उद्धार प्रिया का हाय ना हो सका ..." और तुलसी दास नामक कविता तो जैसे तुलसीकी नहीं उनके संघर्ष और उपेक्षा की ही आपबीती जान पड़ती है"

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