Sunday 1 February 2015

___एक नौजवान से भारतीय क्रान्ति के बारे में दो बातें___



प्रिय मित्र, आज एक नौजवान से फोन से बातें करने का अवसर मिला. उत्साही था, इसलिये बात करने की पहल लिया, जिज्ञासु था, इसलिये बार-बार तकनीकी कारणों से लिंक टूट-टूट जाने के बाद भी कई टुकड़े में बात किया. धीरज था, इसलिये पूरी बात सुना. समझदार था, इसलिये तथ्यों और तर्कों पर प्रश्न और प्रतिप्रश्न किये. और भावुक था, इसलिये मेरी वेदना को महसूस किया. मैं उस युवा क्रान्तिकारी के प्रति आभार व्यक्त करते हुए आप से उस बात को साझा करने का प्रयास कर रहा हूँ.

प्रश्न था क्रान्ति का और सन्दर्भ था एस.यू.सी.आई. का.
मैंने पूरी विनम्रता से अपना मत प्रस्तुत किया. मेरा मत है कि मार्क्सवाद का विज्ञान और दर्शन समग्र चिन्तन और आचरण का मात्र एक पक्ष है. वह अपने आप में अभी तक की मानवता की विकास-यात्रा की सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है. उसे लागू करने की कोशिश करने वाले लोगों की क्षमता की सीमाएँ उन अगणित कारकों में एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में समाहित है, जिन्होंने समाजवाद की स्थापना के लिये जीतोड़ जद्दोजहद किया और उसके बाद और उसके आगे चल कर पूँजीवाद की पुनर्स्थापना करने में भी अपनी-अपनी भूमिका का निर्वाह किया.

जीवन को समझने के इस सबसे विकसित विज्ञान को आत्मसात करने वाले लोगों की सीमाएँ उनके अपने समाज की सांस्कृतिक, आर्थिक और वैचारिक पृष्ठभूमि की शताब्दियों से चलती चली आ रही परम्परा द्वारा प्रदत्त मूल्यों, मान्यताओं और हितों-स्वार्थों में निहित थी. इस पृष्ठभूमि की अपनी स्थान विशेष के अनुरूप पृथक ही सही परन्तु सीमाएँ थीं. उन व्यक्तित्वों की विकास-यात्रा में उनके जन्म-चिह्नों ने अपने-अपने अवरोध उत्पन्न किये, और उन अवरोधों का प्रभाव स्थान सापेक्ष और व्यक्ति सापेक्ष पड़ता रहा.

जहाँ स्वयं मार्क्स अपने दर्शन को प्रस्तुत करते समय पूरी विनम्रता से कहते हैं कि आने वाली पीढ़ियाँ उनसे अधिक समझदार होंगी और उनके विचारों का केवल वाहक बन कर उनकी भूमिका समाप्त नहीं हो जायेगी, अपितु वे उनके विचारों को अपनी परिस्थिति के अनुरूप और विकसित करती चली जायेंगी. मार्क्सवाद ख़ुद मार्क्स के लिये एक डॉग्मा नहीं था और न उनकी समझ से उनके अनुगामियों के लिये ही डॉग्मा बन कर ही रह जाने वाला था. उनकी मान्यता थी कि वह सतत विकासमान और परिवर्तनशील दर्शन के रूप में विकसित होता चला जायेगा. वहीं उसे आत्मसात करने वाले अपनी समझ की सीमाओं के चलते जड़ता के शिकार होकर उसे पूजनीय, दर्शनीय और आदरणीय बना कर विफल रह जाने के लिये अभिशप्त रहे.

स्तालिन और माओ के बाद की पीढ़ी से जिन ऐतिहासिक दायित्वों के निर्वाह की अपेक्षा थी, वे उसके निर्वाह की क्षमता से पूरी तरह वंचित थे और उन दायित्वों का वहन करने में पूरी तरह विफल साबित हुए. क्रान्तिकारी जीवन की कठिनाइयों को झेलते-झेलते उनमें से अनेक ऐसे निकले, जो अब थोड़ा ही सही परन्तु व्यवस्थित जीवन जीने के सपने देखने लग गये. इसका परिणाम वैश्विक पटल पर 1956 में ख्रुश्चेव के संशोधनवाद के रूप में सामने आया और भारतीय इतिहास में उसके भी पहले संसदीय वाम के तौर पर 195
7 में केरल विधानसभा  के चुनाव में सी.पी.आई. की सरकार के रूप में आ चुका था. इस तरह स्पष्ट देखा जा सकता है कि सी.पी.आई. संशोधनवाद के मामले में ख्रुश्चेव का पथ-प्रशस्त करने की भूमिका में रही.

अब वाम की दो धाराएँ आमने-सामने उभर कर आ चुकी थीं. क्रान्तिकारी पथ और संसदीय पथ.

चुनाव के चक्कर में फँसा संसदीय पथ निस्संदेह संशोधनवाद था. उसे अब अध्ययन-चक्रों के माध्यम से विकसित हुआ सुशिक्षित और प्रशिक्षित ज़मीनी कार्यकर्ता नहीं चाहिए था. उसे केवल अपने वोट-बैंक को जोड़ने वाला लिंक-मैन चाहिए था. वोट का गणित आन्दोलन के गणित से भिन्न होता है. चुनाववादी मार्क्सवादी पार्टियों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को अध्ययन-चक्रों के जाल बिछाना बन्द कर देना पड़ा और परिणामतः ज़मीनी कार्यकर्ताओं के स्तर पर अपने साथियों और अनुगामियों के वैचारिक धरातल को विकसित करने का अभियान उन कार्यकर्ताओं और नेताओं के जीवन की दिशा और दशा को निर्धारित करने वाले सपने के रूप में अचानक टूट जाने के चलते मृगतृष्णा की तरह ध्वस्त हो गया.

जबकि क्रान्तिकारी पथ पर दो परस्पर विरोधी अवस्थितियों ने लगातार प्रयास और प्रयोग किये. एक था आतंकवाद और सैन्यवाद का मार्ग और दूसरा था जन-दिशा का रास्ता.

आतंकवाद के रास्ते आगे बढ़ने वालों के लिये रोमांचकारी कारनामे का आभा-मण्डल था तो सही, परन्तु उनका अभियान आत्मघाती अभियान के रूप में जीने और आत्म-रक्षा का संघर्ष लड़ने के लिये अभिशप्त था. नक्सलबाड़ी के किसान-विद्रोह के बाद चारु मजुमदार की अवस्थिति से चलता हुआ आज के माओवादियों के संघर्ष तक जारी आतंकवादी कार्यदिशा के संघर्ष का रास्ता अगणित कुर्बानियों के बाद भी आज तक भी बन्द गली में खुलने के लिये बाध्य है. व्यवस्था भी ख़ूब सोच-समझ कर उस धारा के अस्तित्व को बनाये रखने में प्रत्यक्ष और परोक्ष सहायता करती रही है ताकि उसको मीडिया में भरपूर कवरेज दे कर क्रान्तिकारी चिन्तन के विरुद्ध जन सामान्य के बीच पूर्वाग्रह पैदा कर सके और उस पूर्वाग्रह को बनाये रख सके.

दूसरी धारा जनदिशा को लागू करने के प्रयासों और प्रयोगों में लगी. इस धारा के सामने राष्ट्रीय पटल पर प्रेरणा के स्रोत के रूप में दो मार्गदर्शक व्यक्तित्व थे. स्वाधीनता-संग्राम के काल-खण्ड में शहीद-ए-आज़म भगत सिंह और स्वाधीन भारत में शंकर गुहा नियोगी. दोनों ने ही जन-दिशा के पक्ष में न केवल तर्क दिया अपितु जितना समय और साधन मयस्सर हुआ, उतने प्रयोग भी किये और अपने प्रयोगों से जन-सामान्य को जोड़ने में सफल भी रहे.

जन-दिशा में सक्रिय क्रान्तिकारी धारा के सामने और भी विकट परिस्थितियाँ होती हैं. उनके नेतृत्व की जड़ता उनके विकास में सबसे अधिक बाधक होती है. समूचे भारतीय वाम के नेतृत्व में जो लोग उभर कर आये, वे न ही चिन्तन से और न ही वर्गीय पृष्ठभूमि से सर्वहारा की कतारों में से थे. वे मध्यम वर्ग और निम्न-मध्यम वर्ग के वे तेज़-तर्रार छात्र और युवा थे, जो देश-विदेश में उच्चशिक्षा प्राप्त करने के दौरान मार्क्सवादी चिन्तन के प्रभाव में आ गये. उनका मूल व्यक्तित्व उनकी वर्गीय पृष्ठभूमि और उनकी ज़िन्दगी की सुविधाओं के द्वारा निर्धारित होता रहा. वे अधिकतर मामलों में अपने को 'डी-क्लास' करने में विफल रहे. उनके वक्तव्य और आचरण में एकरूपता का अभाव रहा. वे बात तो ग़रीबों की करते रहे और ज़िन्दगी जितना जिससे बन पड़ सका, अमीरों जैसी ही जीने के चक्कर में रहे. जीवन और कथन के इस हास्यास्पद दोहरेपन के द्वंद्व का परिणाम हुआ ख़ुद उनके अपने व्यक्तित्व का विखण्डन और उनके साथ जुड़ने वाले ईमानदार और मासूम कार्यकर्ताओं का धीरे-धीरे ही सही एक के बाद एक करके होने वाला मोहभंग.

गाँव का दलित ग़रीब और भूमिहीन भी जो तब जब लाल झण्डे के साथ जुड़ा, उस समय भी उसका सपना समाजवाद की स्थापना नहीं था. उसका सपना था कि जब भी धरती बँटेगी, तो बाबू के खेतों पर उसका कब्ज़ा होगा. वह अपने लिये छोटा-मोटा ही सही भूस्वामी बनने का सपना लेकर ही लाल झण्डे के नीचे आया और इसीलिये उसका नारा था - धन और धरती बँट कर रहेगी ! ज़मीन जोतने वाले की होगी !! इससे अधिक न तो उसे जानकारी थी और न ही उसकी दिलचस्पी. और जब पीढ़ियों के गुज़रते जाने के बाद भी उसका सपना साकार नहीं हो सका, तो उसने लाल झन्डा फेंक कर नीला झंडा उठा लिया और आज वह मायावती के वोट-बैंक के रूप में चिह्नित है.

ऐसे में जनदिशा लागू करने वालों के सामने दोहरी समस्याएँ रही हैं. एक ओर उन कार्यकर्ताओं को अधिकतम रचनात्मक तरीके से लोगों के साथ जुड़ने का काम करना है तो दूसरी ओर अपने ख़ुद के और अपने संगठन के चरित्र को क्रान्तिकारी बनाये रखने के लिये आत्म-संघर्ष चलाना और संगठन के भीतर नेतृत्व की चालाकी और महन्थई के विरुद्ध संघर्ष चलाना अवश्यम्भावी है. उन सामने कार्यभार के रूप में लोगों का वैचारिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और सांगठनिक स्तर विकसित करने की ज़रूरत लगातार बनी रहती है तो दूसरी ओर इन सभी दायित्वों के निर्वाह के लिये आर्थिक संसाधन जुटाने का यक्ष-प्रश्न मुँह बाये खडा रहता है. परन्तु इन सभी चुनौतियों और अवरोधों से लड़ता-भिड़ता जनदिशा का क्रान्तिकारी कार्यकर्ता ही क्रान्ति के सही रास्ते की खोज करता है और अनेक सफल-विफल प्रयोगों के बीच से उभर कर जन-क्रान्ति का मॉडल खड़ा करता है.

90 के दशक में डंकल मसौदे के लागू होने के साथ ही दुनिया में एक नयी तरह की गुलामी का दौर शुरू हो गया. वित्तीय नव-उपनिवेशवाद के इस दौर में साम्राज्यवादी पूँजी ने राष्ट्र-राज्य की अवधारणा को परास्त कर दिया और देशों की सीमाओं का अतिक्रमण करके शेयर बाज़ार की सटोरिया पूँजी के रूप में वैश्विक स्तर पर शोषण के और भी सूक्ष्म और और भी जटिल ताने-बाने बुनना शुरू कर दिया. यह दौर निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण का दौर कहलाया. वैश्वीकरण के इस दौर में क्रान्ति ने भी समूची दुनिया के सामने और हमारे अपने देश की क्रान्तिकारी धारा के सामने नयी-नयी चुनौतियाँ खड़ी करना शुरू किया. अब साम्राज्यवाद बनाम जनगण का अन्तर्विरोध प्रधान अन्तर्विरोध बन गया. अब स्थानीयता की भूमिका बदल गयी. अब हमारे लिये 'ग्लोबल विज़न और लोकल एक्शन' के रूप में संगठन-क्षमता प्रदर्शित करने और क्रान्तिकारी प्रयोगों के मॉडल खड़े करने का और भी चुनौती भरा आज का जटिल और संश्लिष्ट संक्रमण का ज़माना आ गया.

जिस बच्चे ने 1990 में जन्म लिया, आज उसकी उम्र 25 वर्ष हो चुकी. पचीस वर्ष का युवक अपने शारीरिक और बौद्धिक विकास के प्रति सबसे अधिक सजग रहता है. भारतीय क्रान्ति के भावी नेतृत्व और उसके साथियों की शक्ति के बारे में मेरी स्पष्ट समझ है कि यह युवक अगर अतीत के प्रयोगों के सकारात्मक पक्ष से अपरिचित है, तो वह अतीत की विकृतियों से भी अनभिज्ञ है. वह पिछली पीढ़ी की तुलना में अपनी गति से अधिक तेज़ चलता है, अपनी दृष्टि से दुनिया को और बारीकी से देखता है और अपनी समझ से उसका और सूक्ष्म और व्यापक विश्लेषण करता है. उसकी ज़िन्दगी के सामने तिल-तिल कर ज़लील करने वाली महँगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, अन्याय, शोषण, उत्पीड़न, दमन, अलगाव और अपमान जैसी एक से बढ़ कर एक अगणित असमाधेय समस्याएँ हैं, उसे उन सब का सर्वस्वीकार्य और सर्वमान्य समाधान चाहिए ही.

वह अपनी उन सभी समस्याओं के समाधान तलाशने के प्रयास में समाज में सक्रिय ढेर सारी धाराओं और समाधान देने का दावा करने वाले अनेक दावेदारों से टकराता हुआ और उन सबसे मोहभंग होने पर अन्ततः क्रान्तिकारी विकल्प को आजमाने तक पहुँचता ही है. और तब एक नयी ऊर्जा और एक नये तेवर के साथ भारतीय क्रान्ति के युवा नेतृत्व और उसकी कतारों के उभरने की प्रबल सम्भावना कम से कम मुझे तो स्पष्ट दिखाई देती है.

जैसे-जैसे वह युवा अपने व्यक्तित्व के आचरण और चिन्तन के बन्धनों को तोड़ता जाता है, जैसे जैसे वह अपने 'स्व' को समूह के अधीन करता जाता है, जैसे-जैसे वह अपने को श्रमजीवी वर्गों की समस्याओं और उनके सपनों के साथ एकरूप करता जाता है, जैसे-जैसे वह अपने प्रयोगों को और-और-और सृजनात्मक और जनोपयोगी बनाता जाता है, वैसे-वैसे ही वह लोगों द्वारा अनुकरणीय और मान्य होने लगता है. और लोग उसकी भावनाओं और मंशा को सम्मान देते हैं तथा उसके प्रयोगों को समझते और अपनाते चले जाते हैं. रचनात्मक प्रयोग और समग्र जन समुदाय को तरह-तरह के जन-संगठनों में संगठित और परिचालित करने वाले अथक और अनवरत किये जाने वाले प्रयास ही लोगों को जोड़ सकते हैं. ऐसे विकल्प ही सर्वमान्य हो सकते हैं, जो हज़ारों वर्षों से चली आ रही परम्पराओं की रूढ़ और जड़ हो चुकी विकृतियों से मुक्ति की ज़मीन मुहैया कर सकें. जो जीवन के विविध क्षेत्रों में जारी वर्तमान व्यवस्था के जनविरोधी अनुष्ठानों की सडाँध की जगह लोगों के लिये अधिक उपयोगी, जीवन्त और प्रेरक मॉडल बन सकें.

अगर हम शिक्षा, चिकित्सा, न्याय, मनोरंजन और रोज़गार के क्षेत्रों में वैकल्पिक मॉडल खड़े कर सके और बाज़ार के लोभ-लाभ, मक्कारी-ठगी पर आधारित अमानुषिक सम्बन्धों की जगह मानवता की गरिमा और सम्मान के आधार पर जनजीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की आपूर्ति करने वाले निःशुल्क प्रयोगों और प्रकल्पों को सोच-समझ सके और उनको रूपायित कर सके, तो निश्चय ही हम वर्तमान समाज-व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर खड़े बाज़ार की काली ताकतों के दबाव के चलते पूरी तरह से अभावग्रस्त जीवन जीने को अभिशप्त सर्वहारा श्रमिक वर्ग के साथ जुड़ने के लिये उपादान बना लेंगे. इस रूप में हमारे ये मॉडल मार्क्सवाद के विज्ञान को और भी रचनात्मक तरीके से लागू करने और वर्तमान परिवेश के अनुरूप और भी विकसित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम होंगे.

आज बहुराष्ट्रीय निगमों की आवारा पूँजी की सेवा में लगा सत्ता-प्रतिष्ठान व्यापकतम जनशक्ति को मात्र साक्षर और सस्ते शारीरिक श्रम के ही रूप में तैयार करने का कुचक्र चला रहा है. उसे मात्र मुट्ठी भर विशेषज्ञों की ज़रूरत है. और उतने विशेषज्ञ आज भी तैयार किये जा रहे हैं. ताकि व्यापक आबादी को ज्ञान-विज्ञान के प्रकाश से मूल रूप से वंचित रखा जा सके, उनको अपना अन्धानुगामी बनाये रखा जा सके, शासक वर्गों के लिये उत्पादन की वर्तमान प्रणाली को निर्बाध रूप से चलाते रहना आसान और सम्भव बना रह सके, अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त पर टिकी उत्पादन, वितरण और शोषण की वर्तमान वैश्विक प्रणाली में इन्सान का खून चूसने का क्रम अनवरत रूप से चलता रहे, शोषक वर्गों की निरंकुश सत्ता कायम रह सके, सुविधाभोगी वर्गों की सुविधाओं के उपभोग की परजीवी जीवन-पद्धति निर्बाध रूप से दीर्घ काल तक चलती रहे और सटोरिया पूँजी द्वारा राष्ट्रीय ही नहीं वैश्विक स्तर पर श्रमिक वर्ग का अबाध शोषण-शासन जारी रह सके.

चूँकि जीवन के लिये अत्यावश्यक उपरोक्त सभी क्षेत्रों में तुलनात्मक रूप से शिक्षा ही मानव-मस्तिष्क को मुक्त करने वाला सबसे महत्वपूर्ण कारक है. आने वाला कल और भी अधिक विशेषज्ञता का दौर होने जा रहा है. शिक्षा ही भविष्य के लिये और भी बेहतर इन्सान गढ़ने का सबसे सुगम और सबसे सशक्त उपादान है. शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्तिकारी प्रयोग करने की प्रबल सम्भावना है. इन प्रयोगों के लिये कम से कम खर्चीली, मानक स्तर की, निःशुल्क और सर्वसुलभ शिक्षा-प्रणाली को किसी भी अन्य सेवा-प्रकल्प की तुलना में कम संसाधन रहने पर भी शुरू किया जा सकता है और लगातार चलाते रहा जा सकता है. क्रान्तिकारी धारा के प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की छोटी-छोटी टोलियों के रूप में बिखरी हुई अपनी शक्ति के दम पर आज हम जगह-जगह बच्चों, किशोरों और तरुणों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लैस करने का लक्ष्य लेकर सिखाने-पढ़ाने का काम शुरू कर सकते हैं. इस क्षेत्र में प्रयोग करने का मन बना कर जन-दिशा के अपने रचनात्मक मॉडल खड़े कर सकते हैं. जन-सामान्य की सबसे महत्वपूर्ण सेवा के इस काम को हम अपेक्षाकृत आसानी से हाथ में ले सकते हैं और निःशुल्क शिक्षण-प्रशिक्षण के सेवा-प्रकल्प के रूप में आजमा सकते हैं.

आने वाले कल का इन्कलाब गुज़र चुके इन्कलाबों में से किसी की भी मात्र अनुकृति नहीं हो सकता, आने वाले कल का संघर्ष अतीत के किसी भी संघर्ष से अधिक जटिल, सूक्ष्म, संश्लिष्ट और व्यापक होगा, आने वाले कल का क्रान्तिकारी साहित्य अतीत के सभी क्रान्तिकारी साहित्य से मूलतः भिन्न होगा, आने वाले कल का कार्यकर्ता हम सब से अधिक समर्थ होगा और आने वाले कल का क्रान्तिकारी नेतृत्व अभी तक के नेतृत्व से अधिक सक्षम, अधिक दृढ़ और अधिक लचीला होगा. हम सभी उस आने वाले कल की क्रान्तिकारी कतारों और उनके नेतृत्व को विकसित करने में अपनी-अपनी कूबत की सीमाओं को देखते-समझते हुए छोटी-सी ही सही, मात्र सहायक की ही सही अपनी-अपनी भूमिकाओं का सचेत तौर पर चयन और निर्वाह करने के लिये पूरी विनम्रता के साथ प्रस्तुत हैं.

ढेर सारी उम्मीद और ढेर सारे प्यार के साथ
                                                         — आपका गिरिजेश (2.2.15.)

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