Tuesday 25 November 2014

"जारी रहेगी जंग अँधेरे के खिलाफ़ !" - गिरिजेश



जारी रहेगी जंग अँधेरे के खिलाफ़ !"
अभी है अँधेरा...
पसरा चारों ओर....
काला भूतिया घुप घटाटोप दमघोटू !
साँय-साँय कर रहा सन्नाटा,
जारी साजिशें, उड़ते चमगादड़,
गुर्राते भेड़िये, मस्त गिद्ध,
गश्त कर रहे सियार और लोमड़ियाँ,
चमक रहीं गोल-गोल आँखें उल्लुओं की,
नोच रहे गरम इन्सानी गोश्त...
जारी है दावत प्रेतों की !

कितनी शिद्दत से महसूस हो रही है
ज़रूरत रोशनी की....
काश नहीं होता अँधेरा,
होती जगमग करती रोशनी....
और होती उस रोशनी में
लुका-छिपी खेलती
झिलमिल करती
उछलती-कूदती
नाचती-झूमती
ज़िन्दगी की रंगबिरंगी सच्चाई !

नाकाबिल-ए-बर्दाश्त है
अँधेरे का अमानुषिक अपराध,
तार-तार कर देने के लिये
अँधेरे की विद्रूप चादर को
तलाश है एक चिन्गारी की !
रोशनी के लिये
चिन्गारी की ज़रूरत है....

असह्य हो चुकी तलाश की तड़प,
अब यह ज़रूरत पूरी करनी ही है,
निकलना ही पड़ा है मुझे भी
तलाश में रोशनी की !
अँधेरे में अटपटे पड़ते पैर
सतर्क हो गये हैं और भी,
हाथ निभा रहे हैं आँखों की भूमिका,
दिमाग लीन है ताल देने में,
हाथों और पैरों के बीच जारी सरगम की लय के साथ !

समझ चुका चिन्गारी जगाने का तरीका,
देखो, तुम भी सीखो,
रगड़ रहा हूँ माटी को
पीसता हूँ, सानता हूँ,
बनाना है दीपक !

नहीं, नहीं,
नहीं हो पा रहा मुझसे कुछ भी....
क्यों, ऐसा क्यों हो रहा है आख़िर !
माटी भी साथ नहीं,
कुछ भी तो हाथ नहीं,
ज़र्रा-ज़र्रा रेशा-रेशा टूटी-फूटी बिखरी माटी,
तिनका-तिनका बिखरे सपनों की तरह !
बिखरे हैं धड़ाम-से गिरे आईनों के टुकड़े....
चुभ रही उनकी किरिच चुपके-चुपके
छाती में मेरी बायीं ओर
दमकने वाले हीरे की कनी में !

कल-कल तक ऐसा तो नहीं रहा,
सुरभित थे रंग-बिरंगे फूल,
उड़ती-इठलाती थीं तितलियाँ,
मौत के ठण्डे क्रूर पंजों में आज
जकड़े जा चुके हैं सारे कोमल फूल,
सूख चुकी हैं सारी पंखड़ियाँ,
झेल नहीं पा रहीं
पछुंवा हवा के झकोरों को !
इधर से उधर उड़ा ले जा रही है हवा,
सूखी पंखड़ियों को
बिखेर रही है टूटे सपनों की तरह....
कौन-सा मौसम है यह ?
सावन, वसन्त या कि पतझड़ !
जो भी हो इतना बीमार क्यों है भाई !

चिन्गारी जगाने के लिये टकरा रहा हूँ मैं
कठोर शिलाखण्डों को तड़ातड़ लगातार,
निकलेगी ही चिन्गारी,
बनेगा ही दिया,
जलेगी ही ज्योति एक दिन !
तब तक मैं नहीं रहा अगर
तो भी क्या हुआ, तुम तो रहोगे ही,
तुम भी करते जाना कोशिश मेरी ही तरह,
भर देना स्नेह से दिये को,
जला लेना अपना नन्हा-सा दिया,
बचाते रहना लौ को अन्धड़ से !

जलता रहेगा दिया, पसरता रहेगा उजाला,
तार-तार हो जायेगा अँधेरे का दौर,
फिर तो मयस्सर होगी ही रोशनी
मुझको, तुमको, हम सबको
आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों,
लड़ते जाना है, बढ़ते जाना है ऐसे ही बरसों,
आज उनका है, सही है,
कल तो हमारा ही होगा.
— गिरिजेश

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