Tuesday 25 November 2014

____असमाधेय त्रासदी की यन्त्रणा___


प्रिय मित्र, ढेर सारी सकारात्मक सम्भावनाओं को दिन-प्रतिदिन दरकिनार करते जा रहे एक महत्वपूर्ण युवा साथी की मनोदशा अतिशय शोचनीय स्थिति की ओर तेज़ी से बढ़ते देख रहा हूँ. ऐसे तो वह वर्षों से समस्याग्रस्त रहे हैं. परन्तु पिछले कुछ महीनों में उनके व्यक्तित्व को सतत त्रस्त, असहाय और असमाधेय होते जाते देखना पड़ रहा है. 

न जाने क्यों मुझे कल से ही ऐसा लग रहा है कि हमारे समाज के लिये ढेर सारी चीज़ें बेमानी हो चुकी हैं. ऐसी अनुपयोगी हो चुकी चीज़ों में सहज मानवीय सरोकार की चीज़ें - सम्वेदना, सहानुभूति और सलाह भी शामिल है. इन्सान अपनी मूल अवस्थिति से सुई बराबर भी हिलने को तैयार आज भी नहीं है. दुर्योधन तो खैर मिथकीय खलनायक के रूप में स्थापित है ही. कोई दूसरा भी, जो ख़ुद को दुर्योधन से बेहतर समझता और मानता है, अपनी मनोदशा और जड़ता की विसंगति को अच्छी तरह जानते-समझते हुए भी ख़ुद अपनी गति को दिशाबद्ध करने के लिये तैयार नहीं है. 

ऊपर से तुर्रा यह कि मुखौटों के ऊपर मुखौटे लगाये लोग, नकली मुस्कान से दूसरों और ख़ुद को भरमाते लोग, धूर्तता से शातिर साज़िश बुनते लोग, अपने और दूसरों के ऊपर भरोसा खो चुके लोग, आकस्मिकता की आशंका से भयभीत लोग, ज़िन्दगी की जंग हार चुके लोग, फ़र्जी हवाई गोले दागने वाले लोग, दूसरों को सुनाने के लिये मधुरतम शैली में एक से बढ़ कर एक सूक्तियाँ कहते-सुनते लोग अन्दर से कितने ढोंगी हैं — यह सोच-सोच कर मन खूब-ख़ूब विषादग्रस्त है. ऐसा लग रहा है कि जिस समाज में जितनी अधिक विकृतियाँ होती हैं, उसमें उतनी ही अधिक वर्जनाएँ भी होती हैं. और ऐसे ही समाज में अनावश्यक तौर पर ख़ूब अच्छी तरह अभिनय करते हुए बहुत ही आकर्षक और उपदेशात्मक शैली में सूक्तियाँ भी गढ़ी और प्रचारित की जाती हैं. यह समूचा अभिनय सारहीन होने पर भी नितान्त भ्रम में जीने वाले लोगों का सम्बल बना हुआ है.

सहजता हो, तो सूक्तियों की, कटूक्तियों की, व्यंग्य की, उपहास की, अपमान की और अवसाद की जगह कहाँ शेष रह सकती है. और अगर ये सभी अभी भी सशक्त तरीके से प्रचलन में बने हुए हैं, तो इसका सीधा आशय यही है कि हमारे समाज में बहुत कुछ सकारात्मक तो है, मगर अभी तक सहजता के स्तर तक हमारा वैयक्तिक या सामाजिक विकास हो ही नहीं सका है. ऐसे में अनावश्यक तौर पर दूसरे लोगों से सम्भावनाओं और अपेक्षाओं के भ्रम में जीना और उन अपेक्षाओं के विपरीत उनका चिन्तन, वक्तव्य और आचरण होने पर उलटे स्वयं ही प्रताड़ित और पीड़ित होना भी अपने आप में एक असमाधेय त्रासदी ही है. और इस त्रासदी से भी हमारी अपनी मुक्ति सरल नहीं है. 

कबीर याद आ रहे हैं और यह भी कितनी हास्यास्पद स्थिति है कि वह भी एक सूक्ति के ही रूप में याद आ रहे हैं. फिर भी मेरी अभिव्यक्ति की सीमा का एहसास मुझे है. और अगर कन्धों के नीचे बैसाखी न ले, तो कोई भी विकलांग व्यक्ति अपने दम पर एक भी क़दम आगे नहीं जा सकता. मैं और मेरी औकात भी नितान्त मानसिक विकलांगता से कहीं से तनिक भी कम नहीं है.
हाँ तो कबीर बाबा ने कहा —
"दोस पराया देखि के चले हसन्त-हसन्त;
आपन याद न आवई जाको आदि न अन्त."

उम्मीद कर रहा हूँ कि वक़्त हर बार की तरह ही इस बार भी कोई न कोई अनुकूल-प्रतिकूल रास्ता ख़ुद ही निकलेगा. हर बार की तरह इस बार भी बार-बार हर सम्भव प्रयास कर चुकने के बाद अब मेरी भूमिका केवल watch and wait करने की ही बची है. इसके बजाय अब और अधिक बिलावजह हाथ-पैर मारने और सिर धुनने से भी कोई भी लाभ होने की रंचमात्र भी सम्भावना नहीं दिख रही है.
हाँ, मैं सदा की तरह अभी भी अपराधबोध से ग्रस्त ही हूँ. 
ढेर सारे प्यार के साथ — आपका गिरिजेश 8.11.14.

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