Tuesday 25 November 2014

_स्टडी-सर्किल और अभिभावक-सम्मेलन_


प्रिय मित्र, आज व्यक्तित्व विकास परियोजना के इस नये केन्द्र पर पहली स्टडी-सर्किल और पहला अभिभावक-सम्मलेन आयोजित किया गया. दोनों ही कार्यक्रम सफलतापूर्वक सम्पन्न हुए. स्टडी सर्किल 11 बजे से 1.45 तक और अभिभावकों से विचार-विनिमय 2 से 4 बजे तक चला.
आज जहाँ छात्र-छात्राओं को उनके व्यक्तित्वान्तरण के इस अभियान के बारे में विस्तार से बताया गया. वहीं उनके अभिभावकों से अपनी सन्तान पर पूरा भरोसा करने का अनुरोध किया गया. और 'अंकल जी' से सजग रहने की सलाह दी गयी.

उनको यह बताया गया कि इस समाज में काम लेने के दो तरीके हैं. पहला है काम करने वाले को भयभीत कर के उससे काम करवाना. जो दास-व्यवस्था से आज तक बदलते हुए समाज के रूपों के अनुरूप बदलता रहा है. मगर उसकी मूल अन्तर्वस्तु यथावत है. दास-मालिक अपने दासों को जंजीरों में बाँध कर रखते थे. ख़रीदते-बेचते थे, उनको कोड़ों से पीट कर और भालों से छेद कर उनसे काम लेते थे. बीच-बीच में तनिक भी विद्रोह होने पर किसी एक दास को मार कर लटका देते थे, ताकि दूसरे दासों को सबक मिल सके. उस समाज में भी विद्रोह हुआ और आदिविद्रोही स्पार्टकस के नेतृत्व में गुलामों ने रोम को चुनौती दी.

उसके बाद सामन्तों की भूमि-सम्बन्धों पर आधारित व्यवस्था का लम्बा काल-खण्ड चला, जिसमे सूर्योदय से सूर्यास्त तक काम करवाने के लिये भू-स्वामी अपने भू-दासों को बसा और उजाड़ सकते थे, अपमानित कर सकते थे और बरही से बाँध कर लाठियों से पिटवा सकते थे. वे भी आतंकित करके ही काम करवाते थे.

आज अभी पूँजी, उद्योग, बाज़ार और विज्ञान का युग है. आज किसी भी कर्मचारी से काम लेने वाला उसके सामने होता ही नहीं है. वह न जाने किस देश के किस शहर में हो सकता है. काम करने वाले को उसकी उम्मीद भर की सुविधा मिली होती है. वह एक मोटर-साइकिल, एक ब्रीफकेस और एक मोबाइल फोन लेकर शहर से कसबे तक दिन भर भागता है और कम्पनी का दिया हुआ अपना टारगेट पूरा करता है. टारगेट पूरा करते ही कम्पनी उसको और सुविधाएँ दे कर और बड़ा टारगेट दे देती है. और इस तरह जो युवक रोजगार पा जाने पर बेरोज़गारी से मुक्ति की खुशी मनाता है, वही 40+ का होते ही अपने वर्कलोड के नीचे कराह रहा होता है.

वह अब बुरी तरह से पूँजी के लाभ-लोभ के मकड़जाल में फँस चुका है, अब वह न तो चैन से जी सकता है और न सुकून से सो सकता है. वह बी.पी. से लेकर तनाव तक की ढेरों बीमारियों का शिकार हो चुका होता है. वह केवल इस भय से काम करता चला जाता है कि तनिक भी चूक होते ही कम्पनी उसे बाहर का रास्ता दिखा देगी और उसकी जगह किसी नये बेरोज़गार को उससे कई गुना कम मजदूरी पर लगा लेगी. भीषण बेरोज़गारी के इस दौर में 'हायर और फायर' के अधिकार के चलते सिक्के की सेवा में इन्सान दिहाड़ी की गुलामी खटने को अभिशप्त है. इस बीच उसकी व्यक्तिगत ज़िम्मेदारियाँ भी इतनी बढ़ चुकी होती हैं कि वह बैल की तरह खटने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता. कम्पनी उसकी हड्डी का चूरा बना कर बाज़ार में बेचती रहती है और अपनी तिज़ोरी भरती रहती है.

आज बाज़ार ने हमारी शिक्षा, चिकित्सा, न्याय, रोज़गार और मनोरंजन सब पर कब्ज़ा कर लिया है. चाहे जिस भी पेशे में हो, आज इन्सान इन्सान की सेवा के लिये नहीं, बल्कि इन्सान की ज़ेब तराशने के लिये काम कर रहा है.

ऐसे में हमें इस आदमखोर व्यवस्था को आइना दिखाने की ज़रूरत है. हमारा प्रयोग प्रतीकात्मक ही सही पर बाज़ारवाद की मानसिकता का मूलतः विरोध करता है. और हमारी कामना है कि इस विरोध के स्वर को समय और साधन जुटते चले जाने के साथ हम और भी व्यापक स्तर पर फैलाते चले जायेंगे. हम आज़मगढ़ को 'आतंकगढ़' कहने वालों को उनके ब्लैक टैग से बड़ी सफ़ेद लकीर लकीर खींच कर मुंहतोड़ जवाब अपने रचनात्मक प्रयोगों के ज़रिये देने का प्रयास कर रहे हैं. हम उनको कह कर नहीं, कर के यह बताना चाहते हैं. यह इकबाल सुहैल के इस शेर से जाना जाने वाला शहर है —

"यह ख़ित्त-ए-आज़मगढ़ है, यहाँ फैजान-ए-तज़ल्ली है यकसाँ:
जो ज़र्रा यहाँ से उठता है, वह नैयर-ए-आज़म होता है."

हमारा प्रयोग वह प्रयोग है जिसके बारे में लोग कहते हैं कि आज़मगढ़ का मतलब है 'आओ-जमो-गढ़ो', यह असली इन्सान गढ़ने का कारखाना है.

अभिभावकों को बताया गया कि काम करने का दूसरा तरीका है — इन्सान को उसकी पूरी आज़ादी देकर उससे अपनी ख़ुद की पहल पर काम करने की उम्मीद करना. 'आज़ादी' का सपना जिसने स्पार्टकस के साथी गुलामों की चमकती हुई आँखों से उगना शुरू किया, उसने इन्सानियत की विकास-यात्रा में अगणित सूरमाओं को पूरी शिद्दत से इन्सानियत के दुश्मनों को ललकारने का माद्दा दिया. उसने जंग-ए-आज़ादी में शिरकत करने वाले एक-एक इन्सान को 'आज़ादी, बराबरी. भाई-चारा' का नारा दिया और 'हक़-इन्साफ़ और इन्सानियत' के पक्ष में खड़े होने का तेवर दिया. इन्सानियत के दुश्मनों के ख़िलाफ़ 1% बनाम 99% की वह लड़ाई आज भी जारी है.

हम आपके बच्चे और बच्ची को पूरी आज़ादी और पूरा सम्मान देते हैं. हम उसको मुसल्सल ईमान के साथ अपने दोस्तों को प्यार करना, अपने हिस्से की मेहनत करना और लोगों की सहायता और सेवा करना सिखाते हैं. हमारे बच्चे हमारे साथ झूठ नहीं बोलते, क्योंकि हम भी अपने बच्चों के साथ झूठ नहीं बोलते. हम उनको खूब-खूब प्यार करते हैं और वे भी हमको पूरे मन से प्यार करते हैं. हम उनको सच्चाई, ईमानदारी, बहादुरी, कुर्बानी और आदर्शों की प्रेरक कहानियाँ सुनाते हैं. हम उनको जीवन और जगत के बारे में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लैस करते रहते हैं और उनकी पहलकदमी को उभारने की कोशिश करते हैं.

हम उनको गलती करने की पूरी छूट और पूरा मौका देते हैं. हम उनको बताते हैं कि चूँकि हम इन्सान हैं, इसलिये अगर हम कोई भी काम पहली बार करने की कोशिश करने जा रहे हैं तो हम गलती ज़रूर करेंगे, और गलती करने पर नुकसान भी होगा. जितनी बड़ी कोशिश होगी, उतना ही अधिक बड़ा नुकसान भी होगा. हम उस नुकसान को बरदाश्त करने का धैर्य और कलेजा भी रखते हैं और उनकी उस गलती को सुधारने का रास्ता भी सोचते हैं और सुझाते हैं.

इस तरह इस प्रयोग के साथ जुड़ने वाला हर इन्सान सीखने-सिखाने की प्रक्रिया से गुज़रता हुआ वक्त गुज़रने के साथ-साथ देखते-देखते एक शानदार इन्सान में, एक अपराजेय योद्धा में, एक विशेषज्ञ में बदलता चला जाता है. वह अपने आस-पास के लोगों के बीच अपनी उपलब्धियों के सहारे मानदण्ड स्थापित करता है.
इस पत्र के साथ ही संलग्न हैं आज के आयोजन की चन्द तस्वीरें...

ढेर सारे प्यार के साथ — आपका गिरिजेश 9.11.14.

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