Tuesday 25 November 2014

___होश गुम होने का सवाल___


Manu Bhandari — "सर, इन्सान का होश कब गुम होता है और क्या इन्सान ठीक हो सकता है ?"(sir insan k hosh kb gum hote h or kya insan thik ho skta h)
उत्तर : — बेटी, तुम्हारा प्रश्न बारीक है.
मेरी समझ है कि किसी भी इन्सान का दम्भ बढ़ते जाने से उसका होश गुम हो जाता है. यह दम्भ अलग-अलग व्यक्तियों में अलग-अलग कारणों से बढ़ सकता है. किसी भी मामले में ख़ुद को वी.आई.पी. समझने के भ्रम से व्यक्ति के अहंकार को खुराक मिलती है.

अहंकारी व्यक्ति हरदम 'मैं-मैं' करता रहता है. वह अपने आस-पास के हर व्यक्ति को तरह-तरह से हमेशा तकलीफ़ देता रहता है. कभी अपने बड़बोलेपन से तो कभी अपनी कुटिल विनम्रता से वह लोगों पर अपना सिक्का जमाने की सफल-विफल कोशिश करता रहता है. लोग सहजतापूर्वक उसे एक सीमा तक सहन करते हैं. मगर जब लोगों की सहन-शक्ति जवाब दे जाती है, तो वे प्रतिक्रिया करते हैं. लोगों की प्रतिक्रिया उसके अत्याचार के बराबर और विपरीत ही नहीं होती, बल्कि उससे बहुत अधिक भीषण होती है.

और फिर जब ऊँट को पहाड़ दिख जाता है यानि कि जब अपने से अधिक समर्थ व्यक्ति से उसका साबका पड़ जाता है, तो या फिर उसे अर्श से फर्श पर गिरा दिया जाता है अर्थात् उसकी सामर्थ्य का स्रोत बन्द कर दिया जाता है, तो उसका होश ठिकाने आ जाता है. कई लोगों को ठोकर लगने से उनकी अक्ल बढ़ती जाती है. मगर कई लोग ऐसे भी होते हैं कि ठोकर-दर-ठोकर खा कर भी सम्भल नहीं पाते, उलटे वे अपने सर्वनाश तक अपने दम्भ के भ्रम के शिकार बने रहते हैं.

कहा गया है कि चूक करना मानवीय क्षमता के विकास के लिये आवश्यक है. हर व्यक्ति चूक करता है. मगर कुछ ही दिनों पहले मुझे Amit Singh ने एक बात बताया —
"अगर आप गलती करते हैं, तो मुझे खुशी होती है. 
मगर अगर आप वही गलती दोहराते हैं, तो मुझे क्षोभ होता है."
इस प्रश्न पर प्राचीन संस्कृत साहित्य से लेकर आधुनिक मनोविज्ञान तक (Id-ego-super ego —Sigmund Freud) बार-बार विचार और विश्लेषण किया गया है. गीता इसे इस रूप में प्रस्तुत करती है —

"ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते |
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोSभिजायते || 2-62||

ध्यायतः – चिन्तन करते हुए; विषयान् – इन्द्रिय विषयों को; पुंसः – मनुष्य की; सङ्गः – आसक्ति; तेषु – उन इन्द्रिय विषयों में; उपजायते – विकसित होती है; सङ्गात् – आसक्ति से; सञ्जायते – विकसित होती है; कामः – इच्छा; कामात् – काम से; क्रोधः – क्रोध; अभिजायते – प्रकट होता है |

(इन्द्रियाविषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उनमें आसक्ति उत्पन्न हो जाति है और ऐसी आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है |)

"क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥2-63॥


क्रोधात् – क्रोध से; भवति – होता है; सम्मोहः – पूर्ण मोह; सम्मोहात् – मोह से; स्मृति – स्मरणशक्ति का; विभ्रमः – मोह; स्मृति-भ्रंशात् – स्मृति के मोह से; बुद्धि-नाशः – बुद्धि का विनाश; बुद्धि-नाशात् – तथा बुद्धिनाश से; प्रणश्यति – अधःपतन होता है |

(क्रोध से पूर्ण मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मरणशक्ति का विभ्रम हो जाता है | जब स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाति है, तो बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट होने पर मनुष्य का अधःपतन होता है |)
(साभार सन्दर्भ - http://www.srimadbhagavadgitahindi.blogspot.in/2013/04/2-2-63-bg-2-63-bhagavad-gita-as-it-is.html)

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