Saturday 8 March 2014

― : कहानी ‘एकडग्गा’ पहलवान की :―



प्रिय मित्र, कभी किसी से सुनी यह कहानी मुझे अतिशय प्रिय है. यह तो याद नहीं आ रहा कि किससे सुनी थी. मगर कहानी में दम है इसीलिये यह मुझे इतनी प्रिय है. मैंने इसे इतने लोगों को इतने मौकों पर इतनी बार सुनाया है कि अब यह मुझे अपनी ही कहानी लगने लगी है. तो लीजिए, आप भी आज यह कहानी सुनिए और बताइए कि क्या आपको भी यह अपनी ही कहानी नहीं लग रही है ! 
ढेर सारे प्यार के साथ ― आपका गिरिजेश 

कहानी है पहलवान की. तो कहानी में एक गाँव है. गाँव के बगल में एक नदी भी है. नदी के रास्ते में हनुमान जी का एक छोटा-सा मन्दिर है. मन्दिर के चारों ओर पक्का चबूतरा है. अगल-बगल तरह-तरह के कई फलदार छायादार पेड़ हैं. पेड़ों की घनी छाँव में एक बड़ा-सा अखाड़ा है. अखाड़े के एक ओर एक इनार है. इनार के चारों ओर जगत है. जगत पर हाथ-गोड़ धो कर ही मन्दिर और अखाड़े में जाने का चलन है. 

अखाड़े के एक उस्ताद हैं. उस्ताद के ढेरों शागिर्द हैं. गाँव के सारे ही किशोर और तरुण सुबह-शाम अखाड़े पर जुटते हैं. सब के सब रंग-बिरंगी लँगोट बाँधे हैं. उनमें से कुछ कसरत करते हैं, तो कुछ अखाड़े की माटी तैयार करने में लग जाते हैं. एक तरफ़ मुग्दरों की जोड़ियाँ भाँजने वाले हैं, तो दूसरी ओर गदाएँ नचाने वाले. कोई बैठक लगा रहा है, तो कोई सपाट खींचने में लगा है. सभी के सुते हुए शरीर सुबह की रोशनी में चमक रहे हैं. एक-एक पेशी अलग-अलग ऐंठी हुई थल-थल कर रही है. किसी के भी शरीर पर कहीं भी चर्बी का कोई नाम-ओ-निशान नहीं है.

उस्ताद की अब उमर हो चली है. उनकी तलवार-कट मूछों के बाल तक सफ़ेद हो चुके हैं. मगर शरीर है कि ज़िन्दगी भर की कसरत से अभी भी कसा हुआ है. उनके नाम की पूरे इलाके में धूम है. जो शोहरत उनके अखाड़े की है, वह अरियात-करियात में और किसी अखाड़े को कभी भी मयस्सर नहीं हो सकी. दूर-दूर से पहलवान उनका नाम सुन कर उनको देखने और उनसे भेंट-घाँट करने आते रहते हैं. कहीं भी कोई दंगल होता है, तो उस्ताद ही उसकी सदारत करते हैं. कभी कहीं किसी दंगल में अगर किसी की हार-जीत के फैसले पर मौके पर हाज़िर लोगों के बीच कोई कहा-सुनी हो जाती है, तो उस हालत में उस्ताद का ही फ़ैसला दोनों गोलों के सभी लोगों को मन्जूर हो जाता है. 

कमर में केवल एक गमछा लपेटे उस्ताद आराम से पेड़ के नीचे चबूतरे पर बैठ कर चारों ओर देखते रहते हैं. उनकी नज़रें सभी पट्ठों की हरकतों पर बारीक़ी से घूमती रहती हैं. बीच-बीच में वह अलग-अलग लोगों को शाबासी भी देते रहते हैं और हिदायत भी. दो पट्ठे उस्ताद की मालिश करने में मशगूल हैं. उस्ताद की शागिर्दी के लिये सारे ही इलाके के जवान लालायित रहते हैं. उस्ताद अपने सभी पट्ठों को बड़े ही प्यार से तरह-तरह के दाँव-पेंच सिखा कर तैयार करते हैं. मज़ाल क्या है कि उनके किसी पट्ठे की पीठ पर कहीं कोई पहलवान धूर लगा दे. दूर-दूर के दंगल उस्ताद के शागिर्दों ने ही जीते हैं. तभी तो उस्ताद की इतनी इज्ज़त है. 

अब अखाड़े की माटी तैयार हो गयी है. उस्ताद चबूतरे से उतर कर मन्दिर में जाते हैं. हनुमान जी के सामने लटके घन्टे को बजा कर अखाड़े की ओर चल देते हैं. उस्ताद के पीछे सभी शागिर्द भी अखाड़े में उतरते हैं. अखाड़े में उतरने के पहले माटी को सिर से लगाने की परम्परा है. इस परम्परा का सभी पूरी निष्ठा के साथ पालन करते हैं. और फिर दो-दो की जोड़ में कुश्ती शुरू हो जाती है. उस्ताद हर जोड़ी को ललकारते और सिखाते हैं. पटकने वाले पट्ठे की पीठ ठोंकते हैं, तो पटकाने वाले को उस दाँव की काट सिखाते हैं. कुश्ती लड़ने वाले पहलवानों का जोश देखते ही बनता है. हो भी क्यों नहीं ! इसी रोज़-रोज़ के अभ्यास से ही तो वे जगह-जगह दंगल मारते रहते हैं. कसरत और कुश्ती रोज़-रोज़ की है, तभी जा कर उनको एक दिन कहीं किसी दंगल में उतरने का मौका मिल पाता है. 

बगल के गाँव के अखाड़े पर ऐसा ही एक दंगल बदा गया है. दूर-दूर के पहलवानों को न्यौता भेजा गया है. उस्ताद के पास भी बुलावा आया है. सारे ही पट्ठे दंगल में उतरने का मन बना कर उस्ताद के आस-पास खड़े हैं. बारी-बारी से उस्ताद एक-एक का नाम बोलते जा रहे हैं. जिसका नाम लिया जाता है, वह उस्ताद के पैर छू कर उनका आशीर्वाद लेता है. दंगल में लड़ने के लिये चुने गये पहलवान एक ओर खड़े होते जा रहे हैं. बाकी बचे पट्ठों में बहुत आतुरता है कि अब उसी का नाम पुकारा जायेगा. इतने सारे लोगों के बीच से चुना जाना भी कम मुश्किल नहीं है. कई नाम छाँट लेने के बाद उस्ताद अब लगभग संतुष्ट हो चले हैं. और बाकी के बचे हुए शागिर्दों का रोआँ गिरने लगा है. उनका मन हार मान कर उतरने लगा है. 

उनके ही बीच एक ओर एक खम्भे से टिक कर सिर झुकाये चुपचाप एकडग्गा भी खड़ा है. एकडग्गा की ओर देख कर उस्ताद के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कुराहट तैर जाती है. वह अपने सारे ही पट्ठों पर एक बार फिर से अपनी निगाह फेरते हैं और दुबारा धीरे-से मुस्कुराते हैं. और फिर अचानक उनके मुँह से जो नाम निकलता है, वह एकडग्गा का है. एकडग्गा का नाम सुन कर सारे ही पट्ठे अचकचा जाते हैं. उनको उस्ताद के इस फैसले पर बहुत अचरज है. एकडग्गा भी अपना नाम सुनता है. मगर वह वहीं पर सिर झुकाये वैसे ही चुपचाप खड़ा रह जाता है. 

उस्ताद दुबारा बड़े ही प्यार से उसे अपने पास बुलाते हैं : “एकडग्गा, यहाँ आओ बेटे !” अब जाकर एकडग्गा हिलता है. धीरे-धीरे डग भरता एकडग्गा अपने उस्ताद के सामने आ कर खड़ा हो जाता है. उसके चेहरे की सारी पेशियाँ क्षोभ से फड़क रही हैं. किसी तरह उसके मुँह से आवाज़ निकलती है : “उस्ताद, माफ़ कीजिए मुझे...! आज मैं आपकी शान में गुस्ताख़ी करने जा रहा हूँ.... अभी तक कभी भी मैंने आपकी हुकुम-उदूली नहीं की है... मगर अब मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रहा...” उस्ताद मुस्कुरा कर पूछते हैं : “क्या कहना चाहते हो, एकडग्गा ! कहो बेटा, खुल कर अपनी बात कहो.” गुस्से से थरथराता एकडग्गा किसी तरह इतना बोल पाता है : “उस्ताद, क्यों आप अपने से ही अपनी इज्ज़त को मिट्टी में मिलाना चाहते हैं ! मैं दंगल में जा कर भी क्या कर पाऊँगा ! अगर मैं पटका गया, तो मेरा तो केवल लँगोट रखवा लिया जायेगा, मगर आपकी तो इज्ज़त चली जायेगी !” 

उस्ताद अब गम्भीर हो चले. उन्होंने एक बार फिर से चारों ओर खड़े अपने सभी शागिर्दों को देखा. सभी चुप हैं. सन्नाटा साँय-साँय कर रहा है. उस्ताद ने एकडग्गा से पूछा : “क्या तुमको मेरे ऊपर भरोसा नहीं है ?” एकडग्गा रुहाँसा हो चला है. उसने जबान खोली : “उस्ताद, आप सबके उस्ताद हैं. मेरे भी हैं. मुझे आपके ऊपर पूरा भरोसा है. मगर...” और फिर एकडग्गा ठमक गया. उसकी आँखों से आँसू बह चले. उस्ताद ने दुबारा उसे बोलने के लिये कहा. रोते हुए एकडग्गा ने अपनी बात आगे बढ़ाई : “सबको तो आपने तरह-तरह के दाँव और उनकी काट सिखाई है. मगर मुझे तो जब से आपने गण्डा बाँध कर अपना शागिर्द बनाया, तब से आज तक केवल एक ही दाँव सिखाते चले गये. दूसरा कोई भी दाँव मुझे सिखाया ही नहीं. मैं अपने एक दाँव के सहारे भला दंगल में क्या कर पाऊँगा ?”

उस्ताद ने एकडग्गा की हिम्मत बढ़ाई. उन्होंने कहा : “एकडग्गा, मेरा हुकुम है बेटा ! तुमको दंगल में लड़ना ही है. और तुम मेरे ऊपर पूरा भरोसा रखो. मैं अभी से देख रहा हूँ कि तुम दंगल जीत रहे हो...!” मन मार कर एकडग्गा ने उस्ताद का हुकुम सिर-माथे लिया. उनका पैर छुआ और चुने गये लोगों के बीच वह भी जा कर खड़ा हो गया.

आज दंगल में बड़ी भीड़ उमड़ी है. खूब कसी-कसा है. पूरे इलाके के सारे ही बड़े-बड़े पहलवान वहाँ पहुँचे हैं. दर्शकों में गाँव-गाँव के हर उमर के लोग हैं. एक ओर ऊँचा-सा मंच बना है. मंच पर दूसरे अखाड़ों के उस्तादों के बीच एकडग्गा के उस्ताद भी बड़ा-सा साफ़ा बाँधे, बुर्राक़ सफ़ेद मलमल का कुरता पहने अपनी धोती का खूँट पकड़े बैठे हैं. वह भी औरों की तरह ही बीच-बीच में अपनी मूछें ऐंठ रहे हैं. अब दंगल शुरू हुआ. जिस पहलवान का नाम पुकारा जाता है, वह अपने उस्ताद के पैर छूकर अखाड़े में उतरता है. उसका हाथ उठा कर उसे अखाड़े में चारों ओर घुमाया जा रहा है. अपने को उसकी जोड़ का समझने वाला पहलवान उछल कर खड़ा हो जा रहा है और वह भी अपने उस्ताद का पैर छू कर अखाड़े में उतर जाता है. 

अखाड़े की माटी सिर से लगा कर सलामी देने के बाद दोनों पहलवान एक दूसरे से हाथ मिलाते हैं और फिर झटके से पीछे हट कर पैंतरा बदलने लगते हैं. देखते-देखते ही दोनों के पंजे आपस में गुँथ जाते हैं. दोनों ही कसमसा कर आपस में जूझने लगते हैं. एक दाँव लगाता है, तो दूसरा उसकी काट करता है. काट करते ही दोनों फिर छटक कर अलग हो जाते हैं. दोनों के ही शरीर आगे की ओर आधा झुके हैं. हाथ आगे की ओर लपकने को तैयार हिल रहे हैं. पैर अखाड़े के बीचोबीच धीरे-धीरे गोले में घूमते जा रहे हैं, आँखों में आँखें डाले दोनों ही एक दूसरे को तौल रहे हैं. और तभी अचानक कोई एक झपट्टा मारता है. और यह देखिए, सामने वाले को ले पटकता है. मगर अगला भी कम चुस्त नहीं है. गिरता भी है तो पीठ ऊपर ही है. जमीन से मानो वह चिपक ही गया है. अब चित्त कर देने के लिये ज़ोर लगाना जारी है. मगर तभी गिरा हुआ पहलवान नीचे से झटका मारते हुए अपने ऊपर वाले को हवा में उछालता है और फिर उसके ज़मीन पर गिरते ही फैसला उसे पटकने वाले की जीत का हो जाता है. चारों ओर तालियों की गड़गड़ाहट गूँज जाती है. जीतने वाले को लोग अपने कन्धों पर उठा लेते हैं. वह एक बार फिर विजय-गर्व के साथ अपने उस्ताद के पास जाता है और उस्ताद उठ कर उसकी पीठ और सिर पर अपना हाथ फेरते हैं.

इस तरह एक के बाद एक जोड़ जीतते-हारते लड़ते जा रहे हैं. तभी अचानक एकडग्गा का नाम पुकारा जाता है. एकडग्गा भी उस्ताद से आशीर्वाद लेकर अखाड़े में पहुँचता है. उसको भी बाँह पकड़ कर अखाड़े में घुमाया जाता है. उसकी भी जोड़ लगती है. और एकडग्गा अपने सामने वाले से हाथ मिलाता है. हाथ छुड़ा कर दोनों ही पैंतरा बदलते हैं. माहौल में अबकी बार बेतहाशा उत्तेजना फैल गयी है. दोनों गोल के लोगों को अपने पहलवान की जीत का भरोसा है. सभी अपने-अपने पहलवान का नाम ले-ले कर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगते हैं. मगर अचानक... सब के देखते-देखते... अरे यह क्या ! पहली ही पकड़ में जैसे ही एकडग्गा अपना दाँव मारता है, सामने वाला एकडग्गा के कन्धे से होता हुआ हवा में उछल कर तड़ाक से ज़मीन पर आ गिरता है. उसका कोई बस चल ही नहीं पाता और एकडग्गा को विजयी घोषित कर दिया जाता है.

विजयी एकडग्गा को अभी भी अपनी विजय पर विश्वास नहीं होता. वह अचरज से भरा उस्ताद के पास पहुँचता है. पैर छूता है और उसके मुँह से सवाल निकलता है : “उस्ताद, आपने दंगल से पहले ही कैसे देख लिया था कि मैं दंगल जीत रहा हूँ...!” उस्ताद उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हैं. उनका जवाब है : “एकडग्गा, मैंने तुमको जो दाँव सिखाया है, उसकी केवल एक ही काट है. और वह यह है कि सामने वाला तुम्हारी दाहिनी बाँह पकड़ कर तुमको अपनी पीठ पर तान ले. मगर तुम्हारे पास तो दाहिनी बाँह है ही नहीं. तुम तो जनम से ही केवल बायीं बाँह वाले हो. इसीलिये तुम्हारा नाम ‘एकडग्गा’ है. और इसीलिये तुमको कोई भी पहलवान किसी तरह से पटक ही नहीं सकता. बेटा, तुम अपने एक ही दाँव के सहारे अजेय हो... और फिर मेरा आशीर्वाद भी तो तुम्हारे साथ है...”

और इस तरह से 'अजेय एकडग्गा पहलवान' की यह कहानी पूरी होती है....

हम क्रान्तिकारी भी एकडग्गा पहलवान की तरह ‘केवल बायीं बाँह’ लेकर पैदा हुए हैं. हमारे पास भी अपने उस्ताद का सिखाया हुआ ‘एक ही दाँव’ है. दुश्मन हमको अपने अखाड़े में उतारने और अपने दाँव में फँसाने के लिये ललचाता रहता है. वह हमें हमारी दाहिनी बाँह के सहारे पटकने के चक्कर में रहता है. मगर हम दुश्मन को अपने अखाड़े में घेरते हैं. जब तक हम अपने उस्ताद से सीखे ‘बायीं बाँह वाले दाँव’ से लड़ते हैं, तब तक 'अजेय' रहते हैं. मगर जैसे ही हम दुश्मन की देखा-देखी ‘दाहिनी बाँह’ के मोह के चक्कर में फँसते हैं, वैसे ही दुश्मन हमें चित्त कर देता है. क्योंकि दुश्मन के अखाड़े का नाम ‘संसद’ है और हमारे अखाड़े का नाम है ‘जन-क्रान्ति’ !

1 comment:


  1. अनकही - ankahi
    याद हे नागपंचमी की ये कविता अपने बचपन में बाल भारती में पड़ी ये कविता ..ये कविता तरंग ब्लॉग से मेने ली हे उनका कोटिश धन्यवाद ..
    सूरज के आते भोर हुआ
    लाठी लेझिम का शोर हुआ
    यह नागपंचमी झम्मक-झम
    यह ढोल-ढमाका ढम्मक-ढम
    मल्लों की जब टोली निकली
    यह चर्चा फैली गली-गली
    दंगल हो रहा अखाड़े में
    चंदन चाचा के बाड़े में।।
    सुन समाचार दुनिया धाई,
    थी रेलपेल आवाजाई।
    यह पहलवान अम्बाले का,
    यह पहलवान पटियाले का।
    ये दोनों दूर विदेशों में,
    लड़ आए हैं परदेशों में।
    देखो ये ठठ के ठठ धाए
    अटपट चलते उद्भट आए
    थी भारी भीड़ अखाड़े में
    चंदन चाचा के बाड़े में
    वे गौर सलोने रंग लिये,
    अरमान विजय का संग लिये।
    कुछ हंसते से मुसकाते से,
    मूछों पर ताव जमाते से।
    जब मांसपेशियां बल खातीं,
    तन पर मछलियां उछल आतीं।
    थी भारी भीड़ अखाड़े में,
    चंदन चाचा के बाड़े में॥
    यह कुश्ती एक अजब रंग की,
    यह कुश्ती एक गजब ढंग की।
    देखो देखो ये मचा शोर,
    ये उठा पटक ये लगा जोर।
    यह दांव लगाया जब डट कर,
    वह साफ बचा तिरछा कट कर।
    जब यहां लगी टंगड़ी अंटी,
    बज गई वहां घन-घन घंटी।
    भगदड़ सी मची अखाड़े में,
    चंदन चाचा के बाड़े में॥
    वे भरी भुजाएं, भरे वक्ष
    वे दांव-पेंच में कुशल-दक्ष
    जब मांसपेशियां बल खातीं
    तन पर मछलियां उछल जातीं
    कुछ हंसते-से मुसकाते-से
    मस्ती का मान घटाते-से
    मूंछों पर ताव जमाते-से
    अलबेले भाव जगाते-से
    वे गौर, सलोने रंग लिये
    अरमान विजय का संग लिये
    दो उतरे मल्ल अखाड़े में
    चंदन चाचा के बाड़े में
    यहां शायद कुछ भूल रहा हूं।
    तालें ठोकीं, हुंकार उठी
    अजगर जैसी फुंकार उठी
    लिपटे भुज से भुज अचल-अटल
    दो बबर शेर जुट गए सबल
    बजता ज्यों ढोल-ढमाका था
    भिड़ता बांके से बांका था
    यों बल से बल था टकराता
    था लगता दांव, उखड़ जाता
    जब मारा कलाजंघ कस कर
    सब दंग कि वह निकला बच कर
    बगली उसने मारी डट कर
    वह साफ बचा तिरछा कट कर
    दंगल हो रहा अखाड़े में
    चंदन चाचा के बाड़े में......माफी चाहूँगा कवि का नाम याद नहीं आ रहा
    https://www.facebook.com/AnakahiAnkahi/posts/635538506469774

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