Friday 7 September 2012

समाजवाद क्यों ? - एल्बर्ट आइंस्टीन

समाजवाद क्यों ? - एल्बर्ट आइंस्टीन, 1949

क्या ये उचित है कि जो आर्थिक और सामजिक मुद्दों का विशेषज्ञ नहीं है, समाजवाद के विषय पर विचार व्यक्त करे? कई कारणों की वजह से मैं समझता हूँ कि यह उचित है|

पहले इस पृश्न को वैज्ञानिक ज्ञान के दृष्टिकोण से विचारते हैं| ऐसा लग सकता है कि खगोल विज्ञान और अर्थशास्त्र में मूलभूत सैद्धांतिक अंतर नहीं है: दोनों ही क्षेत्रों में वैज्ञानिक तथ्यों के सीमित समूह के लिए
व्यापक स्वीकार्य नियमों को खोजने की कोशिश करते हैं, जिससे इन तथ्यों के अंतर्जाल को जितना संभव हो उतने साफ़ तौर पर समझा जा सके| लेकिन हकीकत में ऐसे सैद्धांतिक अंतर मौजूद हैं| अर्थशास्त्र के क्षेत्र में व्यापक नियमों की खोज इस परिस्थिति से कठिन बन जाती है कि निरीक्षित किये जाने वाले आर्थिक तथ्य बहुत सारे ऐसे कारकों से प्रभावित होते हैं जिनका अलग से मूल्यांकन करना बहुत कठिन है| साथ ही, मानव इतिहास के तथाकथित सभ्यकाल के शुरुआत से जो अनुभव इकट्ठा हुआ है – जैसा कि जगजाहिर है – ऐसे कारणों से बहुत बड़े स्तर पर प्रभावित और सीमित होता रहा है जो किसी भी तरह से सिर्फ आर्थिक नहीं हैं| उदाहरण के तौर पर इतिहास के अधिकतर मुख्य देशों का अस्तित्व विजय की देन है| विजेताओं ने विजित देश में अपने को कानूनन और आर्थिक तौर पर विशिष्ट वर्ग की तरह स्थापित किया| उन्होंने भूस्वामित्व का एकाधिकार कायम किया और अपने ही वर्ग में से पुरोहित नियुक्त किये| इन पुरोहितों ने, जो शिक्षा के संचालक थे, समाज के वर्गीकरण को स्थायी तौर पर स्थापित किया और मान्यताओं का ऐसा तंत्र बनाया जिसकी वजह से लोग तभी से, काफ़ी हद तक अचेतन रूप से अपने सामाजिक व्यवहार में निर्देशित किये गए|

ऐतिहासिक परम्परा, ऐसे कहें तो कल की है; लेकिन कहीं भी हम मानव विकास की, जिसको थ्रोस्टीन वेब्लेन ने “लूटपाट की अवस्था” कहा है, से आगे नहीं बढ़ पाये हैं| निरीक्षित किये जाने वाले आर्थिक तथ्य उस अवस्था से संबंधित हैं और बल्कि जो नियम हम उससे व्युत्पन्न कर सकते हैं वो भी दूसरी अवस्थाओं पर लागू नहीं होते हैं| चूँकि समाजवाद का वास्तविक उद्देश्य मानव विकास की इस लूटपाट की अवस्था को पार करके उसके आगे उन्नति करना है, अपनी वर्तमान अवस्था में आर्थिक विज्ञान भविष्य के समाजवादी समाज पर थोड़ा सा प्रकाश डाल सकता है|

दूसरे, समाजवाद, सामाजिक-नैतिकता के लक्ष्य की ओर जाता है| विज्ञान न तो लक्ष्य बना सकता सकता है और न ही उनको मानव जाति के अंदर उतार सकता है; विज्ञान, बहुत से बहुत, किन्हीं लक्ष्यों को प्राप्त करने के साधन उपलब्ध करा सकता है| लेकिन खुद ये लक्ष्य उच्च नैतिक आदर्शों वाले व्यक्तियों द्वारा ही तय किये जाते हैं – और – अगर ये लक्ष्य मुर्दा नहीं है – बल्कि जीवंत और ओजस्वी हैं – तो उन बहुत सारे लोगों द्वारा अपनाए और आगे बढ़ाये जाते हैं, जो आंशिक अनजाने में समाज के विकासक्रम को निर्धारित करते हैं|

इन कारणों से, जब प्रश्न मानव समस्याओं का हो, हमको विज्ञान और वैज्ञानिक तरीकों को अनावश्यक महत्व देने के प्रति सचेत होना चाहिए; और हमको ये नहीं मानना चाहिए कि समाज की व्यवस्था को प्रभावित करने वाले प्रश्नों पर अभिव्यक्ति करने का अधिकार सिर्फ विशेषज्ञों को ही है|

अनगिनत आवाजें अब कुछ समय से ज़ोर देती रही हैं कि मानव समाज संकट से गुज़र रहा है, और कि इसकी स्थिरता भयंकर रूप से छिन्न-भिन्न हो गयी है| यह एक ऐसी अवस्था का लक्षण है कि हर कोई उस समूह के प्रति, छोटे या बड़े, के प्रति उदासीन या यहाँ तक कि विरोधी महसूस करता है, जिसमें वह रहता है| अपना मतलब समझाने के लिए मैं अपना एक व्यक्तिगत अनुभव बताता हूँ| हाल ही में मैंने एक विद्वान और संभ्रांत सज्जन से एक और युद्ध की आशंका पर विचार-विमर्श किया, जो मेरी दृष्टि में मानव जाति के अस्तित्व को गंभीर खतरे में डाल देगा, और मैंने टिपण्णी की कि एक राष्ट्रों से ऊपर का संगठन ही उस खतरे से सुरक्षा दे पायेगा| इस पर मेरे अतिथि ने बहुत ही शांत और ठंडे ढंग से कहा: “आप मानव जाति के विलुप्त होने के इतनी गहराई से विरोधी क्यों हैं?”

मुझे विश्वास है कि कम से कम एक शताब्दी पहले तक किसी ने भी इतने हल्के ढंग से इस तरह की बात नहीं कही होगी| यह एक ऐसे आदमी का कथन है जो अपने भीतर संतुलन पाने के लिए निरर्थक संघर्ष कर चुका है और सफलता की आशा लगभग खो चुका है| यह एक अलगाव और दर्दभरे अकेलेपन की ऐसी अभिव्यक्ति है जिससे आजकल बहुत से लोग पीड़ित हैं| इसका कारण क्या है? क्या कोई समाधान है?

इस तरह के प्रश्नों को उठाना आसान है, लेकिन किसी भी हद तक भरोसेमंद उत्तर देना मुश्किल| तब भी, जहाँ तक मुझसे हो सकेगा, मैं कोशिश करूँगा, यद्यपि मुझे इस बात का अच्छी तरह से एहसास है कि हमारी अनुभूतियाँ और प्रयास अक्सर विरोधावासी और अस्पष्ट होते हैं और कि वो आसान और सीधे सूत्रों में व्यक्त नहीं किये जा सकते|

आदमी सिक्के के दो पहलुओं की तरह एक एकाकी और सामाजिक प्राणी है| एकाकी प्राणी के रूप में वह अपनी निजी इच्छाओं की संतुष्टि और अपने स्वाभाविक गुणों के विकास के लिए अपने और अपने करीबी लोगों के अस्तित्व को बचाने की कोशिश करता है| सामाजिक प्राणी के रूप में वह अपने साथ के लोगों में पहचान और स्नेह पाने का प्रयास करता है जिससे उनकी खुशियों में हिस्सा ले, उनके दुःखों में उनको आराम दे और उनकी जीवन की परिस्थितियों में सुधार करे| केवल यही विविध, अक्सर विरोधाभासी, प्रयास किसी आदमी के विशिष्ट चरित्र को बनाते हैं और इनका विशिष्ट सम्मिश्रण उस सीमा को तय करता है जिस हद तक एक व्यक्ति अपना आंतरिक संतुलन पा सकता है और समाज के हित में योगदान दे सकता है| ये बिलकुल संभव है कि इन दोनों प्रेरणाओं की सापेक्षिक शक्ति मुख्यतः वंश-अनुक्रम से निर्धारित हो| लेकिन जो व्यक्तित्व अंततः उभर के आता है उसका निर्धारण मुख्य तौर पर, उस परिवेश से जिसमें व्यक्ति स्वयं को अपने विकास के दौरान पाता है, समाज के तौर तरीकों से जिसमें वह पलता-बढ़ता है, समाज की परम्पराओं से और ख़ास तरह के व्यवहारों के प्रति मूल्यांकन से होता है| एक व्यक्ति के लिए “समाज” की धारणा का मतलब उसके समकालीन और पिछली पीढ़ियों के सारे लोगों के साथ उसके प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष संबंधों का जोड़ होता है| व्यक्ति सोचने, महसूस करने, प्रयास करने और काम करने के स्वयं काबिल है; लेकिन वह समाज पर इतना ज़्यादा निर्भर है – अपने भौतिक, बौद्धिक और भावनात्मक अस्तित्व में – कि समाज के दायरे के बाहर उसके बारे में विचार करना या उसको समझ पाना असंभव है| यह समाज है जो व्यक्ति को खाना, कपड़ा, घर, काम के औज़ार, भाषा, विचारों का स्वरुप और विचार की अधिकाँश विषय-वस्तु देता है; उसका जीवन उन लाखों-लाख अतीत और वर्तमान के श्रम और उपलब्धियों द्वारा संभव हो पाया है जो सब एक छोटे से शब्द “समाज” के पीछे छुपे हुए हैं|

इसलिए यह स्पष्ट है कि व्यक्ति की समाज पर निर्भरता ऐसा प्राकृतिक नियम है जिसको खत्म नहीं किया जा सकता| बिलकुल वैसे ही जैसे चींटियों और मधुमक्खियों के मामले में है| लेकिन जहाँ चीटियों और मधुमक्खियों की पूरी जीवन प्रक्रिया की सूक्ष्मतम बात भी वंशानुगत प्रवृत्तियों द्वारा निर्धारित होती है, वहीँ व्यक्तियों के सामाजिक तौर तरीके और पारस्परिक संबंध बहुत परिवर्तनशील और बदलाव के लिए संवेदनशील हैं| स्मृति, नए संयोजन बनाने की क्षमता, मौखिक संवाद के गुण ने मानव के बीच ऐसे विकास संभव बनाये हैं जो जैविक आवश्यकताओं से प्रेरित नहीं होते| ऐसे विकास परम्परों, प्रथाओं, संगठनों; साहित्य; वैज्ञानिक और यांत्रिकी उपलब्धियों; कला में खुद को अभिव्यक्त करते हैं| इससे स्पष्ट होता है कि किस तरह से एक निश्चित भाव में, व्यक्ति अपने ही व्यवहार से अपने जीवन को प्रभावित कर सकता है और कि इस प्रक्रिया में सचेत चिंतन और चाहत एक भाग अदा कर सकती है|

व्यक्ति जन्म पर आनुवंशिकता द्वारा प्राकृतिक प्रवृत्तियों सहित एक जैविक संरचना पाता है, जिसको हमें स्थिर और अपरिवर्तनीय मानना चाहिए, जो मानव जाति की विशेषताएं है| इसके साथ ही, अपने जीवनकाल में वह एक सांस्कृतिक संरचना प्राप्त करता है जो वह संवादों और कई दूसरे तरह के प्रभावों द्वारा समाज से ग्रहण करता है| ये सांस्कृतिक संरचना ही है जो समय के साथ परिवर्तनशील है और व्यक्ति और समाज के बीच के संबंधों को बहुत हद तक तय करती है| आधुनिक मानवशास्त्र ने तथाकथित आदिम संस्कृति की तुलनात्मक जांच-पड़ताल से हमको सिखाया है कि समाज में सर्वाधिक प्रचलित सांस्कृतिक तौर तरीके और संगठन के स्वरुप से लोगों के सामाजिक व्यवहार में बहुत अंतर हो सकता है| वो जो मानव समुदाय की उन्नति के लिए प्रयास कर रहे हैं, इस पर ही अपनी आशाएं आधारित कर सकते हैं: अपनी जैविक संरचना की वजह से, एक दूसरे का विनाश करने या क्रूर आत्मघाती स्थिति की दया पर बने रहने के लिए, मानव जाति दोषी नहीं है|

यदि हम अपने से पूछें कि मानव जाति को जितना संभव हो सके उतना संतोषजनक बनाने के लिए समाज का ढांचा और व्यक्ति का सांस्कृतिक दृष्टिकोण कैसे बदला जाना चाहिए तो हमें लगातार इस बात के लिए सचेत रहना चाहिए कि कुछ परिस्थितियाँ ऐसी हैं जिनको बदलने में हम असमर्थ हैं| जैसा पहले बताया जा चुका है सभी व्यवहारिक अर्थों में व्यक्ति का जैविक स्वभाव अपरिवर्तनीय है| इसके अलावा पिछली कुछ शताब्दियों के तकनीकी और जनसांख्यकी विकास ने ऐसी परिस्तिथियाँ निर्मित की हैं जो अभी रहेंगी| अपेक्षाकृत सघन आबादी में अपने अस्तित्व की खातिर अनिवार्य सामग्री की आपूर्ति के लिए, एक चरम श्रम-विभाजन और एक अत्यंत केंद्रित उत्पादक सयंत्र परम आवश्यक हैं| वो समय, जो अतीत में देखने पर काफ़ी रमणीय प्रतीत होता है, हमेशा के लिए जा चुका है जब अकेला व्यक्ति या छोटे समूह पूर्ण रूप से आत्म-निर्भर हो सकते थे| यह कहना मामूली अतिशयोक्ति ही है कि मानव जाति अब तो उत्पादन और उपभोग का विश्वव्यापी समुदाय निर्मित करती है|

अब मैं वहां आ गया हूँ जहां मैं संक्षेप में इंगित कर सकूं कि मैं अपने समय के संकट का क्या सार समझता हूँ? यह व्यक्ति के समाज के साथ के रिश्तों से संबंधित है| व्यक्ति अब पहले से कहीं ज़्यादा अपनी समाज पर निर्भरता के बारे में समझता है| लेकिन वह इस निर्भरता को सकारात्मक गुण, प्राकृतिक दायित्व, रक्षात्मक बल के रूप में नहीं, बल्कि अपने मूल अधिकारों और इससे भी ज़्यादा अपने आर्थिक अस्तित्व के खतरे के रूप में अनुभव करता है| इसके अलावा उसकी स्थिति समाज में ऐसी है कि उसके स्वभाव की अहंकारी प्रवृतियां निरंतर प्रबल हो रही हैं, जबकि सामाजिक प्रवृतियां, जो स्वभाव से ही कमज़ोर हैं, लगातार गिरती जाती हैं| सभी लोग, चाहे उनकी समाज में कोई भी स्थिति हो, इस गिरती हुई प्रक्रिया से पीड़ित हैं| अनजाने ही अपने अहंकार में कैद, वे असुरक्षित, एकाकी और जीवन के सहज, सादे और अकृत्रिम आनंद से वंचित महसूस करते हैं| व्यक्ति अपने जीवन में अर्थ, अल्प और संकटपूर्ण जैसा भी है, अपने को समाज के प्रति समर्पित करके ही पा सकता है|

पूँजीवाद समाज की आर्थिक अराजकता जो आज मौजूद है, मेरी राय में, बुराइयों की वास्तविक जड़ है| हम अपने सामने एक विशाल उत्पादक समुदाय देखते हैं, जिसके सदस्य अपने सामूहिक श्रम के फल से एक दूसरे को वंचित करने के लिए बिना रुके संघर्ष कर रहे हैं, जबरन नहीं, बल्कि कुल मिलाकर कानूनन संस्थापित नियमों की ईमानदारी के अनुसार| इस सन्दर्भ में ये समझना महत्वपूर्ण है कि उत्पादन के साधन, अर्थात, पूरी उत्पादक क्षमता जो उपभोक्ता और अतिरिक्त पूँजी माल के लिए चाहिए – कानूनन, और अधिकतर के लिए है, व्यकि की निजी संपत्ति हो सकती है|

सरलता के लिए, आगे के विवेचन में मैं उनको “मज़दूर” कहूँगा जो उत्पादन के साधनों की मालिकी में हिस्सेदार नहीं होते, हालांकि ये प्रचलित शब्द के पूरी तरह से अनुरूप नहीं है| उत्पादन के साधनों का मालिक मज़दूर की श्रम-शक्ति को खरीदने की स्थिति में होता है| उत्पादन के साधनों का इस्तेमाल करके मज़दूर नया माल पैदा करता है जो पूंजीपति की संपत्ति बन जाती है| मज़दूर जो पैदा करता है और जो उसको मजदूरी मिलती है, दोनों को असल मूल्य के हिसाब से मापने पर, के बीच का संबंध इस प्रक्रिया का मूल बिंदु है| जब तक श्रम अनुबंध “स्वतंत्र” है, मज़दूर को जितना मिलता है, वह उसके पैदा किये माल के असल मूल्य से निर्धारित नहीं होता, बल्कि उसकी न्यूनतम आवश्यकताओं और नौकरियों की होड़ में लगे मजदूरों की संख्या के अनुपात में पूंजीपतियों की श्रम-शक्ति की ज़रूरत से होता है| यह समझना ज़रुरी है कि सिद्धांत तक में मज़दूर का वेतन उसके उत्पाद के मूल्य से निर्धारित नहीं होता|

निजी संपत्ति कुछ हाथों में केंद्रित होती जाती है, कुछ पूंजीपतियों की होड़ की वजह से और कुछ इसलिए क्योंकि तकनीकी विकास और श्रम का बढ़ता विभाजन छोटी उत्पादन इकाइयों की कीमत पर बड़ी इकाइयों के निर्माण को प्रोत्साहित करता है| इस विकास का परिणाम निजी संपत्ति का गुटतंत्र है, जिसकी विशाल शक्ति को प्रजातान्त्रिक से संगठित राजनीतिक समाज द्वारा भी प्रभावी रूप से नहीं जांचा जा सकता| यह सच है क्योंकि वैधानिक तंत्र के सदस्य राजनीतिक दलों द्वारा चुने जाते हैं, जो निजी पूंजीपतियों द्वारा बड़े तौर पर वित्तपोषित या दूसरी तरह से प्रभावित होते हैं, जो सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए, विधानमंडल से निर्वाचन समूह को अलग कर देते हैं| नतीजा ये होता है कि जनता के प्रतिनिधि दरअसल आबादी के शोषित वर्ग के हितों की पर्याप्त रक्षा नहीं करते| इसके अलावा मौजूदा परिस्थितियों में, निजी पूंजीपति सीधे या परोक्ष रूप से – सूचना के मुख्य साधनों (प्रेस, रेडियो, शिक्षा) पर अनिवार्य रूप से नियंत्रण रखते हैं| इस तरह यह अत्यंत कठिन और वास्तव में अधिकतर मामलों में बिलकुल असंभव है कि कोई नागरिक निष्पक्ष निष्कर्ष पर पहुंचे और अपने राजनीतिक अधिकारों का समझदारी से इस्तेमाल करे|

संपत्ति के निजी मलिकी पर आधारित अर्थव्यवस्था में प्रचलित दशा इस तरह दो सिद्धांतों से चित्रित होती है; एक, उत्पादन के साधन (पूँजी) व्यक्तिगत अधिकार में होते हैं और मालिक उसको जैसे ठीक समझते हैं वैसे बेचते हैं; दूसरे, श्रम अनुबंध स्वतंत्र होता है| निसन्देह इस अर्थ में शुद्ध पूंजीवादी समाज जैसी कोई वस्तु नहीं होती| विशेष रूप से यह उल्लेखनीय है कि मज़दूर, लंबे और तीखे राजनीतिक संघर्षों द्वारा, कुछ वर्गों के मजदूरों के लिए किंचित सुधरे स्वरुप के “स्वतंत्र श्रम अनुबंध” को प्राप्त करने में सफल हुए हैं| लेकिन समूचे तौर पर लेने पर, वर्तमान अर्थव्यवस्था “शुद्ध” पूँजीवाद समाज से ज़्यादा भिन्न नहीं है|

उत्पादन मुनाफे के लिए चलाया जाता है, न कि उपयोग के लिए| ऐसा कोई प्रावधान नहीं कि समर्थ और काम करने के इच्छुक सभी लोग हमेशा रोज़गार पाने की स्थिति में रहें; एक “बेरोज़गारों की फ़ौज” लगभग हमेशा मौजूद रहती है| मज़दूर लगातार अपनी नौकरी के खोने के डर में रहता है| चूंकि बेरोज़गार और कम वेतनभोगी मज़दूर मुनाफे का बाज़ार मुहैया नहीं कराते, उपभोक्ता माल का उत्पादन सीमित कर दिया जाता है और परिणाम घोर विपत्ति ही होता है| तकनीकी उन्नति का परिणाम सबके बोझ को कम करने के बजाय अक्सर ज़्यादा बेरोज़गार होता है| पूंजीपतियों के बीच होड़ के साथ जुड़ा मुनाफे का मकसद, पूँजी के संचय और उपयोग में अस्थिरता के लिए उत्तरदायी है जो बढ़ते हुए गंभीर दबाव की ओर ले जाता है| निरंकुश होड़ श्रम की बड़ी बर्बादी और व्यक्ति की सामाजिक चेतना की उस विकलांगता का कारण बनती है, जिसका मैंने पहले ज़िक्र किया|

व्यक्तियों की इस विकलांगता को मैं पूँजीवाद का सब से बड़ा अभिशाप मानता हूँ| हमारा पूरा शिक्षातंत्र इस अभिशाप से पीड़ित है| एक अतिरंजित प्रतियोगी मनोवृति छात्र के मन में बैठा दी जाती है, जो अपने भविष्य की जीविका के लिए तैयारी के तौर पर संग्रहणशील (लोभी) सफलता की पूजा के लिए प्रशिक्षित किया जाता है|

मैं सहमत हूँ कि इन विकट बुराइयों को दूर करने का केवल एक ही तरीका है, यानी समाजवादी अर्थव्यवस्था की स्थापना करके, साथ ही साथ ऐसे शिक्षातंत्र के जो सामाजिक ध्येय की ओर उन्मुख होगा| ऐसी अर्थव्यवस्था में उत्पादन के साधनों का स्वामित्व स्वयं समाज का होता है और वो व्यवस्थित तरीके से उपयोग में लाये जाते हैं| एक व्यवस्थित अर्थव्यवस्था जो उत्पादन को समुदाय की ज़रूरतों के हिसाब से ठीक करके, किये जाने वाले काम को कार्य में सक्षम लोगों के बीच बांटेगी और प्रत्येक व्यक्ति, स्त्री और बच्चे की आजीविका का ज़िम्मा लेगी| व्यक्ति की शिक्षा, उसकी स्वाभाविक क्षमताओं के प्रोत्साहन के साथ, अपने आज के समाज की ताकत और सफलता की चकाचौंध की बजाय अपने साथ के लोगों के लिए ज़िम्मेदारी के भाव को विकसित करने की कोशिश करेगी|

फिर भी यह याद रखना आवश्यक है कि व्यवस्थित अर्थव्यवस्था ही समाजवाद नहीं होती| इस तरह की व्यवस्थित अर्थव्यवस्था व्यक्ति की पूर्ण दासता के साथ भी हो सकती है| समाजवाद की उपलब्धि कुछ अत्यंत कठिन सामाजिक-राजनीतिक समस्यायों के समाधान की मांग करती है: राजनीतिक और आर्थिक ताकतों के व्यापक केंद्रीकरण के मद्देनज़र अफसरशाही को सर्व-शक्तिमान और घमंडी होने से रोका जाना कैसे संभव हो? कैसे व्यक्ति के अधिकार सुरक्षित हो सकते हैं और इसके साथ ही अफसरशाही ताकत को निष्प्रभावी बनाने के लिए प्रजातान्त्रिक ताकत कैसे सुनिश्चित हो?

समाजवाद की समस्याओं और उद्देश्यों की स्पष्टता हमारे संक्रमण युग में सबसे ज़्यादा महत्व रखती है| चूंकि वर्तमान परिस्थितियों के अंतर्गत इन समस्यायों का स्वतंत्र और निर्विघ्न विचार-विमर्श प्रबल रूप से वर्जित हो गया है, मैं इस पत्रिका की स्थापना को एक महत्वपूर्ण जनसेवा मानता हूँ|

1 comment:

  1. बहुत उपयोगी लेख !आभार इसकी प्रस्तुति के लिए !

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