Wednesday 11 September 2013

मुक्तिबोध की कलम से - girijesh




मुक्तिबोध की कलम से - 1
‘कष्ट देती हैं मुझे ये सब दिशाएँ / एक कहती है इधर आओ / जा नहीं सकता सभी की ओर / सबके साथ...
काश मैं निज से बड़ा और सख़्त हो पाता!’ - साँझ उतरी रंग लेकर उदासी का: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 18 से
‘मृत्यु के पथ पर बढ़ते हैं दबंग हुए बूढ़े सितारे।’ - आज जो चमकदार प्रज्ज्वलित: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 20 से
‘किन्तु सच जान लो / कि निधि तुम्हारी यह / कि ये फ़्लैशलाइटें / और उनका विश्वव्यापी प्रभाव / यह रौब-दाब / यहीं रह जायेगा / व अपने ही जीते जी / यहीं मर जाओगे / व द्युति-अक्षरों में लिखा हुआ रश्मि-काव्य / यहीं बुझ जायेगा, गुल हो जायेगा / न तुम रहोगे, न तुम्हारा शोर। .... पुश्त-दर-पुश्त / पीढ़ी-दर-पीढ़ी की देह में / शिराओं में / लाल-लाल ख़ून बन / बहता ही रहूँगा — / प्रकाशमान लाल रक्त नामहीन।... पत्थर मार-मार कर मुझे खाया गया है / मुझे तोड़ा गया है क्रूरता से... मुझे निजत्व-प्रकाशन-हित / फ़्लैशलाइटों व मेघों व व्योम की / ज़रूरत ही नहीं है!! / स्वयं का प्रकाशन नहीं करता / मैं तो सिर्फ़ बहता हूँ फैलता हूँ ख़ून में!! / क्योंकि मैं एक बेर का झाड़ हूँ / जंगली और कँटीला / किन्तु मीठा!!’ - मीठा बेर: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 22-23 से
‘भवन के सातवें तल्ले पर कुछ लोग / दुनिया की आत्मा की चीर-फाड़ / करने के बाद ही / टेबुल पर बहती हुई लोहू की धारा में / उँगलियाँ डुबो कर / ख़ून की लकीरों से / देशों की नयी-नयी ख़ूनी लाल ख़ूनी लाल / सरहदें सीमाएँ बनाते ही जाते हैं / हवाई अड्डों के प्रस्तावित स्थानों पर / ख़ूनी क्रास लगा कर / फ़ौजी घेरे मोर्चे / नये नये रक्त के चिह्नों से जाते हैं बनाते। / कौन हैं वे लोग बोलो, / कौन हैं वे लोग, अजी।... घुग्घू न दे सके इसका जवाब कुछ... पश्चिमी नगरों की इमारतें ठठाकर/मकानों के ताबूत कहकहे लगाकर/ हँस पड़े हँस पड़े।/फट गया अँधेरा/जनता के शत्रुओं ने अपने ही नाख़ूनों से/पागल हो/ चीर डाला चीर डाला,/ अपने ही सीने की हड्डियों का घेरा यह दुहेरा!!’ - बारह बजे रात के: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 23-27 से
‘अन्तर-भार-नम्रा देवदारु-डगाल के नीचे / झुके हम और अंजलि भर / लगे पीने / तुम्हारे साथ,/ उस झरते हुए जल-रूप / द्युति-निष्कर्ष को/ कि इतने में गहन गम्भीर, नीली घन-घटाओं की/ नभोभेदी चमकती गड़गड़ाहट-सी हुई/ अन्र्तगुहाएँ खोल मुँह चिल्ला उठी/ कहने लगी - / पी रहे हो तुम हमारा सत/ पी रहे हो गति/ पी रहे हो चित्/ निष्कर्ष-निर्झर-लहर/ प्राकृत, वन्य और असभ्य है/ वह मान्य ड्राइंग-रूम से तुम्हें हटवायेगी/ वह कान पकड़ेगी, उठा कर फेंक देगी/ अजनबी मैदान में/ घर-बार सब छुड़वायेगी। तुमको अजाने देश में/ गिरि-कन्दरा में जंगलों में सब जगह/ भटकायेगी।/ अजनबी स्थिति या परिस्थिति भी तुम्हें/ सम्पन्न कर देगी/ अतः आदेश उसके मान/ यदि तुम निकल जाओ/ वह जहाँ भी जाय/ वह जहाँ ले जाय/ तो तुम पाओगे अभिप्रेत/ संकट-कष्ट की चट्टान के भीतर फँसा हीरा/ निकल, दमकायेगा चेहरा तुम्हारा श्याम/ किन्तु यदि माना नहीं आदेश/ स्वयं निष्कर्ष तुमको रगड़ देंगे/ नष्ट कर देंगे/ जहाँ रुक जाओगे।/ तै नहीं आधे किये जाते रास्ते/ इस रास्ते पर धरमशाला डाकबँगला भी नहीं है/ सत्य को अनुभूत करना सहज है/ मुश्किल बहुत/ उसके कठिन निष्कर्ष-मार्गों पर चले चलना/ इसलिये इस अमृत निर्झर-लहर-जल को और भी पी लो।/ हाँ सुनो, / यदि व्यक्ति अथवा स्थिति/ की जब-जब बेरुख़ी दीखे/ सहज चलते रहो.../ अतः थी भीति भी तो हो उठी मीठी/ गहन आतंक हमको बुलाता-सा था!!.../ गहन परिवर्तनों के लक्ष्य का/ मन का जगत् का विश्व का/ मानव-प्रदेशों का सतत/ सुकुमार अनुसन्धान-पथ हमको दिखाता जायेगा/ सम्मोह का दीपक/ विवेकी अनुभवों के हाथ में जो किरण-तत्पर है/ यह हमें विश्वास था।.../ कि गहरी वेदना का संवहन-दायित्व हमको ले चला निष्कर्ष-पथ पर और/ लघु व्यक्तित्व के भीतर/ लहरते क्षीण पोखर में/ विराजित हो गया था सूर्य मुखमण्डल/ विचारों के चरण में/ संचरण में/ आचरण में और विचरण में/ गहन तेजस् व ओजस्/ और ऊर्जा है/ हमेशा ख़ून ताज़ा है!!.../ हम प्रथम विद्रोही जमाने से लड़े।.../ जब-जब कहा/ तब-तब ग्रहण लगने लगा/ इस सूर्य को उस चन्द्र को!!’ - गुँथे तुमसे, बिँधे तुमसे: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 27-30 से
‘ज़िन्दगी के चिलचिलाते इन पठारों पर/ हमेशा तिलमिलाते कष्ट में हमने/ अनेकों रास्तों पर घोर श्रम करके/ कुएँ खोदे/ हृदय के स्वच्छ पानी के,/ कि चटियल भूमि तोड़ी और भीतर से/ निकाला शुद्ध ताज़ा जल। वृथा की भद्रता औ’ शिष्टता के नियम सारे तोड़.../ अरे, हमने पठारों पर सतत/ जी-तोड़ मेहनत से/ हृदय जोड़े;/ कि इस पथ को/ स्वयं की भव्य अन्तःशक्ति से अभ्यस्त कर डाला/ कि फिर भी वह अधूरा था/ अधूरा / क्योंकि केवल भावना से/ काम चलना ख़ूब था मुश्किल/ हमें था चाहिए कुछ और/ जिससे ख़ून में किरनें बहें रवि की/ कि जिससे दिल/ अनूठा भव्य अपराजेय टीला हो/ कि जिससे वक्ष/ हो सिद्धान्त-सा मजबूत/ भीतर भाव गीला हो।’ - नक्षत्र-खण्ड: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 31-34 से
‘धरती की आँखों के सम्मुख अब/ असम्भव कि आगे आय/ सूना वह हिस्सा जो पिछला है चन्दा का/ अगला न हुआ हिस्सा वह/ चाहे वह पूनों हो, मावस हो/ तो अन्यों के नेत्रों से ओझल वह/ आत्म-संज्ञ निज-संविद् निज-चेतस्/ सूना वह गोल सिफ़र/ बाहर पर, धरती पर फैलाये छिटकाये चाँदनी/ तो कृत्रिम-स्मित मुसकाते चन्दा-सा/ शब्दों का अर्थ जब;.../ वेश्या के देह से चढ़ते-उतरते व चढ़ते हुए कम्प भरे भड़कीले वस्त्रों-सा/ सकुचाता सिहर जाय,/ शब्दों का अर्थ जब,/ किराये के श्रृंगार-दागों-सा उभर आय आदतन/ शैया की चमकीली/ चादर-सा फुसकाता हँस जाये,/ बिके हुए कमनीय गौर कपोलों पर/ पापों के फूलों-सा मुसकाये/ शब्दों का अर्थ जब!!/ अहं की वृत्तियों के मानसिक/ मकड़ी के जालों-सा सूक्ष्मतम- / श्रद्धा के द्वारों पर लगे हुए/ स्वार्थों के तालों-सा/ जीने के ज़ीने की/ अँधेरी व चक्करदार/ सीढ़ियों पर चोरों के पैरों की बार-बार/ प्रतिध्वनि-ध्वनियों-सा/ शब्दों का अर्थ जब,/ गिन्नी-सा, रुपयों-सा,/ पैसों-सा बोलेगा/ पाताली लोकों में/ लोभों के पे्रतों का/ डोलेगा सिंहासन;/...शब्दों का अर्थ जब/ अपने ही दाँतों से/ अपने ही घावों को/ काटे और चूम जाय,/ झुठलाती झूठी-सी/ निन्दा के होठों को/ चाटे और झूम जाय-/ शब्दों का अर्थ जब,/ सीधों के गालों पर/ टेढ़ों की घृणाभरी/ कुत्सामय झापड़-सा/ आत्मा के आस-पास/ द्वेषों की ईर्ष्या की/ थूहर-बबूलों की/ काँटेदार बागड़-सा/ शब्दों का अर्थ जब;/ लुके-छिपे कभी-कभी/ सज्जन की आत्मा में/ विकृतिपूर्ण स्वार्थों की/ अकस्मात् गड़बड़ या चन्द्र-किरण-स्नात/ वन-मंजरी-बौरायी नवल आम्र-शाख पर/ चिमगादड़-वृन्दों की/ फड़-फड़ या हुल्लड़-सा शब्दों का अर्थ जब;/...भीतर के दरवाज़े पर डालकर आकर्षक/ आदर्शों-लक्ष्यों की सुन्दर एक चिलमन/ चिलमन के भीतर जब/ मोहमयी नारी-सी/ अहंबद्ध सामाजिक/ उन्नति-प्रतिष्ठा की लालसा/ लेती है अँगड़ाई/...जन-जन की गर्दन पर/ शोषण के फरसे की/ भीषण कहानी-सा/ शब्दों का अर्थ जब;/... दुनिया को हाट समझ/ जन-जन के जीवन का/ मांस काट,/ रक्त-मांस विक्रय के/ प्रदर्शन की प्रतिभा का/ नया ठाठ,/ शब्दों का अर्थ जब/ नोच-खसोट लूट-पाट;/...सत्ता के परब्रह्म/ ईश्वर के आस-पास/ सांस्कृतिक लहँगों में/ लफंगों का लास-रास/ खुश होकर तालियाँ/ देते हुए गोलमटोल/ बिके हुए मूर्खों के/ होठों पर हीन हास/ शब्दों का अर्थ जब;/ सत्ता के लोहे के डण्डे से घबराकर/ जनता की दिग्विजयी क्षमता से कतराकर/ सज्जन के पंच-प्राण/ करते जब अविश्वास/ जन-बल में अश्रद्धा,/ जन-बल में अश्रद्धा/ स्वयं उन्हें देती है/ आत्म-विश्वास-हानि/ सज्जन की आत्मा तब/ विधवा बन जाती है/...विधवा की/ कोख से अवैध समझा गया जन्म/ जब सत्यों का होता है/ तो भय के अँधेरे में/ नपुंसक नदी-तीर/ आत्मजात शिशुओं की अपने ही हाथों से/ मरोड़ी ही गर्दन जो जाती है/ तब आत्मजा निन्दा की भयावनी/ मर्मान्तक शिकायतों/ सत्यों के कण्ठ-रोध- / प्रतिभा के शिशुओं की/ अन्तिम-दम-चीख़ों-सा/ शब्दों का अर्थ जब,/...तब मनुष्य ऊबकर उकताकर/ ऐसे सब अर्थों की छाती पर पैर जमा/ तोड़ेगा काराएँ कल्मष की/ तोड़ेगा दुर्ग सब/ अर्थों के अनर्थ के।/ अनर्थ जब शोषण की दुनिया का/ नियम और/ जनता का नियम जबकि/ संघर्षी दिग्विजय/ तो शब्दों का अर्थ भी/ अलग-अलग होता है,/...ग़रीबी के अनुभव के बीहड़ हिमनग प्रदेशों में/ ममता की शुभ्र अमल गंगा के कूलों पर/ मानवीय लक्ष्यों के/ श्याम खेत सिंचते हैं पठारों पर/ संवेदन सत्यों की झीलें प्रतिबिम्बित अरुणायित लहरातीं।/ राजपथों-गलियों में/ जीवन के वैज्ञानिक ज्ञान-दीप/ प्राणों के हँसते हैं।/...ग़रीबी की राहों के चैराहों,दुराहों पर/ मन्त्रमुग्ध भावों की/ शीर्षोन्नत जनता को/ पुकारता जगाता है/ मनस्वी एक अपना ही,/ तो अपने ही प्राणों के भीतर उस/ तेजस्वी साथी के दमदमाते क्रान्तिकारी स्वप्नों-सा/ शब्दों का अर्थ जब;/ जनता के जीवन के संवेदन-सत्यों के चित्रों से- / तथ्यों के विश्लेषण-संश्लेषण-बिम्बों से- / बनाकर धरित्री का मानचित्र/ दूर क्षितिज फलक पर कि टाँग जो देता है/ वह जीवन का वैज्ञानिक यशस्वी/ कार्यकर्ता है/ मनस्वी क्रान्तिकारी वह/ सहजता से/ दृढ़ता से/ दिशाएँ कर निर्धारित/ उषाएँ कर उद्घाटित/ जन-जन को पुकारता जगाता है निशाओं में/ तो उसकी उस कण्ठ-रुँधी बन्धु-भाव/ भरी हुई वाणी में काँप रही/ जगमगाती आग और/ छलकते हुए पानी-सा/ शब्दों का अर्थ जब;’ - शब्दों का अर्थ जब: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 34-47 से

मुक्तिबोध की कलम से - 2
‘सुबह से शाम तक/ मन में ही/ आड़ी-टेढ़ी लकीरों से करता हूँ/ अपनी ही काट-पीट/ ग़लत के खि़लाफ़ नित सही की तलाश में.../...दायित्व-भावों की तुलना में/ अपना ही व्यक्ति जब देखता/ तो पाता हूँ कि/ खुद नहीं मालूम/ सही हूँ या ग़लत हूँ/...सत्य मेरा अलंकार यदि, हाय/ तो फिर मैं बुरा हूँ।...सत्य है कि/ बहुत भव्य रम्य विशाल मृदु/ कोई चीज़/ कभी-कभी सिकुड़ती है इतनी कि/ तुच्छ और क्षुद्र ही लगती है!!...चाहिए मुझे मैं/ चाहिए मुझे मेरा खोया हुआ/ रूखा-सूखा व्यक्तित्व/ चाहिए मुझे मेरा पाषाण/ चाहिए मुझे मेरा असंग बबूलपन।... बीसवीं सदी की एक/ नालायक ट्रेजेडी/ ज़माने की दुःखान्त मूर्खता/ फै़ण्टेसी मन हर/ बुदबुदाता हुआ आत्म-संवाद/ होठों का बेवकूफ़ कथ्य और/ फफक-फफक ढुला अश्रुजल/ अरी तुम षड्यन्त्र-व्यूह-जाल-फँसी हुई/ अजान सब पैंतरों से बातों से/ भोले विश्वास की सहजता/ स्वाभाविक सौंप/ यह प्राकृतिक हृदय-दान- / बेसिकली ग़लत तुम।’ - चाहिए मुझे मेरा असंग बबूलपन: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 47-49 से
‘नहीं चाहिए मुझे हवेली,/ नहीं चाहिए मुझे इमारत;/ नहीं चाहिए मुझको मेरी/ अपनी सेवाओं की क़ीमत;/ नहीं चाहिए मुझे दुष्मनी करने कहने की बातों की/ नहीं चाहिए वह आईना/ बिगाड़ दे जो सूरत मेरी/ बड़ों-बड़ों के इस समाज में शिरा-शिरा कम्पित होती है,/ अहंकार है मुझको भी तो/ मेरे भी गौरव की भेरी/ यदि न बजे इन राजपथों पर/ तो क्या होगा!! मैं न मरूँगा/... बड़ी मुसीबत है कि मुसीबत में से मंज़िल अनक़रीब है/...और भद्रता के आँगन में हमें बदा है/ लिये बाल-बच्चे कन्धे पर सिर्फ़ काँपना/ अथवा निज औघड़ बोली में बात प्रकटकर/ असभ्य कहलाना!!/ यही दुःख है,/ सेवाओं की क़ीमत किनसे लूँ मैं/ उनसे नहीं कि जिनकी मैंने सेवा की है/ अरे, मूल्य देने लायक वे कभी नहीं थे।/ उनसे यदि क़ीमत लूँ जिनका एक कार्य यह/ मात्र मान्यता देना, मूल्य चुकाना बड़ी कृपा कर!!/ उनसे कुछ लेने की बिलकुल नहीं तबीयत/ क्योंकि उन्होंने सेवा करने वाले के वे आँसू/ कभी नहीं देखे थे,/ जो सेवा करने के पहले भर आते हैं।/ जबकि हृदय यों पिघल-पिघल जाता है जैसे व्यर्थ हो गयी/ पूरी हाय, ज़िन्दगी यदि न हुआ कुछ अपने हाथों!!’ - नहीं चाहिए मुझे हवेली: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 49-51 से
‘एकान्त अँधेरा दुर्गम पथ/ उस ठीक दिशा का सहयोगी वह मार्ग सतत/ उस पथ-सा मैं तकलीफ़भरा/ खाई-खड्डों-टीलों-चट्टानों पर चलता/ उस ज़िद्दी पगडण्डी-सा मैं टूटा-बिखरा/ ...उग चलूँ अँधेरे के निःसंग सरोवर में/ पंखुरियाँ खोलता लाल-लाल अग्निम सरसिज/...ये बड़े-बड़े हैं भाव, न पर इनसे घबरा/ अनायास है सहज बोध विद्या अपरा/ तू आस-पास ही खोज विवेकी/ जन-जीवन-अन्तःस्फुरणों की किरणों में/...अपने पल में तू घुल-मिल जा/ भली-बुरी/ पल की गतियों में निर्मल बन/ निज के जीवन-विस्तारों में तू परिमल बन/ मिट्टी-सा पत्थर-सा सच मिट्टी-पत्थर बन/ मधुमय-गुलाब-शोभा-सा तू भी सुन्दर बन।’ - घर की तुलसी: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 51-55 से
‘नाम से हम हीन हम हैं लामकान।/ हम निराशा के ज़हर के धूम हैं/ हम अभद्र अशिष्ट विद्रोही कुजन/ फ़ैशनेबल बुद्धि की इन कुर्सियों/ पर बैठ ही सकती नहीं करुणा प्रमन/ यह दया-माया बहिष्कृत है यहाँ/ इस रेस्तराँ का नाम मानवता हुआ!!/ भार हलका कर सकें इसके लिए/ अब ज़हर की आग का काला धुआँ/ निकलता है हृदय से, मेरी ज़बान/ जब निवेदन कर रही अपना सहा/ बोलते हैं वे ज़हर यह बेवकूफ़ी है/ संघर्षवादी सत्य यह आदत-स्वरूपी है!!/ भव्य सुविधा के पलंगों पर वहाँ/ संघर्ष वे करते रहे हैं आज तक/ सांस्कृतिक संवेदना की गोद में/ उत्कर्ष वे करते रहे हैं आज तक/ बढ़ रही जितनी बखूबी वेदनाएँ हैं/ उतनी तरक्की नाम दायें और बायें हैं।/ पर हमारी वेदनाएँ खूब अड़ियल हैं/ हमें खड्डे में गिराती ही गयीं/ ये हमारी प्रेरणाएँ खूब पागल हैं!!/ देह-मन सब तोड़ ख़ाली हो गयीं!!/ ईमान धक्का दे हमें सरका गया/ ज़िन्दगी का अस्थि-पंजर खा गया।/ ईमान के संवेद्य पथ पर हम बढ़े/ चाबुक हमें उतने पड़े/ और जब चिल्ला उठे हम चीख़कर/ उतने नसीहत-केंकड़े/ हमको ज़बर्दस्ती खिलाये ही गये दुर्धर/ ज़िन्दगी का खूब है गहरा चक्कर!’ - काँप उठता दिल: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 55-56 से
‘गु़लाम है आज की भारतीय फौज भी/ लौटे न लौटे, अरे प्राण-प्रिय मित्र वह तेरा पति!!... धरती के लाल-लाल सुहाग की आग के/ सिन्दूरी बिन्दु-सा लाल-लाल रवि ज्यों- युद्धमान जनता के हृदय में उगा त्यों/ मानव का मुख एक... एक अति-मानव का हाथ/ मानो ऊपर से आ गया, आ गया...हृदय में गूँजती है अपनी ही शक्ति की वेदना/ नयी ही चेतना!!...स्तालिनग्राद जीत कर/ जन-मुक्ति सेनाएँ आगे बढ़ गयीं जब/ सोचा तब- आधी दुनिया उसी नव-स्वर ने फ़तह की/ बाक़ी दुनिया जन-मुक्ति सेनाओं ने सर की/ नात्सी की ब्लिट्ज़क्रीग/ खखार-खखार आग/ थूक-थूक झींक-झींक/ झखमार-झखमार पीछे हटी चीख़-चीख़।...कूटनीतिज्ञ बात-चीत करते हुए बैठे हैं/ जनतन्त्री मुसकानों के धनतन्त्री रूपाक्षर/ साम्राज्यवादियों की तसवीरों के रंगसाज़!!...स्वदेशी प्रतिक्रियावादियों के बन-बिलाव/ चमकीले पत्थर की आँखों से देखते/ कि स्वयं वे/ ठूँठों पर चढ़े जिन/ देश की रूखी नंगी डालों पर/ चढ़े जिन/ उन्हीं के नीचे आज/ साम्राज्यवादियों की जलती है घोर आग/ तीसरी लड़ाई की। साम्राज्यवादियों के/ पैसों की संस्कृति/ भारतीय आकृति में बँध कर/ दिल्ली को/ वाशिंगटन व लन्दन का उपनगर/ बनाने पर तुली है!! भारतीय धनतन्त्री/ जनतन्त्री बुद्धिवादी/ स्वेच्छा से उसी का ही कुली है!!...घूमते हैं खँडेरों की गलियों में चारों ओर/ कुकुर पुराने और दम्भ के नये ज़ोर/ जनता के विद्वेषी/ अनुभवी/ कामचोर/ जन-राष्ट्र-लोकायन/ जन-मुक्ति-आन्दोलन के सिद्धहस्त विरोधी/ ये साम्राज्यवादियों की पाँत में ही बैठे हैं, शान्ति के शत्रुओं का प्राणायाम साध कर/ जनता के विरुद्ध घोर अपराध कर/ फाँसी के फन्दे की रस्सी-से ऐंठे हैं!!...क्षितिज की डाली पर/ लालिमा के कलगी के पक्षी ने बाँग दी।...समय के शैल पर प्रभीम खड़े हुए भीमकाय/ जन-मस्तक देखते/ ज्योतिर्मय मानवी/ प्रतिभा के ललाट विशाल को/ कि भावी यश काल को;...साम्राज्यवादियों का पाशविक ताव वह/ भविष्य को बढ़ने ही नहीं देगा जब तक/ कि उसका नाश न हो!! इसी सोच-सोच में/ लिखता ही जाता हूँ/ कविता की पंक्तियाँ।...रेगिस्तानी धूप में/ चिलकती बालू के बीचोबीच उठे हुए/ काले स्याह टीले की पीठ पर/ पूँछ उठाये एक/ चमकीला ष्याम-वर्ण अरब अश्व। अरब अश्वारोही वीर- देखता है गगन का घण्टाघर/ कि उसमें कितने बजे हैं/ कितना समय शेष है कि निर्णायक घड़ी में/ कि हो सके प्रत्याघात/...सात समुन्दर पार करते हुए हाथ का/ सहलाता उष्ण स्पर्श/ भाई की भीगी हुई हमदर्दी का-सा दाह। पीठ पीछे खड़ा मानो कोई भव्य/ एक छाया-पुरुष / लहराती गंगा के खुले-खुले कूल का मुसकाता ऋषि-सा/ शास्त्र और शस्त्र का प्रचण्ड विशेषज्ञ/ युद्ध का शास्त्री/ शस्त्र का योद्धा/ शास्त्र का मार्तण्ड!!...भीतर से उठे हुए अकस्मात्/ आँसू के धक्के को गले में समेट कर/ धीरे-धीरे नेत्रों में भरता है/...क्षितिज पर/ अश्रु-विकृत मुख!! जिसे देख/ धीर अरब वीर के सारे देह-मन में/ भयंकर रूप से चिपकती हैं गड़ती हैं चहुँ ओर/ करुणा के तीखे-तीखे/ काँटों की सूखी हुई झाड़ियाँ!!...आत्मा का खू़न जब/ आँखों में चढ़ता है, अकस्मात् पीठ पर/ दुनिया की जनता की/ मीठी-मीठी थपथपी, विक्षुब्ध हृदय में भ्रातृ-भावमय नव/ एकाएक अश्रु की कँपकँपी!!/ भागता है अरब अश्वारोही वीर/ टेकड़ी के टीलों की छाया में/ बचने के वास्ते!! व अगले रण-पैंतरों को सोचने के वास्ते!! भागते हैं अश्वारोही गुरिल्ला वीर-जन!!...विचारों के शिखर पर खड़ा हो/ देखता है सन्ध्या का गगन/ कि चू रहा/ क्षितिज से लाल ख़ून/ विकीरित करता हुआ सर्वतः ज्ञान-रष्मि!! रुधिर से विकीरित होती हैं किरणें/ क्रान्तिकारी युग की। भीषण बहुत है वह अन्धड़ और बवण्डर/ आसमानी नीले रेगिस्तान में/ बहा रहा है या कि उड़ा रहा है जो कि/ अस्तप्राय साम्राज्यवादी सूर्य-पशु की/ अधकटी/ किन्तु फिर भी लड़ती हुई/ आधी देह!!’ - ज़माने का चेहरा: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 57-83 से
‘डर जाते हम भी ख़ुद/ गिरने के ख़तरे से!! जितनी ऊँचाई हो/ अधःपात उतना ही सहज है...पहाड़ी चढ़ान पर/ ख़तरे की ज़िन्दगी/ ख़ूबसूरत होती है/ साहस की ज़िन्दगी (क्या करें!)/ होती है रोमैण्टिक...भय और शंका व आतंक/ हममें भी निश्चित/ क्योंकि यहाँ गिरोह डाकुओं के अकस्मात्/ प्रगति को रोकते हैं...भय और शंका व आतंक/ तुममें भी!! मूल्यों के गिरने से भय-खाये/ तुम लोग/ चिन्ता में रत हो/ चिन्तन में रत हो/ वचन-प्रवचन में रत हो/ तुम्हारा ही शोर है/ फिर तुम क्या हो!! करते तुम क्या हो!! वही गुटबाज़ी है!! (बेचैनी दिमाग़ में) स्वयं के आन्तरिक/ उलझे हुए गणित के आँकड़े/ रचित पुनर्रचित होते हैं/ अनेक नमूनों में। क्योंकि वह प्रश्न ही/ ग़लत तरीक़े से किया गया प्रस्तुत/ अतः न होगा हल/ दुःख तो यही है कि तुम्हें भय!! किससे भय? सुविदित रूप से नहीं ज्ञात... गिरफ़्तार चूहा ज्यों भागता है लगातार/ पिंजरे की चक्रव्यूह गलियों में बेचैन/(बाहर भाग सकने की बुद्धि ही नहीं है) यही एक मौलिकता...तुम जड़ और ठस हमें कहते हो...क्योंकि हम गाड़ीवान/ और तुम शहराती नुक्कड़ के काफ़े में/ बताना न चाहते पहचान/ किन्तु तुम असफलता, कमज़ोरी हमारी/ हृदय के भीतर की ज़ेब की नोटबुक में/ ज़रूर आँक लेते हो!! ग़लत कारण ग़लत सूत्र, ग़लत स्रोत प्रस्तुत करते हुए/ सिद्ध करना चाहते हो कि हम बिलकुल ग़लत हैं/ हमारा चलना ग़लत/ ग़लत अस्तित्व ही!! हम साफ़ कह दें कि/ असल में यह है कि नागवार/ गुज़रता है तुमको कि हम लोग/ निरन्तर युद्धमान/ जीवन के शास्त्र और शस्त्र हैं/ ऐतिहासिक दृष्टि हैं, अस्त्र हैं/ क्योंकि हम/ देखते हैं अनिवार्य/ मृत्यु उस सभ्यता की/ जिसका तुम जाने-अनजाने नित/ करते हो समर्थन!! इसीलिये तुम हमें/ सबसे बड़े शत्रु समझते हो!! क्षमा करो, तुम मेरे बन्धु और मित्र हो/ इसीलिये सबसे अधिक दुःखदायी/ भयानक शत्रु हो।’ - इसी बैलगाड़ी को: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 88-95 से
‘मैं लेखक हूँ/ मैं प्रतिपल युवजन-व्यक्तित्व अध्ययन करता हूँ/...उन रक्तांगारों के सन्दर्भों में युवजन का हूँ।’ - मेरे युवजन, मेरे परिजन: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 99-101 से

मुक्तिबोध की कलम से - 3 
‘खोये ही को खोजती हुई सन्त्रस्त सूझ/ अभिनव कल्पित राशियों-राशियों द्वारा जब/ जाती है करने भूल-सुधार कि कर आती/ है एक दूसरी भूल/ कि जिसके लिये कोसती रहती है/ आत्मा निज को, फटकार, चिड़चिड़ाहट, फिर गहरा उद्बोधन/ भीषण एकान्तों में अपना संशोधन/ निज पर ही वह निज का प्रयोग।...वह कौन जबर्दस्ती जिसने कर डाला है/ यों अन्तर्मुख वैज्ञानिक को? बलात् काट दीं स्वाभाविक/ विजयुष्णु वृत्तियाँ बाह्योन्मुख/ धोखा वैज्ञानिक बुद्धि को दिया? व कठिन परिस्थिति-पत्थर पर उसके प्रतिभा-सिर को रगड़ा।...वह टूटी एक नसेनी...वह नीचे नीला शून्य / खो गये पैर नसेनी के / व ऊपर नीला शून्य / खो गया सिरा नसेनी का/ कहीं बीच में ग़ायब कुछ सीढ़ियाँ...वह रहा वक्ष पर अन्तरिक्ष लेकर/ कि चढ़ता रहा/ गगन में ले निज संग जादुई दिया/ वह वैज्ञानिक नाम का अब!! व उसका सत्य/ हमारे कहाँ काम का अब/ कि शायद, वह मर गया।...कि मस्तक-शूल तुम्हारे लिये कठिन अत्यन्त।...मैं मात्र एक सम्पादक हूँ। यह निर्वैयक्तिक कार्य।...भव्य कुण्डली मार/ दीप्त ब्रह्माण्ड-नदी के तेजस्तट पर/ खड़ा हूँ मैं/ वैज्ञानिक/ देख रहा हूँ तुमको। और कि तब छाया मेरी/ ब्रह्माण्ड अनेकों पार/ दूर पृथ्वी पर फैल रही है/ जहाँ कि तुम हो/ काल-दिक्-नैरन्तर्य-शिखर से बोल रहा हूँ। ओ विराट के कथित/ खण्ड बनने वालो/ आततायियो/ स्वयं-महत्वशालियो/ अरे तुम्हारी छाया दूर नेब्यूला में भी/ मैंने नापी/ और, वही पाया जो सचमुच तुम हो, गटर-गिरे, मिट्टी के ढेले के स्पेक्ट्रम हो। यद्यपि विष प्रदान कर तुमने/ हत्या कर दी मेरी, वैज्ञानिक की/ फिर भी मैं जीवित हूँ/ परम्परा-सा/ मेरी एक भाव-धारा है।...असंख्य दीप्त नक्षत्र सूर्य-अवली/ ज्ञान-सूत्र में बँधी व बँधती गयी/ यद्यपि बुद्धि बधिक/ क्षण विजयी थे, अब भी हैं। अब उनका काम - लोक-मस्तक में काले भ्रम-आवर्त/ सतत पैदा करना!! पर कब तक/ इतिहास नहीं लेता पल-भर आराम/ वे समीकरण के सूत्र पुनः आविष्कृत होंगे।...तुम्हारा अन्तिम दिन अ-रोक आ रहा/ दुष्ट भाव का सर्प हृदय से कण्ठ/ कण्ठ से आगे उस मस्तिष्क-कोष में घर बना रहा/ तुम्हें मृत्यु-अक्षर सफ़ेद/ दिख रहे क्षितिज पर स्पष्ट/ व बड़े-बड़े!! लेटे-लेटे औ’ खड़े-खड़े/ चलते-फिरते सोते व जागते/ उन्हें देखते हो।...किन्तु अभी तो एक कठिन विस्तीर्ण ठूँठ/ से खड़े हुए तुम यद्यपि/ - जड़ें बहुत बूढ़ी हैं/ किन्तु बहुत मज़बूत/ चूसती प्राण धरित्री के/ हज़ार सूखी शाखाएँ या हज़ार बाहें/ पंजे और उँगलियाँ/ किसी दुष्ट तान्त्रिक की नृत्य-हस्त-मुद्राएँ/ मानो नाच रहीं/ नभ नीली पाश्र्व-भूमि में विदा तुम्हें।...अतः सुनें वे लोग / कि मेरे कुछ अभियोग/ जो कि उन पर हैं/ लोगों - एक जमाने में जो मेरे ही थे; बहुत स्वप्नद्रष्टा थे; कवि थे, चिन्तक और क्रान्तिकारी थे/ क्या हो गया तुम्हें अब - प्रतिदिन कर उपलब्ध सत्य/ अब खो देते अगले क्षण ही/ निज द्वारा अनुशासित होते हैं अन्तर्हित/ बाहरी ज़िन्दगी के हो-हल्ले-मेले में/ अपने अनुभव के पुत्र गँवा देते हो क्यों/ क्यों बिछुड़े तुम अपनों ही से!... वह काले-काले बाल-ढँका/ अत्यन्त प्रदीर्घ मूर्ख जबड़ा।...वह मूर्ख शूकरी और चतुर मार्जारी भी अन्तस्तल की वासिनी तुम्हारी है। अब अनुभवजनिता तड़िताघात ज्योति/ में आस्था रह न गयी/ इसलिये कि आत्मा/ एक चोर-संचालित संस्था/ लोभ-लाभ यश अहंकार के स्रोत/ आज संगठक और संरक्षक हैं/ इस संस्था के/ इसलिये छोड़ अपना स्वदेश वह वास्तव अनुभव-लोक/ गये दूसरी ओर/ दूसरे शिविर में।/ लोगो, एक ज़माने में तुम मेरे ही थे/ बहुत स्वप्नद्रष्टा चिन्तक थे कवि थे/ क्रान्तिकारी रवि थे!! अब कहाँ गये वे स्वप्न/ उन्हें किस कचरे के ढीह में/ यत्नपूर्वक जला दिया/ उदरम्भरी बुद्धि के मलिन तेल में/ स्वयं को गला दिया धातु-सा। इस विषम जगत्/ के शोषित पथ/ की करुणाओं से जब आत्मा/ में गर्भ-धारणा हुई/ व सत्य-भ्रूण उन्मुक्त विकसने लगा/ कि तब, तुम लज्जित थे।...तुमसे विभिन्न वे हैं मेरे प्रियजन/...ओ मेरे प्रियजनो/ ओ अपनो/ तुम नहीं राजसिंहासनस्थ/ तुम नहीं भव्य/ तुम तुच्छ और तुम छुद्र/ किन्तु तुम रुद्र/ कि तुम हो भीषण क्षोभ/ अग्नि के हव्य/ तुम काल-सिंह-आसनस्थ!! तुम मेरी परम्परा हो प्रिय/ तुम हो भविष्य-धारा दुर्जय/ तुममें मैं सतत प्रवाहित हूँ/ तुममें रहकर ही जीवित हूँ/ तुम मृत न मुझे समझो। मेरी भविष्यवाणियाँ सुनो!!...वे सोने तुम्हें नहीं देंगी/ चलते में फिरते में/ उठते व बैठते में/ सोते में खाते में/ वे चुभती जायेंगी।...तुम्हारे उर में अनुसन्धित्सु क्षोभ का बिरवा/ वह मैं ही हूँ!!...पर काँटे हैं- विक्षुब्ध ज्ञान के तीव्र/ उद्विग्न वेदनापूर्ण क्षोभ की नोक / वे चैन न लेने देंगे!!...बेचैनी में/ लहराते काँटों द्वारा वे/ फट जायेंगे गहरे परदे/ सब भीतर के। तब कहीं वास्तविक अभ्यन्तर/ जो कुछ भी है/ प्रत्यक्ष उपस्थित सत्ता-सा/ भास्वर होगा।...वे सतही सामंजस्य, मार/ चीख़ जंगली, एक झटके में ही/ टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।...महसूस करोगे तभी/ कि शीर्ष-कुण्ड में धधक/ ज्वाला प्रभीम जग उठी।...वे उन्मूलनकारी हैं तीखे शूल वह क्रियावान वेदना/ तुम्हें भटकायेगी/ कि देश और देशान्तर में/ महकती हुई पागल किसी गन्ध के पीछे दौड़े जाओगे...मटमैली श्याम हथेली पर घट्ठे होंगे/ चेहरे पर होंगे दाग स्याह काले/ तभी निज भद्र-वर्ग से होगे तुम बाहर/ देहाती-जैसे पैर/ गठीले-रस्सीले होंगे। अज्ञातवास बारह वर्षों का निश्चित है/ तुम घर छोड़ोगे, पत्नी छोड़ोगे/ पैसे-पैसे के लिये पेट के लिये मरोगे और/ साथ न छोड़ोगे पागलपन भी/ अपने मन का।...वह नदी-नदी के घाट-घाट ले जायेगी/ खेत-खेत कोयला-खान में घूमोगे/ मरुभूमि और सूखे पहाड़ के शिखरों पर/ तुम भटकोगे। उन परित्यक्त गाँवों में भी/ अत्यन्त सघन आधुनिक नगर के ध्वस्त भयद/ पिछवाड़े की गलियों में भी/ मलिनांधकार में भटकोगे।...तुम उलझोगे...प्यारे नारी-नर/ तुम उन्हें मोड़ना और जोड़ना चाहोगे!! तुम उसी उपेक्षित मानवता की काल-कोठरी में/ रोना भी चाहोगे। ...तुम निन्दित नित्य रहोगे, लांक्षित भाल/ शनिश्चरी छाया के बण्टाढाल। ...भव्य हज़ारों साल पुराने ओ बूढ़े उस्ताद/ तुम्हारी क्रियावान वेदना/ कि क्या कहना - !! तुम बाज़ार में खड़े/ स्वयं जलती मशाल/ औ पुकारते/ जिसे फूँकना हो अपना घर/ चले हमारे साथ!!...ब्रह्म-रन्ध्र में गूँजेगा फिर द्रोही अनहद नाद/...फाँकोगे तुम धूल राह की औ’ खाओगे राख/ रहोगे प्यासे के प्यासे/ और तुम्हारे बच्चे रह माँगेंगे भीख/ दोगे केवल सीख।...नये सयाने लोग नहीं वे प्रश्न पूछने वाले हैं/ कि छिनेगा उनका घर!! ...रास्ते में काग़ज खाती भूखी गायें वे, घूरे पर अन्न बीनती ग़रीब माएँ वे, गन्दे कटाह माँजते हुए बालक-चेहरे/ हाय रे!! रह गया हाथ में कौर कि मुँह तक जा न सका...तुम थाली छोड़ उठे/ भूखे लेटे/...पहन कपड़े मटमैले/ आलीशान इमारत के पिछवाड़े पहुँचो/ जहाँ कि काली गलियों की/ अति श्याम रंग फै़ण्टेसी/ अंट-संट अँधेर, धुँधलका, मैला पानी, गन्दी साँस, उबास/ सभ्यता की सण्डास कि चोरी और मुचलका/ राख, भाग्य का फेर/ चैड़े भाँड़े, मैले बर्तन पड़े ढेर-के-ढेर/ काले कटाह/ भीषण कटाह/ मलते पीले मटमैले बालक निःसहाय...उतर जायें सब मोटे छिलके/ घिनी सभ्यता के।...किन्तु न रोओ यों करुणा से हाय अबेर-सबेर/ अभी माँजना कई कटाह ढेर-के-ढेर!! भागो, लपको, पीटो-पिटो/ कि पियो दुःख का विष/ उस मानुष-आमिष-आशी की जिह्वा काटो। पियो कष्ट, खाओ आपत्ति-धतूरा, भागो/ विश्व तराशो...जब कि सभ्यता एक अँधेरी/ भीम भयानक जेल - तोड़ो जेल, भगाओ सबको, भागो ख़ुद भी!!...कलाकार से वैज्ञानिक फिर वैज्ञानिक से कलाकार/ तुम बनो यहाँ पर बार-बार...करो प्रयास भयंकर, आत्म-निपीड़नकारी वे ग़लतियाँ/ कि भाव-प्रवर्तनकारी भव्य सुधार प्रभास्वर/ के संयुक्त प्रयास-मार्ग से गुज़र चलो तुम/ अग्नि-परीक्षाओं से गुज़रे यह परम्परा/ मेरी प्रियजन वदन-दीप्ति-भास्वरा/ यह भविष्य-धारा अजया!’ - भविष्य-धारा: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 99-101 से 
‘उस बुझने की वेला उदास/ में, आँखों में कितने प्रसंग कितने बिछोह/ जीवन के आरोहावरोह...’ - साँझ और पुराना मैं: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 125-126 से 
‘सब बँधे खड़े वे बड़े करिश्मे वाले/ गहरे स्याह तिलिस्मी तेज़ बैल/ तगड़े-तगड़े/ अपने-अपने खूँटों से सारे...यह खूँटा- स्वर्ण-धातु का है/ स्वार्थैक ज्योति का है/ आत्मैक प्रीति का है!!...आज के उठाईगीर ज़माने में/ क्यों दिन भर जी मितलाता रहता है?...हमने सब चीड़-फाड़ देखा/ सब ताक-झाँक कर देख-भाल रक्खा/ सबको नंगा उघाड़ कर, हम भी उघड़ गये...बिगड़े चिल्लाये एक-दूसरे पर/ अपनों से ख़ूनाख़ून लड़े!...दीखता शून्य में कोटि योजनों दूर सूर्य/ पर, उससे निज सम्बन्ध बनाने की इच्छा/ को धमकाता रहता विचित्र-सा भय/...‘हमको अपना घूरा प्रिय है/ निज के ऊँचे कचरे के ढेर-शीश पर ही/ जीना मर जाना श्रेयस्कर/ घूरे का घर, घर का घूरा/ अपना-अपना सबको प्रिय है/ बस उसी हमारी कक्षा में निज रक्षा है। ...वह दुष्ट ब्रह्म कर रहा ज़बर्दस्ती वसूल/ हमसे तुमसे/ यह रक्त-किराया, अस्थि-मांस-भाड़ा/ धरती पर रहने का। अब किससे टंटा करें/ कहाँ हम जायें/ अपनों से ऐंठा करें, ज़िन्दगी एक कबाड़ा है, भूतों का बाड़ा है। ...उलटा-पुलटा छिछला सतही जो ज़िन्दापन/ पल-पल के क्षण-क्षण के अपव्यय का अन्धापन...निज-केन्द्रित जीवन-यापन का गन्दापन...क्या किया, जब रन्दे और बसूले से/ ख़ुद को छीला, तो अपना ख़ून पिया...उलटा-पुलटा छिछला सतही जो ज़िन्दापन/ उसका मैं कत्र्ता कारक कारण या उपकरण नहीं/ वह परम्परा रूप में/ परिस्थिति घेरे ही-सा मुझे मिला...ओ घोर निराशा के अघोरपन्थी/ तुम स्वयं स्व-कल्पित एक किंवदन्ती...जो हारा हुआ ज़िन्दगी से उसका दिमाग/ हो उठे अरे, जब भी ख़राब...जिस व्यक्ति-मूल सभ्यता-क्षेत्र में रहते हो/ उसकी आसन्न मृत्यु का एक इशारा तुम/ कारावासी तुम स्वयं जगत् की कारा तुम...शून्य तरंगों अदृश्य लहरों का/ अध्ययन वेदनाकारक है/ मन की काली सूनी अकादमी में/ कोई दिलचस्पी नहीं आदमी में। इसलिये मनोबल-ह्रास, भयानक चारित्रिक विघटन/ से घोर कल्पनाएँ/ विद्रूप कल्पनाओं से प्रेरित व्याख्याएँ!! सच तो यह है/ इन्द्रियानुरागी जीवन के पथ पर चल पड़े सभी/ विक्षुब्ध अहं, विक्षुब्ध उदर/ विक्षुब्ध बुद्धि के मारक स्वर!!’ - विक्षुब्ध बुद्धि के मारक स्वर: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 126-131 से

मुक्तिबोध की कलम से - 4 
“अभागे व भयंकर/ वचन ये तुम्हारे/ गड़ गये दिल में इस/ दिमाग़ में हमारे...ग़लत किन्तु भावना/ कि जिसकी फ़िलासफ़ी - बस में ही ठुँस जाना ज़िन्दगी की जीत है/ व इस घिनी कसौटी पर कस कर/ हावी हो गया मन अतः/ यह आत्म-निन्दा स्वर!!...उन्नति के चक्करदार/ लोहे के घनघोर/ जीने में अन्धकार!! ग़ुम कई सीढ़ियाँ हैं/ भीड़ लेकिन ख़ूब है/ बड़ी ठेलमठेल है/ ऊपर की मंज़िल तक/ पहुँचने में बीच-बीच/ टूटी हुई सीढ़ियों में/ कुछ फँस गये, कुछ/ धड़ाम से नीचे गिर/ मर गये सचमुच... समय के मारे तुम/ केवल हमारे हो, केवल हमारे हो!!” - भाग गयी जीप : रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 131-133 से 
“दुःख तुम्हें भी है, दुःख मुझे भी। हम एक ढहे हुए मकान के नीचे दबे हैं। चीख़ निकलना भी मुष्किल है, असम्भव हिलना भी। भयानक है बड़े-बड़े ढेरों की/ पहाड़ियों-नीचे दबे रहना और/ महसूस करते जाना/ पसली की टूटी हुई हड्डी। भयंकर है! छाती पर वज़न टीलों का रखे हुए/ ऊपर के जड़ीभूत दबाव से दबा हुआ/ अपना स्पन्द/ अनुभूत करते जाना, दौड़ती रुकती हुई धुकधुकी/ महसूस करते जाना भीषण है। भयंकर है। वाह क्या तर्जु़बा है!! छाती में गड्ढा है!! ....स्वयं की ज़िन्दगी फ़ाॅसिल कभी/ नहीं रही, क्योंकि हम बाग़ी थे, उस वक़्त/ जब रास्ता कहाँ था? दीखता नहीं था कोई पथ। अब तो रास्ते-ही-रास्ते हैं!! मुक्ति के राजदूत सस्ते हैं। ...दण्ड हमीं को मिला, बाग़ी क़रार दिये गये, चाँटा हमीं को पड़ा, बन्द तहख़ाने में - कुओं में फेंके गये/ हमीं लोग!! क्योंकि हमें ज्ञान था, ज्ञान अपराध बना।...लेकिन, हम इसलिए/ मरे कि ज़रूरत से/ ज्य़ादा नहीं, बहुत-बहुत कम/ हम बाग़ी थे!! ...आवाज़ आती है, सातवें आसमान में कहीं दूर/ इन्द्र के ढह पड़े महल के खँडहर को/ बिजली की गेतियाँ व फावड़े/ खोद-खोद/ ढेर दूर कर रहे। कहीं से फिर एक/ आती आवाज़ - “कई ढेर बिलकुल साफ़ हो चुके”, और तभी - किसी अन्य गम्भीर-उदात्त/ आवाज़ ने/ चिल्लाकर घोषित किया - “प्राथमिक शाला के/ बच्चों के लिये एक/ खुला-खुला, धूपभरा साफ़-साफ़/ खेल-कूद-मैदान सपाट अपार - यों बनाया जायगा कि/ पता भी न चलेगा कि/ कभी महल था यहाँ भगवान् इन्द्र का।” हम यहाँ ज़मीन के नीचे दबे हुए हैं/ गड़ी हुई अन्य धुकधुकियों, खुश रहो/ इसी में कि/ वक्षों में तुम्हारे अब/ बच्चे ये खेलेंगे। छाती की मटमैली ज़मीनी सतहों पर/ मैदान, धूप व खुली-खुली हवा खूब/ हँसेगी व खेलेगी। किलकारी भरेंगे ये बालगण। ...आत्म-विस्तार यह बेकार नहीं जायेगा। ज़मीन में गड़ी हुई देहों की ख़ाक से/ षरीर की मिट्टी से, धूल से/ खिलेंगे गुलाबी फूल/ सही है कि हम पहचाने नहीं जायेंगे। दुनिया में नाम कमाने के लिये/ कभी कोई फूल नहीं खिलता है/ हृदयानुभव-राग-अरुण/ गुलाबी फूल, प्रकृति के गन्ध-कोष/ काष, हम बन सकें!” 
- एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्म-कथन: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 134 से
“मैं जनमा जब से इस साले ने कष्ट दिया/ उल्लू का पट्ठा कन्धे पर है खड़ा हुआ।...बस, तभी तलब लगती है बीड़ी पीने की।...बस, चाय एक कप मुझे गरम कोई दे दे/ ऐसी-तैसी उस गौरव की/ जो छीन चले मेरी सुविधा/ मित्रों से गप करने का मज़ा और ही है। ...मैं परिभ्रमण करता जाऊँगा जीवन-भर/ मैं जिप्सी हूँ। ...चिलचिला रहा बेषर्म दलिद्दर भीतर का/...” - एक अन्तर्कथा: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 140 से 
“प्रतापी सूर्य हैं वे सब प्रखर जाज्वल्य/ पर, यह क्या/ अँधेरे स्याह धब्बे सूर्य के भीतर बहुत विकराल/ धब्बों के अँधेरे विवर-तल में से/ उभर कर उमड़ कर दल बाँध/ उड़ते आ रहे हैं गिद्ध/ पृथ्वी पर झपटते हैं! निकालेंगे नुकीली चोंच से आँखें, कि खायेंगे हमारी दृष्टियाँ ही वे!....अँधेरे औ” उजाले के भयानक द्वन्द्व/ की सारी व्यथा जीकर/ गुँथन-उलझाव के नक्शे बनाने, भयंकर बात मुँह से निकल आती है।....अचानक एक काला स्याह चेहरा प्रकट होता है/ विकट हँसता हुआ। अध्यक्ष वह/ मेरी अँधेरी खाइयों में/ कार्यरत कमज़ोरियों के छल भरे षड्यन्त्र का/ केन्द्रीय संचालक/ किसी अज्ञात गोपन कक्ष में/ मुझको अजन्ता की गुफाओं में हमेषा कैद रखता है/ क्या इसलिए ही कर्म तक मैं लड़खड़ाता पहुँच पाता हूँ?...बिना संहार के, सर्जन असम्भव है; समन्वय झूठ है, सब सूर्य फूटेंगे/ व उनके केन्द्र टूटेंगे/ उड़ेंगे खण्ड/ बिखरेंगे गहन ब्रह्माण्ड में सर्वत्र/ उनके नाश में तुम योग दो!!...पर हाय! मुझको तोड़ने की बुरी आदत है/ कि क्या उत्पीड़कों के वर्ग से होगी न मेरी मुक्ति!!” - एक अन्तःकरण का आयतन: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 145 से
“मुझे नहीं मालूम/ सही हूँ या ग़लत हूँ या और कुछ, सत्य हूँ कि मात्र मैं निवेदन सौन्दर्य/...वैसा मैं बुद्धिमान्/ अविरत/ यन्त्रबद्ध कारणों से सत्य हूँ। ...प्रवृत्ति-सत्य से सच मैं/ ग़लतियाँ करने से डरता, मैं भटक जाने से भयभीत। यन्त्रबद्ध गतियों का ग्रह-पथ त्यागने में/ असमर्थ/ अयास अबोध निरा सच मैं। ...स्वयं के प्रति नित जागना - भयानक अनुभव/ फिर भी मैं करता हूँ कोशिश।...मेरे ये सहचर/ धरित्री, ग्रह-पिण्ड, रखते हैं गुरुत्व-आकर्षण-शक्ति, पर/ यन्त्रबद्ध गतियों को त्यागकर/ ज़रा घूम-घाम आते, ज़रा भटक जाते तो/ कुछ न सही, कुछ न सही/ ग़लतियों के नक्षे तो बनते, बन जाता भूलों का ग्राफ़ ही, विदित तो होता कि/ कहाँ-कहाँ कैसे-कैसे ख़तरे, अपाहिज पूर्णताएँ टूटतीं! ...हमें तो डर है कि/ ख़तरा उठाया तो/ मानसिक यन्त्र-सी बनी हुई आत्मा, आदतन बने हुए अद्यतन भाव-चित्र, विचार-चरित्र ही, टूट-फूट जायेंगे/ फ्रेमें सब टूटेंगी व टण्टा होगा निज से। इसीलिए, सत्य हमारे हैं सतही/ पहले से बनी हुई राहों पर घूमते हैं/ यन्त्रबद्ध गति से। पर उनका सहीपन बहुत बड़ा व्यंग्य है/ और सत्यों की चुम्बकीय शक्ति/ वह मैगनेट...हाँ, वह अनंग है/ अपने में कामातुर, अंग से किन्तु हीन!! ....मैं उनके नियमों को खोजता, नियमों के ढूँढ़ता हूँ अपवाद, परन्तु अकस्मात्/ उपलब्ध होते हैं नियम अपवाद के।” - मुझे नहीं मालूम: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 145 से
“सत्य हूँ कि सिर्फ़ मैं कहन की तारीफ़!!...आभूषण-मात्र यदि मेरा सत्य/ फिर तो मैं बुरा हूँ!!...सच है कि एक ओर/ कोई बात/ मुझे बहुत भव्य विशाल मृदु/ देती है दिखायी, कभी-कभी किन्तु वही/ किसी अन्य स्थिति में/ सिकुड़ती है इतनी कि/ तुच्छ व छुद्र प्रतीत होती रहती है/ आभ्यन्तर आलोचनाशील आँख/ बुद्धि की दृष्टि की सुई से/ कल्पना-नेत्रों को फोड़ती!! चिन्ता की भँवर में/ निज से ही क्रुद्ध हो/ सोचता हूँ मैंने नहीं कहा था/ कि तुम मुझे निज सम्बल बना लो!! मुझे नहीं चाहिए निज-वक्ष-समाश्रित/ कोई मुख/ किसी पुष्पलता के विकास-प्रसार हित, व्यर्थ ही जाली नहीं बनूँगा मैं बाँस की!! चाहिए मुझे मैं/ चाहिए मुझे मेरा/ खोया हुआ रूखा-सूखा व्यक्तित्व....पर व्यावहारिक इस द्वन्द्व में/ संघर्ष निरे में/ वही सब पंगु है लुंज है!! मतलब कि हिये में/ जो कुछ महान् है/ सरल व सुन्दर/ अमल व निष्छल/ सजग व जाग्रत/ ज्वलन्त चेतन/ उसके यदि रहा जाय भरोसे/ तो बीसवीं सदी की एक/ नालायक ट्रेजेडी बनना ही पडे़गा!! अनैतिक समाज में नीतिमान/ साँसों के लिए भी है परेशान/ समस्या के वृषभ के सींगों में/ फँसा मैं...सुबह से शाम तक/ मन में ही/ आड़ी-टेढ़ी लकीरों से करता हुआ/ अपनी ही काट-पीट/ ग़लत के खि़लाफ़ नित सही की/ तलाश में कि/ इतना उलझ जाता हूँ कि/ ज़हर नहीं/ लिखने की सियाही मैं पीता हूँ कि/ नीला मुँह - दायित्व-भावों की तुलना में/ स्वयं का निजत्व/ जब देखता/ तो पाता हूँ कि....घड़ी-घड़ी सुधारा कि कटा-पिटा/ फैला है व्यक्तित्व/ सही की तलाश में। ....कैमरे की निगेटिव प्लेट पर/ खिंचा हुआ चेहरा हर/ सफेद-सफेद/ धुआँ-भूत है। हड्डियों के ढाँचे में/ पसलियों की तसवीर/ एक्स-रे की मनोहर/ नकारात्मक विधि है/ ....इसीलिए तड़ित्-अग्नि-भारवाही खम्भा बन/ एक बार मैंने जब अंगीकार किये थे/ अपने में धारे थे विभिन्न मुख-भाव/ रश्मि-दीप तुम्हारे/ तो सोचता था/ वह सत्य मेरा है/ उपन्यासकार का/ परम्परा का एक प्रतिफल तड़ित् का बल्ब है/ रश्मि का विकीरण।” - सही हूँ या ग़लत: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 158 से
“स्वप्न के भीतर एक स्वप्न, विचारधारा के भीतर और/ एक अन्य/ सघन विचारधारा प्रच्छन्न!!....कोठे के साँवले गुहान्धकार में/ मज़बूत सन्दूक/ दृढ़, भारी-भरकम/ और उस सन्दूक भीतर कोई बन्द है/ यक्ष/ या कि ओराँग-उटाँग हाय/ अरे डर यह है... न ओराँग-उटाँग कहीं छूट जाय, कहीं प्रत्यक्ष न यक्ष हो!...एकाएक भयभीत/ पाता हूँ पसीने से सिंचित/ अपना यह नग्न मन! हाय-हाय कोई न जान ले/ कि नग्न और विद्रूप/ असत्य शक्ति का प्रतिरूप/ प्राकृत ओराँग-उटाँग यह/ मुझमें छिपा हुआ है।...सोचता हूँ - विवाद में ग्रस्त कई लोग, कई तल/ सत्य के बहाने/ स्वयं को चाहते हैं प्रस्थापित करना। अहं को तथ्य के बहाने।” - दिमाग़ी गुहान्धकार का ओराँग-उटाँग ! : रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 163 से 
“समाज के जितने भी निन्दा-प्रवाद हैं/ सब हमें याद हैं...कौन किस उल्लू का कितना बड़ा पट्ठा है, सब हमें मालूम/ चाहो तो समाजी/ शोषण-क्रिया की सब - पाचन-क्रिया की सब - अँतड़ियाँ/ टेबिल पर रख दें, कि तुम भी निहार लो/ व हम भी निरख लें/ ....दार्शनिक मर्मी अब/ कोई सरगरमी अब/ छू नहीं पाती है/ हमें तो अपने बैंक-नोटों की, सत्यों में, बू ख़ूब आती है!!... सभ्यता-समाज का ही दास है/ इसलिए सहनीय मात्र निवेदनीय त्रास है/ दास में भी ख़ूब-ख़ूब मज़ा है, आदमी की धजा है/ व्यक्तिगत आलोचनाशील मन/ जोड़ता है निन्दा-धन/ जोड़ता है ज़हर और/ कंकड़ और पत्थर और/ कहता मैं गुणीजन/ (हृदय में बैठा है चोट्टा कि मसीहा!!) ऐसी आज आइडियाॅलाॅजी है!!” - एक रग का राग : रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 166 से 
“सुकुमारियाँ कान में कुछ कहतीं/ गहरी चर्चाएँ करते विज्ञ नपुंसकगण। उस समय, सहज मोहक गुलाब की पंखुरियाँ/ चमगादड़-चमड़े की-सी बन/ हँसती हैं तो/ बुलबुल को यह अफ़सोस/ कि वह उल्लू न हुई।.... जूठे बरतन माँजते हुए पीले दुबले/ बालक चाकर-से मेरे दिन/ ...ईंधन, केवल ईंधन/ हम सिर्फ़ जलाऊ लकड़ी हैं/ अन्य के लिए!! ...तकलीफ़भरी बेचैन आत्मा की गठरी/ दाबकर, लौटता हूँ घर, कर नौकरी।.... अधजले ठूँठ की कटी-पिटी डाल पर/ बच गये घोंसलों में/ पक्षिणियाँ अपने बच्चे सेती हैं/ तन की गरमी से मन की गरमी देती हैं!! ...ज़िन्दगी बुरादा तो बारूद बनेगी ही/ ऐश्वर्य सूर्य/ धन की प्रभुसत्ता के ऐरावत चण्ड शौर्य/ अपने चालक दल सहित भूमि के गर्भों में/ विच्छिन्नावस्था के सारे सन्दर्भों में/ केवल पुरातत्वविद् के चित्ताकर्षण/ बन जायेंगे।” - ज़िन्दगी बुरादा तो बारूद बनेगी ही : रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 169 से

मुक्तिबोध की कलम से - 5 
“पल भर मैं सबमें से गुज़रना चाहता हूँ, प्रत्येक उर में से तिर आना चाहता हूँ, इस तरह ख़ुद ही को दिये-दिये फिरता हूँ, अजीब है ज़िन्दगी!! बेवकूफ़ बनने के ख़ातिर ही/ सब तरफ अपने को लिये-लिये फिरता हूँ; और यह देख-देख बड़ा मज़ा आता है/ कि मैं ठगा जाता हूँ...हृदय में मेरे ही, प्रसन्न-चित्त एक मूर्ख बैठा है/ हँस-हँसकर अश्रुपूर्ण, मत्त हुआ जाता है, .... जीवन में आज के/ लेखक की कठिनाई यह नहीं कि/ कमी है विषयों की/ वरन् यह कि आधिक्य उनका ही/ उसको सताता है, और, वह ठीक चुनाव कर नहीं पाता है!!” - मुझे क़दम-क़दम पर: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 172 से
“ओ संवेदनमय ज्ञान-नाग...तुम छिपा चलो जो कुछ तुम हो! यह काल तुम्हारा नहीं!... किन्तु एकत्र करो/ प्रज्वलित प्रस्तरों को...वे आते होंगे लोग/ जिन्हें तुम दोगे - देना ही होगा, पूरा हिसाब/ अपना, सबका, मन का, जन का!.... दार्षनिक एक आत्मा... जब जीवित थी, आचरणरहित सोचती रही/ अकर्मक विवेक-धी, औ” उदरम्भरि पल-क्षण-प्रसार में अटक गयी/ सारे अन्वय-व्यतिरेक-प्रमा-उपपत्ति सहित!! ... छाया जीवन जीकर भी, उदर-शिश्न के सुख/ भोगती रही, आध्यात्मिक गहन प्रश्न के सुख/ भोगती रही/ जन-उत्पीड़न विभ्राट्-व्यवस्था के सम्मुख!....नीचे तल में। वह पागल युवती सोयी है/ मैली दरिद्र स्त्री अस्त-व्यस्त -... शोषिता व व्यभिचरिता आत्मा को पुत्र हुआ/ स्तन मुँह में डाल, मरा बालक! ...आधुनिक सभ्यता-संकट की प्रतीक-रेखा, जीने के पहले मरे समस्याओं के हल!!...वह भीषण मुख उस ब्रह्मदेव का/ जो रहकर प्रच्छन्न स्वयं, निज अंकशायिनी दुहिता-पत्नी सरस्वती/ या विवेक-धी/ के द्वारा ही/ उद्दाम स्वार्थ या सूक्ष्म आत्मरति का प्रचार/ कर, भटकाता/ विक्षुब्ध जगत् को,...जिसकी छत्रच्छाया में रह/ अधिकाधिक दीप्तिमान होते/ धन के श्रीमुख, पर, निर्धन एक-एक सीढ़ी नीचे गिरते जाते/ .... ओ नागात्मन्, संक्रमण-काल में धीर धरो, ईमान न जाने दो!!” - ओ काव्यात्मन् फणिधर : रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 176 से
“आज मुझसे बहस नहीं होगी/ क्योंकि भीतर की सारी सम्पन्नता के बावजू़द/ मैं वह रेगिस्तानी मुल्क हूँ/ जिसने हर बुराई/ हर कमी/ हर रुकावट/ प्यार से क़ायम रक्खी है/ इसलिए कि अपने से ऊपर उठना/ अपने से नीचे गिरने के बराबर है। आज मैं तुमसे मुलाक़ात नहीं करूँगा/ क्योंकि तुम वही कहोगे/ जो मैं हज़ारों सालों से सुनता आया हूँ।” - मुझसे आज सलाह न लो: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 185 से
“एक रोज़ फाँसी पर मैं भी चढ़ सकता हूँ/ रोज़-रोज़ फाँसी पर झूलना सहज नहीं।” - ठीक है कि सिन्धु नहीं : रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 186 से
“तब अकस्मात् गहरी उचाट/ खा, तन-मन में/ चल पड़ने की व्यग्रता/ अपने प्रति, जग के प्रति कोई उग्रता/ दैनिक उथले जीवन के नित्य समानान्तर/ गहरे जीवन की धाराएँ भीतर-भीतर/ इस द्वैतपूर्ण विघ्न को मिटा/ अग्रतः प्रयत्नों की उदग्रता में तुम भी/ देखने लगीं बेचैन स्वप्न/ उस जीवन का/ जिसमें व्यक्तित्व-चरित्र-भव्यता के युयुत्सु/ प्रेरणा-उत्स धारण करने के कारण ही/ निर्वासित-निष्कासित होते हैं लोग/ कि वे अज्ञातवास में फिरते नंगे पाँव/ अपने तन-मन-जीवन पर दुःसह उज्ज्वल भावों के प्रयोग/ करके वे दुर्निवार होते/ धन-सत्ता की नींवें कुरेदते वे अपार होते। तुम आसमान के नीचे धरती पर निर्मल/ केवल मनुष्य, केवल मनुष्य/ बनने को यों आतुर कि मुझे/ भवितव्य तुम्हारा दिखा बहुत भीषण उदास/ ध्वंसों का डीलडौल ऊँचा/ जिसके समीप/ वह नयी सड़क जो बनी/ सिर्फ़ एक मील/ हाँ, एक मील/ करना होगा पूरा प्रयास/ मरने का, मरते रहने का पूरा प्रयास।... सहसा स्वचेत हुए हम कि लहरायी अजीब/ जग भर को, जी में भर लेने की अकुलाहट/ “मैं क्या न करूँ, क्या कर डालूँ, सब कुछ कर लूँ” के भावों की अपने ही कानों में आहट!!” - मालव-निर्झर की झर-झर कंचन-रेखा : रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 191 से
“डूब गयी सन्ध्या, अब क्या हो!! भूखी व अन्धी आत्माओ, अब क्या हो, आर्त पुकार उठती है - रास्ता बताओ!! दिन भर तो चट्टानी टीले ने स्तवन किया/ मन-ही-मन, दिनकर का - ओ भास्कर! तुम मेरे गुरु बनो, गुरु बनो! किन्तु सूर्य नीरव था, निर्निमेष निरपेक्ष अनाकार ऊष्मा की श्वेत पलक/ फैलाकर/ चट्टानी प्रसार वह देखता रहता था। और तब बृहद् शिला-पुरुष ने आर्त-स्वर/ रवि का फिर स्तवन किया - ओ प्रतीक आत्मा के, मेरे ही चंगुल से/ मुझको तुम मुक्त करो! चट्टानी सामंजस्य टूट जायँ, जड़ीभूत संगतियाँ लड़खड़ायँ, षिलीभूत सन्तुलन बिगड़ जायँ...अनवस्था तेजस्वी व प्रकाण्ड असन्तुलन/ मुझको दो/ कि जिससे ब्रह्माण्ड-धूल बनकर मैं/ गहन अनन्त में/ संवेदनशील पटल बन सकूँ/ अनेकानेक तारा-रश्मि-उल्का प्रकाश में/ उजल सकूँ, विभिन्न गुरुत्वाकर्षण अनुभव करता हुआ/ सीख सकूँ/ विराट जीवन से... परन्तु सूरज ने भीषण अनसुनी की...टीला अब और उदास होता है... पुनः-पुनः पीर चिलकती है... मज़ा यह है कि जब-जब वह टीला यों/ तेजोमय होता है/ दिखायी नहीं देता है किसी को भी! औरों को ओर ग़रीब लगता है, अधिक हीन, अधिक हेय, अधिक तुच्छ। झोल खायी हुई, कुचली हुई दीखती/ शिला-रूप-रेखा वह। टीले के दोस्त और रिश्तेदार/ चट्टानी समाज/ कन्दराएँ कगार और पहाड़ियाँ/ कहती हैं - वह टीला/ सफल नहीं, ढीला है, आत्मग्रस्त/ मूर्ख! .... सिर थाम मर्मांगार झींकने लगते हैं - “जान न लें हमें/ शनाख़्त न कर पाये/ पकड़ में न आयें हम/ इसीलिए, अँधेरे की सियाह खाई में/ धँस जाओ! धँस जाओ! मस्तक को घुटनों में समेट लो/ प्रतिभा की चमक कहीं/ दिख न जाय/ हाय! हाय!”... नभ-भर षड्यन्त्र और रात का कुहरा है,...अँधेरे में लुप्त एक/ गाँव धधक रहा। नारंगी, गेरुई, सिन्दूरी, कत्थई/ ज्वालाएँ बढ़ रहीं।... “डाकू है, मुल्क है डाकू का/ समझ गये!! तुम्हारे ही सीने पर बैठा है/ आसन जमाकर वह”... जड़ीभूत चट्टानी टीला ही न होते हम, डाकू क्यों/ सीने पर बैठता!! देखो तो... अभियोग गरजते हैं - कहते हैं - “ओ तुम, ओ टीले, डाकू की बैठक हो, आसन हो!!”....सब कुछ टूटता है, ढाँचा अखण्ड है/ छिन्न-भिन्न होता है सभी कुछ सभी कुछ/ पर, शिला पूर्ववत्/ चैखटा न टूटता/ भीतर के कण भले ही टूट जायँ/ शिला न होती भंग।... चट्टानी निजत्व न होता तो/ डाकू क्यों सीने पर बैठता!! अपराध-भाव-ग्रस्त/ मृत्कण सब/ निराशा के तेलिया काजल में/ स्याह सन जाते हैं।...”तीसरा अध्याय अब शुरू करो,...सम्भवतः, संवेदन-प्रेरित सब मित्र-सुहृद/ मर्मों के कोष छू/ ग़लतियाँ बता सकें, पृथ्वी से तिमिर-रात्रि-नभ तक का यमपथ भी, दीप्तिमान कर सकें सहृदय ये मित्रगण... ठूँठ बड़बड़ा उठे/ पहाड़ी छाती पर साँप लोटने लगे/ चारों ओर विरोध-वातावरण छा गया। डरावनी गूँज उठी - “बदमाश टीला वह तेजस्क्रिय मूर्ख है, लाख है, सुर्ख़ है, असामान्य बनता है/ अद्वितीय रहता है/ जड़ीभूत सतहों से, पत्थरी खाल से/ मिट्टी की छाल से, चट्टानी ढाँचे से/ पहाड़ी चैखटे से विद्रोह करता है!! तेजस्क्रिय मूर्ख वह/ वस्तुतः भयंकर है षत्रु असाधारण!...”अपने समाज में, सच, मंै अकेला हूँ/ जिनका मैं अंग हूँ/ जिनसे है श्रेणीगत एकता/ वे मुझसे दूर हैं। मुझे दुश्मनी निगाहों से देखते/ जो मुझसे एकदम भिन्न हैं/ वे मेरे मित्र हैं/ परन्तु, गुणधर्म जो स्वाभाविक उनके हैं/ मेरे न हो सके/ इसीलिए पंगु हूँ!! क्या करूँ/ क्या करूँ!!... “बन्धुवर/ पहले यह जान लो कि तुममें जो झोल है/ तुममें जो द्वन्द्व है/ वह द्वन्द्व बाहरी स्थिति ही का बिम्ब!! यानी कि जीवन-रक्षार्थ ही/ तुम्हें ओढ़ना पड़ा/ जिसके न सुलझने से/ उलझे ही रहने से/ कि जिसके निदान के अभाव में यह हुआ/ चूँकि जब दस्यु ने आसनार्थ/ चुन लिया तुमको ही। अपना वह मूल द्वन्द्व पहचानो। द्वन्द्वशील तथ्यों को तत्वों को जान लो/ तीव्र करो द्वन्द्व को/ अग्रगति सत्यों की विजयों का करो साफ़ रास्ता/ जीवन-स्थिति बदल दो/ ध्यान रखो/ इस महान कार्य में/ तुम न अकेले हो। अनगिनत लोगों ने द्वन्द्व ये भोगे हैं/ उनने भी सर किये/ मैदान अनदेखे नये-नये/ पहले भी, आज भी। कल भी करेंगे वे। इसीलिए, अतीत से भविष्य तक वहनशील/ खोजो परम्परा... तुम्हारा ही रूप वह/ तुम्हारा ही चेहरा/ विश्वात्मक चेहरा है/ पापों की युग-युगीन पुरानी परम्परा/ दस्यु बन बैठी है/ तुम्हारी छाती पर/ इसीलिए कि झोल खाये हुए ही/ मुनीम बनते हैं शैतानी ताक़त के, समझ गये!” समन्वय सामंजस्य/ रूपान्तर-क्रिया है यदि/ नाश पर आश्रित है।... मूर्ख वे कि दावा जो करते हैं/ भुगता न झोल कभी/ बुद्धिमान वे सच हैं/ भुगतते व पार चले जाते हैं/ मैं भी स्वयमात्म रूपान्तर क्रियाओं में लीन हूँ। पार चला जाऊँगा, निश्चित है!!” - एक टीले और डाकू की कहानी: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 204 से
“भीतर का आदतन क्रोधी अभाव वह/ हमारा स्वभाव है,... उसको मैं उत्तेजित/ शब्दों और कार्यों से/ बिखेरता रहता हूँ/ बाँटता फिरता हूँ।... जगह-जगह दाँतदार भूल, हथियारबन्द ग़लती है, जिन्हें देख, दुनिया हाथ मलती हुई चलती है।” – शून्य : रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 218 से
“मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ/ तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है/ कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है। मेरी असंग स्थिति में चलता-फिरता साथ है, अकेले में साहचर्य का हाथ है, उनका जो तुम्हारे द्वारा गर्हित हैं/ किन्तु वे मेरी व्याकुल आत्मा में बिम्बित हैं, पुरस्कृत हैं/ इसीलिए, तुम्हारा मुझ पर सतत आघात है!! सबके सामने और अकेले में। (मेरे रक्तभरे महाकाव्यों के पन्ने उड़ते हैं/ तुम्हारे-हमारे इस सारे झमेले में) असफलता का धूल-कचरा ओढ़े हूँ/ इसलिए कि वह चक्करदार ज़ीनों पर मिलती है/ छल-छद्म धन के/ किन्तु मैं सीधी-सादी पटरी-पटरी दौड़ा हूँ/ जीवन की। फिर भी, मैं अपनी सार्थकता में खिन्न हूँ/ निज से अप्रसन्न हूँ/ इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए/ पूरी दुनिया साफ़ करने के लिए मेहतर चाहिए/ वह मेहतर मैं हो नहीं पाता/ पर, रोज़ कोई भीतर चिल्लाता है/ कि कोई काम बुरा नहीं/ बशर्ते कि आदमी खरा हो/ फिर भी मैं उस ओर अपने को ढो नहीं पाता।... शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है/ शेष सब अवास्तव अयथार्थ मिथ्या है भ्रम है/ सत्य केवल एक जो कि/ दुःखों का क्रम है।” - मैं तुम लोगों से दूर हूँ : रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 219 से

मुक्तिबोध की कलम से - 6 
“सौ खुरों की खरखराती शब्द-गति/ सुनकर/ खड़े ही रह गये हैं लोग। उनमें सैकड़ों विस्मित, कई निस्तब्ध। कुछ भयभीत, जाने क्यों/ समूचे दृष्य से मुँह मोड़ यह कहते - “हटाओ ध्यान, हमसे वास्ता क्या है? कि वे दुःस्वप्न-आकृतियाँ/ असद् हैं, घोर मिथ्या हैं!!” दलिद्दर के शनिश्चर का/ भयानक प्रॉपगैण्डा है!!... आये समझ में सत्य जो शिक्षित/ सुसंस्कृत बुद्धिमानों दृष्टिमानों के/ उन्हें वे हैं कि मन-ही-मन/ सहज पहचान लेती!!... भोले भाव की करुणा बहुत ही क्रान्तिकारी सिद्ध होती है। ....मुझको है भयानक ग्लानि/ निज के श्वेत वस्त्रों पर/ स्वयं की शील-शिक्षा सत्य-दीक्षा के/ निरोधी अस्त्र-शस्त्रों पर/ कि नगरों के सुसंस्कृत सौम्य चेहरों से/ उचटता मन/ उतारूँ आवरण - यह साफ़ गहरा दूधिया कुरता/ व चूने की सफ़ेदी में चिलकते-से सभी कपड़े निकालूँगा। किसी ने दूर से मुझको पुकारा है।... गन्दी बस्तियों के पास, नाले पर/ गुमटी एक, जिसके तंग कमरे में/ ज़रा-सा पुस्तकालय वाचनालय है।” - मेरे लोग : रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 220 से
“इस सल्तनत में/ हर आदमी उचक कर चढ़ जाना चाहता है, धक्का देते हुए बढ़ जाना चाहता है, हरएक को अपनी-अपनी/ पड़ी हुई है। चढ़ने की सीढ़ियाँ/ सिर पर चढ़ी हुई हैं।... नफ़रत और नफ़ासत/ बीवी के साथ भी सियासत। लेकिन, इन सब सफ़ेद/ चमचमाते शानदारों की धाक है... मेरा दिल चाक है।... समस्या विकट है, जिसके पास पैसा है, उसके पास टिकट है। बाहर ऐडवर्टिज़मेण्ट/ आदमक़द तसवीरें/ देखते खड़े रहो/ सूनापन चाखते और चुपचाप/ चीखते खड़े रहो/ अपनी फ़जूल-सी हस्ती को/ चाटते खड़े रहो, मनहूसी बाँटते खड़े रहो, शायर बन जाओ/ दुनिया से तन जाओ। जी हाँ इसीलिए, न मेरी उनसे बनती है/ जो काली षेरवानी की ख़ोल में/ सिर्फ़ दीवाल हैं/ न उनसे, जो जबड़े की पोल में/ लार टपकाती हुई खाल हैं, सिर्फ़ एक मनहूस/ बदमिज़ाज बवाल हैं। चूँकि मेरी उन सबसे ठनती है/ इसीलिए कभी-कभी मेरी मुझसे ही नहीं बनती है। ... जो बहुत गु़रूर से/ जो सिर्फ़ इन्सान होने की हैसियत रखते हैं/ जैसे आसमान, या पेड़, या मैदान/ अपनी-अपनी/ एक ख़ास शान और शख़्सियत रखते हैं/ वैसे ही... जो अपने लिए इज़्ज़त तलब करते हैं/ बराबरी का हक़, बराबरी का दावा/ नहीं तो मुठभेड़ और धावा/ अब आप चाहे सरकार हों/ या साहूकार हों/ उनके साथ मेरी पटरी बैठती है... हाँ, उन्हीं के साथ/ मेरी यह बिजली भरी ठठरी लेटती है/ और रात कटती है। शायद यह मेरी बहुत बड़ी भूल है/ लेकिन मेरी यह ग़रीब दुनिया/ उन्हीं के बदनसीब हाथों से चलती है।” - हर चीज़, जब अपनी : रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 225 से
“उतरते-चढ़ते हुए लोगों की बदनसीबी/ अपने ही क़ीमत पर आगे बढ़ते ग़रीब/ उन्हें उस सुनहली आभा में क्या मिला/ मौत और ग़रीबी का भयानक सिलसिला।” - सुनहले बादल में जिन्न : रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 230 से
“मानो क़ीमती मज़मून/ गहरी, ग़ैर-क़ानूनी किताबों, ज़ब्त पर्चों का। कि पाबन्दी लगे-से भेद-सा बेचैन/ दिल का ख़ून/ जो भीतर/ हमेशा टप्प-टपकर टपकता रहता/ पिराते-से ख़यालों पर। यही कारण कि सिमटा जा रहा-सा हूँ। स्वयं की छाँह की भी छाँह-सा बारीक/ होकर छिप रहा-सा हूँ। समझदारी व समझौते/ विकट गड़ते। हमारे आपके रास्ते अलग होते। व पल-भर, मात्र आलोचनात्मक स्वर प्रखर होता। ...हर पल चीख़ता हूँ, षोर करता हूँ/ कि वैसी चीख़ती कविता बनाने में लजाता हूँ।... कि इतनी मार खायी, तब कहीं वे/ स्पष्ट उद्घाटित हुए उत्तर... “अरे! जन-संग-ऊष्मा के/ बिना, व्यक्तित्व के स्तर जुड़ नहीं सकते। प्रयासी प्रेरणा के स्रोत, सक्रिय वेदना की ज्योति, सब साहाय्य उनसे लो। तुम्हारी मुक्ति उनके प्रेम से होगी। कि तद्गत लक्ष्य में से ही/ हृदय के नेत्र जागेंगे, व जीवन-लक्ष्य उनके प्राप्त/ करने की क्रिया में से/ उभर ऊपर/ विकसते जायँगे निज के/ तुम्हारे गुण/ कि अपनी मुक्ति के रास्ते/ अकेले में नहीं मिलते।”...अभी भी हैं प्रतीक्षा में!! पुकारूँ? क्या करूँ!! लेकिन/ हृदय काला हुआ जीवन-समीक्षा में।... तुरत अपने अकेले स्याह/ कुट्ठर में पहुँचता हूँ। बड़ा अचरज! कि जब मैं गैर-हाज़िर, तो/ यहाँ पर एक हाज़िर है। - अँधेरे में, अकेली एक छाया-मुर्ति/ कोई लेख/ टाइप कर रही तड़-तड़-तड़ातड़-तड़/ व उसमें से उछलते हैं/ घने नीले-अरुण चिनगारियों के दल!! लुमुम्बा है, वहाँ अल्जीरिया-लाओस-क्यूबा है/ हृदय के रक्त-सर में, सूर्य-मणि-सा ज्ञान डूबा है/ दिमाग़ी रग फड़कती है, फड़कती है, व उसमें से भभकता/ तड़फता-सा दुःख बहता है!!...कि मैं सब पत्र-पुस्तक पढ़/ पुरानी रक्त-इतिहासी भयानकता जिये जाता।... कहाँ हो तुम, कहाँ हैं हम? प्रशोषण-सभ्यता की दुष्टता के भव्य देशों में/ ग़रीबिन जो कि जनता है, उसी में से कई मल्लाह आते हैं यहाँ पर भी/ व, चोरी से, उन्हीं से ही/ मुझे सब सूचनाएँ, ज्ञान मिलता है, कि वे ही दे गये हैं, अद्यतन सब शास्त्र/ मेरा भी सुविकसित हो गया है मन/ व मेरे हाथ में हैं क्षुब्ध सदियों के/ विविध-भाशी विविध-देशी/ अनेकों ग्रन्थ-पुस्तक-पत्र/ सब अख़बार जिनमें मगन होकर मैं/ जगत्-संवेदनों से आगमिष्यत् के/ सही नक्षे बनाता हूँ।... मेरे सामने हैं प्रश्न, क्या होगा कहाँ किस भाँति, मेरे देश भारत में, पुरानी हाय में से/ किस तरह से आग भभकेगी, उड़ेंगी किस तरह भक् से/ हमारे वक्ष पर लेटी हुई/ विकराल चट्टानें/ व इस पूरी क्रिया में से/ उभर कर भव्य होंगे, कौन मानव-गुण?...भयानक इम्तिहानों के तजुर्बों से/ बुजु़र्गी आ गयी जिनको/ कि ऐेसे दर्दवाले, ज्ञानवाले/.... कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में/ सभी प्रश्नोत्तरी की तुंग प्रतिमाएँ/ गिराकर तोड़ देता हूँ हथौड़े से/ कि वे सब प्रश्न कृत्रिम और/ उत्तर और भी छलमय, समस्या एक - मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों के/ सभी मानव/ सुखी, सुन्दर व शोषण-मुक्त/ कब होंगे?.... नहीं होती, कहीं भी ख़तम कविता नहीं होती/ कि वह आवेग-त्वरित काल यात्री है। व मैं उसका नहीं कर्ता, पिता-धाता/ कि वह कभी दुहिता नहीं होती, परम स्वाधीन है वह विश्व-शास्त्री है। गहन-गम्भीर छाया आगमिष्यत् की/ लिये, वह जन-चरित्री है। नये अनुभव व संवेदन/ नये अध्याय-प्रकरण जुड़/ तुम्हारे कारणों से जगमगाती है/ व मेरे कारणों से सकुच जाती है/ कि मैं अपनी अधूरी बीड़ियाँ सुलगा, ख़याली सीढ़ियाँ चढ़कर/ पहुँचता हूँ...” 
- चकमक की चिनगारियाँ : रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 232 से
“उन्हें युद्ध की ही करने दो बात/ चाँद की बात हम करें, सूत्र निकालें गणित जमायें/ अज्ञातों को ज्ञात हम करें!! ... यह ब्रह्म-चक्र/ दृढ़ है उसकी अनिवार्य प्रगति की अरा/ तुम्हारे हाथ, तुम्हारे हाथ!! मित्रो, फटे-हाल रह कर भी, मिट्टी भरे बाल रख कर भी/ दिये चलो/ अरे, दिये चलो/ सहचारी को विचार की जीवन-धुरा... रोयें वे जो शैतानों के घर-दफ़्तर में अहलकार/ बन काम कर रहे, नित अपनी क़लम घिस रहे, हार-हार-/कर रोज़ रहे हैं जीत... रोयें वे जो रखते अपने अदृष्य अपराधी ईश्वर से/ ऐसा-वैसा सरोकार!! आँख पोंछकर/ उन्हें युद्ध की ही करने दो बात!!” - उन्हें युद्ध की ही करने दो बात : रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 244 से
“उस शाला का मैं एक/ अल्पमति विद्यार्थी/ जड़ लेखक हूँ मैं अननुभवी, आयु में यदपि मैं प्रौढ़/ बुद्धि से बालक हूँ/ मैं एकलव्य जिसने निरखा... ज्ञान के बन्द दरवाज़े की दरार से ही/ भीतर का महा मनोमन्थन-शाली मनोज्ञ/ प्राणाकर्षक प्रकाश देखा। पथ पर मँडराते विद्यालय के शब्दों से/ विद्या के स्वर-कोलाहल में से/ छन कर कुछ आये/ वाक्यों से प्राप्त किया...सब ग्रन्थाध्ययन-वंचिता मति ने सड़कों पर/ ज्ञान के हृदय-जागृति-स्वप्नों को/ प्राप्त किया/ बचपन से ही,... उस मुक्तिकाम बेचैनी में/ मैं उन ग़रीब गलियों में घूमा-झूमा हूँ/ जिन गलियों में तुम अक्षयवट...अनुभव-शाखाएँ लिये खड़े।... तुम कर्मवाद के धीर दार्शनिक-से लौटे/ गम्भीर-चरण चुपचाप-क़दम।... झूठे अवलम्बन की शहनाई मूक हुई/ भावुक निर्भरता का सम्बल दो टूक हुआ, देखा...सहसा मैं बदल गया, भूरे निःसंग रास्ते पर/ मैं अपने को ही सहल गया।” - मेरे सहचर मित्र : रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 246 से
“पता नहीं, कब, कौन, कहाँ, किस ओर मिले, किस साँझ मिले, किस सुबह मिले!! ... यह कैसी घटना है... कि स्वप्न की रचना है।... सहसा होता है प्रकट एक/ वह शक्ति-पुरुश/ जो दोनो हाथों आसमान थामता हुआ/ आता समीप अत्यन्त निकट/ आतुर उत्कट/ तुमको कन्धे पर बिठला ले जाने किस ओर/ न जाने कहाँ व कितनी दूर!! फिर वही यात्रा सुदूर की, फिर वही भटकती हुई खोज भरपूर की, कि वही आत्मचेतस् अन्तःसम्भावना,...जाने किन ख़तरों में जूझे ज़िन्दगी!! ... तुम दौड़ोगे प्रत्येक व्यक्ति के/ चरण-तले जनपथ बनकर!! वे आस्थाएँ तुमको दरिद्र करवायेंगी/ कि दैन्य ही भोगोगे/ पर, तुम अनन्य होगे, प्रसन्न होगे!! आत्मीय एक छवि तुम्हें नित्य भटकायेगी/ जिस जगह, जहाँ जो छोर मिले/ ले जायेगी...पता नहीं, कब, कौन, कहाँ, किस ओर मिले।” - पता नहीं... : रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 255 से
“सहस्त्रों वर्षों से यह सागर/ उफनता आया है/ उसका तुम भाष्य करो/ उसका व्याख्यान करो/ चाहो तो उसमें तुम डूब मरो। अतल-निरीक्षण को, मरकर तुम पूर्ण करो।... ऐसा यह ज्ञान-मणि/ मरने से मिलता है; जीवन के जंगल में/ अनुभव के नये-नये गिरियों के ढालों पर/ वेदना-झरने के/ पहली बार देखे-से, जल-तल में/ आत्मा मिलती है/ (कहीं-कहीं, कभी-कभी) अरे राह-गलियों में/ पड़ा नहीं मिलता है ज्ञान-मणि।... इसीलिए, मुझे इस तमाकार पानी से/ समझौता करना है/ तैरते रहना है सीमाहीन काल तक, मुझको तो मृत्यु तक/ भयानक लहरों से मित्रता रखना है।... स्तब्ध हूँ, विचित्र दृष्य! फुसफुसे पहाड़ों-सी पुरुशों की आकृतियाँ/ भुसभुसे टीलों-सी नारी-प्रकृतियाँ/ ऊँचा उठाये सिर गरबीली चाल से/ सरकती जाती हैं। चेहरों के चैखटे/ अलग-अलग तरह के, अजीब हैं, मुश्किल है जानना; पर, कई/ निज के स्वयं के/ पहचानवालों का भान हो आता है।...जुलूस में अनेक मुख/ (नेता और विक्रेता, अफ़सर और कलाकार) अनगिन चरित्र/ पर, चरितव्य कहीं नहीं/ अनगिनत श्रेष्ठों की अनेक रूप-आकृतियाँ - रिक्त प्रकृतियाँ। मात्र महत्ता की निराकार केवलता।... सागर की थाहों में पैर टिका देता है पर्वत-आकार का। देव भयानक/ उठ खड़ा होता है। सागर का पानी, सिर्फ़ उसके घुटनों तक है, पर्वत-सा मुख-मण्डल आसमान छूता है/ अनगिनत ग्रह-तारे चमक रहे, कन्धों पर। लटक रहा एक ओर/ चाँद/ कन्दील-सा। ... कितनी ही गर्वमयी/ सभ्यता-संस्कृतियाँ/ डूब गयीं। काँपा है, थहरा है, काला-जल गहरा है, शोषण की अतिमात्रा, स्वार्थों की सुख-यात्रा, जब-जब सम्पन्न हुई, आत्मा से अर्थ गया, मर गयी सभ्यता।...अपने उस पाप से/ शहरों के टाॅवर सब मीनारें डूब गयीं, काला समुन्दर ही लहराया, लहराया!”... इस काले सागर का/ सुदूर-स्थित पश्चिम-किनारे से/ ज़रूर कुछ नाता है/ इसीलिए, हमारे पास सुख नहीं आता है।... क्षोभ-विद्रोह भरे संगठित विरोध का/ साहसी समाज है!! भीतर व बाहर के पूरे दलिद्दर से/ मुक्ति की तलाश में/ आगामी कल नहीं, आगत वह आज है!!” - एक स्वप्न-कथा : रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 258 से

मुक्तिबोध की कलम से - 7 
‘भूखों ओ, प्यासों ओ/ इन्द्रिय-जित सन्त बनो/ बिरला को टाटा को/ अस्थि-मांस दान दो/ केवल स्वतन्त्र बनो/ धूल फाँक श्रम करो/ साम्य-स्वप्न-भ्रम हरो/ परम पूर्ण अन्त बनो/ अमरीकी सेठवाद/ भारतीय मान लो/ हमारे मत प्राण लो/ मानवीय जन्तु बनो!!... वास्तविकता को उठाकर देखने का चीमटा है कल्पना/ वह परखने-निरखने का लेन्स, सच-सही उसको जमाना साधना है, है ज़रा मुश्किल!!’ - कल्पना की दीप्ति : रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 271 से
‘सारी आग/ जाने कब की बुझ गयी; गरम-गरम झरनों का झाग भी न बचा है/ सिर्फ़ देह रह गयी रह गयी आदतें/ हर चीज़ मुट्ठी में रखने की सिफ़तें/ बन गयी खूख़ार/ इसीलिए, बचा-खुचा जो भी रह गया है/ ब्याज उसका, दर उसका बहुत बढ़ गया है!!... उन्हीं ज्वालामुखियों के दल में से एक ने/ सीसे-जैसी लम्बी-लम्बी आसमानी हदों तक/ लम्बी चुरुट सुलगायी/ दाँतों से होठ दाब जानें किस तैश में/ चेहरे की सलवटें और रौबदाब की/ गड़गड़ाते हुए वह कहने लगा - हे मूर्ख, देख मुझे पहचान/ मुझे जान/ मैं मरा नहीं हूँ/ देखते नहीं हो क्या/ मेरी यह सिगरेट धुँआती है अब तक/ मेरी आग मुझमें है जल रही अब भी।’ - एक सपना: रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 272 से
‘कलमुँही चिमनियों के मीनार/ उद्गार-चिह्नाकार। मीनारों के बीचोबीच चाँद का है टेढ़ा मुँह/ लटका, मेरे दिल में खटका - कहीं कोई चीख़, कहीं बहुत बुरा हाल रे!!... ग़रीबों के ठाँव में - चैराहे पर खड़ा हुआ/ भैरो का सिन्दूरी महाकार...देखता है - चाँद की गुप्तचर-नीति। तजुऱ्बों का ताबूत ज़िन्दा यह बरगद/ जानता है गलियों की ताक़त।... कोलतारी सड़क पर खड़े हुए सर्वोच्च/ गाँधी की मूर्ति पर/ बैठे हुए आँखों के दो चक्र/ यानी कि घुग्घू एक... उसी तरह थोड़े-से फ़ासले पर/ ठीक उसके सामने, तिलक के पुतले पर बैठा एक घुग्घू। दोनों में ज़ोरदार बहस और बातचीत।... ‘‘वाह-वाह, रात के जहाँपनाह, इसीलिए आजकल/ दिन के उजाले में भी अँधेरे की साख़ है/ इसीलिए संस्कृति के मुख पर/ मनुष्यों की अस्थियों की राख है/ ज़माने के चेहरे पर/ ग़रीबों की छातियों की ख़ाक है!! वाह-वाह!!’’ पी गया आसमान/ अँधियाली सचाइयाँ घोंट के, मनुष्यों को मारने के खूब हैं ये टोटके।... लेकिन, उस सराफे़ में अभी भी है भीड़-भाड़/ बिजली के बूदम/ खम्भों पर लटके हुए मद्धिम/ दिमाग़ में धुन्ध है। सट्टे की चिन्ता है हृदय-विनाशिनी... गन्दगी के काले-से नाले के झाग पर/ बदमस्त कल्पना-सी फैली थी रात-भर/ सेक्स के कष्टों के कवियों के काम-सी। किंग्सवे में मशहूर ज़िन्दगी रात की/ सड़कों का श्रीमान फिरंगी ईमान/ सुगन्धित किरनों में/ फहराता है हृदय का कामाकुल सुनसान/ रंगीन चमकती चीजों के सुरभित/ स्पर्शों में पुलकित/ शीशों की सुविशाल झाँइयों में उद्दीप्त/ चाँदनी दिल की/ खूबसूरत अमरीकी मैगज़ीन पृष्ठों-सी/ खुली थी/ अधनंगी तनिमा के ओष्ठों-सी/ खुली थी, सफ़ेद अण्डरवेयर-सी, ब्रेसिए-सी, आधुनिक प्रतीकों में पली थी/ नंगी-सी नारियों के उघरे हुए अंगों के/ विभिन्न पोज़ों में लेटी थी चाँदनी। करफ़्यू कहीं नहीं यहाँ...!! पसन्दगी...सन्दली!!... गाँधी की मूर्ति पर बैठे हुए घुग्घू ने/ एकाएक गला फाड़ गाना शुरू किया/ हिचकी की तान पर, दुनिया की साँसों ने तब/ मर जाना शुरू किया !! टेलीफ़ोन खम्भों पर थमे हुए तारों ने/ सट्टे के ट्रंक-काल-सुर में/ भर्राना और झनझनाना शुरू किया/ काला स्याह कनटोप पहने हुए/ आसमान बाबा ने/ संकट पहचान/ राम-राम-राम गुनगुनाना शुरू किया।... ‘‘बुद्ध के स्तूप में/ मानव के सपने/ गड़ गये, गाड़े गये!! ईसा के पंख सब/ झड़ गये झाड़े गये/ सत्य की देवदासी-अंगिया/ उतारी गयी/ उघारी गयी/ सपनों की आँतें सब/ चीरी गयीं, फाड़ी गयीं/ बाक़ी सब खोल है/ ज़िन्दगी में झोल है’’.... नगर की व्यथाएँ, समाजों की कथाएँ/ मोर्चों की तड़प और मकानों के मोर्चे/ मीटिंगों के मर्म-राग, अंगारों से भरी हुई प्राणों की गर्म राख।... गलियों के आगे बढ़, बगल में लिये कुछ/ मोटे-मोटे काग़जों का पुलिन्दा, लटकाये हाथ में/ डिब्बा एक टीन का, डिब्बे में धरे हुए लम्बी-सी कूँची एक, नंगे पैर ज़माना/ कहता - ‘मैं पेन्टर।’ शहर है साथ-साथ/ कहता - ‘मैं कारीगर’/ कहता है कारीगर/ बरगद की गोल-गोल/ हड्डियों की पत्तेदार/ उलझनों के ढाँचे में/ लटकाओ पोस्टर/ गलियों के अलमस्त/ फ़कीरों के लहरदार/ गीतों के तानों में फहराओ/ चिपकाओ पोस्टर।... तड़के ही मज़दूर/ पढ़ेंगे ध्यान से/ रास्ते में खड़े-खड़े लोग-बाग/ पढ़ेंगे ज़िन्दगी की झल्लायी हुई आग!! .... राम-कथा व्यथा की/ कि आज भी जो सत्य है, लेकिन, भाई, कहाँ अब वक़्त है!! तसवीरें बनाने की/ इच्छा अभी बाक़ी है, ज़िन्दगी भूरी ही नहीं, वह ख़ाकी है।... धरती की धूल में भी रेखाएँ खींचकर/ तसवीरें बनती हैं, बशर्ते कि ज़िन्दगी के चित्र सौ/ बनाने का चाव हो, श्रद्धा हो, भाव हो।... चित्र बनाते वक़्त/ सब स्वार्थ त्यागें जायँ, अँधेरे से भरे हुए/ जीने की सीढ़ियाँ चढ़ती-उतरती जो/ इच्छा है - अन्ध है, ऊपर के कमरे सब अपने लिए बन्द हैं; अपने लिए नहीं वे।’ ज़माने ने नगर से कहा - यह ग़लत है, वह भ्रम है, हमारा अधिकार सम्मिलित श्रम/ और छीनने का दम है।... अलबत्ता पोस्टर हम लगा जायेंगे/ हम धधकायेंगे। मानो या मत मानो, इस नाज़ुक घड़ी में/ चन्द्र है, सविता है/ पोस्टर ही कविता है!!...कारतूस गोली के धड़ाके से टकरा/ प्रतिरोधी कविता/ बनते हैं पोस्टर/ ज़माने के पैग़म्बर!! आसमान थामते हैं कन्धों पर/ हड़ताली पोस्टर, कहते हैं - आदमी की दर्दभरी गहरी पुकार सुन/ जो दौड़ पड़ता है आदमी है वह भी, जैसे तुम भी आदमी, वैसे मैं भी आदमी।... काली इस झड़ी में/ विचारों की विक्षोभी तड़ित कराहती/ क्रोध की गुहाओं का मुँह खोले/ शक्ति के पहाड़ दहाड़ते/ काली इस झड़ी में/ वेदना की तड़ित् कराहती। मदद के लिए अब/ करुणा के रोंगटे में सनसनाता/ दौड़ पड़ता आदमी, व आदमी के दौड़ने के साथ-साथ/ दौड़ता जहान/ और दौड़ पड़ता आसमान!!.... ज़ोरदार जिरह कि कितना समय लगेगा/ सुबह होगी कब और/ मुश्किल होगी दूर कब!!’ - चाँद का मुँह टेढ़ा है : रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 273 से
‘कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं - ‘सफल जीवन बिताने में हुए असमर्थ तुम। तरक़्की के गोल-गोल/ घुमावदार चक्करदार/ ऊपर बढ़ते हुए ज़ीने पर चढ़ने की/ चढ़ते ही जाने की/ उन्नति के बारे में/ तुम्हारी ही ज़हरीली/ उपेक्षा के कारण, निरर्थक तुम, व्यर्थ तुम!!’... मुझको डर लगता है, मैं भी तो सफलता के चन्द्र की छाया में/ घुग्घू या सियार या/ भूत नहीं कहीं बन जाऊँ। उनको डर लगता है, आषंका होती है/ कि हम भी जब हुए भूत/ घुग्घू या सियार बने/ तो अभी तक यही व्यक्ति/ ज़िन्दा क्यों? उसकी वह विक्षोभी सम्पीड़ित आत्मा फिर/ जीवित क्यों रहती है? मरकर जब भूत बने/ उसकी वह आत्मा पिषाच जब बन जाये/ तो नाचेंगे साथ-साथ सूखे हुए पथरीले झरनों के तीरों पर/ सफलता के चन्द्र की छाया में अधीर हो। इसीलिए, इसीलिए, उनका और मेरा यह विरोध/ चिरन्तन है, नित्य है, सनातन है। उनकी उस तथाकथित/ जीवन-सफलता के/ खपरैलों-छेदों से/ खिड़की की दरारों से/ आती जब किरणें हैं/ तो सज्जन वे, वे लोग/ अचम्भित होकर, उन दरारों, छेदों को/ बन्द कर देते हैं; इसीलिए कि वे किरणें/ उनके लेखे ही आज/ कम्यूनिज़्म है...गुण्डागर्दी है...विरोध है, जिसमें छिपी है कहीं/ मेरी बदमाशी भी।... पशुओं के राज्य में जो बियाबान जंगल है/ उसमें खड़ा है घोर स्वार्थ का प्रभीमकाय/ बरगद एक विकराल। ...वृक्ष के तने से चिपट/ बैठा है, खड़ा है कोई/ पिशाच एक ज़बर्दस्त मरी हुई आत्मा का, वह तो रखवाला है/ घुग्घू के, सियारों के, कुत्तों के स्वार्थों का। और उस जंगल में, बरगद के महाभीम/ भयानक शरीर पर खिली हुई फैली है पूनों की चाँदनी/ सफलता की, भद्रता की, श्रेय-प्रेय-सत्यं-शिवं-संस्कृति की/ खिलखिलाती पूनों की चाँदनी। अगर कहीं सचमुच तुम/ पहुँच ही वहाँ गये/ तो घुग्घू बन जाओगे/ सियार बन जाओगे। आदमी कभी भी फिर/ कहीं भी न मिलेगा तुम्हें। पशुओं के राज्य में/ जो पूनों की चाँदनी है/ नहीं वह तुम्हारे लिए/ नहीं वह हमारे लिए। तुम्हारे पास, हमारे पास, सिर्फ़ एक चीज़ है - ईमान का डण्डा है, बुद्धि का बल्लम है, अभय की गेती है/ हृदय की तगारी है - तसला है/ नये-नये बनाने के लिए भवन/ आत्मा के, मनुष्य के, हृदय की तगारी में ढोते हैं हमीं लोग/ जीवन की गीली और/ महकती हुई मिट्टी को।... इसलिए, अगर ये लोग/ सड़क-छाप जीवन की धूल-धूप/ मामूली रंग-रूप/ लिये हुए होने से/ तथाकथित ‘सफलता’ के/ खच्चरों व टट्टुओं के द्वारा यदि/ निरर्थक व महत्वहीन/ क़रार दिये जाते हों/ तो कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं। सामाजिक महत्त्व की/ गिलौरियाँ खाते हुए, असत्य की कुर्सी पर/ आराम से बैठे हुए, मनुष्य की त्वचाओं का पहने हुए ओवरकोट, बन्दरों व रीछों के सामने/ नयी-नयी अदाओं से नाचकर/ झुठाई की तालियाँ देने से, लेने से/ सफलता के ताले ये खुलते हैं, बशर्ते कि इच्छा हो/ सफलता की, महत्त्वाकांक्षा हो/ अपने भी बरामदे/ में थोड़ा-सा फ़र्नीचर, विलायती चमकदार/ रखने की इच्छा हो/ तो थोड़ी-सी सचाई में/ बहुत-सी झुठाई घोल/ सांस्कृतिक अदा से, अन्दाज़ से/ अगर बात कर सको - भले ही दिमाग़ में/ ख़यालों के मरे हुए चूहे ही/ क्यों न हों प्लेग के, लेकिन, अगर कर सको/ ऐसी जमी हुई ज़बान-दराज़ी और/ सचाई का अंग-भंग/ करते हुए झूठ का/ बारीक़ सूत कात सको/ तो गतिरोध और कण्ठरोध/ मार्गरोध कभी भी न होगा फिर/ कटवा चुके हैं हम पूँछ-सिर/ तो तुम ही यों/ हमसे दूर बाहर क्यों जाते हो? जवाब यह मेरा है, जाकर उन्हें कह दो कि सफलता के ज़ंग-खाये/ तालों और कुंजियों/ की दुकान है कबाड़ी की। इतनी कहाँ फ़ुरसत हमें - वक़्त नहीं मिलता है/ कि दुकान पर जा सकें। अहंकार समझो या/ सुपीरियारिटी काम्पलेक्स/ अथवा कुछ ऐसा ही/ चाहो तो मान लो, लेकिन सच है यह/ जीवन की तथाकथित/ सफलता को पाने की/ हमको फु़रसत नहीं, ख़ाली नहीं हम लोग!! बहुत बिज़ी हैं हम।’ - कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं : रचनावली खण्ड - 2, पृष्ठ - 287 से

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