Friday 11 October 2013

दुर्गा-महिषासुर मिथक का सच:- गिरिजेश

प्रिय मित्र, कृपया अब मेरी बात सुनिए ! मिथक उस कथानक को कहते हैं, जिसे इतिहास के पहले की घटना के सहारे साहित्यकार गढ़ता है. प्रागैतिहासिक काल की ऐसी किसी भी घटना का काल-खण्ड निर्धारित करना दुरूह होता है. जब कल्पना और इतिहास दोनों ही हमारी थोड़ी-बहुत मदद करते हैं, तभी हम मिथकों के पात्रों के अतिमानवीय आभा-मण्डल को भेद कर उनका मानवीकरण कर पाते हैं. मैं भी ऐसा ही एक प्रयास कर रहा हूँ. इसकी विश्वसनीयता के लिये हमें साहित्य और पुरातात्विक अध्ययन का सहारा लेना पड़ेगा.

भारतीय इतिहास के प्रथम चरण - प्राक्वैदिक और वैदिक काल के अध्येताओं की एक धारा के अनुसार आर्य इस देश के मूल-निवासी नहीं माने जाते हैं. इस धारा के अनुसार आर्य मध्येशिया से भारत भूमि पर आये हैं. आर्य नस्ल अपने गोरे रंग, सुनहरे बाल, नीली आँखों और नुकीली नाक के साथ ही लम्बे कद के लिये भी जानी जाती है. इसके विपरीत इस भूमि के मूल-निवासियों की चपटी नाक, काला रंग, काली आँखें, काले-घुँघराले बाल और नाटा कद उनकी पहिचान बनाता है. 

मूल निवासियों और आक्रामक आर्यों के बीच अनेक पीढ़ियों तक रक्त-रंजित युद्ध लगातार चलता रहा. मूल निवासियों की सभ्यता-संस्कृति का धरातल अपेक्षाकृत अधिक उन्नत था. उनके प्रमाण हमें मोहेंजोदड़ो और हड़प्पा से उपलब्ध हैं. वे नगर, भवन, दुर्ग निर्माण की कला के विशेषज्ञ थे. उनका देवता अथर्वण था और उनका वेद अथर्व वेद. जिसको अनार्य होने के चलते ही अपने उपवेद आयुर्वेद के साथ ही आर्यों की दृष्टि में उस सम्मान का पात्र नहीं माना जाता था, जो वेद-त्रयी को मयस्सर था. 

आर्यों के नेता वशिष्ठ और अनार्यों के नेता शम्बर के बीच चले युद्ध में शम्बर के सौ दुर्गों और शम्बर की पराजय के साथ ही उन दुर्गों के पतन का विवरण उपलब्ध है. युद्ध में अनार्यों की पराजय के पश्चात भी दोनों ही पक्षों को एक-दूसरे के साथ जीना पड़ा. पराजित अनार्य आर्यों के दास बनने को बाध्य हुए. दासता के बावज़ूद वे अपने उन्नत मस्तिष्क के सहारे आर्यों को कला-साहित्य-संस्कृति के विविध पक्ष सिखाते रहे.

इसी बीच विश्वामित्र ने गायत्री मन्त्र के सहारे अनार्यों को भी आर्य बनाने का काम शुरू किया. यह दोनों नस्लों के मध्य समन्वय स्थापित करने के लिये किया जाने वाला एक प्रयास था. इस प्रयास के परिणाम स्वरूप दोनों नस्लों के परस्पर घुल-मिल जाने के पश्चात ही साँवले रंग के, लम्बे, घुँघराले बालों, काली आँख और नुकीली नाक वाले आर्यों की उत्पत्ति हुई, जिनके वंशजों को राम और कृष्ण के रूप में मिथक साहित्य में हम देख पाते हैं.

परन्तु शम्बर की पराजय के साथ ही युद्ध समाप्त नहीं हो सका. अन्य द्रविण योद्धाओं ने अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये युद्ध का नेतृत्व सम्भाला. ऐसे ही अनेक लोकविश्रुत नामों में से चमुरि और महिष ने अपने शौर्य से इतना नाम कमाया कि लोककथा के पात्र बन सके. भले ही उनको खलनायक के रूप में चित्रित किया गया. 

दुर्गा का काल-खण्ड इस काल-खण्ड के बाद का प्रतीत होता है. जब अश्वारोही आर्य केवल घुमक्कड़ी करने के बजाय व्यवस्थित तौर पर बस्ती बनाकर बस चुके थे, तो उन्होंने भी द्रविण आक्रमणों से बचने के लिये दुर्ग बनाने शुरू किये और दुर्ग में रहना आरम्भ किया.

दुर्गा के रूप में हमें मिथक साहित्य से दो सबक मिलते हैं. एक कि जब पुरुष पराजित होने लगते हैं, तो नारी अपना शौर्य प्रदर्शित करती है और युद्ध में शत्रु से पराजित होकर घर लौटे अपने पुरुष को उसकी औकात बता देती है. वह पुरुष-प्रधान समाज व्यवस्था का खुल कर उपहास करती है और अपनी समर्थ उपस्थिति दर्ज कराती है. दूसरा कि आर्यों और अनार्यों के बीच के इस युद्ध को ही देवासुर संग्राम के रूप में बदलने वाले उपासक चाहे जो भी कहें, परन्तु आक्रामक आर्य थे और उनका असुरों पर हमला करना और युद्ध करना उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा करने के मकसद से था और अनुचित था. 

अन्यथा वास्तव में न तो दस सिर वाला रावण सम्भव है और न ही आठ भुजाओं वाली दुर्गा. दोनों ही चरित्रों का हमारे पुरखों द्वारा अतिमानवीकरण किया गया है. हाँ, असुर योद्धा अपने सिर पर शिरस्त्राण के रूप में सींग अवश्य बाँधते थे, जो उनके लिये एक अतिरिक्त हथियार का काम देते थे. परन्तु महिष भी दुर्गा और रावण की तरह ही मनुष्य था. वह भैंसा नहीं था.

दुर्गा को कथानक के मुताबिक सभी देवताओं की सामूहिक शक्ति से उत्पन्न बताया गया है. सिन्दूर केवल हिन्दू नारी के गृहस्थ जीवन के सौभाग्य का ही प्रतीक नहीं है. वह शौर्य का भी प्रतीक है. यही कारण है कि वीर हनुमान की पूरी प्रतिमा ही सिन्दूर से लीपी हुई मिलती है. सामान्य हिन्दू गृहणी अपनी उपासना में अपनी आराध्या देवी दुर्गा से अपने सिन्दूर की सुरक्षा का वरदान माँगने की कामना से उनको सिन्दूर चढ़ाती हैं. और साज-सज्जा के प्रश्न पर केवल इतना ही कहा जा सकता है कि योद्धा रणक्षेत्र में मारने-मरने का संकल्प करके उतरता है. उसका वेश सन्यासी वैरागियों की तरह हो ही नहीं सकता. वह अपनी पूरी सज्जा के साथ आर-पार का समर लड़ने जाता है और दुर्गा का वेश और श्रृंगार इसका अपवाद कैसे हो सकता है ? 

आप मेरी ओर से इस पोस्ट की खुले मन से आलोचना करने के लिये न केवल स्वतन्त्र हैं, अपितु सादर आमन्त्रित भी हैं. 
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश 

कृपया इस लेख को पढ़ें और विचार करें. सन्दर्भ के लिये यह पोस्ट देखें

Jitendra Yadav - "जिज्ञासाः दुर्गा जब कुंवारी हैं तो उन्‍हें सिंदुर क्‍यों चढाया जाता है. दुर्गा को मां कहा जाता है. कुंवारी दुर्गा मां कैसे हो गई. दुर्गा ने तो ब्‍याहता कन्‍या की तरह सिंगार कर रखा है. आशा है आप मेरे प्रश्‍न का सामाधान करेंगे.
बहरहाल, 17 अक्‍टूबर को 3 बजे जेएनयू के सामाजिक विज्ञान सभागार में महिषासुर शहादत दिवस का अयोजन किया गया है. 'हिन्‍दू मिथक और बहुजन परंपराएं' विषय पर बात करने के लिए कांचा इलैया, उदित राज, प्रेमकुमार मणि, तुलसी राम, रमणिका गुप्‍ता, चंद्रभान प्रसाद, चमनलाल समेत देश के कई विद्वान आ रहे हैं. आप भी सांस्‍कृतिक आंदोलन में अपनी भागीदारी सुनिश्चित किजिए."

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