Friday 2 May 2014

शिक्षा के बाज़ारीकरण की समस्या का जवाब !



प्रश्न : "आप मुझे यह बताओ मैट्रिक में 97.5 मार्क प्राप्त करने वाला 10+2 का स्टूडेंट मैथ की पीरियड अटेण्ड करने के लिये तड़पता रहता है और मास्टर जी पीरियड नहीं लेने आते और घर में कोचिंग देने के रु. 4000/- माँगते हैं. अब बताओ तो ज़रा मास्टर जी का क्या किया जाये ?" 
अभी एक मित्र ने प्रश्न किया है ,सम्भव हो तो जवाब आप बताएं। - Parmanand Shastri
(ap mujhe ye bato matric me 97.5 mark parapat karne wala 10+2 ka student math ka peryad atnad karne ke liye tadfata rahta h or master g piryad nahi lane ate or ghar me cocchig dane ka 4000 rs mangate h ab bato to jara masre g kaya kiya jaye)

उत्तर : किसी भी सामाजिक समस्या का व्यक्तिगत समाधान सम्भव नहीं होता. शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार, न्याय और मनोरंजन हर व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताएँ हैं. आज ये सारी की सारी आवश्यकताएँ किसी न किसी रूप में मुख्यतः बाज़ार के माध्यम से ही पूरी हो पा रही हैं. जिसकी जितनी सामर्थ्य है, वह उस स्तर की सुविधा जुटा ले रहा है. अधिकतम जन-गण धनाभाव में न्यूनतम स्तर का जीवन जीने के लिये विवश हैं. 

प्रत्येक सामाजिक समस्या का समाधान सामूहिक प्रयास से अथवा व्यवस्था-परिवर्तन द्वारा ही सम्भव है क्योंकि व्यवस्था के भीतर ही उसके कारण निहित होते हैं. सामन्तवाद से पूँजीवाद तभी सफलतापूर्वक लड़ कर जीत सका, जब उसने पूरे समाज को सामन्तवादी स्थानीयता पर टिकी जीवन-शैली की जगह अपनी वैकल्पिक बाज़ार के केन्द्रीकरण पर टिकी जीवन-शैली दिया. और आज तक वह अपने इसी बाज़ार आधारित वैकल्पिक जीवन-पद्धति के दम पर दुनिया पर हुकूमत कर रहा है. 

क्रान्तिकारियों ने उन देशों में तो समाज को पूँजीवादी पद्धति का सामूहिकता और परस्पर सहयोग पर आधारित विकल्प दिया, जहाँ सफल क्रान्तियाँ सम्पन्न हो सकीं. और जब क्रन्तिविरोधी शक्तियों ने क्रान्तिकारी शक्तियों को परास्त कर के सत्ता पर कब्ज़ा किया, तब अर्थात प्रतिक्रान्ति होने के बाद उन विकल्पों को धीरे-धीरे कर के मिटा दिया गया और उनकी जगह दुबारा बाज़ार के अधीन जीवन को कर दिया गया.

परन्तु मेरी मान्यता है कि अपने देश में क्रान्तिकारी धारा की अब तक की विफलता के अनेक कारणों में से यह भी एक प्रमुख कारण है कि हमारे क्रान्तिकारी साथियों ने परम्परा और व्यवस्था की आलोचना तो सफलतापूर्वक किया मगर हम चिन्तन के धरातल से नीचे उतर कर आचरण के स्तर पर इन चीज़ों का कोई सार्थक विकल्प नहीं दे सके. 

अगर हम केवल हरदम व्यवस्था-जनित शोषण की आलोचना करने की जगह शिक्षा, चिकित्सा, न्याय और रोज़गार को बाज़ार के मुनाफ़ाखोर शिकन्जे से मुक्त करने की दिशा में कोई रचनात्मक प्रयोग करने का प्रयास करें, भले ही हमारा प्रयास हमारे संसाधनों की सीमाओं के चलते कम पैमाने पर हो या प्रतीकात्मक ही हो, तो भी हम किसी न किसी हद तक बाज़ार की लुटेरी शक्तियों का सफलतापूर्वक मुकाबला कर सकेंगे. निःशुल्क शिक्षा, निःशुल्क प्राथमिक चिकित्सा और स्थानीय स्तर पर पंचायती तरीके से यथा-सम्भव न्याय का प्रयास कुछ मित्रों की आपसी मिली-जुली पहल पर आज भी देश में कहीं भी सम्भव है.

जीवन-पद्धति के विकल्प प्रस्तुत करने के लिये ऐसे प्रयोग इस देश में आज़ादी की लड़ाई में महात्मा गाँधी ने किया था. उन्होंने न केवल अभिनव प्रयोग किये, बल्कि अपने उन प्रयोगों को नये नाम भी दिये. उनके बाद मेरी जानकारी में स्वतन्त्र भारत में केवल एक व्यक्तित्व ही विकल्प देने के लिये इस दिशा में सफलतापूर्वक रचनात्मक प्रयोग कर सका है और वह नाम है शहीद शंकर गुहा नियोगी का. 

मेरी समझ से अगर सीधी आन्दोलनात्मक स्तर के संघर्ष की परिस्थिति नहीं खड़ी हो चुकी है, तो हम सभी अपने इर्द-गिर्द इस तरह के 'सेवा-प्रकल्प' चलाने वाले रचनात्मक प्रयोगों के लिये प्रयास कर सकते हैं. और मैं पूरी तरह आश्वस्त हूँ कि ये प्रयास ही हमको अपने आस-पास के जन-सामान्य से सफलता के साथ और सांगठनिक रूप से भी जोड़ने का काम कर सकेंगे. केवल हमारी बे सिर-पैर की लम्बी-चौड़ी शास्त्रीय बहस सुन कर कोई भी हमारे साथ नहीं जुड़ने वाला है. ये प्रयोग ही हमारे लिये जनदिशा में जनसंगठन बनाने की आधार-शिला बन सकते हैं.

अन्यथा साथी Parmanand Shastri जी का यह कथन अपनी समूची वेदना के बावज़ूद बार-बार सच साबित होता रहेगा कि "हमारी व्यवस्था में लड़ाई इतनी आसान नहीं है। बार -बार 'राग दरवारी 'का लगड़ याद आता है। दरअसल हम इस व्यवस्था को ढोने के लिए अभिशप्त हैं। हर आंदोलन व्यक्तिगत लड़ाई में तब्दील कर दिया जाता है। हर योद्धा व्यक्तिगत वलिदान देकर खामोश हो जाता है। स्थितियां कल्पना से भी दुरूह हैं। और हम ?"

अपने सभी विद्वान् और सक्रिय मित्रों और साथियों से मेरा विनम्र निवेदन है कि इस दिशा में न केवल नये सिरे से एक बार गम्भीरता के साथ सोचना शुरू करें, बल्कि जो कुछ भी उनके अपने या उनकी टोली की क्षमता में सम्भव हो सके, वे कदम भी उठा कर उस के परिणाम का सार-संकलन करने के बारे में सोचें. क्योंकि कहा गया है कि 'ऐक्शन मेक्स द ओर्गैनाइज़ेशन' और रचनात्मक ऐक्शन के रूप में क्रान्तिकारी धारा के किसी भी जन-संगठन को व्यापक जनाधार देने वाले ये ही रचनात्मक प्रयोग हैं.

ऐसे ही प्रयोगों के प्रयास में लगा हुआ 
- आपका गिरिजेश 
28.4.14.

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