Thursday 29 May 2014

ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो... - बशीर बद्र



प्रिय मित्र, आज सुबह से यह ग़ज़ल याद आती रही और इसके साथ ही साथ 
ज़िन्दगी के सारे पिछले पन्ने फड़फड़ा कर एक के बाद एक दिमाग में कौंधते चले गये.

वे तमाम लोग जिनके साथ और जिनके लिये जीने का अवसर मिलता गया. 
वे तमाम लोग जिनके ऊपर भरोसा करके एक के बाद एक मनसूबे बनाये. 
वे तमाम लोग जिनके कन्धे से कन्धा मिला कर अलग-अलग मोर्चों पर जूझने का मौका मिला. वे तमाम लोग जिन्होंने मुझे बेइनतेहा प्यार दिया. 
वे तमाम लोग जिनकी मदद से मेरा हर सपना साकार होता गया. 
वे तमाम लोग जो ज़िम्मेदार हैं उन सारी उपलब्धियों के लिये, जो मुझे मयस्सर होती गयीं. 
वे तमाम लोग जो अलग-अलग मोड़ों पर अलग-अलग वजहों से दूर होते चले गये. 
वे सारे के सारे लोग बेतहाशा याद आते रहे और मन उनकी यादों की नमी में भींगता रहा.

अब मेरे पास महज़ उन सबकी खट्टी-मीठी यादें हैं.
यादें जो रह-रह कर दिल-ओ-दिमाग को मथती रहती हैं.
यादें जो अभी भी मुझे लड़ने के लिये ललकारती रहती हैं.
यादें जो मुझे कभी भी अकेलेपन का शिकार नहीं होने देतीं.
यादें जो जागते-सोते हर-हमेशा मेरे इर्द-गिर्द अपना सपनीला घेरा बुनती रहती हैं.
यादें जिनके होने से ही ज़िन्दगी में अभी भी रौनक है.
यादें जिनकी रोशनी में मुझे आगे का सफ़र तय करना है.
यादें जिनके दम पर हर अगले आने वाले युवा को जोड़ना है, सिखाना है.
यादें जो मेरे हर अगले फैसले के लिये मजबूत ज़मीन मुहैया कर रही हैं.

मैं अपने सारे दोस्तों की सारी यादों के सम्मान में अपना हठी सिर झुकाता हूँ.
उनके साथ और अब उनसे दूर जीने के दौरान हुई अपनी हर चूक के एहसास से शर्मिन्दा हूँ.
मैं कोशिश करना चाहूँगा कि अगले रिश्तों में उस तरह की कोई चूक न होने पाये.
मैं कामना कर रहा हूँ कि अब से ज़िन्दगी उनके इर्द-गिर्द ही ताना-बाना बुने, 
जो दुबारा दूर जाने का दर्द न दें.

अब उन मुट्ठी भर बच गये रिश्तों के भरोसे ही बाकी बची ज़िन्दगी जीने की इच्छा है, 
जिनके कन्धे पर हर खुशी और हर दर्द में सिर रख कर रो सकूँ. 
जिनकी छाँव में खुशी के साथ बाकी बची ज़िन्दगी जी सकूँ.
और जिनकी गोद में सिर रख कर सुकून के साथ मर पाना मुमकिन हो सके.

बाकी तो अपनी-अपनी राह के राही हैं. 
वे तमाम लोग महज आज भर साथ हैं, कल निश्चय है कि नहीं रहेंगे.
उन सब के साथ मर्यादापूर्ण दूरी बनाकर चलते रहना है.
ऐसा करने से उनकी वजह से कम तकलीफ़ होगी.
और हो सकता है कि कम उम्मीद पालने से कुछ न कुछ सुकून भी मिल सके.
इसीलिये आज यह ग़ज़ल याद आती रही है.
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश (26.5.14. 9.30 p.m.)

"यूँ ही बे-सबब न फिरा करो, कोई शाम घर में भी रहा करो 
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो 

कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से 
ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो 

अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आयेगा कोई जायेगा 
तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया, उसे भूलने की दुआ करो 

मुझे इश्तहार-सी लगती हैं, ये मोहब्बतों की कहानियाँ 
जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सुना नहीं वो कहा करो 

कभी हुस्न-ए-पर्दानशीं भी हो ज़रा आशिक़ाना लिबास में 
जो मैं बन-सँवर के कहीं चलूँ, मेरे साथ तुम भी चला करो 

ये ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी शाम में, जो उदास पेड़ के पास है 
ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आँसुओं से हरा करो 

नहीं बे-हिजाब वो चाँद-सा कि नज़र का कोई असर नहीं 
उसे इतनी गर्मी-ए-शौक़ से बड़ी देर तक न तका करो"

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