Wednesday 7 May 2014

-: 'आषाढ़ का एक दिन' और आज़मगढ़ की 'मल्लिका' ममता पण्डित :-


प्रिय मित्र, अभी-अभी श्री हरिऔध कलाभवन से लौटा हूँ. जनपद के लब्ध-प्रतिष्ठ रंगकर्मी अभिषेक पण्डित द्वारा निर्देशित और ममता पण्डित तथा साथियों द्वारा अभिनीत मोहन राकेश कृत कालजयी नाटक "आषाढ़ का एक दिन" का मंचन देख कर.

नाटक अनेक कलाकारों द्वारा बार-बार मंचित है और इसीलिये इसकी पुनर्प्रस्तुति और भी चुनौतीपूर्ण है. आज की प्रस्तुति में कवि कालिदास के वियोग, अपने प्रियतम की सफलता की कामना तथा परिजनों के कटाक्षों से उद्भूत उनकी प्रेमिका मल्लिका की आत्मघाती अन्तर्वेदना का सजीव सम्प्रेषण अभिनय-क्षमता की धनी ममता पण्डित के लिये सहज सम्भव हो सका. उन्होंने अपने सम्वादों की अदायगी के लिये इस बार husky tone का चयन किया, जिससे वे सम्वाद विभिन्न अवसरों पर भिन्न-भिन्न और एक अलग तरह का असर छोड़ते चले गये.

नाटक के अन्य पात्रों में जहाँ मातुल (डी.डी. संजय) की भूमिका प्रभावित कर सकी, वहीं माँ (डॉ. अलका सिंह) की भूमिका आरम्भ में अनगढ़ रही परन्तु अगले दृश्यों में सुधरती गयी. स्वयं कालिदास (हरिकेष मौर्य) और उनके मित्र तथा रकीब विलोम (अरविन्द चौरसिया) की प्रस्तुति की तुलना करने पर लगा कि विलोम का अभिनय कालिदास से अधिक प्रभावी रहा. पृष्ठभूमि का संगीत सफल रहा एवं मच-सज्जा सहज.

कुल मिला कर नाटक के प्रभाव के विषय में इतना कह सकते हैं कि पीढ़ियों से घर-गाँव छोड़कर परदेस जाने वालों की ज़मीन होने के चलते बिछोह की मर्मस्पर्शी यन्त्रणा का चित्रण आज़मगढ़ के सुधी दर्शकों के भावुक मन को भिगो गया. "माँ का जीवन भावना नहीं कर्म है" नाटक का अन्तिम कथन है. यह नाटक के दौरान माँ के द्वारा अनेक बार दोहराया गया है. परन्तु अन्तिम बार अकस्मात परित्यक्ता होने पर और बेटी की पुकार सुन कर बेतहाशा क्षुब्ध मल्लिका के मुँह से निकला यह कथन और भी सशक्त प्रभाव छोड़ता है और चलते-चलाते दर्शक के मन-मस्तिष्क में एक अन्तर्मन्थन उत्पन्न करने में सफल रहता है कि सहज प्रेम एवं उसकी अनपेक्षित परिणति के सामने आने पर मानव-मन की भावना की कोमलता और कर्म की कठोरता में कौन अधिक बली है !
मैं तो स्वयं भी मल्लिका की वेदना दशकों से जीता चला आ रहा हूँ. - आपका गिरिजेश

नाटक के विषय में -
"आषाढ़ का एक दिन :
http://hi.wikipedia.org/s/y81 मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नाटककार मोहन राकेश ने अषाढ़ का एक दिन १९५८ में प्रकाशित किया
आषाढ़ का एक दिन सन १९५८ में प्रकाशित और नाटककार मोहन राकेश द्वारा रचित एक हिंदी नाटक है। इसे कभी-कभी हिंदी नाटक के आधुनिक युग का प्रथम नाटक कहा जाता है। १९५९ में इसे वर्ष का सर्वश्रेष्ठ नाटक होने के लिए संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया और कईं प्रसिद्ध निर्देशक इसे मंच पर ला चुकें हैं। १९७१ में निर्देशक मणि कौल ने इस पर आधारित एक फ़िल्म बनाई जिसने आगे जाकर साल की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीत लिया। आषाढ़ का एक दिन महाकवि कालिदास के निजी जीवन पर केन्द्रित है, जो १०० ई॰पू॰ से ५०० ईसवी के अनुमानित काल में व्यतीत हुआ।

शीर्षक की प्रेरणा : इस नाटक का शीर्षक कालिदास की कृति मेघदूतम् की शुरुआती पंक्तियों से लिया गया है। क्योंकि अषाढ़ का माह उत्तर भारत में वर्षा ऋतु का आरंभिक महीना होता है, इसलिए शीर्षक का अर्थ "वर्षा ऋतु का एक दिन" भी लिया जा सकता है।

कथानक : आषाढ़ का एक दिन एक त्रिखंडीय नाटक है। प्रथम खंड में युवक कालिदास अपने हिमालय में स्थित गाँव में शंतिपूर्वक जीवन गुज़ार रहा है और अपनी कला विकसित कर रहा है। वहां उसका एक युवती, मल्लिका, के साथ प्रेम-सम्बन्ध भी है।

नाटक का पहला रुख़ बदलता है जब दूर उज्जयिनी के कुछ दरबारी कालिदास से मिलते हैं और उसे सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार में चलने को कहते हैं। कालिदास असमंजस में पड़ जाता है: एक तरफ़ उसका सुन्दरता, शान्ति और प्रेम से भरा गाँव का जीवन है और दूसरी तरफ़ उज्जयिनी के राजदरबार से प्रश्रय पाकर महानता छू लेने का अवसर। मल्लिका तो यही चाहती है के जिस पुरुष को वह प्यार करती है उसे जीवन में सफलता मिले, और वह कालिदास को उज्जैनी जाने की राय देती है। भारी मन से कालिदास उज्जैनी चला जाता है।

खेल के द्वितीय खंड में पता लगता है कि कालिदास की उज्जयिनी में धाक जम चुकी है और हर ओर उसकी ख्याति फैली हुई है। उसका विवाह उज्जयिनी में ही एक आकर्षक और कुलीन स्त्री, प्रियंगुमंजरी, से हो चुका है। वहाँ गाँव में मल्लिका दुखी और तनहा रह गयी है। कालिदास और प्रियंगुमंजरी, अपने एक सेवकों के दल के साथ, कालिदास के पुराने गाँव आते हैं। कालिदास तो मल्लिका से मिलने नहीं जाता, लेकिन प्रियंगुमंजरी जाती है। वह मल्लिका से सहानुभूति जतलाती है और कहती है की वह उसे अपनी सखी बना लेगी और उसका विवक किसी राजसेवक से करवा देगी। मल्लिका ऐसी सहायता से साफ़ इनकार कर देती है।

नाटक के तृतीय और अंतिम खंड में कालिदास गाँव में अकेले ही आ धमकता है। मल्लिका तक ख़बर पहुँचती है के कालिदास को कश्मीर का राज्यपाल बना दिया गया था लेकिन वह सब कुछ त्याग के आ गया है। निस्सहाय मल्लिका तब तक एक वैश्या बन चुकी है और उसकी एक छोटी से बेटी है। कालिदास मल्लिका से मिलने आता है लेकिन, मल्लिका के जीवन की इन सच्चाइयों को देख, पूरी तरह निराश होकर चला जाता है। नाटक इसी जगह समाप्ति पर पहुँचता है।

नाटक के एक समीक्षक (क्रिटिक) ने कहा है के नाटक के हर खंड का अंत में "कालिदास मल्लिका को अकेला छोड़ जाता है: पहले जब वह अकेला उज्जयिनी चला जाता है; दूसरा जब वह गाँव आकर भी मल्लिका से जानबूझ कर नहीं मिलता; और तीसरा जब वह मल्लिका के घर से अचानक मुड़ के निकल जाता है।"

यह खेल दर्शाता है कि कालिदास की महानता पाने के प्रयास की मल्लिका और कालिदास को कितनी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ती है। जब कालिदास मल्लिका को छोड़कर उज्जयिनी में बस जाता है तो उसकी ख्याति और उसका रुतबा तो बढ़ता है लेकिन उसकी सृजनशक्ति चली जाती है। उसकी पत्नी, प्रियंगुमंजरी, इस प्रयास में जुटी रहती है के उज्जयिनी में भी कालिदास के इर्द-गिर्द उसके गाँव जैसा वातावरण बना रहे "लेकिन वह स्वयं मल्लिका कभी नहीं बन पाती।" नाटक के अंत में जब कालिदास की मल्लिका से अंतिम बार बात होती है तो वह क़ुबूल करता है के "तुम्हारे सामने जो आदमी खड़ा है यह वह कालिदास नहीं जिसे तुम जानती थी।"

नाटककार की टिप्पणी : अपने दूसरे नाटक ("लहरों के राजहंस") की भूमिका में मोहन राकेश नें लिखा कि "मेघदूत पढ़ते हुए मुझे लगा करता था कि वह कहानी निर्वासित यक्ष की उतनी नहीं है, जितनी स्वयं अपनी आत्मा से निर्वासित उस कवि की जिसने अपनी ही एक अपराध-अनुभूति को इस परिकल्पना में ढाल दिया है।" मोहन राकेश ने कालिदास की इसी निहित अपराध-अनुभूति को "आषाढ़ का एक दिन" का आधार बनाया।"

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