Saturday 24 May 2014

सीमा-रेखा का प्रतिबन्ध और बन्धन का बोध !

एक कविता से असहमति :

सीमा-रेखा का प्रतिबन्ध और बन्धन का बोध !
DrSony Pandey – ...सीमा रेखा...
"मैँने बनायी है सीमा रेखा/ रिश्तोँ मेँ/ सम्बन्धोँ मेँ/ मित्रता मेँ/ और चाहती हूँ/ करना पूरी निष्ठा से/ अनुपालन अपनी सीमाओँ का/ ये बन्धन नहीँ/ एक अनुशासित रेखा है/ जो मुझे निरन्तर/ रोकती है अतिक्रमण से।“ - सोनी

मित्र, मैं असहमत हूँ इस बिन्दु पर...
मेरी समझ है कि फ्रांसीसी दार्शनिक रूसो द्वारा यह सच ही कहा गया है –
“इन्सान स्वतन्त्र जन्म लेता है, परन्तु आजीवन बन्धनों में बंधा रहता है.”

मानव-समाज के विकास की कथा बन्धनों से मुक्ति की कामना को रूपायित करने की लालसा के चलते विफल-सफल विद्रोह की कथा है. इन्सान के सामाजिक प्राणी होने के नाते धरती के प्रत्येक देश में आदिम कबीलाई मातृप्रधान समाज-व्यवस्था से लेकर आज की पुरुष-प्रधान पूँजीवादी समाज-व्यवस्था तक समाज के विकास की प्रत्येक मन्जिल पर शासक वर्गों के निहित वर्गीय स्वार्थों के अनुरूप ही उस व्यवस्था विशेष को चलाते रहने के लिये नियम-क़ानून और मान्यताएँ बनती-बिगड़ती रही हैं. और फिर समाज-व्यवस्था के विकास के अगले चरण के साथ ही नयी-नयी मान्यताएँ बनती और स्थापित होती रही हैं. पुरानी मान्यता और नयी मान्यता के बीच भी पुरानी व्यवस्था और नयी व्यवस्था की ही भाँति आमरण संघर्ष भी जारी रहते रहे हैं. मार्क्स के दर्शन ‘द्वंद्ववाद’ का ‘निषेध के निषेध का नियम’ इसको भी सूत्रबद्ध करता है. इस नियम के अनुसार किसी भी वस्तु के एक गुण का उद्भव होने पर उस वस्तु के पिछले गुण का लोप हो जाता है.

चूँकि इन्सान की सभी मान्यताएँ उस सामजिक व्यवस्था की अधिरचना का अंग होती हैं, जिसमें वह पैदा होता है और जीवन बिताता है. अतएव प्रत्येक व्यवस्था में जी रहा प्रत्येक इन्सान अधिकतर दूसरों द्वारा - सत्ता, समाज और परिजनों द्वारा आरोपित सीमाओं के अदृश्य बन्धनों में जकड़ा रहता है और उनसे शासित होता रहता है. ‘मान्यताओं’ की इन सीमाओं को ही गरिमा-मण्डित करने के लिये ‘मर्यादाओं’ का नाम दिया जाता है. इन बन्धनों को ही राहुल बाबा “दिमागी गुलामी’’ कहते हैं. इनको जैसे का तैसा मान लेना ‘अन्धविश्वास’ कहलाता है. स्वयं विचार किये बिना इनके अनुकरण को ही ‘अन्धानुकरण’ कहते हैं. ये मान्यताएँ इन्सान के व्यक्तित्व के विकास को अगली मन्जिल तक पहुँचने में अवरोध साबित होती रही हैं.

इन बन्धनों के साथ ही इन्सान द्वारा स्वयं ही ख़ुद पर आरोपित सीमा-रेखाएं भी देखते-देखते स्वयमेव ही उसके अपने व्यक्तित्व के बन्धन बन जाती हैं. किसी भी साधक को अपनी सारी सीमाओं को तोड़ देने के बाद ही पूर्ण सिद्धि का चरम उत्कर्ष उपलब्ध हो पाता है. हर ‘हद से गुज़र जाने’ के बाद ही हमें हमारी साधना के चरम पर पहुँच जाने की सुखद अनुभूति हो पाती है. हमारे विचारशील पूर्वजों द्वारा “‘स्व’ के विरुद्ध संघर्ष” में इसी कथ्य को सूत्रबद्ध किया गया है.

'सीमा-रेखा का अतिक्रमण' इन सभी जड़ हो चुकी प्रतिकूल मान्यताओं के उल्लंघन का ही नाम है. प्रत्येक पुरानी पीढ़ी जीवन की प्रत्येक अग्र-गति से हर-हमेशा भयभीत रहती रही है. वह नयी पीढ़ी पर बलात् थोपे रखने के लिये अपने मूल्यों और मान्यताओं की सीमा-रेखाओं के रूप में अपनी जड़ता को ही आभा-मण्डित करती है. वह नयी पीढ़ी के प्रतिवाद, प्रतिरोध और विद्रोह को नियन्त्रित करने की मंशा मात्र से ही परिचालित होती है. समाज की प्रत्येक प्रगति और इन्सान के प्रत्येक विकास के विरुद्ध ‘अनुशासन’ का नाम दे कर अगली पीढ़ी को भयाक्रान्त करने के लिये ही हमारी पिछली पीढ़ी ने हम पर और उसकी पिछली पीढ़ी ने उस पर तरह-तरह के प्रतिबन्ध लगाये हैं. ऐसे सभी प्रतिबन्धों को ही ‘वर्जना’ का नाम दिया गया है. इस तरह 'अनुशासन और वर्जना' के रूप में प्रत्येक पिछली पीढ़ी ने समाज पर अपनी मान्यताओं को ही आरोपित किया है और करती चली आयी हैं. वर्जनाओं से मुक्ति परम्पराओं के विरुद्ध विद्रोह के बिना असम्भव है. मान्यताओं के बन्धन को अक्सर अतार्किक होने पर भी हम ‘लोक-भय’ के चलते अपनी चेतना के विरुद्ध चुपचाप मन मार कर ढोते रहते हैं.

सीमाओं के अतिक्रमण को सदैव ही लोक-निन्दा के ज़रिये अवरुद्ध किया गया है. परन्तु लोक-मत सदा ही तर्क-परक और अनुकरणीय ही हो - ऐसा आवश्यक नहीं. ऐसा भी देखने में आया है कि कई बार लोक-चेतना भी ठहराव का शिकार हो जाती है और लोकमान्यताएं रूढ़ हो जाती हैं. इस ठहराव को तोड़ कर लोक-चेतना की गति को और त्वरण तभी मिल पाता है, जब विद्रोही तब तक की समस्त जनविरोधी परम्पराओं और उनके द्वारा निर्मित तथाकथित वर्जनाओं के जाल को तोड़ कर नये मूल्यों और मान्यताओं की नयी लकीर खींचते हैं.

प्रत्येक विद्रोह की सफलता के बाद ही एक नूतन संस्कृति का उद्भव होता है. उस संस्कृति के चिन्तन के रूप में अब लोक के सम्मुख नये मूल्य और नयी मान्यताएँ होती हैं, जो पहले से अधिक तर्कसम्मत, जनपक्षधर और हितकर होती हैं. मनुष्यता ने आदिविद्रोही स्पार्टकस से आज तक अगणित विद्रोहों के बाद ही अपने वर्तमान विकसित स्वरूप तक पहुँच सकने की उपलब्धि हासिल की है. अभी भी जन-जीवन में अनेक ऐसे द्वंद्व हैं, जिनको यथावत स्वीकारने से नयी पीढ़ी इन्कार कर रही है.

जीवन और विज्ञान दोनों ही जनविरोधी मान्यताओं से मुक्ति के लिये सतत संघर्ष करते रहे हैं. कोई समय था, जब मनुस्मृति के नियमों को पूरी कठोरता से लागू किया जाता था. तब “न नारी स्वातन्त्र्यमर्हति” की परिस्थिति थी. आज नारी-मुक्ति-आन्दोलन उसे पूरी तरह से नकार चुका है. परन्तु समाज इस बिन्दु पर अभी भी संघर्षरत है. कन्या-भ्रूण-हत्या और ‘खाप-संस्कृति’ इसी के प्रमाण हैं. परन्तु निकट भविष्य में ही वह समय भी आने जा रहा है, जब प्रत्येक अन्य प्रतिगामी मूल्य की तरह नारी-मुक्ति के प्रशस्त पथ के ये अवरोध भी काल-कवलित हो जायेंगे. तब ये भी छुआछूत, बाल-विवाह, सती-प्रथा और पर्दा-प्रथा की तरह ही केवल बच्चों को सुनायी जाने वाली कहानियों के विषय बन कर रह जायेंगे.

अनुशासन भी शासन ही है - आत्मारोपित शासन. शासन चाहे जिस भी रूप में हो, सहजता का विरोधी होता ही है. सहजता ही सुखकर होती है. सहजता ही हितकर होती है. मानव जाति की विकास-यात्रा का चरम लक्ष्य सहज और समतामूलक समाज-व्यवस्था की स्थापना है. विश्व-क्रान्ति के पुरोधा आचार्य महान माओ का यह कथन भी विचारणीय है –
“TO REBEL IS RIGHT”.

इसी सन्दर्भ में मेरी कविता के निम्न अंश प्रस्तुत हैं -

“जब तक व्यक्ति स्वतन्त्र नहीं होगा चिन्तन के भ्रम से;
नहीं गुलामी की बेड़ी को काटेगा निज श्रम से।

तब तक नारे बड़बोलेपन का आभास भरेंगे;
कोरे आदर्शों का तो सब ही उपहास करेंगे।

आगे बढ़ कर बलिदानों के जो आदर्श दिखाते;
जो समूह को साथ उड़ाते, चमत्कार कर जाते।

अँखुआयी कोंपल के कोमल पत्तों जैसे लाल;
नन्हे हाथ सदा ही काटे हैं शोषण के जाल ।“ - गिरिजेश (24.5.14.)

टिप्पणी :
DrSony Pandey प्रथम तो आभार . एक छोटी सी कविता की इतनी लम्बी और स्तरीय समीक्षात्मक विरोध के लिऐ ।

आगे . मैँ एक बार्डर लाईन की समर्थक हूँ , दो शब्दोँ मेँ अपनी बात समाप्त करुँगीँ . प्रकृति भी अपने द्वारा निर्धारित नियमोँ का अनुपालन चाहती है . अतिक्रमण होते विनाश . अतः मानव सभ्यता के सुचारु संचालन के लिऐ सीमा रेखा आवश्यक है ।

Upadhyaya Pratibha आत्मानुशासन मानव जीवन का सहज हिस्सा है, वह व्यक्तित्व विकास में सहायक है.
मनुष्य ही नहीं , प्रकृति तक अनुशासित है
आत्मानुशासन का अभाव उच्श्रृंखलता है.

Vishnu Tiwari bahut behatar .

Awadhesh Dubey मान्यताओं’ की इन सीमाओं को ही गरिमा-मण्डित करने के लिये ‘मर्यादाओं’ का नाम दिया जाता है. इन

Awadhesh Dubey अँखुआयी कोंपल के कोमल पत्तों जैसे लाल;
नन्हे हाथ सदा ही काटे हैं शोषण के जाल ।“

Tiwari Keshav agree comrade

Shail Tyagi Bezaar swatantra aur uchchhrinkhalta kee vibhajak rekha ati sookshma hai. Inka nirpeksh nirdhaaran kadachit asambhav hai

Shamim Shaikh bahut achchi bat kahi aapne,

नवमीत सहमत

DrSony Pandey कामरेड ! सूरज को कभी पश्चिम से उगते देखा है .?

Ashutosh Singh Kaushik जिस तरह से किसी भी देश के पुरे संविधान को बदलकर नया संविधान नहीं बनाया जा सकता है ! हाँ यदि कुछ नियम या क़ानून असामयिक और निरर्थक हो गए है तो उसमे बदलाव जरुरी होता है !!उसी तरह हमारे बुजुर्गों और पूर्वजों ने स्थिति और परिस्थिति के अनुसार जो नियम बनाये थे उन्ही का अनुकरण हमलोग आज तक कर रहे हैं ! हाँ स्थिति और परिस्थिति के अनुसार इसमें भी कुछ नियम हटाये या जोड़े जा सकते हैं ! पर उसे पूरी तरह से अव्यवहारिक कहना अतार्किक और अवैज्ञानिक है !! 5000 सालों से हम उसका अनुकरण करके आज भी समाज में व्यवस्था कायम रखने में सफल हुए हैं !! यह अचानक गलत हो गया ऐसा कहना अनुचित भी है !

Girijesh Tiwari नहीं, सूरज का उगना ही हमारा भ्रम है. दर असल उगना और डूबना दोनों ही धरती और चन्द्रमा का होता है और यह उनकी गति के कारण होता है. हम धरती के सापेक्ष सूरज को उगते डूबते देखते हैं और मानते भी हैं.

Ashutosh Singh Kaushik क्षमा चाहता हूँ गिरिजेश जी ,इसी उदहारण को किसी बच्चे या फिर अनपढ़ व्यक्ति को समझा कर देखिये !! समाज किसी विषेस व्यक्ति के लिए नहीं है ! समाज तो हर तरह के लोगों का है...जितना सरल भाषा में बताएँगे/समझायेंगे उतना ज्यादा सरल होगा !! और इसे जितना पेचीदा बनायेगें उतना पेचीदा बनता जाएगा !!

DrSony Pandey कामरेड भ्रम ही सही . उसके उदय और अस्त के नियम चक्र पर जीवन आगे बढता है .ठीक उसी प्रकार जैसे स्वस्थ रहने के लिऐ एक अनुशासित जीवन शैली आवश्यक है उसी प्रकार सम्बन्धोँ मेँ भी दायरा आवश्यक है

Girijesh Tiwari मित्र Ashutosh Singh Kaushik जी, सहमत हूँ.

Girijesh Tiwari मित्र DrSony Pandey जी, मैं इस रूप में आपकी बात का समर्थन कर रहा हूँ.

Tiwari Keshav aap sahi kah rahe hain. com jo pratikriyayen mai padh raha hoon. usme aap k kahe se taul raha hoon. yahi suruwati jabab aayenge. is se hi niklna nikalna hoga com..

Girijesh Tiwari मित्र Tiwari Keshav जी, मैं आपकी बात समझ रहा हूँ. जीवन का दर्शन अलग स्तर की चीज़ है. और ख़ुद जीवन अलग. मैंने इस कविता के बहाने मानव सभ्यता और संस्कृति के विविध मूल्यों मान्यताओं के वैज्ञानिक पक्ष का विश्लेषण करने की कोशिश की है.

DrSony Pandey कामरेड बस इतना ही मेरा कहना बा कि आपके कहे का मैँ शतप्रतिशत समर्थन करती हूँ . प्राचीन जड मान्यताओँ को ध्वस्त करना हमारा सबसे बडा दायित्व है और हम उसका प्रबल विरोध करते रहेँगे ।

 
Prabhunath Singh Mayank "सा विद्या या विमुक्तये"
जो समग्र जीवन में प्रत्येक स्तर पर प्रत्येक काल-खण्ड में बन्धनों से मुक्ति के लिये प्रयोजन-माध्यम बनती है, उसे ही वास्तविक विद्या कहा जाता है. वह संज्ञान के स्तर पर चेतना की सत्य एवं न्याय सम्बलित पराकाष्ठावस्था है, जहाँ जड़ता, अन्धविश्वास, रूढ़ियों और निर्जीव परम्पराओं के लिये स्थान ही नहीं है. समग्र सृष्टि में प्रकृति और पुरुष के बीच सम्बन्धों का गुरुत्वाकर्षण सहज रूप से नियोजित है. देश-काल-परिस्थिति के अनुसार प्रकृति नित्य नूतन सृष्टि का विस्तार करती है. किन्तु महाचिति उसके प्रत्येक क्रियाकलाप में निर्माण का सहज आधार बनती है.

यह सहजात प्रवृत्ति ही जीवों के आनन्द, शान्ति, समरसता, बन्धुता और निर्लिप्त कर्म को अग्रसर करती है. जो फूल आज अपने सौरभ, सौन्दर्य और आकर्षण का इन्द्रजाल बिखेरता है, वह बासी होकर धूल में मिल जाता है. इतिहास में नित्य नूतनता का आकर्षण वैश्विक समाज के लिये क्रान्तिकारी भूमिकाएँ निभाने में अनुप्रेरक बनता है. जो अन्धानुवर्ती हैं, वे बजबजाते नाबदान के अदृश्य कीड़ों की भाँति अन्धकार में अज्ञात रूप से विलीन हो जाते हैं. जिन शक्तिमानों ने क्रान्ति की बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहुति दी, वे ही इतिहास-पुरुष बन कर आने वाली पीढ़ियों के लिये दृष्टान्त बनते हैं. वेद, पुराण, महाकाव्य, उपनिषद और इतिहास के पन्नों में अंकित ऊर्जावान व्यक्तित्व कालजयी प्रमाण बन चुके हैं.
‘क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः’.
रमणीयता अथवा सुन्दरता क्षण-क्षण में उत्पन्न होने वाली नवता में ही निहित रहती है. जीवन की इतिहास-धारा नवीनता के अमृत में घुल कर सभ्यताओं के सन्दर्भ रचती हुई अनन्तता की ओर निरन्तर सरित है.

उक्त विचार-बिन्दु को कविता में ढालते हुए मैंने कहा था –

“बह रहे ब्रह्माण्ड की बीहड़ तरलता
कठिन घटकों के स्थगन-सी
पृथक पर समवाय कणचयधार क्रीडा-भ्रान्ति-सी रूपान्तरित होती,
काल का मुचकुन्द जिसमें नींद बन कर
देखता सपना त्वरणवह
प्रलय-सर्जन का
कि सपने के फलक पर
भास्वरित अणु-सूर्य की
घटना-विघटना
थिरकना-बजना
दिशा-गति समर-तन्त्रों का
सभी कुछ देखता है.
देखता है -
एक स्वप्निल सत्य
पीता ऊर्जा के स्रोत
गत्वर चेत क्षीरायण
सर्जना-सम्वाह
संज्ञा-जनक शिल्पी
चला कर भ्रमि अग्निवेधी
या कि चुम्बन-सूत्र
नृत्य-विह्वल निम्बुला की झलमलाती लट्टुओं की ज्वाल-माला
गूँथता है.
देखता है –
जिजीविषु को रास करते
तनावों के वृत्त में नित न्यूक्लियस-सा.”

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