Saturday 12 July 2014

"बरिस अठारह छत्री जीये, आगे जीये तो धिक्कार..!"



मेरे प्यारे आदम,
तुम्हारा यह प्यार-वार तो सब बहुतै ठीक है.
क्या कहना तुम्हारे अन्दाज़-ए-बयाँ का !
मैं तुमसे पूरी तरह संतुष्ट हूँ !
तुम्हारे कड़ी कसरत से कमाये गये ताकतवर शरीर से,
तुम्हारी धार से, तुम्हारी ऊँचाई से, तुम्हारी लोकप्रियता से,
और सबसे अधिक तुम्हारे स्वनिर्मित बहुआयामीय व्यक्तित्व से !

मगर प्यारे, लगता है एक चूक हो गयी आज तुमसे !
मुझे लगता है तुमको मेरी उमर के बारे में शायद सटीक अन्दाज़ नहीं है....
तुमको भी मुझे यही लगता है कि भरम हो गया है कि 'तुम्हारा गुरुवा' 'बुढऊ' हो गया है....

आओ तुमको आज एक रहस्य बताता हूँ....
देखो, यह रहस्य अपने तक ही महदूद रखना...
किसी और को पता न चलने पाये...
वरना बात चोटा की तरह पसर कर सब तरफ़ फैल जायेगी...
और तब मेरा इतना गुप्त रहस्य पूरी तरह खुले रहस्य में तब्दील हो जायेगा...
बात फैल जाने पर रहस्य को गुप्त रखने का का सारा मज़ा किरकिरा हो जायेगा....

मेरा 'सफ़ेद-सफ़ेद मेकअप' बहुतों को गफ़लत में डाल देता है...
इसे देख कर एक 'सीनियर सिटिज़न' भी सटक गये....
उनको मुझसे सवाल करने के बहाने बात करने की सूझी...
मामला लीडराबाद का था...

अगल-बगल मेरे कुछ मानस-पुत्र भी मौज़ूद थे....
उन सब का तो यही कहना और मानना है -
"गुरुजी, आप कुछ नहीं समझते... आप बच्चे हैं..."

खैर शायद मैं मेन मुद्दे से थोड़ा-बहुत भटक रहा था...
आओ वापस मुद्दे पर चला जाये...
वरना बात 'गुलाब से शुरू होकर गोबर तक' चलती चली जायेगी...

हाँ, तो उस सज्जन को सवाल पूछने की सनक चढी...
वह आगे-पीछे अगल-बगल देखने की ज़रूरत भी समझने से बाज आ चुके थे...
उनको तो पूछना ही था...
सो पूछते भये....

उनका पहला सवाल था -
"गुरुजी, आपकी उमर कितनी है?"
मैंने उत्तर दिया -
"मेरी उमर केवल अट्ठारह साल ही है."
उनको यकीन नहीं हुआ...
बोले - "सच बताइए, मुझको बहकाइए मत..."
मैंने कहा - " हे मित्र, दुनिया जानती है कि मैं झूठ नहीं बोलता...
मैं तो जब भी बोलता हूँ, तो केवल सच ही बोलता हूँ....
और जब बोलने लायक सच नहीं रहता, तो नेताओं की तरह पट से बोल देता हूँ -
"नो कमेन्ट !"
भाई मेरे, मेरी उमर वास्तव में अट्ठारह साल ही है. जिस तरह आज मेरी उमर अट्ठारह साल है, वैसे ही आज से दस साल पहले भी अट्ठारह साल ही थी. उससे भी दस साल पहले वैसे ही अट्ठारह साल ही थी. और उससे भी पहले वैसे ही...

देखिए हमारे पुरखों ने कहा है -
"बरिस अठारह छत्री जीये, आगे जीये तो धिक्कार..!"
इसीलिये मैं मरने तक अट्ठारह साल का ही रहूँगा...
बिना किसी फेर-बदल के...
क्योंकि मेरी ज़बान और पत्थर की लकीर मिट तो सकते हैं. मगर किसी हालत में बदल नहीं सकते...."

तो यह तो रहा उनके पहले सवाल का जवाब !
कुछ संतुष्ट और कुछ अचरज के साथ उन्होंने दूसरा सवाल भी तड़ से दाग दिया...
पूछने लगे - "आपके बच्चे कितने हैं ?"
मैंने कहा - सही बताना तो बहुत मुश्किल है, मगर अंदाज़न यही लगभग हज़ार, दो हज़ार..."

अब उनको केवल अचरज ही होना बाकी था.
तीसरा सवाल कसमसा कर पूछ ही तो बैठे....
बोले - "आप का परिवार ?"
मैंने कहा - "मैंने तो शादी ही नहीं किया...
मेरे ये सभी बेटे-बेटियाँ ही मेरा परिवार हैं..."
इनमें से किसी से भी पूछ लीजिये कि ये मेरा परिवार हैं या नहीं..."
सब के सब एक स्वर से बोलने लगे - "गुरूजी, हम सब ही आपका परिवार हैं..."

तब तक उनको दुनियादारी समझ में आ चुकी थी...
इसलिये चालाकी दिखाते हुए सवाल किया - "अच्छा, आपकी सम्पत्ति ?"
मैंने कहा - मेरी सम्पत्ति मेरी ज़ेब या बैंक में नहीं रहती...
मेरी सम्पत्ति मेरे बच्चे ही हैं...
इनका सब कुछ मेरा ही है...
और इनको देने के लिये मेरे पास मेरी महज़ एक चीज़ ही है...
और वह है मेरा दिमाग !"

अब उनका 'तरकश' खाली हो चुका था...
मैंने उनको दोनों हाथ जोड़ कर नमस्ते किया और मस्ती से आगे चल दिया....

हाँ, तो यह हुई न बात...
और अब जब यह सब बात पूरी हो ही गयी...
तो फिर तो तुमने जो अभी मुझको 'बुढ़ऊ" कहा तो कहा...
अब कभी 'बुढ़ऊ-सुढ़ऊ' कहना मत...
नहीं, तो समझ लो, हाँ...
दोनों कान गरम कर दूँगा...."

ढेर सारे प्यार के साथ - तुम्हारा गिरिजेश
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मेरे प्यारे आदम का आज ही का वह पत्र, जिसका यह जवाब है -

हमरा गुरूवा ( मेरे हिस्से का सच)
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सुनो बुढऊ!
तुम्हे देख कर आज भी मुझे आश्चर्य होता है कि कोई इतना क्षमतावान और सतत संघर्ष के लिए बिना किसी आलम्ब और आश्रय कैसे इतनी ऊर्जा धारण कर सकता है .....

मैं तुम्हे तब से जानता हूँ जब तुम नौ साल के एक बच्चे को उसकी पहली कहानियों की किताब "चंपक" लाकर दिए थे । जिंदगी भर ठेले पर रूपये लाद कर उन्हें ठोकर मारने वाले तुम, हमेशा मेरे लिए एक अपूर्ण स्वप्न ही रहोगे क्यों कि मैं जानता हूँ कि लाख चाहने के बाद भी मैं एक दूसरा "तुम " नहीं हो सकता।

तुम्हे पता है जब आलमारी के पायदान पर पैर रखकर जूता साफ़ करने वाले आठवीं कक्षा के एक बच्चे को तुमने इतना जोर का झापड़ मारा था की आँखों के सामने नाचती चिंगारियाँ आज भी याद हैं मुझे, वह बच्चा तुम्हे बहुत गरियाया था कि इतनी छोटी बात के लिए तुमने उसे मारा ,आज मैं समझ सकता हूँ कि उसी छोटी बात के तुम्हारे करारे थप्पड़ की वजह से मैं आज गलतियाँ करने से पहले एक बार हिचकिचाता जरूर हूँ और थप्पड़ के लिए आभार तो जताया नहीं जा सकता है .......

दसवीं में तुमने मुझे अपने स्कूल से निकाल दिया, काहे कि मैं एक लड़की के सामने उस समय का फेवरेट गाना " आइ लव यू " (औजार ) गा रहा था ,मुझे लगा की तुम अविवाहित संवेदनहीन एक यांत्रिक मानव हो जिसे बस आदर्शों में जीना ही आता है लेकिन आज मुझे पता है कि तुममे मेरे लिए कुछ ज्यादा ही संवेदना थी जिसे अपनी कठोरता के आवरण में छिपाए रखा था तुमने .....

तुम्हारी गुस्से वाली आँखे देख कर मैं तब भी डर जाता था और सच कहूँ तो आज भी डर जाता हूँ काहे कि भले ही तुम जानते हो कि आज तुमको पटक दूँगा मैं, तुम अपना डंडा उठाकर कभी भी पीट सकते हो मुझे जब तुम्हे लगे की इसकी जरूरत है।

जब हिम्मत कहीं भी टूटती न हो तो कहीं न कहीं सनक का रूप ले लेती है और तुम ऐसे ही सनकी हो ................

हर बार तुम मेरे सामने मुस्कुराते थे जब तुम यह चाहते थे कि मैं पढूँ, दुनिया को जानूँ, तुम जानते थे की तुम्हारी सब कठोरता के बाद भी मैं करूँगा वही जो मैं चाहूंगा तुमने बड़ी कोमलता से चंपक की कहानियों को प्रेमचंद ,राहुल सांकृत्यायन, मैक्सिम गोर्की और समग्र जीवन दर्शन में बदल दिया.............

ई तो यार चाल थी तुम्हारी, तुम्हारी चतुराई........
ई के लिए भी मैं तुमको आभार प्रकट कर के तुम्हरी समझदारी का अपमान थोड़े न करूंगा।

लम्बे समय तक मैं तुम्हे बेकार मान कर तुम्हे भुलाया रहा, तुमसे भागता रहा लेकिन तुमने मेरी प्रतीक्षा की.......
और जब मैं अपने टूटन के सबसे कमज़ोर समय में तुमसे मिला, तुम्हारे चंद शब्दों ने ही मुझे फिर से सिखाया कि क्या करना चाहिए.......
तुमसे बात कर के ही लगा की पराजय तो होती ही नहीं है , होता है तो केवल संघर्ष और लक्ष्य की प्राप्ति ।

बस एक बात टीसती है यार ......
कि तुम्हारी किसी भी रूप में कोई मदद कही किया मैंने.....
आज भी मैं अपने ही मन की कर रहा हूँ और तुम बस देख रहे हो....
लेकिन तुम देखना इस बार मैं खुद को सही साबित करूंगा.....
मैं कहूंगा तुमसे कि "अब बताइये ! आगे क्या करना है??"

मैं तुम्हारी सामर्थ्य बनना चाहता हूँ बुढऊ काहे कि मैं जानता हूँ कि तुम्हारा अड़ियल स्वभाव बुढौती में और खतरनाक होगा और इसको केवल मैं ही झेल सकता हूँ।

बस अभी कुछ समय तक तुम खुद को स्वस्थ रखो, प्रसन्न रखो और खड़े रखो क्योंकि तुम्हारे बेवकूफ़ चेले को आज भी तुम्हारी जरुरत है।

- गंभीर आदम

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