Monday 28 July 2014

"हम आज़मगढ़िया नौजवान !" — Kamla Singh 'तरकस'

Photo: "हम आज़मगढ़िया नौजवान !"  —  Kamla Singh 'तरकस'
हम आज़मगढ़िया नौजवान, मुश्किल है अपना वर्तमान;
आतंकवाद की नहीं खान, अपने भी पुरखे थे महान;
ऊसर की मड़ई में मकान, अलबेली अपनी आन-बान;
हम रहते हैं तमसा-तीरे, बढ़ रहे क़दम धीरे-धीरे;
तमसा लहरों की छिड़ी तान, हम आज़मगढ़िया नौजवान !

राहुल शिबली हरिऔध नाम, शैदा कैफ़ी गुरुभक्त श्याम;
साहित्य-जगत में रहा मान, हरिहरपुर का संगीत-गान; 
है यहाँ शहीदानी मस्ती, सौदागर सिंह की यह बस्ती;
मिट्टी की भी पहिचान बनी, है होड़ काल के साथ ठनी;
इतिहास कर रहा है बखान हम आज़मगढ़िया नौजवान !

काली मिट्टी की पात्र-कला, पुश्तैनी है प्रख्यात कला;
बर्तन निज़ामबादी तमाम, है दूर-दूर मशहूर नाम;
बुनकर लोगों की रही भूमि, शायद कबीर की यही भूमि;
सठियाँव निकट का लहरपार, है यहीं मुबारकपुर बाज़ार;
रेशमी साड़ियों की है खान, हम आज़मगढ़िया नौजवान !

शिक्षा में है हो रहा पतन, मिट्टी में मिल खो रहे रतन;
खो गयी कहाँ है आज अकल, सबके सिर पर है चढ़ी नक़ल;
ट्यूशनी पढ़ा पढ़ रहे छात्र, शिक्षा लेने के सभी पात्र;
इसकी उसकी औकात जान, दर्जनों चल पड़ी हैं दुकान; 
सिखलाता कोई नहीं ज्ञान, हम आज़मगढ़िया नौजवान !

हैं यहाँ कई तो अस्पताल, पर ठीक नहीं है हाल-चाल;
हैं कई निजी, कुछ सरकारी, पर जान बचाना है भारी,
निर्धन, बीमार, गँवार शहर, झोलाछापों पर ही निर्भर;
मासूमों को ही है ठगती, मन्दिर-मस्जिद में है बसती; 
ओझा-सोखा की भी दूकान, हम आज़मगढ़िया नौजवान !

बाज़ार यहाँ दूकान यहाँ, रिश्वत का कारोबार यहाँ;
गायब उद्यम औ’ रोज़गार, धन्धे अवैध बढ़ते अपार;
बैंकों का कोई नहीं अर्थ, ग्रामीण गरीबों को है व्यर्थ;
धनिकों को ही देते हैं धन, है सूदखोर का खूब चलन;
विकलांग बना शासन-विधान, हम आज़मगढ़िया नौजवान !

हो रहा पलायन घोर नरक, लुधियाना, दिल्ली, सउदी तक;
पत्नी-बच्चे, माँ-बाप छोड़, रोटी की करने चले होड़;
रोती ममता दिल रहे टीस, शोषण की चक्की रही पीस;
ज़िन्दगी पीढ़ियाँ-दर-पीढ़ी, यातनापूर्ण ही हर सीढ़ी;
हर पल उत्पीड़न कठिन प्रान, हम आज़मगढ़िया नौजवान !

है गढ़ा जा रहा फिर यह गढ़, होगा जो निश्चय ही बढ़-चढ़;
कुछ कदम चल पड़े आगे बढ़, रचने को कल का आज़मगढ़;
जो जुटा सकेगा पुनः मान, देगा भविष्य ही समाधान;
आँखों में अपनी हैं सपने, यूँ जूझ रहे हैं सब अपने; 
अब तो ज़िद में है लिया ठान, हम आज़मगढ़िया नौजवान !

हम आज़मगढ़िया नौजवान, मुश्किल है अपना वर्तमान;
आतंकवाद की नहीं खान, अपने भी पुरखे थे महान;
ऊसर की मड़ई में मकान, अलबेली अपनी आन-बान;
हम रहते हैं तमसा-तीरे, बढ़ रहे क़दम धीरे-धीरे;
तमसा लहरों की छिड़ी तान, हम आज़मगढ़िया नौजवान !

राहुल शिबली हरिऔध नाम, शैदा कैफ़ी गुरुभक्त श्याम;
साहित्य-जगत में रहा मान, हरिहरपुर का संगीत-गान;
है यहाँ शहीदानी मस्ती, सौदागर सिंह की यह बस्ती;
मिट्टी की भी पहिचान बनी, है होड़ काल के साथ ठनी;
इतिहास कर रहा है बखान हम आज़मगढ़िया नौजवान !

काली मिट्टी की पात्र-कला, पुश्तैनी है प्रख्यात कला;
बर्तन निज़ामबादी तमाम, है दूर-दूर मशहूर नाम;
बुनकर लोगों की रही भूमि, शायद कबीर की यही भूमि;
सठियाँव निकट का लहरपार, है यहीं मुबारकपुर बाज़ार;
रेशमी साड़ियों की है खान, हम आज़मगढ़िया नौजवान !

शिक्षा में है हो रहा पतन, मिट्टी में मिल खो रहे रतन;
खो गयी कहाँ है आज अकल, सबके सिर पर है चढ़ी नक़ल;
ट्यूशनी पढ़ा पढ़ रहे छात्र, शिक्षा लेने के सभी पात्र;
इसकी उसकी औकात जान, दर्जनों चल पड़ी हैं दुकान;
सिखलाता कोई नहीं ज्ञान, हम आज़मगढ़िया नौजवान !

हैं यहाँ कई तो अस्पताल, पर ठीक नहीं है हाल-चाल;
हैं कई निजी, कुछ सरकारी, पर जान बचाना है भारी,
निर्धन, बीमार, गँवार शहर, झोलाछापों पर ही निर्भर;
मासूमों को ही है ठगती, मन्दिर-मस्जिद में है बसती;
ओझा-सोखा की भी दूकान, हम आज़मगढ़िया नौजवान !

बाज़ार यहाँ दूकान यहाँ, रिश्वत का कारोबार यहाँ;
गायब उद्यम औ’ रोज़गार, धन्धे अवैध बढ़ते अपार;
बैंकों का कोई नहीं अर्थ, ग्रामीण गरीबों को है व्यर्थ;
धनिकों को ही देते हैं धन, है सूदखोर का खूब चलन;
विकलांग बना शासन-विधान, हम आज़मगढ़िया नौजवान !

हो रहा पलायन घोर नरक, लुधियाना, दिल्ली, सउदी तक;
पत्नी-बच्चे, माँ-बाप छोड़, रोटी की करने चले होड़;
रोती ममता दिल रहे टीस, शोषण की चक्की रही पीस;
ज़िन्दगी पीढ़ियाँ-दर-पीढ़ी, यातनापूर्ण ही हर सीढ़ी;
हर पल उत्पीड़न कठिन प्रान, हम आज़मगढ़िया नौजवान !

है गढ़ा जा रहा फिर यह गढ़, होगा जो निश्चय ही बढ़-चढ़;
कुछ कदम चल पड़े आगे बढ़, रचने को कल का आज़मगढ़;
जो जुटा सकेगा पुनः मान, देगा भविष्य ही समाधान;
आँखों में अपनी हैं सपने, यूँ जूझ रहे हैं सब अपने;
अब तो ज़िद में है लिया ठान, हम आज़मगढ़िया नौजवान !

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